किस्मत भी क्या चीज होती है, किसी को नहीं पता। कल कलकत्ता के स्टेशन पर दर-दर ठोकर खा चुकी एक पचपन वर्ष की रानू रातों रात सिने स्टार की चहेती बन जाती है और इतना ही नहीं म्यूजिक डायरेक्टर हिमेश रेशमिया की एक फिल्म में गीत गाने के लिए चुनी जाती है। कल जो बिस्कुट और भर पेट खाना के लिए तरस रही थी, वही आज हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश के हर नौजवान के मुँह पर उनकी चर्चित है और उसके द्वारा गाई गई गीत हर जुबां पर गुनगुनाहट के रूप में रहने लगी है। क्या अजीब खेल भी है इस किस्मत का? सिर्फ और सिर्फ एक गाना वायरल होता है और किस्मत ही बदल जाती है।
तुम आखिर कहना क्या चाहते हो?
यही कि क्या पता मेरी भी किस्मत कभी बदल जाए और…?
और क्या? यही न कि तुमको भी लेने के लिए पूरी की पूरी मुंबई उठकर आ जाए।
ऐसा भी नहीं होता प्यारे। हर चीज को मजाक नहीं समझना चाहिए।
यह मजाक नहीं है, बिल्कुल ही सीरियस मैटर है। देखना एक दिन तुमको भी ढूंढने आ ही जायेगा। फिर तो बल्ले-बल्ले। तुम्हारी किस्मत ही बदल जाएगी।
अरे यार, ऐसा भी कमेंट मत करो।
इंसान के हाथ कुछ भी नहीं होता दोस्त। सब कुछ ऊपरवाले के जिम्मे होता है।
फिर भी ऊपर वाले के नीचे हम ही लोग ऊपर हैं न?
ऐसा भी नहीं होता। ऊपर वाले के नीचे ऊपर में रहनेवाले साधु-सन्त-फकीर होते हैं। हम सब तो बहुत ही नीचे हैं।
फिर तो वेटिंग लिस्ट में नाम है न?
जी, पर इससे क्या हो जाता?
होता है दोस्त, बिल्कुल होता है। जब सीट खाली रह जाती है तो उसी वेटिंग लिस्ट से लिया जाता है।
लेकिन…
लेकिन, क्या…?
लेकिन उसमें भी ऊपर से ही लिया जाता है, सबसे नीचे रहनेवाले का नंबर ही नहीं आता।
अजी केवल बातें ही बनाओगे या फिर काम भी बातें भी करोगे?
क्या मैं एक बात तुमसे जान सकता हूँ?
शौक से…
क्या तुम मेरे सवाल का सही-सही जवाब दे दोगे न?
तुमको क्या लगता है कि मैं जवाब नहीं दूँगी।
जी, लगता है ऐसा कि गोल-मटोल जवाब दोगे।
ऐसा नहीं होता।
फिर कैसा होता…?
कुछ नहीं, बोलो तो सही…
अच्छा, तुम बताओ कि आजकल जिंदगी में इतनी नीरसता कैसे आ गई?
नीरसता नहीं आई है, मैं तो समझती हूँ कि सही में आजकल ही जिंदगी में सरसता आई है। पहले तो केवल कल्पना, और ड्रीम की बातें होती थीं।
कैसे?
कैसे का क्या कहना? यह तो बिल्कुल क्लियर है कि पहले, आई मिन आज से महज दो दशक पहले कम्युनिकेशन का कोई सोर्स नहीं था और था भी तो इने-गिने जनों के पास। और आज तुम ही देख लो, हर किसी के इलेक्ट्रॉनिक्स सोर्स है, मीडिया है। कल का काम पल में हो रहा है।
बट, कभी तुमने इसका बैड इंपेक्ट सोचा?
ऐसा थोड़े होता है यार? हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। यह तुम पर डिपेंड करता है कि इसे किस एस्पेक्ट्स से लेते हो।
फिर भी बर्फ तो हमेशा ठंडा ही होता है न? चाहें इसके किसी भी एंगिल से देख लो।
जी नहीं, बर्फ के भी दो भाग होते हैं। अगर केमिस्ट्री पढ़े होगे तो याद होगा – एक सिम्पल आइस और दूसरा ड्राय आइस।
गजब हो यार… केमिस्ट्री में ले गए।
तो, इससे क्या हो गया?
कोई किसी को कहीं नहीं ले जा सकता है, ये सब केवल कहने की बातें हैं, जिसको जहाँ जाना होता है, जिस किसी भी तरह वहाँ पहुँच ही जाता है।
क्यों, अगर कोई कहेगा – मंगल ग्रह जाना है, तो पहुंच जायेगा?
बिल्कुल पहुँच जायेगा। अगर उसके पहुँचने की प्रबलता तीव्र होगी और उस तीव्र प्रबलता को पॉजिटिव वे में ले लें तो निश्चित पहुँच जायेगा। अरे, इंसान के पहुँचने से पहले उसकी सोच पहुँचती है। ऐसा भी कहा जाता रहा है कि इंसान वहीं तक पहुँच सकता है जहां तक उसकी सोच पहुँचती है।
ऐसा है…?
तो, फिर… चलो हम दोनों चंद्रयान पर चलते हैं।
देखो निकहत, इतना भी आसान नहीं होता किसी को अपनी फीलिंग्स में समाहित कर उससे अलग हो जाना।
तुम्हारे कहने का क्या मीनिंग हुआ?
मीनिंग कुछ नहीं। मेरा तो इतना ही कहना है कि जहाँ तक साथ चल सके उम्मीद वहीं तक रखनी चाहिए। लाइक, हम दोनों की दोस्ती जहाँ तक रह सकती है, उम्मीद भी वहीं तक रखनी चाहिए।
ऐसा नहीं होता, मुझे इतना ही पर्सेंट नशा होगा, कहकर कोई वाइन नहीं पीता?
फिर भी, अगर उसके पीने का लिमिटेशन एक रेंज तक हो तो वह उसी सर्किल में राउंड करता है।
देखो अरशद, हर जगह तुम्हारी केमिस्ट्री काम नहीं आती? ये केमिस्ट्री भी न एक अजीब सब्जेक्ट है, हर वक्त रिएक्शन के बारे में सोचते रहना पड़ता है।
ऐसा भी नहीं है, इसके भी खंड होते हैं।
पता है, ऑर्गेनिक, इन-ऑर्गेनिक की बात बोलोगे न…
क्यों, तुम फिजिकल केमिस्ट्री भूल गए?
तुम न सच में फिफ्टी से बिलो हो?
मिंस?
गजब हो यार, ये भी नहीं समझ सकते हो। आई मिन, तुम्हारा आईं क्यू लेवल बिलो फिफ्टी है।
अगर अबोव फिफ्टी होता, तो कौन-सा पहाड़ फाड़ देता?
