मैं समझ नहीं पारहा हूँ कि कहानी कहाँ से शुरु करुं। सच कहूँ तो यह आप बीती आपको सुनाने मैं संकोच हो रहा है। एक मन तो कर रहा है कि चुप रह जाऊं? दूसरा मन कहता है चुप रहूँ तो वह घटना मेरे मन में घुमड़ती रहेगी। आपसे साझा करने पर मेरे मन का भार हल्का होजाएगा।
जीवविज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ। जीवविज्ञान का शिक्षण करके ही अपनी आजीविका कमाता रहा हूँ। आज पेंशन से काम चला रहा हूँ तो भी जीवविज्ञान कारण। मैं पर्यावरण-विज्ञान को मन से पसन्द करता रहा हूँ। मैं इसे प्रक़ृति की पूजा करने वाला विषय मानता रहा हूँ। जब मैंने अधिस्नातक अध्ययन किया तब विशिष्ट अध्ययन हेतु पर्यावरण-विज्ञान विद्यार्थियों की अन्तिम पसन्द हुआ करता था। मैंने पर्यावरण-विज्ञान को प्रथम पसन्द के रूप में अंकित किया था। मेरे साथियों को कुछ आश्यर्च भी हुआ था क्योंकि अधिस्नातक पूर्वार्ध में इतने अंक मिले थे कि उस समय के लोकप्रिय विषयों में से कोई मिल सकता था। मैं अपनी पसन्द पर इतना आश्वस्त था कि मित्रों की सलाह को विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था। पर्यावरण-विज्ञान अब भी मेरा प्रिय विषय है। सेवानिवृति के बाद भी इस विषय में कोई भी नई जानकारी दिखने पर मेरी आँख वहीं अटक जाती है। यह सब आपको बताने का मेरा तात्पर्य यह जताना है कि पर्यावरण-विज्ञान विषय की मेरी समझ ठीक-ठाक है मगर मेरे एक पूर्व विद्यार्थी ने मुझे पर्यावरण-विज्ञान नए सिरे से समझाया है। इतना ही होता मैं चुप रह जाता मगर उसने तो मुझ जैसे लोगों की प्रजाति को आज के वातावरण में ‘अनफिट’ मान कर हमें ‘रेडडेटा-बुक’ के हवाले भी कर दिया है।
आधुनिक सोच से देखा जावे तो घटना कोई खास नहीं है। आजकल भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका है। लाखों रुपयों के किमीशन को सिस्टम की सामान्य प्रक्रिया मान कर स्वीकारने में कोई शर्म अनुभव नहीं की जाती हो वहां किसी बड़े अधिकारी के हस्ताक्षर कराने की फीस बचाने का प्रयास करना बुद्धिमानी तो नहीं कही जासकती। इस दृष्टि से देखें तो मेरी ही मति मारी गई थी जो मैंने एक बड़े इंजिनियर के सामने भवन सुरक्षा प्रमाण पत्र हस्ताक्षर करने के लिए रख दिया था।
हुआ यह था कि बच्ची एक विद्यालय चलाती है। आवश्यतानुसार भवन बना हुआ है। दो वर्ष पूर्व भवन सुरक्षा प्रमाण पत्र भी विभाग को प्रस्तुत किया गया था। अब अतिरिक्त माध्यम की अनुमति लेना चाहा तो पता चला कि उतनी ही औपचारिकता फिर निभानी होगी जितनी नई मान्यता लेते समय करनी होती है। इसी औपचारिकता में किसी सरकारी इंजिनियर से भवन सुरक्षा प्रमाण-पत्र लेना भी था। बच्ची को पता था कि मेरा एक पूर्व विद्यार्थी प्रमुख सरकारी विभाग में इंजिनियर पद पर लगा है। बच्ची को लगा कि यदि मैं सुरक्षा प्रमाण पत्र लेने जाऊं तो काम सरल होजाएगा वर्ना कई चक्कर लगाने पड़ेगे। बिचौलिए कितनी फीस मांगेगे इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल था।
