सियासतदारी में हमशक़्ल होने के मायने

करिश्माओं की दुनिया में हिंदुस्तान का नाम सबसे अव्वल है। ऐसे तमाम वाक़यात में यह पता चलता है कि यहाँ इंसान मरकर न केवल दोबारा जन्म लेता है बल्कि वह पैदा होने के कुछ समय बाद ही अपने पिछले जन्म की घटनाओं के बारे में तफ़तीश से ब्योरा भी देने लगता है। यदि वह खुदा न खास्ता मरकर दोबारा पैदा नहीं हुआ तो वह भूत-प्रेत के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराकर ऐसे-ऐसे चमत्कार करने लगता है कि भोले-भाले लोग आश्चर्य के समंदर में गोते लगाने लगते हैं। लेकिन कभी-कभार ऐसा भी होता है कि किसी आदमी की सरेआम चश्मदीद मौत के कुछ समय बाद वह अलग-अलग स्थानों पर बार-बार देखा जाता है। अगर ऐसा आदमी कोई बड़ी शख़्सियत निकला तो अख़बारों में उसके बारे में ऐसे चमत्कारिक ब्योरे छपते हैं कि उन्हें पढ़ने-सुनने वाले लोग सारी गपोड़बाजी को वैज्ञानिक-तार्किक आधार पर खरा तौलने की क़वायद में जुट जाते हैं। अब इस हिंदुस्तान में ऐसी बातों में दिलचस्पी लेने वालों की तादात भी कोई कम नहीं है। निरे अंगूठाछाप लोग तो ऐसी घटनाओं की चर्चा में चटखारे ले-लेकर शिरक़त करते ही हैं; काफी पढ़े-लिखे और ऊँचे ओहदों पर तैनात अफ़सर-बाबू भी अपने महत्वपूर्ण कार्यों के बीच यार-दोस्तों में ऐसे मुद्दों को बार-बार छेड़कर अपनी पुख़्ता ज़नरल नॉलिज़ का झंडा गाड़ने में कोई गुंजाईश बाकी नहीं छोड़ते।

इस तरह देखा जाय तो लोगों की जनरल नॉलिज़ डी आर मेहता के बारे में भी कुछ कम नहीं है। बताया जाता है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है और वह घटित महत्वपूर्ण घटनाओं और उनसे संबंधित महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कुछ सालों में ही इस तरह भूल जाती है कि बार-बार याद दिलाने पर भी उसके भेजे में कुछ भी नहीं समाता। लेकिन, कोई दशक-भर बाद, जब डी.आर.मेहता. को राजधानी में देखे जाने के बारे में अफ़वाहों ने लोगों की याददाश्त पर दस्तक़ देना शुरू किया तो उन्होंने अपने कान के कपाट पूरी तरह खोल डाले। अंबेडकर गाँव से अंबेडकर नगर में तब्दील हो चुके इलाके की लगभग एक लाख जनता में इस बहसा-बहसी का बाज़ार मुनासिब टेम्परेचर से बहुत ज़्यादा गर्म है कि डी.आर.मेहता, धनीराम मिसिर का हू-ब-हू हमशक़्ल है जो अंबेडकर गाँव की नींव डालकर देश-भर में इसका अंबेडकर नगर के रूप में अस्मिता-बोध कराने का सूत्रधार बने थे।

 

सत्यार्थी स्वामी जी के भी कान खड़े हो गए। वह खुद से ही भुनभुनाने लगे, “ई स्साला मिसिर का भूत हमारे आसपास कब तक मंडराता रहेगा? हरामी के पिल्ले को दो-दो बार सपरिवार उसी के घर में अग्निदेवता की खुराक बनाने की कोशिश की गई। चलो, पहली बार तो वह किसी तरह अपने बम्हरौली गाँव में बच गया; पर दूसरी बार, उसके बचने की कोई गुंजाईश ही नहीं है; हमलोगों ने तो उसके और उसके बीवी-बच्चों के जलते हुए शरीर से ही अपना ज़िस्म सेंका था। तब, अंबेडकर गाँव का बच्चा-बच्चा उसके ख़ाक में मिलने का गवाह है। यह ज़रूर लोगों का वहम होगा।”

भुनभुनाते हुए उन्होंने जैसे ही अपना सिर उठाया और अपने सामने ब्रजभूषण को खड़ा देखा तो वे एकदम से सकपका गए–कहीं ऐसा तो नहीं कि बिरजू ने उनकी भुनभुनाहट सुन ली हो। वह ब्रजभूषण को उसके बचपन के नाम-बिरजू  से ही संबोधित करते रहे हैं।

“सत्यार्थीजी, इस बात में तनिक भी संशय नहीं है कि डी आर मेहता धनीराम मिसिर का डुप्लीकेट है। आप देखेंगे तो आप भी बड़े फ़ेर में पड़ जाएंगे। हम तो उससे बतकहिया के भी आए हैं। चेहरा-मुहरा, डील-डौल, बातचीत में भी ऊ धनीराम मिसिर का औतार लगता है।”

ब्रजभूषण ने सचमुच उनकी भुनभुनाहट सुनकर ही प्रतिक्रिया की थी।

सत्यार्थीजी अपने कान में पूरी कानी उंगली डालकर खुजलाते हुए बड़बड़ाने लगे, “बिरजू, इस दफ़े जब हम दिल्ली जाएंगे तो उस डी आर मेहता नामक शख़्स से मिलने की जुगत जरूर करेंगे। लेकिन, ये तो तय मान लो कि धनीराम मिसिर नाम का जीव अब इस धरती पर है ही नहीं।”

पर, सत्यार्थीजी की नींद तो हराम हो चुकी थी। सारी रात वह करवटें बदलते रहे। सुबह जब जगे तो उनकी आँखें नींद पूरी न होने के कारण पनीली होकर कड़वा रही थी। उन्होंने ड्राइवर ठाकुर कनखजूरा को लगभग दहाड़ते हुए बुलाया, “अरे कनुआ पांडे, चल दातुन-कुल्ला, चाय-पान करके गाड़ी तैयार कर दे।”

 

तब, गाड़ी से उतरकर विधान परिषद की सीढ़ियाँ चढ़ते समय भी उन्होंने कर्मचारियों और अधिकारियों को डी. आर. मेहता के बारे में फ़ुसफ़ुसाते हुए सुना। उस रहस्य के बारे में उनकी बढ़ती हुई जिज्ञासा ने उनके सब्र की बाँध तोड़ डाली और जैसे ही वह अपने चैंबर में दाख़िल होकर अपनी सीट पर विराजमान हुए, उन्होंने तत्काल कॉल बेल बजाकर अपने निजी सचिव श्रीवास्तव को तलब कर लिया। निजी सचिव ने सामने कुर्सी पर बैठते हुए उनके माथे पर पड़े हुए बल को ध्यान से देखा और उनके चेहरे पर अपनी नज़र टिका दी, “मंत्री जी, कोई अर्ज़ेंट मीटिंग में जाना है क्या?” श्रीवास्तव को लगा कि शायद हेडक्वार्टर्स से मंत्री जी के पास हाईकमान का सीधे पर्सनल फोन के ज़रिए कोई फ़रमान आया होगा जिसके बारे में उसे जानकारी न हो, क्योंकि सत्यार्थी जी ने आते ही उसे बुला लिया था।

पर, सत्यार्थीजी ने नकारात्मक में सिर हिलाया और आँखें मिचमिचाते हुए पूछा, “श्रीवास्तव! ये बताना कि क्या अभी पार्टी का कोई ज़रूरी कार्यक्रम दिल्ली में होने वाला है?”