पहाड़ फाड़ना और इसे तोड़ने की बात नहीं है। अरे, मैं तो छोटी-सी पहाड़ी की चोटी पर चढ़ने की बात कर रही थी।
ओह, तो फिर तुम्हारी वो कौन सी पहाड़ी है, जो छोटी है?
अरशद, क्या तुम कभी किसी पहाड़ को देखे हो?
अगर कहूँ नहीं देखा है, तो… और अगर कह दिया, हाँ देखा है, तो…?
ये तो… तो… क्या लगा रखे हो?
यही कि हाँ या फिर ना ।
अगर देखे हो तो ऑब्वियसली पहाड़ के बाद छोटी पहाड़ी कहने की जरूरत नहीं है। अरे, पहाड़ी का मतलब ही छोटा हो गया।
अच्छा निकहत, तुम जो इस कदर मुझसे बातें कर रही हो, तो इसको अंजाम तक पहुँचा सकते हो?
अरे बाबा, अंजाम उसके हाथ… आगाज करके देख, भीगे हुए पर में भी परवाज़ करके देख।
देखना यहाँ तसव्वुर बन जाती है, देखते-देखते कोई कसूर बन जाती है।
अच्छा, तो आ गए न आखिर तुम भी?
मैं तो कब का पहुँच चुका हूँ, किस्मत तो उनकी खराब होती है जो हाथ की हथेलियों पर विश्वास करते हैं।
देखो, निकहत… उस पार की छोटी-छोटी पहाड़ी को देखो… कितने सुंदर लगते हैं। ऐसा लगता है, मानो बहुत ही करीने से किसी ने सजा रखा है। बट, सच में ऐसा नहीं होता। जब उस पहाड़ी पर पहुँचोगे तो पता चलेगा कि कितना खालीपन और कितनी कंटीली झाड़ियां हैं उसपर। कहीं पत्थर के टुकड़े जमा हैं तो कहीं झाड़ियों में आग लगा दी गई है।
जिंदगी की दास्तां भी कुछ ऐसी ही होती है। जब किसी को हँसते या मुस्कुराते देखते हैं तो यह महसूस करने लगते हैं कि अगला काफी खुश होगा, लेकिन जब उसे करीब से जानने लगते हैं तो पता चलता है कि कितनी परेशानियों में उसकी जिंदगी कटती है… कितने दर्दों और जख्मों को छुपाए रखे चलता है वह। सच में यह जिंदगी वैसी नहीं होती जैसी दिखने में लगती है। यह जिंदगी तो महज एक दिखावा है, एक छलावा है, एक लंबी अनकही दास्तां है, एक अव्यक्त पीड़ा है, एक जख्म भरा जख्म है, जिसे देखा या दिखाया नहीं जा सकता। यह जिंदगी एक ऐसी जगह-सी होती है, जहाँ वीरानों के सिवा कुछ और नहीं दिखाई पड़ता। और तो और जिंदगी एक लंबी कतार में खड़ी आखिरी उस प्रत्याशी के माफिक होती है, जिसकी पंक्ति या फिर बारी आने के पहले ही शाम हो जाती है। अरे ओ कमबख्त दिल, तुम भी कितने नादान हो, कितने बेवकूफ हो? जिसे तुम यह जानते हो कि उसकी वापसी नहीं हो सकती और न ही उसे वापस किया जा सकता, फिर भी उसके इंतजार और कल्पना में खोये-खोये-से रहकर अपनी ख्वाहिशों का कत्ल करते रहते हो। तुमको यह पता है कि उसे अब किसी भी तरह से हासिल नहीं किया जा सकता, बावजूद फिराक गोरखपुरी की शेर में खोए रहते हो-
“न कोई वादा, न यकीं, न ही उम्मीद
मुझे तो बस तेरा इंतजार करना था।”
अजी, अरशद… क्या तुमको पता है कि तुम क्या बकते जा रहे हो? अरे, अब मुझको समझ में आने लगा है कि तुम सचमुच में एक गमजदा इंसान हो… कोई मायूस और लाचार परिंदा हो, जिसके पंख तो हैं, लेकिन उन पंखों में उड़ान की कोई ताकत नहीं है। तुम चट्टान पर उकेरे हुए उस तस्वीर की तरह हो, जिसमें खूबसूरती तो है, मगर उसके अंदर कोई दिल नहीं और न ही आत्मा है। तुम्हारी बेवशी उस लहरों की मनिंद है, जिसके अंदर रवानी तो है, मगर उसके ठिकाने का कोई मकां नहीं… कोई ठिकाना नहीं…।
तुम भी न यार, हद से ऊपर हो… किसी की हालत और हालात को नहीं समझती हो।
ओ… हो…, इसका मतलब हुआ कि तुम्हारी हालत किसी हालात का शिकार हो गयी क्या?
ऐसा भी नहीं होता मेरे दोस्त…. दरअसल आज मुझे यकायक उसकी याद आ गई।
किसकी याद यकायक आ गई?
आ गई, बस जिसकी आनी थी… उसकी याद आ गई।
फिर तो हाथ धुला देते…
मेरे दोस्त, किसी की याद आने से और उसके नाम पर हाथ धुलाने से कुछ नहीं होता।
फिर क्या करने से क्या होता है? तुम्हीं बताओ।
नथिंग, कुछ भी नहीं। यह याद भी न, इतनी नासूर चीज है, जो वक्त-बेवक्त आ ही जाती है।
भाव क्यों खा रहे हो? बताना है तो बताओ वरना खुद ही खुद से बातें करके चुप हो जाओ। इस दुनिया में सिर्फ तुम ही नहीं हो जो हालात का शिकार हुए हैं। अरे यह दुनिया ही ऐसी है, जहाँ किसी न किसी कारण सबको कुछ न कुछ परिस्थितियों से होकर गुजरना ही पड़ा है।
देखो निकहत, उस आसमां के ऊपर की गहराई को देखो… शायद तुमको मालूम हो जाएगा कि उन धुंधले तारों के अंदर भी अनेक तारे हैं, जिसे नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता।
जी, अरशद। कहीं पढ़ा है… नंगी आंखों से केवल छह हजार तारे ही देखे जा सकते हैं, बांकी देखने के लिए इलेक्ट्रो-माइक्रोस्कोप की जरूरत पड़ती है।
क्यों, पता है?
जी, क्यूंकि इलेक्ट्रो-माइक्रोस्कोप किसी भी चीज को बीस हजार गुना आवर्द्धित करके दिखा सकता है।
फिर, तो क्या तुम्हारी आँखों में इलेक्ट्रो…
नहीं, केवल इलेक्ट्रो नहीं, बल्कि सुपर इलेक्ट्रो है। इससे न केवल मैं देख सकती हूँ, बल्कि विजुअल प्रोग्राम को भी कैच कर सकती हूँ। नहीं मानोगे न…?
