बिना प्रयोग़, बोझिल विषय है विज्ञान

                सन 1981 में बच्चों के बीच विज्ञान को एक रोचक विषय के रूप में प्रस्तुत करने के अपने प्रयास की शुरुआत के साथ मेरे मानस पटल पर इस सम्बन्घ में न जाने कितने विचार आये व गये, कितने चित्र बने व बिगड़े और न जाने कितनी योजनाओं नें जन्म लिया और वे काल कलवित हो गई । इनमें से केवल कुछ ही विचार साकार रूप ले पाये ़़अघिकतर चित्र रंगों से सजें इससे पहले ही विलुप्त हो गए तथा ज्यादातर योजनाए क्रियान्चित होने के पहले ही घराशायी हो गईं। कारण अलगः-अलग रहै।                                                 े                कभी परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया तो कभी आार्र्थक स्थितियां विपरीत हो गईं। कभी समाज की उदासीनता आड़े आ गई तो कभी संरकारी तंत्र की कछुआ चाल। कभी सहयोगियों की लापरवाही असफलता का कारण बन गई तो कभी अपने स्वास्थ ही ने साथ छोड़ दिया। परन्तु जो नहीं छूटा वह था दिन रात अपने घ्येय की प्राप्ति के नित नये सपने देखना । इनमै जो सपने अपने हाथों साकार हए वे अपनी मेहनत का प्रतिफल थे अतः परिणाम स्वाभाविक लगा परन्तु जो प्रयास के बिना कहीं और एकाएक साकार हो उठें उन्हें देख कर अचंभित हो उठना अस्वाभाविक नहीं ं था। ऐसी ही एक घटना मुझे स्मरण हो आयी है जिसका यहां उल्लेख करना पूरी तरह तर्क संगत रहेगा ।
तो चलिये उस घटना का  उल्लेख शुरू करता हूं पर यह घटना कोई आज या कल की नहीं है और न ही आसपास की है। लगभग दो हजार पांच सौ किमी ़दूर की बात है और वह भी कई साल पहले की। उन दिनों में मद्रास में था मद्रास यानि आज का चेन्नई।
जहाँ में रहता था उस कॉलोनी के बच्चों से मेरी खूब दोस्ती हो गयी थी। जब भी मौका मिलता मैं उनके जमघट में पहुंच जाता और अपने अनुभव के आघार पर उन्हें समय के हिसाब से तरह-तरह की जानकारियां देंता रहता।
इसीबीच एक दिन बच्चों ने मुझे एक निमंत्रण पत्र थमा दिया । देखा तो पता चला कि मेरे इन दोस्तों में से राघवन नाम के एक बच्चे का बर्थ-डे था जिसके लिए दूसरे दिन शाम चार बजे मुझसे विशेष तौर पर मौजूद रहने का आग्रह किया गया था। मैं असमंजस में पड़ गया। पार्टी में तो मेरी कोई दिलचस्पी रहती ही नहीं, पर बच्चों को मैं निराश नहीं कर सकता था, इसलिये जाना तो था ही।
दूसरे दिन , समय से पहुँवने का पूरा प्रयास करने के बावजूद ,दिन के जरूरी कामों को खत्म करते-करते वहाँ जब तक पहुंचा, कुछ देर  हो चुकी थी । तब तक वहां एक हाल नुमा बड़े से कमरे में रिश्तेदार ,मेहमान और मेरे बाल-मित्र सब ही एकट्ठा हो चुके थे। उस समय वहां जो दृश्य थ्ां उसकी तो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
शोर ‘शराबे और खाने-पीने की जगह वहां मैंनें देखा कि कमरे के सामने वाली दीवार के साथ ही एक मेज़ लगी हुई है जिसके पास राघवन खड़ा था । उसके सामने बिछी दरी पर उसकी सारी दोस्त-मण्डली बैठी थी और बाकी सारे लोगों में कुछ खड़े-खड़े देख रहे थे तो कुछ वहां पड़ी कुर्सियों पर जमे हुए थे । मुझे देखकर राघवन की बहन शिवानी मेरे पास आ गई और उसने जो बताया वह मेरे लिये एक चौंकाने वाला सत्य था।