श्रीवास्तव को अपना गंजा सिर खुजलाते हुए अचानक कुछ याद आ गया, “हाँ-हाँ, मंत्रीजी, सुबह हेडक्वार्टर्स से फोन आया था और पार्टी के वाइस प्रेसीडेंट ने आपको परसों ही एक रैली में शिरकत करने राजधानी तलब किया है। चुनाव आयोग का प्रतिबंध लागू होने से पहले, पार्टी की यह अहम रैली होगी जिसमें पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता शिरक़त करेंगे। आप भी…।”

सत्यार्थीजी मुस्करा उठे, “यह तो बड़ी अच्छी बात है। अच्छा तो आज शाम की किसी फ़्लाईट से दिल्ली के लिए मेरा टिकट बुक करा दो।”

श्रीवास्तव को आश्चर्य हुआ कि मंत्री जी कल शाम को निकल कर परसों हाईकमान से मिलने के बजाय, आज ही दिल्ली क्यों पहुंचना चाहते हैं। उसने दबी आवाज़ में कहा, “लेकिन, सर, आज और कल आपकी चार ज़रूरी मीटिंग भी हैं। मैंने मीटिंग में आपके उपस्थित होने के बारे में हामी भी भर दी है। बहरहाल, एक मीटिंग़ तो बहुत ज़रूरी है–गन्ना किसानों के साथ। अगर गन्ना किसानों के प्रतिनिधियों से आपने बात नहीं की और उनकी मांगों पर आपने कोई निर्णय नहीं लिया तो सारे किसान हड़ताल और आंदोलन पर आमादा हो जाएंगे। पूरे राज्य में दंगा-फ़साद हो जाएगा। देखिए, हालात पहले ही बहुत बिगड़ चुके हैं। दर्ज़न-भर किसान तो पिछले सप्ताह ही आत्महत्या कर चुके हैं…”

“दर्ज़न-भर किसान आत्महत्या कर चुके हैं और दस दर्ज़न कल आत्महत्या करेंगे तो उन्हें करने दो। हमारा क्या जाता है? आत्महत्या करना उनका ज़रूरी काम है और हमारा ज़रूरी काम है हाईकमान को खुश रखना।” सत्यार्थीजी अफ़सराना अंदाज़ में बोले।

“लेकिन, सर, आप आज के बजाय कल चले जाएं तो आप मीटिंग़ से भी बखूबी निपट लेंगे। बहरहाल, उस मीटिंग के बारे में हाईकमान जब कुछ पूछेंगे तो आपको ज़वाब देना भारी पड़ जाएगा।” श्रीवास्तव का चेहरा गंभीर हो गया।

“देखो, जो हम करने जा रहे हैं, वही हाईकमान की नीति है। किसानों की आत्महत्या का मुद्दा सेंटर का है। जब केंद्र ही आँखों पर पट्टी बाँधकर और कान में रूई डालकर बेखबर सो रहा है तो हम स्टेट वाले क्या कर सकते हैं?”

“पर, सर, इससे आपकी लोकप्रियता में गिरावट आएगी। किसान तो राज्य सरकार को दोषी मानते हैं।”

श्रीवास्तव ज़बानज़दग़ी से बाज़ आने वाला नहीं था। इसलिए सत्यार्थीजी की भौंहें तन गईं।

“देखो, कल मैं दिल्ली दूरदर्शन पर मीडिया के सवालों से भी रू-ब-रू होने जा रहा हूँ। मैं वहाँ सारी बातें स्पष्ट कर दूंगा। दरअसल, हमारी पार्टी तो चाहती ही है कि किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या करें जिसका सियासी फ़ायदा हमें मिलेगा। अगले साल चुनाव जीतने के बाद जब सत्ता की बागडोर हमारे हाथ में आएगी तो हम सारा दोष केंद्र पर मढ़ देंगे। बहरहाल, चुनाव से ठीक हफ़्ते-भर पहले केंद्र की इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की असफलता का देशभर में ढिंढोरा पीटकर किसानों के ख़ैरख़्वाह बन जाएंगे। ”

“बट, सर…” वह असमंजस में हकलाकर रह गया।

“देखो, श्रीवास्तव, ऐसे इफ़-बट से सियासत नहीं चलती। यह चलती है सियासी दाँवपेंच से, न कि तुम्हारे फाइलों में कलम घिसने से। तुम भले ही आईएएस अफ़सर हो लेकिन तुम्हारी अक़्ल हमारे जूते के तलवे के नीचे ही रहती है। बस, मैं जो कहता हूँ, वही करो। जाओ, और आज की शाम की फ़्लाइट का मेरा टिकट बुक कराओ। और हाँ, मेरे काम में कम दख़लंदाज़ी किया करो।”

श्रीवास्तव के जाने के बाद, सत्यार्थीजी ने अपना माथा पीटा–”इन बाबुओं की जात ने फ़िज़ूल में मगज़मारी करने का ठेका ले रखा है। मिडिल क्लास के ये ढकोसलेबाज़ बाबू! उफ़्फ़!”

सत्यार्थीजी ने उसे भद्दी सी माँ-बहन की गाली दी; फिर, अपनी स्टेनो को बुलाकर उससे पानी मंगवाया और पानी की एक ठंडी घूंट हलक से नीचे उतारते हुए बोल उठे, “देखती हो ना, हेमा मालिनी! ये अफ़सर किस तरह से नेताओं का भेजा खाकर उनका जीना हराम कर देते हैं?”