इसमें मानने या नहीं मानने की कहाँ बात है? अरे, इसकी जरूरत अभी नहीं है।
किसकी…?
दिमाग से पैदल ही हो क्या यार?
इंसान चंद्रयान पर पहुँच गया और तुम जमीं की बात नहीं समझ सकते।
नहीं, वो तो फेल्योर हो गया।
चंद्रयान-2 की बात कर रही हूँ। अभी तो फिर दूसरी तैयारी भी हो गई, किस दुनिया में रहते हो – ख्वाबों की या फिर कभी हकीकत की भी?
नहीं, मेरे दोस्त। इंसान अपनी जिंदगी में समय की कीमत नहीं समझता और नतीजा होता है कि इसकी कीमत चुकाने में ही उनकी जिंदगी की शाम हो जाती है। भले ही इंसान कुछ कह ले, लेकिन एक वक्त आता है कि उसे अपनी बीती जिंदगी के साथ हो लेना पड़ता है और वह वक्त, वह समय बड़ा जहरीला होता है।
फिर क्या, वो तेरी मेरी कहानी बन जाती है क्या?
जी, निकहत यह केवल कहानी बनकर नहीं सिमटती, एक दास्तां बन जाती है। ऐसी दास्तां, जो जिस किसी को भी सोचने और समझने को मजबूर कर देती है।
चलो, बहुत हो गया। जमीं से लेकर आसमां तक पहुंच गए। अब थोड़ी नशेमन की भी बात हो जाए…
अरे यार, तुम भी न…
क्या?
कुरेद-कुरेद कर घाव बना ही दोगे।
ऐसा नहीं मेरे दोस्त, मैं तो वो मरहम हूँ जो बड़े से बड़े घाव को भी भर देती है।
और जिस घाव को भरा नहीं जा सकता उसे?
उसे ऑपरेट करके सेपरेट कर देती हूँ ताकि अल्सर से कहीं कैंसर न हो जाए।
लेकिन हर घाव को ऑपरेट नहीं किया जा सकता – मसलन दिल के घाव को।
गलत… इसे भी ठीक किया जा सकता है, लेकिन ऑपरेट से नहीं कॉपरेट से।
जी, यह तो सही है, बट… समय तब तक बहुत दूर निकल चुका होता है।
देखो अरशद तुम्हारी आँखें भर रही हैं। कुछ तो बातें हैं… अरे बाबा तुम्हारी तो बस तुम्हारी रहेगी, यकीन मानो कोई डिस्टर्बेंस नहीं होगी।
जो होना था वो तो हो गया… अब क्या रह गया है?
नहीं मालूम… लेकिन मुझको लगता है यादें, दोस्ती और जख्म कभी नहीं भरते। भले ही इसे इग्नोर करके भूल जाएँ, बट, वक्त-बेवक्त आ ही जाती हैं।
फिर तो ले आओ न… किसने मना किया है…?
मुमकिन ही नहीं। जो वक्त चला जाता है, उसे वापस नहीं लाया जा सकता, जो हवाएँ गुजर चुकी हों, उसे रिटर्न नहीं किया जा सकता और जो उम्र निकल चुकी हो, उसे भी नहीं लौटाया जा सकता मेरे दोस्त।
ऐसा भी नहीं होता… मुमकिन हर चीज है। असंभव नाम की कोई चीज नहीं होती… अगर पाने की लालसा तीव्र हो, और जुनून में प्रबलता हो, तो किसी भी खोई वस्तु को गेन किया जा सकता है।
किताबी बातें और फिलोसॉफिकल डायलॉग केवल पीस के लिए होता है, केवल ढाँढस बंधाने के लिए होता है। बट, हकीकत यह है कि बह चुके लहरों को वापस नहीं किया जा सकता… जो बीत गई, वह बीत गई।
फिर भी मेरे दोस्त, कम से कम उन ख्यालों के साथ तो हो सकती हूँ न…
इससे क्या फायदा?
फिर, नुकसान ही क्या?
बहुत ही ज्यादा – अव्वल तो ये कि ख्यालों में आयेगी, बीते लम्हों को साथ लायेगी। और फिर सारी घटी हुई घटनाएँ एक के बाद एक परत की तरह निकालती चली जायेंगी। आँखें दूर तलक जाकर फिर उसी दहलीज पर खड़ी होकर स्तब्ध स्थिर होती हुई मेरे दिल के अंदर के कुनबे में बैठ मुझे बेचैन करने लगेंगी। तुम्हीं बताओ निकहत, क्या इस क़दर का होना ठीक होगा?
अच्छा, तुम बताओ कि अगर मैं हामी भर दूँ तो क्या इसको तुम भूल जाओगे… या फिर अगर ना कह दिया तो क्या तुम शांत हो जाओगे? मुझको लगता है – नहीं… कारण, जो हो चुका होता है उसके हम हो चुके होते हैं, और जिसके हम हो चुके होते हैं, उसके हो चुके होते हैं। यह फिलोसॉफिकल थॉट नहीं बल्कि जीवन का यथार्थ है, सच्चाई है।
कुछ हद तक तुम भी सही हो। कारण, पीड़ा हमेशा दर्द देता है और जब यह सूख जाता है, तब दर्द भी खत्म हो जाता है और यह पीड़ा तब तक नहीं सूखता जब तक एंटीबायोटिकस नहीं लिया जाता और यह एंटीबायोटिक्स कन्वर्सेशन होता है, बातचीत से होती है – अपनों से, अपने आप से।
हाँ, निकहत, उन दिनों मैं मेडिकल के फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट था। शुरुआती दौर था, एक अलग ही उत्साह और क्रेज था। पहनने का शौक, स्टाईल, बात करने की अदा, चलने-बैठने का सलीका सब कुछ अलग था। अंदर से बार-बार खुद-ब-खुद आवाज आती जो कह डालती कि तुम दूसरों से अलग हो। मैं हर दिन ड्रेस बदलकर क्लास करने जाता। बड़ा सा गोगल्स पहने कुछ मुस्कुराहट-सा चेहरा बनाकर सबसे आगे के सीट पर बैठता। मुझको याद है वह दिन पांच सितम्बर का दिन था और कॉलेज में टीचर्स डे था।
सभी अपनी अपनी धुन में मस्त नजर आ रहे थे। एक अलग माहौल था। रूम नंबर तीन को बड़े करीने से सजाया गया था। फूलों की खूबसूरती और किनारे बेलून रंग-बिरंगे हवा की धीमी गति से हिल रहे थे। यदा-कदा अनायास कुछ खुद-ब-खुद फट करके फूट जाते। केक की व्यवस्था की गई थी। चारो ओर खुशियाँ अपनी चादर बिछाए हुई थीं मानो।
यकायक रणजीत सर का आगमन हुआ। हम सभी उनके अभिवादन में खड़े हो गए। इतने में रफ्ता-रफ्ता फोटोग्राफ का सिलसिला शुरू हो गया। पहले तो गर्ल सब मिलकर सर जी के साथ अपनी तस्वीर खिंचवाने लगी। फिर लड़कों की बारी आई और फिर सबों की एक साथ। यकायक मैंने देखा रूही मेरे बहुत ही करीब आकर खड़ी हो गई और मेरे एंड्रॉयड मोबाईल को बेग करते बोलने लगी -
ये सेट कितने की है?