“ आपको हैरत हो रही है न परन्तु हम लोग पिछले कई सालों से बर्थ-डे’ की शुरूआत ऐसे ही करते आ रहे हैं। जिसका ‘बर्थ-डे’ होता है, वो सांइस के किसी सिद्धान्त पर आघारित कोई ऐसा प्रयोग या ट्रिक दिखाता है जो सबको रोचक लगे। पहले हम सब उसकी दिखाई ट्रिक या एक्सपेरिमेन्ट को एन्जॉय करते हैं फिर हम में किसी को साघारण व स्पष्ट शब्दों में बताना होता है कि यह प्रयोग हुआ कैसे और उसके पीछे विज्ञान का कौन-सा सिद्धान्त काम कर रहा था। जो बच्चा सबसे अच्छा जवाब देता है उसे प्राइज भी मिलता है।“ बारह वर्षीय शिवानी ने जिस संजीदगी के साथ वहाँ के क्रिया कलापों से मुझे अवगत कराया उससे मैं बेहद प्रभावित था।
“ पर मेरी एक जिज्ञासा है कि बाल-दर्शकों में से अगर कोई भी इसका  सन्तोषजनक उत्तर न दे सके तो ?“ मेरे इस प्रश्न का उत्तर शिवानी के पास मानों एकदम तैयार रखा था। “तो कोई बात नहीं फिर जिसका‘ बर्थ-डे ’ होता है उसकी
तैयारी तो पहले से ही रहती है सब कुछ समझाने की और इसीलिए प्राइज ़ भी फिर उसी को मिल जाता है । “
“ आज राघवन क्या करने वाला है यहाँ ?“ मैं आगे जानने को उत्सुक था। पर आश्चर्य ,वहाँ के बारे में जानने की जितनी उत्सुकता मुझे थी , शिवानी का उत्साह उसे बताने के बारे में उससे किसी भी स्तर पर कम नहीं था ।
“यह तो आप अभी स्वयं ही देख लेंगे पर अब तक राघवन ने अपने सामने मेज ़ पर रखे पतले-लम्बे से गिलास में सिर्फ दो चम्मच कोई पाउडर जैसी चीज डालकर उसे बोतल में रखे द्रव से भर दिया है और अब वह न जाने किस बात का इन्तजार कर रहा है?“ कहते हुए शिवानी चुप हो गयी।
कुछ देर वहाँ माहौल में सन्नाटा पसरा रहा और फिर एकाएक राघवन का स्बर सुनाई दिया “दोस्तों , मैंने गिलास में जो पाउडर और लिक्विड डाला था, वे आपस में मिलकर प्रतिक्रिया शुरू कर दें, मुझे इसी का इन्तजार था , जो अब खत्म हो वुका है। प्रदर्शन के अपने आखिरी दौर में, मेरे हाथ में जो गोलियां है, ,मैं इन्हें भी इसी गिलास में डाल रहा हूं ताकि एक रोचक तमाशा आपके सामने शुरू हो सके। और यह कहते हुए राघवन ने अपने हाथ में पकड़ी हुई कचे के आकार की चार-पांच सफे़द गोलियां गिलास में डाल दीं।
इसके बाद उसने बड़ी ही कुशलता से सबको अपनी इघर-उघर की बातों में उलझाये रखा और थोड़ी देर बाद जब उसने गिलास की तरफ सबका घ्यान खींचा तो वहां वाकई एक मज़ेदार तमाशा होता नज़र आया । गिलास में डाली गई गोलियां जो पहले सीघे गिलास की तली में जाकर बैठ गई थीं ,एकाएक अपने आप ऊपर उठकर द्रवं की सतह तक आने लगी थीं। पर न जाने क्यों ,कुछ बीच में वापस तली की ओर लौट गई ं और बाकी सतह तक आकर गोल-गोल घूमने लगीं। फिर ऐसा लगा मानों उन्हें कुछ माफिक नहीं आया और वह भी घीरे-घीरे नीचे की ओर डूबने लगीं।