वह मुस्कराई, “सर, यह श्रीवास्तव नाम का सिरचढ़ा अफ़सर कुछ ज़्यादा ही बड़बोला हो गया है। माननीय मंत्री जी से कैसे बात करनी चाहिए, इसकी भी तमीज़ नहीं है इसे। मुझे भी बार-बार बुलाकर मेरे काम में नुक्स निकालता रहता है। मैं तो कहती हूँ कि चीफ़ मिनिस्टर साहब से कहकर इसका ट्रांसफर कहीं अंटापुर में करा दीज़िए, जहाँ इसकी रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो जाए।”

सत्यार्थी जी ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, “तुम औरतों के दिमाग़ में ही ऐसी तबाहक़ुन बातें कैसे आ जाती हैं, शातिर बेबी? चलो, मैं चीफ़ मिनिस्टर से बात करता हूँ।” फिर, उन्होंने उसका हाथ पकड़कर उसे सीने में भींचते हुए जोर से दबाया और जैसे ही उसके मुंह से अपना मुंह सटाया, वह भुनभुना उठे, “हेमा रानी, जब पास आया करो तो मुंह में इलाइची दबा लिया करो। हमें औरतों के मुंह की बास अच्छी नहीं लगती।”

सत्यार्थी जी अपनी स्टेनो हेमा से जब श्रीवास्तव की आलोचना करते हैं तो उसे ‘हेमा मालिनी’ कहकर पुकारते हैं और जब उसकी कोई सलाह पसंद आ जाती है तो उसे ‘शातिर बेबी’ पुकारते हैं।

 

उसी दिन रात के कोई दस बजे सत्यार्थी जी ने हाईकमान के चैंबर में अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ की तो उन्होंने हाईकमान को किसी ऐसे शख़्स से ग़ुफ़्तग़ू करते हुए पाया जिसका बातचीत करने का अंदाज़, हाव-भाव और हुलिया सब-कुछ इतना जाना-पहचाना सा लगा कि वे अपने अतीत के बीहड़ जंगल में उस व्यक्ति को ढूंढते हुए खो से गए–आख़िर, इस आदमी से कहाँ, कब और किस रूप में मेरी मुलाक़ात हुई है? ऐसा लगता है कि जैसे मैंने इसके साथ बरसों साथ-साथ गुजारा है।

वे उन दोनों को बातचीत में मशग़ूल देखकर जाने को हुए तो हाईकमान की भर्राती हुई आवाज़ ने उन्हें जड़वत बना दिया–”सत्यार्थी जी, इनसे मिलिए, ये हैं डी आर मेहता जिन्हें हमने अपनी पार्टी का प्रवक्ता नियुक्त किया है। बड़े कर्मठ और जांबाज़ इंसान हैं ये। इनकी मेहनत से हमारी पार्टी ज़ल्दी ही केंद्र में अपना वर्चस्व बनाएगी।”

सत्यार्थी जी को उसे देख, अचानक दिमाग में धनीराम मिसिर का चेहरा कौंध गया। उन्हें लगा कि जैसे वह अंधेरे में चलते-चलते अचानक़ किसी गहरे खड्ड में गिर गए हों और अपने चुटहिल घुटने सहला रहे हों। दरअसल, वे जिस व्यक्ति की तलाश में दिल्ली आए थे, वह तो कोई मेहनत-मशक्कत किए बग़ैर ही मिल गया–जैसे उससे मिलना पूर्व-निर्धारित रहा हो।

“अच्छा तो यही है डी आर मेहता?” सत्यार्थी जी को यक-ब-यक बोल पड़े। उसे देख उन्हें इतना आश्चर्य शायद ही पहले किसी बात पर हुआ होगा।

“क्या आप मेहता जी को पहले से ही जानते हैं?” हाईकमान ने सत्यार्थीजी की अचानक प्रतिक्रिया पर जिज्ञासा प्रकट की।

पल-भर को उनकी निग़ाहें डी आर मेहता से मिलीं। वे एकदम से हकला उठे–”अरे नहीं, नहीं। पर, आपकी हर तरफ़ बड़ी तारीफ़ सुनी है। हाँ, अपने स्टेट में भी।”

डी आर मेहता की व्यंग्यात्मक दृष्टि अभी भी सत्यार्थी जी पर ही जमी हुई थी जैसे वे कह रहे हों कि बच्चू, तुमसे मिलने के लिए ही तो मैं मौत को अंगूठा दिखाकर  आया हूँ और जब आ ही गया हूँ तो अपनी ख़ैर मनाओ।

हाईकमान ने फिर कहा, “सत्यार्थी जी! मेहता जी बड़े हुनरबाज और तज़ुर्बेदार नेता हैं; साथ में उमरदराज़ भी हैं। हम तो उन्हें अपना उस्ताद मान चुके हैं। ये बताते हैं कि इनका कोई बीस सालों से सियासतदारी में दख़लंदाज़ी रही है। गाँव की राजनीति में भी इनका बड़ा अनुभव है। अच्छे वक्ता भी हैं। लोगों को बरगलाकर अपनी बात मनवा ही लेते हैं। अब देखिए, इनकी मुझसे यह चौथी मुलाक़ात है और इतने कम समय में ही इन्होंने मेरा विश्वास जीत लिया है। तभी तो मैंने इन्हें अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है। आज से आप इनके सान्निध्य में रहें और हर बात में इनसे मशविरा लेना न चूकें।”

सत्यार्थीजी के कान में खुजली होने लगी। उन्होंने पहले कान खुजलाया; फिर, सिर खुजलाने लगे, “आप सही फ़रमाते हैं। इनके हुनर, उमर और तज़ुर्बे का सियासी फ़ायदा तो हम उठाएंगे ही।”

“फिलहाल, आप दोनों यहीं बैठकर आपस में गुफ़्त-ग़ू करें और कल होने वाली रैली की तैयारी का जायज़ा भी ले लें; मैं तो चला एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में शिरक़त करने।” हाईकमान यक-ब-यक उठकर चल दिए।

उनके जाने के बाद सत्यार्थीजी डी आर मेहता की उपस्थिति में बिल्कुल असामान्य से होने लगे। कानों में खुजली तो पहले ही होने लगी थी अब गरदन के नीचे बेमौसम पसीना भी आने लगा। चूंकि एसी से हॉल का तापमान सामान्य था, फिर भी वे बैठे-बैठे बार-बार ए.सी. की ओर देखे जा रहे थे। डी आर मेहता ने चुटकी लेने के अंदाज़ में बात छेड़ी, “सत्यार्थीजी, अरे नहीं-नहीं मंत्री जी! ए.सी. का टेम्परेचर थोड़ा डाउन कर दें।”

सत्यार्थीजी अपनी मनोदशा पर बमुश्किल काबू पाने की कोशिश करते हुए ज़बरन मुस्कराए–”आपका चेहरा-मुहरा बिल्कुल हमारे प्यारे नेता धनीराम मिसिर से मिलता-जुलता है। बातचीत करने और उठने-बैठने का अंदाज़ भी उन्हीं जैसा है।”

डी आर मेहता ठठाकर हंसने लगे–”आप भी ख़ूब फरमाते हैं। बहरहाल, यह आपकी ज़र्रानवाज़ी है कि आप मुझ जैसे तुच्छ प्राणी में इतने महान समाजसेवी का अक़्स देख रहे हैं। चुनांचे मैं तो धनीराम मिसिर की तरह बेमौत मरना नहीं चाहता। बहरहाल, इस तुच्छ प्राणी को देशराज मेहता कहते हैं और मेरा मक़सद इस देश की सियासत से ऐसे भ्रष्ट सियासतदारों का सफाया करना है जो देश-सेवा का पाखंड करते हुए अपना उल्लू सीधा करते हैं।” वह जब दोबारा हंसने लगे तो उन्होंने अपनी गर्दन पर उसी तरह हाथ फेरा जिस तरह धनीराम मिसिर अंबेडकर गांव के शरारती लौंडे हल्कू पासवान के चिढ़ाए जाने पर फेरा करते थे।