क्यों?
यूँ ही, जानना चाहा…
पसंद है क्या?
अगर हो भी जाए तो ऑफर कर दोगे क्या?
अगर कर दिया तो?
कुछ नहीं एक्सेप्ट कर लूंगी…
हूँ…
आईं सी… कहते मैंने सेट को उसके हवाले कर दिया।
अजी, अरशद! अरे, मैं तो मजाक कर रही थी…
मैं भी मजाक ही समझ रहा हूँ रूही, लेकिन पसंद तो सही है न… वो मजाक नहीं समझता…
तुम न यार थोड़ा अजीब हो….
सो कैसे?
बस यूँ ही…
फिर भी रीजन तो होगा न?
कुछ नहीं…
सच में रूही, तुमको यह सेट पसंद है तो रख सकती हो।
रूही किसी के यूज किए सेट को यूज नहीं करती… समझे जनाब…
ओह! मतलब मैं जनाब हो गया…
जी, रेस्पेक्ट के लिए इससे बढ़िया कौन-सा वर्ड हो सकता था?
देखो रूही, वर्ड का कोई फ़र्क नहीं पड़ता, वर्ड के स्ट्रेस और ऐटिट्यूड पर फर्क पड़ता है।
फिर भी, एक डॉक्टर का विजन क्लीयर और कॉन्सेप्ट से पूर्ण होता है।
जी, इससे पहले एनाटॉमी का स्टडी कंपल्सरी होता है…
केवल स्टडी नहीं, प्रैक्टिकल भी…
जी, कुछ-कुछ …
क्या, कुछ-कुछ?
बस, समझ में आ रहा है।
उस दिन मुझको लगा कि सच में दोस्त का होना कितना जरूरी होता है – खासकर पढ़ने के समय। एक तो एंटरटेन हो जाता है, फिर प्रॉब्लम भी शॉर्ट आऊट। मन ही मन सोचकर खुद को काफी हलका महसूस करने लगा था। रूही के प्रति मेरे मन में धीरे-धीरे अपनापन पनपने लगा। रेसिड पहुँचा तो बहुत देर तक उसके साथ हुई बात को याद करता रहा। मन जब कुछ शांत हुआ तो कोपर की एक पुस्तक पर यकायक नजर गई। मैंने लपककर उसे अपनी हाथों से नीचे पास कर लिया। तकिया पर एक हाथ से अपने सिर और गाल को दबाते लेट गया। पन्नों को कुछ अनमने ढंग से उलटने लगा। उनकी एक कविता द मॉर्निंग ड्रीम को पढ़ने लगा। कवि सुबह के समय जो ख्वाब देखता है और उस ख्वाब में एक खूबसूरत महिला से वार्तालाप होती है। धीरे-धीरे दोनों के बीच प्रेम का रिश्ता हो जाता है और नायिका के साथ झरने के किनारे की महकती हवाओं की खुशबू उसके खूबसूरत चेहरे को उनके घुंघरेले बाल रह-रहकर ढँकते रहते हैं, एक अलौकिक संसार को जन्म देते हैं। लेकिन, वहीं कुछ देर बाद उसके दुश्मन उसकी हत्या कर देता है और कवि की आँखें खुल जाती हैं। एक तरफ उनका प्यार और दूसरी तरफ उनकी जुदाई – वह भी भयानक उसके दिल को ध्वस्त कर देती है… भले सपनों में ही। मैं दूर तलक सोचता रहा और विलियम कोपर के साथ हो लिया। सोचने लगा – यह संसार भी कैसा है? लोग अपनी खुशी को भी जी भर नहीं जी सकते। कितने क्रूर हैं आज के इंसान, जो सपनों में भी चैन से सोने नहीं देते। और सच कहता हूँ यही सोचते-सोचते मेरी भी आँखें भर आईं। फिर देखते ही रात गहरी होने लगी और मैं सो गया।
फिर क्या हुआ मेरे दोस्त… तुम चुप क्यों हो गए?
नहीं, कुछ भी नहीं…
नहीं, तुम्हारी आंखें भर आईं। देखो अरशद… तुम मुझे माफ़ कर देना… मैंने तुम्हें दुख दिया। मैंने तुम्हारे दिल को ठेस पहुँचाई। अगर मुझको यह पता होता कि तुम गम खाए इंसान हो या फिर तुम किसी और ही दुनिया में पहुँच जाओगे, तो सच में तुमको मैं कुछ नहीं बोलती। अरे अरशद, देखो तो पूरब की तरफ… कितना खूबसूरत लग रहा है! इस पहाड़ के नीचे से निकलता हुआ धुआँ… फिर ऊपर आकाश की ओर उड़ते बादल के साथ उसका मिलन।
जी, निकहत… मैं बहुत दूर निकल गया था, इतनी दूर जहाँ से आना बहुत ही मुश्किल था। कैसे इंसान जी लेते हैं?
प्लीज बताओ न… कितनी दूर तुम निकल गए थे?
बहुत ही दूर निकहत… बहुत दूर…
फिर भी…
जी निकहत, उतनी दूर जहाँ न सूरज की किरणें पहुँच पाती हैं और न ही चन्दा की चांदनी…
ओह! काश मैं भी उतनी दूर पहुँच पाती!
नहीं निकहत, तुम नहीं समझ सकती हो। यह दिल भी न, अजीब होता है। दर्द को छुपा लेता है और जख्मों को भी… जब कभी भी याद करो आँखों में स्मृतियाँ आ जाती हैं और दिल पसीज जाता है।
हूँ… आईं कैन फील… फिर अगर तुम कहना चाहो तो कह सकते हो…
जी, निकहत, फिर…
एक दिन मैं स्कूटी से आ रहा था, देखा रूही रोड के किनारे खड़ी थी। मुझे लगा कि शायद वह किसी का इंतजार कर रही हो। मैंने स्कूटी रोक दी और उनसे कहा – चलना है क्या?
कहाँ…
बस और कहाँ… कॉलेज…
नहीं, मुझे नहीं चलना…
बट, आज तो एनाटॉमी का क्लास है न?
हूँ… इससे क्या? क्या एनाटॉमी के क्लास के लिए तुम्हारी ही बाइक से जाना जरूरी है?