शहर के सबसे बड़े विद्यालय में लगभग चौथाई शताब्दी तक विज्ञान पढ़ाने के कारण मेरे पढ़ाए हजारों विद्यार्थी अच्छे पदों पर नियुक्त हैं। आजकल सरकारी विद्यालय अच्छे विद्यार्थियों के लिए तरसते हैं मगर कुछ वर्षों पूर्व तक ऐसा नहीं था। सभी सरकारी विद्यालय में पढ़ते थे। विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए निजी विद्यालयों का विकल्प प्रदेश के केवल कुछ बड़े शहरों में ही उपलब्ध था। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर भी ऊँचा था। शिक्षकों के वेतन कम थे मगर ट्यूशन की मारामारी नहीं थी। प्रतिभाशाली विद्यार्थी को विद्यालय में इतना पाथेय मिल जाता था कि उसका काम चल जावे। कभी कुछ अतिरिक्त मदद की आवश्यकता भी होती तो सामान्यतः मिल जाया करती थी। आज सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन बढ़े है मगर शिक्षा में उस अनुपात में सुधार नहीं हुआ है। इस व्यवस्था के लिए केवल शिक्षकों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता मगर उनके विचार का विषय तो है ही।
आपको लग रहा होगा कि मैं विषय से भटक रहा हूँ मगर हम शिक्षकों की आदत ही विस्तार से बोलने की होजाती है। कक्षा में हर स्तर के बच्चे होते हैं, सबकों ध्यान में रखकर संबोधन करना होता है। कक्षा शिक्षण से आदत ऐसी आदत पड़ जाती है कि सामान्य वार्तालाप भी कक्षा शिक्षण की तरह करने लगते हैं। विद्यार्थी विभिन्न पदों पर होने पर भी मैंने मेरी ओर से कभी किसी से सम्पर्क करने का प्रयास मैंने नहीं किया। विभिन्न समारोह आदि में मुलाकात होने पर वे आदर पूर्वक अभिवादन करने से ही मैं प्रसन्नता अनुभव कर लेता हूँ। इंजिनियर रघुनदंन से भी एक दो बार इसी प्रकार मुलाकात हो चुकी थी। पहचान का कोई संकट नहीं था इस बात से उत्साहित होकर ही मैं बच्ची के आग्रह पर भवन सुरक्षा प्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कराने चला गया था।
रघु के सामने पहुँचने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। सामान्य प्रशासन के अधिकारियों से मिलने मैं जो औपचारिकता निभानी पड़ती है उसकी आवश्यकता नहीं पड़ी। मैंने उसकी नेम प्लेट देखी तो कुछ क्षण इंतजार किया, सोचा कोई मुझे अन्दर जाने से रोकेगा मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं पर्दा उठा अन्दर चला गया। इंजिनियर साहब अपने सहायक के साथ किसी फाइल पर च्रर्चा कर रहे थे। साहब की नजर फाइल पर टीकी थी। सहायक ने मुझे देखकर अभिवादन किया तो साबह ने भी सिर उठा कर मुझे देखा। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर जो भाव आए जैसे वह कह रहा हो कि हमारे अंगने में तुम्हारे क्या काम है। रघु ने सिर को थोड़ा झुकाकर अभिवादन किया तथा हाथ से बैठने का संकेत भी कर दिया। मेरे बैठने के साथ ही सहायक उठ कर चला गया था।
“कैसे आए सर? सब ठीक तो है?” साहब ने एक साथ दो प्रश्न कर संकेत कर दिया कि मेरे वहां पहुँचने की कल्पना नहीं थी। उनका विभाग ही ऐसा था कि किसी आम आदमी का वहां जाना नहीं होता था।