वह यक-ब-यक ख़्यालों में खो गए। हल्कू का ज़िक्र आते ही वह चिहुंक उठे। हल्कू नाम का चोला तो हल्कू ने पहले ही उतार दिया है। अब तो हल्कू का पूरा हुलिया ही बदल गया है। उसकी आत्मा का भी परिवर्तन हो चुका है। हल्कू पासवान का कद इतना ऊँचा हो गया है कि जनता उसे पूजने लगी है। कुजात का उसका चोला भी उतर चुका है। अब जिस रूप में उसका अवतार हुआ है, उसे सत्यार्थी स्वामी कहते हैं। इसलिए, अब उस शख़्स को भूल जाना ही उचित होगा। बेशक, सत्यार्थी स्वामी राजनीतिक गलियारों से निकलकर देशभर में बड़ी ख्याति अर्जित कर चुका है। ऐसे में, धनीराम मिसिर नाम का ये कीड़ा उसका क्या बिगाड़ लेगा?

ख़ुद में हौसला भरते हुए भी सत्यार्थी स्वामी यानी सत्यार्थीजी अर्थात प्रदेश के गृहकार्य मंत्री का सिर चकराने लगा। उन्होंने डी आर मेहता के एक-एक लफ़्ज़ को ध्यान से सुना था–मैं धनीराम मिसिर की तरह बेमौत नहीं मरना चाहता। पर ये तो अपना नाम भी धनीराम मिसिर के बजाए देशराज मेहता बताता है। लेकिन, है तो ये धनीराम मिसिर की ही कार्बन कॉपी। हाईकमान के पास से इसका बायो डाटा मंगाना ही पड़ेगा। इससे फ़िज़ूल में बात का बतंगड़ बनाने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। ज़रूरत पड़ी तो इसे फिर इसी के बेडरूम में ज़िंदा जला देंगे। या, इसे मारने की सुपारी भैंरो ठाकुर को दे देंगे।

सो, चंद और औपचारिक बातचीत के बाद सत्यार्थीजी रैली की व्यवस्था का ज़ायज़ा लेने के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलने चले गए। लेकिन, बीच-बीच में सारे दिन डी.आर. मेहता उन्हें फोन पर हिदायतें देता रहा–”हाईकमान का हुक्म है कि…”

उसकी हिदायतें सुन-सुनकर सत्यार्थीजी खीझ उठे–सिर पर सवार धनीराम मिसिर के इस भूत का फिलहाल हम क्या करें?

शाम के कोई आठ बजे वह सर्किट हाउस जाकर अपनी थकान मिटाने के लिए जैसे ही बेड पर लेटे, दरवाज़े पर जोर-जोर से दस्तक से बड़बड़ा उठे–कहीं उसी हरामी के पिल्ले का भूत तो नहीं आ धमका। लेकिन, जब दरवाज़ा खोला तो सामने ब्रजभूषण को देख, हतप्रभ रह गए–यह लुच्चा भी हमारे पीछे हाथ धोकर पड़ गया है–भूत की तरह। परंतु, उसके साथ एक छैल-छबीली युवती को देख, उनका गुस्सा काफ़ूर हो गया। उन्होंने अपनी आँखें गोल-गोल नचाईं–”अरे, बिरजू! यहाँ कैसे?” शायद, बिरजू के साथ वह जवान औरत न होती तो वह उसे दरवाज़े के बाहर से ही रफ़ा-दफ़ा कर देते।

ब्रजभूषण मक्खनबाजी पर उतर आया–”जी सत्यार्थीजी! हम भी तो रैली में हिस्सा लेने आए हैं। हमने हाईकमान जी से फोन पर बताया कि हम तो सत्यार्थीजी का दायां हाथ हैं तो उन्होंने झटपट हमें बुला लिया–’अरे, बायां हाथ से सत्यार्थीजी क्या-क्या करेंगे? आप उनका दायां हाथ ठहरे तो आप अंबेडकर नगर में क्यों हैं, आप अभी-अभी राजधानी तशरीफ़ लाओ।’ सो, मैंने अगली फ़्लाइट ले ली।

सत्यार्थीजी ने कनखियाकर युवती की ओर देखा–ये स्साला बिरजू हमारे बल-बूते पर हवाई जहाज से गर्लफ़्रेंड को घुमाने का खर्चा एफ़ोर्ड कर रहा है। लिहाज़ा, वह अपना मनोभाव नियंत्रित करते हुए बात बनाने लगे–”हमें तो तुमको अपने साथ ही लाना चाहिए था क्योंकि तुम हमारे छुटभैया होने के साथ-साथ हमारी पार्टी के इकलौते कर्मठ कार्यकर्ता भी तो हो।”

उनकी बात खत्म होने से पहले ही वह औरत के साथ कमरे में दाख़िल हो गया।

सत्यार्थीजी ने फिर कहा, “गेस्ट हाउस का कोने वाला कमरा खाली है। थके-मांदे होगे, जाकर आराम कर लो। कल सबेरे साथ में बैठकर तसल्ली से बात करेंगे।”

तब, बिरजू ने जाते हुए कहा, “आपकी ख़िदमतदारी के लिए दीयाजी को साथ लाए हैं। रातभर आपकी सेवा में लगी रहेगी।”

ब्रजभूषण की बात पर वह रीझ गए–इसे अपने नेता की पसंद का कितना ख्याल है! उसके जाने के बाद, उन्होंने युवती की ओर देखकर, जैसे ही अपने होठों पर जीभ लिसोढ़ा, वह झट दरवाज़ा बंद कर उनकी ओर बढ़ गई। पर, ब्रजभूषण के जाने के बाद वह अपनी थकानभरी ख़ुमार उतारकर ठीक से पतिया भी नहीं पाए थे कि तभी टेलीफोन की घनघनाहट से वह झुंझला उठे। दीया ने लेटे ही लेटे टेलीफोन का चोंगा उनके कान से सटा दिया–”हल्कुआ! हम बुड़भक बंभना बोल रहे हैं। हम कबर से निकलकर बाहर आ गए हैं। है ना, ये हैरतअंगेज़ बात! अब हम तुम्हारी ख़िदमत-ख़ातिरदारी तसल्लीबख़्श करेंगे ताकी हिसाब बराबर हो सके।”

सत्यार्थीजी बेड पर से एकदम से उछलकर फ़र्श पर खड़े हो गए–अब तो इस बात में कतई शुबहा नहीं रहा कि डी आर मेहता ही धनीराम मिसिर है। तब उन्होंने बेड पर आश्चर्य के साथ उठ बैठी दीया से कहा–”दीया मिर्ज़ा! तनिक देखना कि कॉलर आईडी में किस नंबर से ये फोन आया है।” उन्हें अपनी आदत के अनुसार दीया के नाम में फेरबदल करने में देरी नहीं की; दीया को पलक झपकते फिल्मी तारिका दीया मिर्ज़ा बना दिया।