नहीं, ऐसा भी नहीं है रूही… एक दोस्त होने के नाते पूछ लिया…
शुक्रिया, कहते वह मुँह फेर ली।
आज यह मेरी जिंदगी की यह सबसे उदास दिन था। मैं बार-बार सोचता, आखिर इतनी बेरुखी से रूही मेरे साथ टॉक की… क्या सच में लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं? अगर खुद से भलाई करना चाहो तो भाव खाती है। क्या जरूरत पड़ी थी मुझे भी। बेवजह मैंने अपना दिल दुखा लिया। फिर सोचता मैं तो दिमाग से हॉलो हूँ। जब किसी भी गाड़ी के पीछे “जगह रहने पर पास दिया जायेगा” लिखा होता है, तो मुझे भी इसकी जानकारी ले लेनी चाहिए थी। हो सकता है, उसका कोई फ्रेंड पहले से हो और वह उसी का वेट कर रही हो। अजीब चक्रव्यूह में उलझा हुआ मैं लग रहा था। कॉलेज आया और सबसे पिछली सीट पर मन मारकर बैठ गया। आज एनाटॉमी का सच में बहुत ही इफेक्टिव क्लास था, लेकिन मैं केवल और केवल देखता-सुनता रहा। ध्यान और मन जरा भी नहीं लग रहा था। मैंने देखा रूही भी क्लासरूम में थी।
दिन गुजरते गए। मैं हर दिन क्लास जाता। पिछली सीट पर बैठ जाता। सर जी की बातों को गौर से सुनता और घर वापस आ जाता। रूही की तरफ नजरें नहीं मिलाता, कारण मुझको अपने में हुमिलेट फील होता। इंसान गलती करता है, एहसास करता है… लेकिन अगर कोई गलती हो ही नहीं और एहसास करने लगे तो इसे किस प्रकार की गलती कहा जा सकता है?
मेरा मन तो बार-बार यही कहता कि तुम नाहक कोई चीज को इश्यू समझ रहे हो? अरे बाबा, अपने फ्रेंड को अपनी बाइक पर लिफ्ट देना गलत नहीं कहा जाता। न कोई गलत बात की और न ही कोई इंटेंशन गलत था तो बेवजह की वजह क्यों बना रहे हो? देखो अरशद यह दुनिया है… यहाँ जाने-अनजाने इंसान से गलती हो भी जाए तो इसे गांठ बांधकर नहीं रखा जाता। जीवन में आगे बढ़ने वाले हर बात को लेकर नहीं चलते। छोटी छोटी बातों को इग्नोर करके ही इंसान महान होता है, वरना अगर हर छोटी-छोटी बातों में उलझ जाए तो बड़ा से बड़ा काम करना मुश्किल हो जाता है। अरे, उगते पोधों को देखो – छोटी छोटी घासों को इग्नोर करके ही विशाल पेड़ का रूप ले लेता है… – खुद ही खुद बातें करता वह निकहत से शेयर कर रहा था।
अरे बाबा, फिर क्या हुआ?
थोड़ा सा पेसेंस तो रखो, जब बात निकली है तो दूर तलक जायेगी।
जी, बहुत दूर चली गई… अब तो जाने का धुंधलापन भी नजर नहीं आ रहा।
इस कदर की बातें और मन में द्वंद्व बहुत दिनों तक चलता रहा। अचानक मैंने एक दिन की सुबह देखा रूही की गाड़ी मेरे करीब आकर रुक गई। मैं टावर गार्डन के बगल खड़ा था। उसने हल्की आवाज लगाई – “अरशद, क्या तुम्हें मुझसे तकलीफ हो गई? इसके लिए सॉरी। तुमको नहीं पता शायद कि आज भी मेरे पैरेंट्स में हाइपॉक्रटिक इमेजेज हैं। वे किसी के साथ देखना लाइक नहीं करते।” चलो आज मैं तुम्हें ऐसी जगह लिए चलती हूँ, जहाँ की खूबसूरती देखने के लिए दुनिया के लगभग तमाम देशों से लोग आते हैं। क्यों… अरे पत्थर की मूरत बने रहोगे या फिर चलोगे भी, कहते उसने स्कोर्पियो के दरवाजा खोल दी थी।
मैं पहले तो नजरें झुकाए खड़ा रहा। मुझे ऐसा लग रहा था मानों मैं एक अपराधी हूँ। दिल पर बात ठहर ही नहीं रही थी। पिछले दिनों की बात मुझको घायल कर देती,जबकि रूही ने मुझसे अच्छा व्यवहार नहीं किया था। यकायक आँखों के सामने वही पिक आते जा रही थी। इंसान भले ही लाख कोशिश कर ले, लेकिन जब चोट दिल पर लग जाती है, तो वह अमिट हो जाती है और फिर भुलाए नहीं भूलता। मुझको लगा कि रूही यह बात समझ पा रही थी, जिस कारण वह देर तक खड़ी की खड़ी थी। अब वह मेरे काफी करीब आकर खड़ी हो गई और बंचेज ऑफ कीज थमाने लगी। देखो अरशद, आज गाड़ी तुम ही चलाओ… चलाओगे न?
नहीं रूही, आज मुझको कहीं जाने का दिल नहीं है… तुम चली जाओ…
ऐसा तो नहीं ही होगा अर्सू। आज तो तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा। बहुत जिद्द करने पर उसकी गाड़ी पर था।
जी अर्सु, क्या तुम मुझसे बातें नहीं करोगे?
जी, ऐसी भी बात नहीं है रूही। गाड़ी चलाते समय कन्सन्ट्रेशन बिगड़ जाएगा।
कुछ भी नहीं होगा… रास्ता क्लीयर है और मैं भी एक्सपर्ट हूँ।
लेकिन कोई भी घटना एक्सपर्ट से ही होता है रूही… नए सीखने वाले तो डर-डर के चलाते हैं।
और डर-डर के बातें भी करते हैं… क्यों?
जी, जब महसूस हो कि गलती हो सकती है…
और जब गलती पर कोई ध्यान ही न दिया जाय तो…
गलती होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
ऐसा भी होता है?
बिल्कुल।
कैसे?
जी, जब अगले को पता चले कि मेरी गलती की कोई सजा या भर्त्सना नहीं हो तब…
अरे, यह तो नया फिलोसॉफी है…
नहीं, फिलोसॉफी कभी नया और पुराना नहीं होता…
सो कैसे?
जी, फिलोसॉफिकल थॉट आलवेज कंटेमपोररी होता है।
बावजूद, जब कोई फिलोसॉफी यूज नहीं करते तो उसे डेड ही मान लिया जाता है।
किसी चीज को महज मान लेने पर वह सच नहीं हो जाता।
क्यूँ?
बस ऐसे ही… अगर कोई यह कहे कि मान लो फिर अगर अगला जन्म यहीं हो जाए तब?