“      गोलियों का द्रव से भरे गिलास में इस तरह नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे डूबते-उतराते रहने के पीछे अखिर क्या कारण है और इसके लिए यहाँ सामग्री में क्या-क्या शामिल किया गया है ?“ राघवन का अपने साथियों से किया बया यह सवाल एक बार तो माहौल को पूरी तरह शान्त कर गया और मैं खुद भी सन्नाटे में आ गया क्योंकि ऐसे पारिवारिक स्तर के आयोजन में शमिल होने का मुझे कभी अवसर नहीं मिला था। पर कुछ ही क्षण के बाद वहाँ बाल मण्डली में सुगबुगाहट शुरू हो गई और फिर एक के बाद एक अपने-अपने उत्तर कई बच्चों ने प्रस्तुत कर डाले।
सबसे अच्छे उत्तर के तौर पर जिसे चुना गया उसके अनुसार खाने वाले सोडा और सिरके की प्रतिक्रिया से बने काबर्नडाई-ऑक्साइड के बुलबुले द्रव की सतह पर आकर फूटते रहते हैं। नेप्थलीन की गोलियां वैसे तो डूब जाती हैं पर जब काफी सारे गैस के बुलबुले आकर इनसे चिपक जाते हैं तो ये गोलियों को अपने साथ ठीक उसी प्रकार ऊपर सतह तक ले आते हैं जैसे गैस भरे गुब्बारे के साथ इन्सान घरातल छोडकर हवा में ऊँचा उठ जाता है।
सतह तक आने के बाद हवा के संपर्क में आने पर जब कुछ बुलबुले फूट जाते हैं तो बाकी गोली के भार को संभाल नहीं पाते अतः गोलियां फिर डूबने लगती हैं और इसी प्रकार ऊपर- नीचे आने जाने का खेल लगातार चलता रहता है।
चेन्नई में कई वर्ष पूर्व घटी इस घटना के बारे में इतने विस्तार से बताने का मेरा मकसद सिर्फ इतना ही है कि हम सब यह बात अच्छी तरह समझ लें कि विज्ञान केवल कक्षाओं के अन्दर पढ़ाया जाने वाला विषय ही नहीं है वरन यह मनोरंजन का एक अच्छा साघन भी बन सकता है और इस तरह खेल के माघ्यम से इसके आघार भूत और बाद में घीरे-घीरे भारी भरकम या कहें गूढ़ सिद्धान्तों तक को समझने का लाभ उठाया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में बच्चों के अभिभावकों और अघ्यापकों से एक विन्रम निवेदन है क्योंकि दोनों ही विशेष रुप से इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए इन्हें अपने बच्चों की शिक्षा पर घ्यान देने के साथ -साथ उनके अंदर एक ऐसी प्रवृति जाग्रत करने का प्रयास करना होगा जिससे   ेप्रेरित हो ये बच्चे अपने आसपास आसानी से मिल जाने वाली सामग्री से स्वयं प्रयोग कर उसका आनन्द उठा सकें और फिर देखिये कि विज्ञान इन बच्चों के लिए कैसे कठिन विषय की जगह खेल जैसा रोचक बन जायेगा ।
इस तरह के प्रयासों से जहां न सिर्फ विषय के प्रति बोझिलता कम होगी और खेल खेलने जैसा वातावरण बनेगा वरन छात्र-छात्राओं की विषय के साथ एक निकटता कायम होगी। यही निकटता विषय के प्रति उनके मन में बसे डर को दूर भगाकर इसके साथ दोस्ती जैसा एक भाव पैदा करेगी और आगे चलकर यही भाव उन्हें विषय का विशेषज्ञ बनाने में निश्चितरूप से सहायक सिद्ध होगा।
अंतः में सिर्फ इतना ही कि यदि विज्ञान को खेल के स्तर पर न लाकर हम इसे प्रयोगों से पूरी तरह वंचित रखते हुए सिर्फ कक्षाओं में रटाया जाने वाला एक विषय मात्र बनाये रहेंगे तो इस देश में एडीसन, फैराडे और फ्रैंकलिन जैसे वैज्ञानिको की पैदाइश कभी संभव नहीं हो पायेगी और विकास के लिए हमें सदैव पश्चिमी देशों से की जाने वाली आयातित तकनीक पर ही निर्भर रहते हुए पूरी तरह सन्तुष्ट रहना होगा ।