उन्होंने डी आर मेहता के मोबाइल और दीया द्वारा बताए गए टेलीफोन नंबरों से कॉलर आईडी का नंबर मिलाया–सभी नंबर अलग-अलग थे। फिर वह भुनभुनाने लगे–मेहता ने ज़रूर किसी दूसरे नंबर से कॉल किया होगा। बहरहाल, उन्हें रात-भर नींद नहीं आई। सारी रात वह टहलते रहे जबकि दीया उन्हें व्हिस्की के पैग बना-बनाकर पिलाते हुए सुलाने की चेष्टा करती रही। आख़िरकार, कोई ढाई बजे रात को उन्हें नींद आई।

सुबह वह दस-ग्यारह के बजाए छः बजे ही जग गए और तैयार होकर हाईकमान के चैंबर में दस्तक दिया; पर, वहाँ उन्हें डी आर मेहता के साथ पाकर हैरत में पड़ गए।

वह जैसे ही ईज़ी चेयर पर बैठे, हाईकमान भर्राई आवाज़ में बोल उठे, “अरे, मंत्री जी! आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।”

“सर, क्या हुआ?” सत्यार्थीजी के शब्द जैसे गले में ही अटक गए।

“अरे, ये पूछिए कि क्या नहीं हुआ?”

सत्यार्थीजी समझ नहीं पाए कि हाईकमान सचमुच गंभीर हैं या किसी मज़ाक के मूड में हैं।

हाईकमान एकदम से हंसने लगे–”मेहता जी काफ़ी देर से आपकी तारीफ़ों के पुल बाँध रहे हैं। आपने सारी रात अपनी नींद हराम करके मेहताजी के साथ रैली को सफल बनाने के लिए जो कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई है, उसके फेल होने का तो सवाल ही नहीं उठता।”

हाईकमान ने बड़ी तसल्ली से उस कागज़ को फ़ाइल में सहेजा जिसमें कार्यक्रम का ब्योरा दिया गया था।

सत्यार्थीजी ने डी आर मेहता को कनखियाकर देखा और सोचने लगे–अरे मिसिर के भूत! ये कौन-सा गेम खेल रहे हो? कल रात तुम कहाँ थे और हम कहाँ? हम तो तुमसे फोन पर बात करके बेचैन रहे। अगर दीया की मेहरबानी नहीं होती तो ढाई बजे के बाद भी नींद नहीं आती। पर, ये तो बताओ कि तुम हमें हाईकमान के गुड बुक्स में क्यों लाना चाहते हो? क्या आज भी बुड़भक के बुड़भक ही हो? तुम तो हमारी शिकायत करके हाईकमान को मेरे ख़िलाफ़ भड़का भी सकते थे। पर, ऐसा क्यों नहीं किया? क्या सियासतदारों के साथ सियासतदारी सीखकर कोई चाल चल रहे हो? लेकिन, ये तो पक्का मान लो कि इस सियासी दाँव-पेंच में यही हाईकमान तुम्हें ज़ीरो नंबर देकर फेल करेगा और तुम्हें अपनी पार्टी से निकाल फेंकेगा।

मेहता ने भी मन ही मन कहा–देख हल्कुआ! तुझे हम किस तरह पटखनी देते हैं?

 

दिल्ली प्रवास के कोई सप्ताह-भर बाद सत्यार्थीजी के हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही राज्य सरकार की गाड़ी ने उन्हें वहाँ से पिक-अप कर लिया और सीधे सचिवालय के बाहर ड्रॉप किया। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए जैसे ही वह अपने चैंबर में दाख़िल हुए, उनकी अगवानी में वहाँ पहले से बैठा ब्रजभूषण बोल पड़ा, “सत्यार्थीजी, आप बड़ी देरी से आए हैं जबकि डी आर मेहता 14 मार्च से ही अंबेडकर नगर में आपके मेहमान बनकर आपकी कोठी में इंतज़ार कर रहे हैं। हमने उनसे कहा कि आप प्रदेश के सर्किट हाउस में ही मंत्रीजी का इंतज़ार कर लें तो उन्होंने कहा कि हमें हाईकमान के हिदायत के अनुसार अंबेडकर नगर में हुई तरक्की का ज़ायज़ा भी तो लेना है। सो, वह अंबेडकर नगर में ही आपका इंतज़ार कर रहे हैं।”

ब्रजभूषण द्वारा दी गई सूचना सुनकर तो सत्यार्थीजी के होश ही फ़ाख्ता हो गए; उनका सिर चकराने लगा क्योंकि जहाँ तक उन्हें अच्छी तरह याद है, 14 मार्च को डी आर मेहता उन्हीं के साथ दिल्ली में था। उन्होंने फ़ौरन अपने पर्सनल सेक्रेटरी श्रीवास्तव को बुला भेजा, “श्रीवास्तव, मुझे ये बताओ कि 14 मार्च को मैं किस-किस मीटिंग में बीज़ी था और किस-किस आदमी से मिला था?” श्रीवास्तव ने उनकी बिज़नेस डायरी खंगाल डाली और उन्हें बताया कि मंत्रीजी, आप उस दिन पूरे समय हाईकमान और डी आर मेहता के साथ रहे और शाम को मीडिया से रू-ब-रू हुए थे जहाँ आपने रैली के सफल होने पर अपनी खुशी का इज़हार किया था जबकि हाईकमान ने रैली की सफलता का क्रेडिट आपके बजाए मेहता को दिया था।”

सत्यार्थीजी बौखला उठे, “अरे, डी आर मेहता कोई सचमुच भूत तो नहीं है। आख़िर, एक ही आदमी दो ज़गह कैसे मौज़ूद रह सकता है?”

उन्होंने ब्रजभूषण से आदेशात्मक लहज़े में कहा, “बिरजू, अब तनिक भी देरी मत करो। हमें फ़टाफ़ट अंबेडकर नगर ले चलो। मामला बड़ा संगीन होता जा रहा है।”

ब्रजभूषण उनकी चिंता को ठंडा करते हुए बोल पड़ा, “हल्कू भइया! हम सुने रहे कि इतिहास खुद को दोहराता है और देखिए कि दस-ग्यारह बरिस पहिले जिस मिसिर की हमजने बलि चढ़ाए थे, वो फिर प्रकट हो गया है–वो भी हमारे ही जवार में।”

सत्यार्थीजी उसके द्वारा अपने पुराने नाम “हल्कू” से संबोधित किए जाने पर उसे आवेश में घूरते हुए, अपने होठ भींच लिए, “हाँ, अब इतिहास उसी मिसिर के दोबारा जलाए जाने की घटना को फिर दोहराएगा। अबकी बार देखना, इस बांभन को इस बुरी तरह जलाकर राख कर देंगे कि उसका भूत भी हमसे भय खाकर कोसों दूर भागने लगेगा। चलो, ये तो अच्छा हुआ कि शिकार हमारा मेहमान बनकर ख़ुद हमारे पिंजरे में कैद होने आ गया है।”