देखो अरसू, इतनी मैं इंटेली हूँ नहीं जो तुम्हारी हर बात का जवाब दे सकूँ?
जवाब की बात नहीं है मेरे दोस्त… आज यह दुनिया ही ऐसी हो गई है कि किसी की भलाई करना भी चाहो तो उसे अच्छा नहीं लगता।
तुम फिर वहीं पहुंच गए न!
जी, नहीं.. पहुंचा नहीं हूँ, सच बोल रहा हूँ। अगर तुमको मेरी स्कूटी पे नहीं बैठना था तो नहीं बैठती। इतनी बेरुखी से बात करने की क्या जरूरत थी? फिर अगर कर भी ली तो इतने दिन हो गए, क्लास रूम में भी तुम सॉरी बोल सकती थी, लेकिन तुमने ऐसा कुछ भी नहीं किया, क्योंकि तुमको यह घमंड था कि तुम ब्यूटीफुल हो, जबकि सच तो यह है फीमेल कभी ब्यूटीफुल नहीं होती।
व्हाट! रिपीट ओंस अगैन…
यस, फीमेल आर नॉट ब्यूटीफुल। दे लुक ब्यूटीफुल, व्हेयर एज़ मेल आर ब्यूटीफुल।
ओहो! इसी तरह तुम सोचते रहो… कोई परी उड़कर आ जाएगी।
ऊँह… परी को उड़कर आने की क्या जरूरत है? हर मेल के पंख इतने मजबूत और काबिल होते हैं कि वे खुद उड़ पाने में सक्षम होते है रूही।
इसलिए गीत गाते हो न – चल उड़ जा रे पंछी कि…
तो क्या, तुम्हारी तरह तो नहीं…
क्या?
यही कि पंख होती तो उड़ आती…
अच्छा ये बताओ कहीं रुकोगे या फिर हम चलते चलें?
यह तो तुम न बताओगे?
देखो अर्सू, इस नीले आकाश को देखो… कितना सुंदर लग रहा है और फिर उसके नीचे पंक्तिबद्ध हुए सफेद- सफेद उड़ते पंछी… नीचे इस झील की खूबसूरती…
तुम कहना क्या चाहती रूही? साफ-साफ बोल दो न? पोएट्री क्यूँ पढ़ा रही हो?
जी, ऐसा नहीं है…
जो खुद अपने आप में एक उलझी हुई पोएट्री हो, उसे पढ़ाने की क्या मेरे दोस्त? पढ़ने की जरूरत होती है, और वह भी तुम तो स्प्रग रिदम में हो…
तो क्या तुम मुझे जी एम हॉपकिंस समझ लिए?
जो हो, उसे क्या समझना मिस्टर? जब तुम इलेवन लाइन में ही सोनेट लिख दो और वो भी सेस्टेट और क्विटेन में तब तो हॉपकिंस कहना ही पड़ेगा न!
अच्छा जी, लगता है पोएट्री तुम्हारा फेवरेट है..
ऐसा भी नहीं अर्सू…
फिर कैसा?
अच्छा तुम बताओ आज इतनी दूर मुझको क्यों ले आए?
सच बोलूँ…
नहीं, एक बार झूठ ही बोलो…
तुमसे निकाह करने…
धत्, फालतू… बेवकूफ…
और सच बोलोगी तो क्या बोलोगी?
कुछ नहीं… कुछ भी नहीं…
तो फिर क्यों लाई इतनी दूर?
अरे बाबा, तुम भी न… अजीब चक्कर हो…?
कुछ भी हूँ… बोलो न…
अच्छा अर्स… क्या तुमने कभी किसी से… आई मिन किसी से कुछ मांगा है?
जी… क्या?
यही बुक, और जरूरत पड़ने पर पैसे वगैरह…
ये वगैरह में क्या क्या चीज आता है?
नहीं मालूम… कुछ भी और क्या?
किसी गर्ल के साथ घूमे हो?
ना, तो…
यूँ ही जानना चाह रही थी..
क्यों?
इसलिए कि किसी भी गर्ल जो फ्रेंड हो, उससे यह नहीं आस्क किया जाता है…
क्या?
अरे, यही जो तुमने पूछा…
क्यों… कोई गलत किया क्या?
हर चीज को राईट और रोंग से नहीं मेजर किया जाता समझे मिस्टर…
फिर… समझा नहीं…
यही कि कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो केवल एहसास किया जाता है। इसका कोई मापदंड नहीं होता। जैसे – करुणा, दया, प्रेम, सहानुभूति, वात्सल्य…। इसकी कोई सीमा नहीं होती, कोई मेजर नहीं होता, केवल फीलिंग्स होती है, अनुभूति होती है।
हूँ… बट, तुम तो कुछ बताई ही नहीं…
क्या बताऊँ?
अगली बार जब आओगे न तब बता दूँगी।
ओह, इसका मतलब फिर आना पड़ेगा?
नहीं आना है तो नहीं आओगे बस हो गया तो…
अच्छा जी, एक गाना गा लेती हूँ, साथ में तुम भी गाना। मेरा फेवरेट सॉन्ग है।
प्रेम की गली में एक छोटा सा घर बनायेंगे… कलियाँ न मिले सही…
कहते बहुत ही भावुक हो गई थी रूही… बहुत ही। वह झील का किनारा, सुहाना मौसम, सफेद बादल के टुकड़े, पंछियों की उड़ान – सच में मुझको आज भी वहीं पहुंचा देता है। इन्हीं आंखों के कैमरे में कैद है – उसकी हर बात, हर अदा…और….
अरे, तुम तो इमोट हो गए अरशद…
जी, थोड़ा सा…।
फिर क्या हुआ अरशद…?
नहीं निकहत… मत पूछो। अब मैं बताने के काबिल नहीं। मुझे कुछ देर छोड़ दो। मैं बहुत दूर निकल गया हूँ, बहुत ही दूर जहाँ से यह दुनिया बहुत छोटी दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है जन्म न ही लेता तो ठीक था। क्यूँ ऐसा हो गया… क्यूँ?
देखो, अरशद तुम मुझे माफ़ कर दो मेरे दोस्त। मैंने तुम्हारे दिल को कुरेदा। मुझे ऐसा करने का कोई हक नहीं बनता है। मैंने तुमको दु:ख दिया। मैं अगर यह जानती कि तुम इतने इमॉट हो जाओगे, मैं कभी ऐसा नहीं करती। अरे, मैं तो यूँ ही एक फ्रेंड के नाते मजाक कर रही थी, लेकिन तुमने मेरी भी आंखों में आँसू भर दिए। अरे, प्लीज नॉर्मल हो जाओ न…
जी, निकहत, सच में मुझे अपनी बीती याद आ गई।
जी, लेकिन फिर क्या हुआ उस रूही को?