“सब ठीक ही है। बेटी ने इस कागज पर तुम्हारे हस्ताक्षर कराने को कह दिया तो चला आय़ा। सोचा इस बहाने मिलना भी होजाएगा।” यह कहते हुए मैंने भवन सुरक्षा प्रमाण पत्र का पुर्जा उसके सामने खिसका दिया।
“अच्छा तो आपका स्कूल चलता है! फिर तो आप ईमानदारी, सत्यवादिता आदि की शिक्षा आज भी बच्चों को देते होगें?” रघुनदंन ने कागज पर एक दृष्टि डालने के बाद कहा।
“हाँ सिखाते हैं। मैं तो केवल यही सीखाने स्कूल जाता हूँ। जीवन मूल्य समय के साथ बदलते नहीं है।” मैंने सहजता से कहा था।
“आपने ही हमें पढ़ाया है सर कि जो प्रजातियां अपने आपको वातावरण के अनुकूल नहीं कर पाती वे विलुप्त हो जाती है। आज का वातावरण ईमानदार व व्यवस्था पसन्द लोगों के अनुकूल नहीं है । आपकी ईमानदार प्रजाति का नाम अब ‘रेडडेटा-बुक’ में दर्ज हो चुका है। आपकी प्रजाति वितुप्त होने के करीब है। राजेश का क्या हुआ? आप जानते ही हैं। चला था भ्रष्ट्राचार नष्ट करने, स्वयं नष्ट होगया। किसी ने गोली मार कर लाश को गटर में डाल दिया था। जेब में आई कार्ड नहीं होता तो पता ही नहीं चलता कि राजेश कहाँ गया? आज के बच्चे को व्यवहारिकता सिखाई जानी चाहिए। धीरज पैसे खाकर जेल गया है तो क्या हुआ पैसे खिलाकर बाहर भी आजाएगा।” रघु ने मेरे कागज पर हस्ताक्षर कर उसे मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा।
“प्रकृति में भ्रष्ट्राचार नहीं चलता। तुम्हारी जैसी मानतसिकता के लोगों ने प्रकृति को भ्रष्ट करने का प्रयास किया है मगर आज भी दुनियां ईमानदार लोगों के कारण ही चल रही है। रेडडेटा बुक में दर्ज होने का अर्थ सदैव प्रजाति का खात्मा नहीं होता। कभी कभी पर्यावरण भी पल्टी खाकर पुनः प्रजाति के अनुकूल हो जाता है। उस प्रजाति के जीवों की संख्या फिर बढ़ने लगती है। जीवन मूल्यों के प्रति लोगों की आस्था बढ़ने लगी है। खतरा है तो तुम्हारी प्रजाति को जो अत्यन्त अल्प संख्या में होकर संसार की सम्पूर्ण संपदा को अपने घर में समेटने के प्रयास में लगी है।“
मैंने रघु की टेबल से भवन सुरक्षा प्रमाण-पत्र वाला कागज उठाया और उसके चार टुकड़े कर जेब में ऱख लिए। क्रोधित हो टुकड़ों को उसके मुँह पर मारने की अशिष्टता मैंने नहीं दिखाई थी।
- विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी
शैक्षिक योग्यता एमएससी (वनस्पति शास्त्र) राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर बी.एड. राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर
पता तिलकनगर पाली राजस्थान
लेखन १९७१ से निरन्तर विज्ञान, शिक्षा व बाल साहित्य का लेखन। लगभग १००० के लगभग रचनाएँ राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय ख्याति प्राप्त पत्रिकाओं जैसे नन्दन.देवपुत्र, बालभारती, सुमन सौरभ. बालवाणी. बाल वाटिका, बालहंस, बच्चों का देश बाल भास्कर, विज्ञान प्रगति काक राजस्थान पत्रिकाशिविरा, सरिता, मुक्ता, नवनीत ,कादम्बिनी, इतवारी पत्रिका, विज्ञान कथा, विज्ञान गंगा, बालप्रहरी, सरस्वती सुमन , दैनिक नवज्योति, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, स्पंदन, शिक्षक दिवस प्रकाशन, शैक्षिक मंथन.साहित्य अमृत. नया कारवां, आदि में प्रकाशित