अपनी कोठी में कदम रखते हुए उन्हें जैसे साँप सूंघ गया। उन्हें अचंभा हो रहा था कि उनका पेट डॉग टॉमी उनके आगे कूदकर उनसे लिपटते हुए उनकी अगवानी करने क्यों नहीं आया। इस बारे में जब ब्रजभूषण से पूछा तो वह कुछ भी नहीं बता सका–”अरे हल्कू भइया! जब हम इहाँ से प्रदेश की राजधानी के लिए कूच किए थे तो तब तक तो टॉमी बॉलकनी में ही उछल-कूद मचा रहा था।” वह फिर ब्रजभूषण को खिसियाकर घूरने लगे, “अब ये हल्कू भइया-हल्कू भइया क्या लगा रखा है? कभी हम थे तुम्हारे हल्कू भइया; आज हम बड़े सियासतदार हैं। देश के मेठ नेताओं में हमारी गिनती होती है और प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं हम।”

वह घिघियाकर हंसने लगा तो उन्होंने नौकर को बुलाकर उससे कहा, “मालकिन कहाँ हैं?”

उत्तर मिला, “शहर अपने मायके गई हैं।”

“हमें कुछ बताए बिना?” उनकी भौंहें तन गईं।

नौकर ने फ़ुसफ़ुसाकर कहा, “मालकिन ऊ मेहमानखाने में आए भूत से ख़ौफ़ खाकर मायके भाग गईं हैं। कह रही थीं कि ये तो धनीराम मिसिर का भूत है।”

फिर बोले, “हमारा टॉमी कहाँ है?”

नौकर ने कहा, “ऊ तो भूत के साथ कमरे में है।”

सत्यार्थीजी आपे से बाहर हो गए, “भूत-भात कुछ भी नहीं होता। ये तो बांभनों द्वारा फैलाया गया अंधविश्वास है।”

फिर, कान खुजलाने लगे। उन्हें बरसों पहले की अपनी बात याद आ गई जबकि उन्होंने धनीराम मिसिर को सपरिवार फूंकने-तापने के पहले गाँववालों को उनके खिलाफ़ भड़काया था कि ब्राह्मणों ने ऐसे सारे अंधविश्वास अपना उल्लू सीधा करने के लिए फैला रखा है। पर, डी आर मेहता के अवतरण के बाद तो उन्हें भी थोड़ा-थोड़ा यक़ीन होने लगा है कि भूतों का भी अस्तित्व होता है।

उसके बाद वे तेजी से चलकर मेहमानखाने में आ गए। पर, वह एकदम से भय से सिहर उठे। सामने कुर्सी पर बैठे डी आर मेहता ने ठीक वैसा ही हुलिया बना रखा था जैसाकि धनीराम मिसिर का हुलिया अपने धोती-कुर्ते के पहनावे में हुआ करता था। इन्होंने भी मिसिर की भाँति माथे पर वैष्णवों जैसा तिलक लगा रखा था।

सत्यार्थीजी बिफ़र उठे, “मेहताजी! आप क्या समझते हैं कि हम आपको पहचानने में गलती कर रहे हैं? अरे, आप धनीराम मिसिर ही हैं। बेकार में डी आर मेहता बनने की नौटंकी खेलना बंद कर दो और ये बताओ कि तुम्हारी मर्ज़ी क्या है?”

डी आर मेहता सकपका गए, “अरे, सत्यार्थीजी! ये आप क्या कह रहे हैं? कौन धनीराम मिसिर और कैसी नौटंकी? हम तो बस जीते-जागते डी आर मेहता हैं और हम हाईकमान के कहने पर ही यहाँ आए हैं। आप हमें समझने में गलती क्यों कर रहे हैं? आप हमारी इंसल्ट करके अपने हाईकमान की इंसल्ट कर रहे हैं। देखिए, आपके मिसबिहैवियर के बारे में हम हाईकमान को बता देंगे। आपको पता ही है कि उनकी नज़र में हमारी क्या इज़्ज़त है?”

तब, सत्यार्थीजी ख़ुद को नियंत्रित करते हुए नरम हो गए, “देखिए, आप भले ही डी आर मेहता हैं; पर, आप अपनी बातचीत के दौरान हमें पुख्ता सबूत दे चुके हैं कि आप धनीराम मिसिर ही हैं और आप हमारे साथ कोई गेम खेल रहे हैं।”

डी आर मेहता व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ बोले, “देखिए, सत्यार्थीजी, ऐसी फ़िज़ूल बातों में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। हमें तो हाईकमान ने आपके अंबेडकर नगर में इसलिए भेजा है कि हम इस बात का पता लगा सकें कि अंबेडकर नगर में ऐसी क्या बात है कि राज्य सरकार इसे एक आदर्श नगर घोषित करने जा रही है। देखिए, अगर मैंने इसके बारे में अच्छी रिपोर्ट सरकार को दी तो इसका सारा श्रेय आपको जाएगा। हाईकमान की नज़र में आपकी और इज़्ज़त बढ़ जाएगी। हो सकता है कि आपको केंद्र में बुला लिया जाए और आम चुनाव में आपकी पार्टी जीतकर आपको कोई ज़िम्मेदार मंत्रालय सौंप दे।”

उनके मुंह से अपने हित की बात सुनकर, सत्यार्थीजी की बौखलाहट एकदम से ठंडी पड़ गई। सोचने लगे कि जिस आदमी को हमने सपरिवार मारने की साज़िश रची थी और यह समझ रहे थे कि वह परलोक सिधार चुका होगा, वो आज हमारे सामने हमारे ही हित के बारे में क्यों सोच रहा है।

उन्होंने अपना तेवर बदला, “मेहताजी! जब से आप चर्चा में आए हैं और आप हमारे धनीराम मिसिर के हमशक्ल के रूप में पहचाने जाने लगे हैं, तब से हमारी मति फिर गई है। ये समझ लीजिए कि हमारी हालत पागलों जैसी हो गई है और हमें दिन में ही भूत-प्रेत नज़र आने लगे हैं। हमारे मोहल्ले का बच्चा-बच्चा आपको धनीराम मिसिर का भूत समझता है। आप बाहर निकल कर खुद ज़ायज़ा ले लें। लोगबाग हमारी कोठी को घेरे हुए हैं; बस, ये देखना चाहते हैं कि असल में भूत दिखता कैसा है। हमें तो समझ में आ गया है कि आप अपने परिवार के साथ उस दिन उस अग्निकांड से किसी तरह बचकर निकल गए होगे। पर, हम ये जानना चाहते हैं कि जब सारी दुनिया आपको मरा हुआ मान चुकी है तो आप फिर क्यों प्रकट हो गए? आपको ज़िंदा देखकर सारे मुसहर बौखला रहे हैं। हमें तो लगता है कि आप फिर मुसीबत में फँस गए हैं और आपका यहाँ से बच निकलना नामुमकिन है।”

डी आर मेहता मुस्कराने लगे, “अरे हल्कू बेटा! जिसका कोई नहीं होता, उसका तो खुदा ही होता है। ख़ैर, इस समय तुम ही हमारे खुदा हो। तुम न केवल हमें इस इलाके से सुरक्षित निकालोगे, बल्कि अपनी चहेती जनता के बीच हमें ले भी जाओगे और उनसे कहोगे कि मैं धनीराम मिसिर नहीं हूँ। वर्ना, तुम तो जानते ही हो; हाईकमान के कितना करीब हूँ मैं!”