बहुत ही… जी, मेरे साथ ठीक नहीं हुआ। मैं हर रोज उसे कॉलेज में ढूँढ़ता, देखता, लेकिन तब से वह दुबारा कॉलेज आई ही नहीं। मैं हर दिन उसी पेड़ तले खड़ा रहता, इंतजार करता, उनके आने की प्रतीक्षा करता, सोचता कभी तो कम से कम खिड़की से निहारेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसने अपना नंबर भी ब्लॉक कर रखा। बेचैनी हद से ऊपर हो गई। गर्ल इसी तरह की होती है, कहानियों में पढ़ा था, दोस्त भी सुनाते थे, लेकिन आज एहसास हो गया था कि लड़कियाँ सच में ऐसी ही होती हैं।
अच्छा अरशद, तुम मेरी बात मानोगे?
फिलहाल तो नहीं…
मतलब?
यही कि अभी मैं खुद को खुद से उबार नहीं पाया हूँ। हर दिन किसी न किसी पल उसकी याद आ ही जाती है।
मैं तुमसे कुछ पूछना चाह रही थी, क्या मानोगे?
फिर वही क्वेश्चन…
लेकिन इस बार का क्वेश्चन पहले से ईज़ी है।
जी, बोलो… मगर दिल नहीं चाहता कि किसी से भी उस मुतल्लिक बातें करूँ।
देखो अरशद! यह जिंदगी है। यहाँ केवल और केवल यही बात सोचने की नहीं है। सोचने से कोई राह मिलने को नहीं है। कर्मवीर सोचा नहीं करते, वे कर गुजरते हैं और अपनी मंजिल तक पहुँच जाते हैं। तुम आखिर मेल में जन्म ही क्यों लिए, फीमेल में जन्म लेते।
ऐसा होता है क्या? कोई अपनी मर्जी से मेल या फीमेल में जन्म ले सकता है? सब खेल कुदरत का है।
बिल्कुल सही। जब जानते ही हो कि सब खेल कुदरत का है तो फिर हमारे और तुम्हारे हाथ क्या है? इसलिए बीती बातों को सोचकर कोई फायदा नहीं। पता है, फीमेल ज्यादातर पागल क्यों नहीं होतीं?
क्यों?
क्योंकि वह अपने आप को समय के अनुसार एडजस्ट कर लेती हैं। रोकर अपनी पीड़ा को धो डालती हैं और ज्यादा सोचतीं नहीं। सामने आए को अपना भविष्य सोचती हैं और खुशी-खुशी जिंदगी जी लेती हैं। इसके विपरीत मेल बीते लम्हों, बीती बातों को ही अपना वर्तमान और भविष्य मान लेते हैं और बेवजह अपना वक्त खराब करते हैं। अरे अरशद, जिसे हासिल नहीं किया जा सकता उसके पीछे सिर धुनने से कोई फायदा नहीं।
जी, वो तो है। लेकिन जो हो चुका होता, उसकी याद आने पर गम तो होगा ही न…
जरूर होगा, बट उसी गम में जीना तो बहादुरी नहीं न है…
जी…
चलो जब फिर बताओ क्या हुआ?
…फिर अचानक मेरी मुलाकात रूही की माँ से हो गई। मैंने कॉलेज के दरम्यान कई बार उन्हें कैंपस में देखा था। दिल नहीं माना और न चाहते हुए भी उन्हें झुककर सलाम किया। जवाब देते हुए बोली – बेटा, तुम अरशद हो?
जी… आंटी, कहते मेरे पाँव की जमीन खिसकने लगी थी।
क्या बेटा, तुम मेरे साथ कुछ समय दे सकते हो?
मैं चुप था। आखों में उदासी और चेहरे पर एक अलग किस्म की कांति फैलने लगी थी। कवि होता तो उस वक्त की दशा को समेटकर एक सुंदर कविता लिखी जा सकती थी। मन और हृदय के बीच मन ही मन वार्तालाप हो रहा था। इतने में बड़े प्यार से उसने कहना शुरू कर दिया – देखो बेटा, मैं तुम्हें एक राज की बात बताती हूँ और अर्ज भी करती हूँ कि तुम मेरी बात जरूर मान लोगे। रूही मेरी बेटी नहीं है। मुझे औलाद नहीं था। रूही के पापा बहुत ही परेशान रहते थे। हम दोनों ने बहुत जगह डॉक्टर से दिखाया, दवाएँ भी खूब खाईं, मिन्नतें भी कीं, बावजूद मुझे कोई इसका फल नहीं मिला। रूही के पापा की बिगड़ती परेशानी को देखकर मैं काफी दुखी रहती। अंत में लाचार होकर मैं अपने मायके में ज्यादा समय बिताने लगी – यह कहकर कि मैं जड़ी-बूटी का सेवन कर रही हूँ और इसके लिए एक-दूसरे से अलग रहना जरूरी है। बात मगर यह सच नहीं थी। सच्चाई यह थी कि उस बीच मैं कोई अल्टरनेट की तलाश कर रही थी। कभी-कभी तो अपने पति पर भी शक हो जाता कि उनकी ही वजह से तो मुझे औलाद नहीं होती है। एक औरत के लिए उसकी सबसे अधिक खुशी उसके माँ बनने में होती है। वह किसी कीमत बाँझ बनकर नहीं रहना चाहती। इसी बीच मुझे पता चला कि दूर के इलाके में एक गरीब परिवार है, जिनके घर में बहुत बच्चे हैं और उनके पति हमेशा उनको बेटा न होने पर प्रताड़ित करते रहते हैं। मैं उनके घर गई और उनसे मिली। महिला सुंदर थी और उनकी अपनी खासी जमीन थी। किसान थे वे, लेकिन हर तरह से एक इंसान थे। मैंने उनसे बहन का रिश्ता बना लिया। जब भी जाती, उनके लिए कपड़े, फल, साबुन और ढेर सारे घर में खाने के सामान ले जाती। देखते ही देखते मैं उनके घर का एक मेंबर बन गई। दिन गुजरते गए। जब सबों का फेथ जीत लिया तो एक दिन उदास मन से कहा – बहन जी, मुझे कोई औलाद नहीं हैं। बहुत दवा दारू किया पर कहीं से कोई फायदा नहीं हुआ। अगर एक बात अर्ज करूँ, तो मान जाओगी?
हाँ दीदी, आप तो मेरे घर के मेंबर ही हो, क्यों नहीं?