 

- आइवर यूशियल 

 

 

 

आइवर यूशियल उर्फ़ रवि लैटू उत्तर प्रदेश के पवित्र शहर इलाहबाद में १० अगस्त १९४७ को जन्मे। इलाहबाद शहर ने दुनिआ को एक से बढ़ कर एक बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और रचनात्मक व्यक्तित्व के धनी लोग दिए हैं। भारतीय परिवार की परंपराओं को बनाए रखते हुए,आइवर ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की लेकिन तकनीकी क्षेत्र छोड़ रचनात्मक लेखन की आकर्षक दुनिया में कार्यरत रहे।  बच्चों के बीच विज्ञान लोकप्रियकरण के महत्वपूर्ण कार्य की शुरुआत सन् १९८१  से और तब से अब तक इससे संबंधित विषय पर देश के प्रतिष्ठित प्रकाशकों द्वारा ( विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद के अतिरिक्त ) ७५ से ऊपर ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक पुस्तकें और समाचारपत्रों एवम् बाल-पत्रिकाओं में हजारों की संख्या में स्वनिर्मित चित्रों के साथ ज्ञान-विज्ञान आधारित रोचक लेख प्रकाशित किये l 

 

लेखक के रूप में

 

विशेष कार्य: बच्चों के बीच विज्ञान के लोकप्रियीकरण.

 

सिद्धांत: नई पीढ़ी में पढ़ने की आदत और किताबों के लिए गहरे प्रेम को बनाना

 

लेखन शैली: युवा पाठक को ज्ञान हस्तांतरित करने के लिए मीठे शब्दों का उपयोग जिससे पाठक इसे मृदू भावना से समझ सकें

 

अवधारणा: विज्ञान और गणित केवल विषय नहीं हैं ये वास्तव में हैं हमारे जीवन के आवश्यक हिस्से इसलिए दोनों को  एक बहुत ही रोचकमनोरंजक और व्यावहारिक उदाहरण देते हुए सरल तरीके से पढ़ाना चाहिए

 

इच्छा: यदि प्रत्येक इलाके में नहीं तो प्रत्येक शहर में कम से कम एक मनोरंजन केंद्र‘ बनें जहां बच्चे उनकी रचनात्मक प्यास बुझो

 

उम्मीद: ऐसे अवसरों की तलाश में जिसके माध्यम से युवा पीढ़ी के लिए न केवल लेखन और चित्रण बल्कि अन्य माध्यम-जैसे ऑडियो-वीडियो के साथ भी अधिक से अधिक ज्ञान प्रदान किया किया जा सके

 

अनुभव: बच्चों की पहली हिंदी साप्ताहिक पत्रिका एजेंसी “ग्यासिम” के लगभग एक दशक के लिए संपादक रहे

 

सपना: बहुत ही कम कीमत पर किशोरों के लिए एक अच्छी रूप-रेखा वाली और पूरी तरह से सचित्र विज्ञान पत्रिका प्रकाशित करना

 

उपलब्धि: देश भर से बच्चों के ६०००० अधिक प्रशंसक ई-मेल 

 

पुरस्कार : दिलचस्प हैअभी तक एक भी नहीं

 

इन ७१ हिंदी और अंग्रेजी पुस्तकों में से में कुछ का अनुवाद तेलगुबंगालीअसमिया और कन्नड़ किया गया है। इन प्रकाशनों के अलावाप्रतिष्ठित पत्रिकाओं और बच्चों के पत्रिकाओं में हजारों लेखों छपे हैं।

 

 

एक कलाकार के रूप में

 

नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में कई सालों से लगातार भारतीय मंडप का अंदरूनी रूप-रेखा तैयार किया,

 प्रकाशनों और पत्रिकाओं के लिए चित्रणआवरण रूप-रेखा और ख़ाका तैयार किया,

 रक्षा सेवा के लिए विशेष रूप से ट्राफियांकपस्मृति चिन्ह और स्मृति चिन्ह की डिजाइनिंग

और एन सी ई आर टीनई दिल्ली के लिए “बाल साहित्य पुष्कर” १९९७ की रूप-रेखा बनाना,

 बधाई पत्रक की रूप-रेखा बनाया और आवश्यकता अनुसार निर्यात के लिए हाथ चित्रित पत्रक बनाया,

 एक पूर्ण दशक के लिए बाटिक माध्यम के साथ काम किया और प्रयोग किया।

कई प्रदर्शनियों में अपने चित्रों के साथ भाग लिया १९७७ में त्रिवेणी गैलरीनई दिल्ली में प्रथम एक आदमी का प्रदर्शनी का आयोजन किया।

 वर्ष १९७६ और ७७ मेंन्यू यॉर्क वर्ल्ड ट्रेड फेयर में, “डी.एस.आई.डी.सी.नई दिल्ली” की तरफ से भारतीय पारंपरिक कला बाटिक पेंटिंग्स का प्रतिनिधित्व किया 

 

 

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