सत्यार्थीजी ने मौके की नज़ाकत को भाँपते हुए, ख़ामोशी से अपना सिर झुका लिया।

 

स शाम, अंबेडकर नगर में एक आम जनसभा बुलाई गई। मंच से माइक पर सत्यार्थीजी की आवाज़ गूँज उठी, “मेरे प्रिय नगरवासियों! आज मैं आपको एक ईश्वरीय चमत्कार दिखाने जा रहा हूँ। कोई ग्यारह साल पहले इसी इलाके में जनता के मसीहा, श्री धनीराम मिसिर जी की एक भीषण अग्निकांड में सपरिवार मौत हो गई थी। हम-सब के वह कितने ख़ैर-ख़्वाह थे, यह बात किसी से छिपी नहीं है! इस विशाल अंबेडकर नगर की नींव उन्होंने ही डाली थी। बहरहाल, अब मैं आपके सामने एक ऐसे शख़्स को पेश कर रहा हूँ जिसे आप देखकर हैरत में पड़ जाएंगे क्योंकि यह शख़्स उन्हीं महान जनसेवक मिसिर जी का हमशक़्ल है। मुझे यह भी बताने में बड़ा फ़ख्र हो रहा है कि डी आर मेहता नामक यह शख़्स धनीराम मिसिर की तरह ही मानवतावादी और समाजसेवी है। हमारे लिए सबसे अच्छी बात ये है कि हमारे हाईकमान ने इन्हें हमारी ही पार्टी का प्रवक्ता बनाया है। अभी-अभी देश की राजधानी में हुई हमारी रैली की सफलता का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। बस, ये समझ लीजिए कि मेहताजी पारस पत्थर हैं और जिस चीज़ को छू लें, वह सोना बन जाएगी। अब इनके बदौलत हमारी पार्टी की भी क़िस्मत चमकने वाली है और इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि अगले साल के आम चुनाव में केंद्र में हमारी ही सरकार बनेगी।”

तत्पश्चात, ज्योंही सत्यार्थीजी ने डी आर मेहता के दोनों हाथ पकड़कर मंच पर खड़ा किया, तालियों की गड़गड़ाहट और डी आर मेहता की जय-जयकार से सारा माहौल गूँज उठा। फिर, लोगों में बतकहियों का बाजार भी गर्म हो गया–अरे, ये तो साक्षात धनीराम मिसिर के अवतार हैं…सचमुच, ऐसा चमत्कार तो बस देखा-सुना था; पर, आज यकीन हो भी गया…हू-ब-हू मिसिर जी की तरह दीखते हैं…अरे, ये आँखों का धोखा नहीं, चमत्कार है और ऊपरवाला भी कैसे-कैसे नायाब करिश्मा करता है…हाँ, हम सबको  इनसे मिलकर बतियाना चाहिए…देखें, बात-व्यवहार में भी ये मिसिर जी जैसे ही लगते हैं या यह सत्यार्थीजी की कोई नौटंकी है…हाँ, जब से सत्यार्थी स्वामी बड़े नेता बने हैं, वे ऐसी नौटंकी कई बार खेल चुके हैं…अरे, भिक्खू चच्चा को बुलाओ; लखई बाबा, लल्लन ताऊ और सारे बुज़ुर्गों को बुलाओ, जिन्होंने धनीराम मिसिर के साथ लंबा समय गुजारा है। अब वे लोग ही बताएंगे कि डी आर मेहता, मिसिर जी से कितना मिलते-जुलते हैं…।

बड़े-बुज़ुर्गों से मुलाक़ात के बाद, जब अगली सुबह डी आर मेहता अंबेडकर नगर से राजधानी को रुख़्सत हुए तो भिक्खू चच्चा उसी शाम लखई और लल्लन के साथ सत्यार्थीजी की कोठी पर आ धमके। जिस भिक्खू चच्चा ने सत्यार्थीजी को गोद में खिलाया था, उन्होंने आते ही सत्यार्थीजी के कान पकड़ लिए, “हल्कू, अब, हमारी आँख में कितना धूल झोंकोगे? धनीराम मिसिर को डी आर मेहता का हमशक़्ल बताकर जनता में क्या संदेश भेजना चाहते हो?”

सत्यार्थीजी अपने कान छुड़ाते हुए हंसने लगे, “अरे, चच्चा! हमें भी पहले-पहल डी आर मेहता को देखकर यक़ीन हो गया था कि वह धनीराम मिसिर ही है। पर, जब हमने बड़े पैमाने पर छानबीन की; लोगों से पूछ्ताछ की और हाईकमान के पास जाकर उसका बायोडाटा देखा तब हमें जाकर विश्वास हुआ कि इस दुनिया में सब कुछ मुमकिन है। डी आर मेहता ही क्या, हमारा-आपका और सबका हमशक़्ल मौज़ूद है। चांस की बात है कि मिसिर का हमशक़्ल हमें अपने आसपास ही मिल गया…”

अभी वह अपनी बात ख़त्म भी नहीं कर पाए थे कि उनका मोबाइल घनघना उठा।

उधर से हाईकमान थे–

“सत्यार्थीजी! आप कहाँ हैं? हमने आपको आपके पर्सनल सेक्रेटरी के मार्फ़त एक मेसेज़ भी भिजवाया था।”

“पर, हमें तो अपने नालायक पर्सनल सेक्रेटरी श्रीवास्तव से कोई मेसेज़ नहीं मिला।” उनका मुंह आश्चर्य से खुला रह गया।

“अरे भाई, परसों मैंने रैली के सफल होने पर एक ग्रांड पार्टी दी थी। हमारी पार्टी के सभी कार्यकर्ता और नेता उसमें शामिल हुए थे। हाँ, डी आर मेहता जी भी तभी से पूरे तीन दिन हमारे सहयोगी रहे और अभी भी वह हमारे साथ हैं। बस, आपकी कमी खल रही थी।” हाईकमान एक सांस में बोल गए।

“अरे सर, आप ये क्या कह रहे हैं? मेहता सा’ब तो सुबह तक हमारे साथ ही थे और आज सुबह वह यहाँ से रवाना हुए हैं। फिर, वो आपके पास कैसे हो सकते हैं?” सत्यार्थीजी के सीने पर ज़हरीला साँप लोटने लगा जबकि पास बैठे भिक्खू, लल्लन और लखई उनके बीच बातचीत सुनकर हैरत के समंदर में गोते लगा रहे थे।

