मुक्तिदाता

“सुना तुमने! सतपाल पूरा हो लिया।”
घर में घुसते ही उसने पत्नी को संबोधित करते हुए कहा।
“हैंss…!”
पत्नी जरा अचंभित हुई। फिर बोली, ” टाँग टूटने के बाद तो अपने पैर चल ही न पाया वह, बेचारा!”
“बमुश्किल खुद को घसीटता-सा हमारे दरवाजे तक ले आता था। कितनी ही बार मैनें घर रखी दवा उसको माँगने पर दी। जो भी गोलियाँ पड़ी होती थी तो दे देती थी। न होती तब ही मना करती।”
बड़ी भाभी ने खुद के बड़प्पन का बखान किया।
“कितनी ही बार दस-दस रुपए दिए मैनें उसे। बीड़ी पीने के भी पैसे नहीं होते थे उसके पास। कम से कम बीड़ियों के लिए तो उसे मैं पैसे दे ही देता था।”
बड़े भाई ने भी अपनी दयालुता और दानी स्वभाव उज़ागर किया।
“तंगहाली में उसके बच्चों के पेट सूतली हुए जाते हैं, उसके लिए तो खाना भी कहाँ मयस्सर था। तड़प ही रहा था। अच्छा हुआ उसे मुक्ति मिली।”
भाभी ने गहरी सांस ली।
“सही कहा।”
बड़े भाई ने समर्थन किया।
 उसके मुख से अनायास बोल फूटे, “धन्य हैं।”
सभी एक स्वर में पूछने लगे, “कौन?”
उसने हाथ जोड़ कर कहा, “ऐसे सब मुक्तिदाता।”
 - सतविन्द्र कुमार राणा 

प्रकाशित: 5 लघुकथा साँझा संकलन,साँझा गजल संकलन,साँझा गीत संकलन, काव्य साँझा संकलन, अनेक प्रतिष्ठित साहित्यक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ, पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों में समीक्षाएं प्रकाशित,साहित्य सुधा, साहित्यिक वेब openbooksonline.com, ,साहित्यपेडिया, laghuktha.com,लघुकथा के परिंदे समूह में लगातार रचनाएँ प्रकाशित।
सह-सम्पादन: चलें नीड़ की ओर (लघुकथा संकलन प्रकाश्य), सहोदरी लघुकथा-१
सम्प्रति: हरियाणा स्कूल शिक्षा विभाग में विज्ञान अध्यापक पद पर कार्यरत्त।
शिक्षा: एमएससी गणित, बी एड, पत्राचार एवं जन संचार में पी जी डिप्लोमा।
स्थायी पता: ग्राम व डाक बाल राजपूतान, करनाल हरियाणा।

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