“सत्यार्थीजी! आप फ़िज़ूल में मज़ाक कर रहे हैं। यह भी कोई टाइम है मज़ाक करने का?” उन्होंने बातचीत बंद कर दी।

सत्यार्थीजी भिक्खू को देखते हुए डूबती हुई आवाज़ में बड़बड़ा उठे, “लो, अब धनीराम मिसिर का यह दूसरा हमशक़्ल भी पैदा हो गया।”

उन्हें गशी-सी आने लगी। जब तक भिक्खू, लल्लन और लखई उन्हें कुर्सी से नीचे लुढ़कते हुए उठाते और सोफ़े पर लिटाने की युक्ति करते, वह पूरी तरह बेहोश हो चुके थे। दरअसल, हाईकमान की बात सुनकर ही उन्हें हार्ट-अटैक पड़ा था। दो हमशक़्ल के होने की ख़बर ने उन्हें इस बात पर यक़ीन करने के लिए मज़बूर कर दिया था कि धनीराम मिसिर प्रेत बन कर उनके इर्दगिर्द मंडरा रहे हैं।

पूरे सात महीने तक वह अस्पताल में कोमा में रहे। जब वह अस्पताल से छूटे तो उनकी कोठी में उनका हालचाल लेने हाईकमान पहुंचे–देशराज मेहता और उनके जवान बेटे दीपराज मेहता के साथ।

सत्यार्थीजी देशराज मेहता को अपने बेटे के साथ देखकर बेहद ताज़्ज़ुब में पड़ गए, “तो क्या देशराज मेहता का भी एक हमशक़्ल है?”

हाईकमान ने सिर हिलाया, “आपके बीमार होने के बाद, मेहताजी का बेटा ही आपके मंत्रालय का कार्यवाहक मंत्री है। इन्होंने विधानसभा की खाली सीट जीतकर विधानसभा में एन्ट्री की है। ये काम भी बढ़िया कर रहे हैं। अब आप ऐसा करें कि आप अपना बोरिया-बिस्तरा समेटकर दिल्ली चलें और ये कोठी डी आर मेहता जी को गिफ़्ट कर दें। ये आपके अंबेडकर नगर के विकास का मामला देखेंगे और अपने बेटे को स्टेट का गृह मंत्रालय चलाने और हमारी पार्टी को ज़रूरी मशविरा देने का अहम काम करेंगे। आप हमारे साथ केंद्र में हमारे साथ रहेंगे।”

हाईकमान के इस निर्णय पर सत्यार्थीजी बदहवास-से हो गए। सोचने लगे कि यह सब हुआ कैसे।

कुछ देर बाद, वह डी आर मेहता को अपने कमरे में ले गए और अपना मुंह उसके कान में डाल दिया, “धनीराम मिसिर! अब यह बताओ कि ये जो तुम्हारा बेटा है, ये तो वही तुम्हारा बेटा–बड़कू है। लेकिन, ये बड़ा होकर तुम्हारी कॉर्बन कॉपी कैसे बन गया?”

“इसी का तो फ़ायदा हम उठाए, हल्कुआ!” अब देखो, सियासतदारी में हम तुमसे अव्वल निकले कि नहीं? हाईकमान ने भी तुम्हें स्टेट की राजनीति से बाहर कर दिया। देखना, केंद्र की राजनीति में भी हम तुम्हें ज़ल्दी ही पटखनी देने वाले हैं। तुम्हारा हम पत्ता साफ कर देंगे, समझे!” डी आर मेहता ने आँखें तरेरी।

“वो तो हम देख लेंगे बुड़भक बभंना क्योंकि हम भी आधे बांभन है। हमारी माई कलौतिया का टांका एक बांभन से भिड़ा था और हम उसी की संतान हैं। हमारा रियल बाप तो इम्पोटेंट था। जानते हो? दोगली संतान की दोगली चाल भी होती है। अब एक पूरा ब्राह्मण एक आधे ब्राह्मण से भिड़ेगा।” उन्होंने अपनी मूंछों पर ताव दिया।

डी आर मेहता उसकी इस सूचना पर हक्का-बक्का रह गया।

सत्यार्थीजी फिर बोल पड़े, “अच्छा, बांभन देउता! ये बताओ कि जिस दिन हम सभी मुसहर मिलकर तुम्हें तुम्हारी ही कोठरी में ज़िंदा जलाए थे, उस अग्निकांड से तुम बच कैसे गए?”

“वो बिरजू की मदद से हम भाग निकले थे। इस बिरजू यानी ब्रजभूषण से बचकर रहना; ये एक नंबर का धोखेबाज़ है। ये तो शुरू से ही तुम्हारे साथ डबल गेम खेलता रहा है। देखो, कहीं ये भी तो आधा ब्राह्मण नहीं है क्योंकि इसकी माई भी ऐसे ही खेतों में निराई-गुड़ाई करने जाती थी जिनके मालिक लंपट बांभन हुआ करते थे। अपने करम से तो यह पूरी तरह दोगला लगता है।”

डी आर मेहता की फ़ुसफ़ुसाहट सुनकर सत्यार्थीजी माथा पकड़कर बैठ गए।

- डॉमनोज मोक्षेंद्र

लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र  {वर्ष २०१४ (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके   पूर्व ‘डॉ. मनोज श्रीवास्तव’ के नाम से लिखता रहा हूँ।}

वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव

जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)

शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल–जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से

पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ’ नील्स प्लेज: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन

लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इन्कलाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6.एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह–प्रतिलिपि कॉम), 2014; 7-प्रेमदंश, (कहानी संग्रह), वर्ष 2016, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 8. अदमहा (नाटकों का संग्रह–ऑनलाइन गाथा, 2014); 9–मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 10.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), शीघ्र प्रकाश्य

संपादनमहेंद्रभटनागर की कविता: अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति

–अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित

–Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य

–इन्टरनेट पर ‘कविता कोश’ में कविताओं और ‘गद्य कोश’ में कहानियों का प्रकाशन

–महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट ‘हिंदी समय’ में रचनाओं का संकलन

सम्मान: ‘भगवतप्रसाद कथा सम्मान–2002′ (प्रथम स्थान); ‘रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान–2012′; ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार ‘बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक’ घोषित; ‘गगन स्वर’ संस्था द्वारा ‘ऋतुराज सम्मान-2014′ राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक  द्वारा ‘साहित्य-भूषण सम्मान’; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान (मानद उपाधि)

“नूतन प्रतिबिंब”, राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक

लोकप्रिय पत्रिका वी-विटनेस” (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक

‘मृगमरीचिका’ नामक लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के सहायक संपादक

हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, दि इंडियन लिटरेचर, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, सहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमिक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, मृग मरीचिका, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, अम्स्टेल-गंगा, शब्दव्यंजना, अनहदकृति, ब्लिट्ज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में प्रचुरता से  प्रकाशित

आवासीय पता: विद्या विहार, नई पंचवटी, जी.टी. रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत.

सम्प्रति: भारतीय संसद में प्रथम श्रेणी के अधिकारी के पद पर कार्यरत

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