सिर झुकाकर आँसुओ को पोंछते बोली – देखो बहन जी, अगली संतान न, तुम मुझे दे देना।
उसका पति भी मेरी बातों को गहराई से सुन रहा था। उन्होंने कहा – यह तो बहुत मुश्किल है बहना। लेकिन अगर इस बार भी ऊपरवाले ने बेटी ही दी तो एक शर्त पर दे दूँगा…
और हाँ बेटा, रूही मेरी बेटी बन गई। रूही मेरी ही बेटी है। उनके पापा को आज तक मालूम नहीं और न ही रूही को खुद मालूम है कि वह मेरी बेटी नहीं है। इंसान जीने के लिए कुछ भी कर लेता है बेटा, और कुछ मज़बूरी भी करा देती है। मुझसे रूही ने एक दिन कहा – देखो माँ, उपर आकाश की ओर देखो। वहाँ बहुत सारे तारे हैं, लेकिन निगाह किसी एक तारा पर ही जाकर क्यों टिकती?
इसलिए कि आखों को वह भा जाता है…
उसी कदर माँ मुझको अरशद भा गया है, वह मेरा दोस्त है और अपनी ही बिरादरी का भी।
आखिर तुम कहना क्या चाहती हो बेटा?
यही कि अरशद मुझको पसंद है।
पसंद करना अच्छी बात है बेटा, लेकिन इसके आगे ठीक नहीं है।
मतलब?
यही कि उसके आगे के रास्ते कांटों से भरे हैं, खाई भी है और आगे अंधेरा ही अंधेरा है।
हर अंधेरा खुद रोशनी को जन्म देता है, अंधेरे में निकल पड़ो तो अंधेरा, अंधेरा नहीं रहता।
जुमले केवल कहने को होते हैं बेटे, सच्चाई और होती है।
फिर भी माँ, किसी बड़े काम को करने के लिए बड़ा फैसला लेना होता है।
लेकिन, वो फैसला थर्ड अंपायर के पास होता है।
जी, जब आऊट की अपील होती है तब न… बैट्समैन को पिच पर ही इमिडियेट डिसीजन लेना होता है।
फिर भी कोच की बातों का भी ख्याल रखा जाता है।
माँ जी, सिक्स के लिए रिस्क तो लेना ही पड़ता है।
बावजूद ओवर बहुत ही मायने रखता है…
ओवर से अधिक विकेट का भी ख्याल रखना होता है, बेटा…
लेकिन माँ जी, जब रन रेट कम हो तो बॉल को मारना ही पड़ता है।
देखो बेटा, जब तुम छोटी थी, तभी तुम्हारे पापा ने सलीम के बेटे से तुम्हारी शादी की बात कर रखी थी।
बातें हैं, बातों का क्या?
जी, बेटा कभी-कभी बातों की कीमत बढ़ जाती है। और जब यही बात वचन बन जाती है तब उसे निभाना ही पड़ता है।
क्या तुमको लगता है कि आज के इस डिजिटल दुनिया में अंसिएंट ऐटिट्यूड को अपनाकर चलें?
दुनिया कितनी भी डिजिटल हो जाए बेटा, लेकिन दिल वही होता है, दर्द वही रहता है, आखों में अश्क वही हैं, जख्म कभी नहीं भरता और न ही खत्म होता।
फिर भी माँ… किसी की अरमान की कत्ल करना क्या जायज़ है?
यहाँ जायज़ और नाजायज की बात नहीं है बेटे, यहाँ तो सिर्फ और सिर्फ वादा निभाने की बात है।
अपने वादा निभाने के लिए किसी के वादे को नेस्तनाबूद करना कहाँ तक सही है? देखो माँ, तुमने क्या किया, पापा ने क्या किया तुम दोनों जानो… मुझको तो बस इतना ही कहना था कि अरशद मुझको पसंद है – कहते रूही की आंखें भर आईं थीं।
और हाँ, बेटा,मुझको काफी तकलीफ है और अफसोस भी कि मैं रूही के अरमान को पूरा कर सकने में कामयाब नहीं हो पा रही हूँ। इंसान कभी-कभी वक्त के आगे मजबूर हो जाता है और इतना मजबूर कि जिसे बयान नहीं किया जा सकता है। रूही मेरी तमन्ना है, चाहत है, मेरे कलेजे का टुकड़ा है, मेरी धड़कन है… बावजूद अरशद, हाँ, बेटा मेरी इल्तिज़ा है कि उसे तुम भूल जाओ… उसे छोड़ दो… खुदा तुमको बहुत ही सुंदर रूही अता करेगा। सच कहती हूँ अगर रूही मेरी बेटी होती, मेरे गर्भ की बेटी होती, मेरे खून की बेटी होती तो बा-खुदा तुम्हारे हवाले कर देती बेटा। अल्लाह पाक ने मेरी आँचल को भरा भी तो किस कदर तुम एहसास कर सकते हो। हर चमकने वाले चमकीले नहीं होते बेटा, और हर हँसी में खुशी भी नहीं होती। सच में यह जिंदगी अबूझ तेरी-मेरी कहानी है, जिसे दुनिया हकीकत भी मान सकती है और नहीं भी।
कहते रूही की माँ हिचक-हिचककर रोने लगी थी। एक माँ, जिसकी सबसे बड़ी दौलत उसकी औलाद होती है, सबसे कीमती अमानत होती है, उसको उस कदर रोते देख मेरा दिल पसीज गया। मैं बर्दाश्त नहीं कर सका और उनसे हाथ जोड़ कहने लगा – माँ, सच में रूही से मुझको मुहब्बत है, प्यार है, लेकिन तुम्हारी मुहब्बत से कई गुणा कम है। यह सच है कि उसके बिना, उसके बगैर मैं जी नहीं पाऊँ, बावजूद तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी खुशी और तुम्हारी अखलाक के सामने नतमस्तक होकर वादा करता हूँ कि मैं आज के बाद कभी भी रूही की जिंदगी में नहीं आऊँगा। माँ, तुम मुझको माफ कर देना कि मैंने रूही से पाक मुहब्बत करके तुमको दु:ख दिया और हाँ, अगर हो सके तो इतनी मेहरबानी जरूर करना कि कभी भी तेरे-मेरे बीच हुई गुफ्तगू को रूही से नहीं बताना और न ही मेरी हालत और हालात को पेश करना। माँ जी, काश! अगर तुम बीच में नहीं आई होती तो मैं मुमकिन था कि बहुत बड़ा फैसला ले लिया होता और तुम्हारे दिल को दुखा देता – कहते सर को झुकाए आहें भरने लगा था।
फिर क्या हुआ? अरे अरशद, जिंदगी केवल इसलिए नहीं है कि आहें भरते रहो। जिंदगी रेत पर उपजी उस घास की तरह है, जिसकी जड़ें तो अंदर है, लेकिन उनके अस्तित्व का कोई भरोसा नहीं, कोई ठिकाना नहीं, फिर भी ऊपर अपनी हरियाली को नहीं खोता। हरापन जिंदगी है अरशद, हरापन! ए थिंग्स ऑफ ए ब्यूटी जॉय फॉरएवर।
हाँ, निकहत, किसी भी चीज को कह देना बहुत आसान होता है, लेकिन सहना आसान नहीं होता मेरे दोस्त। कभी-कभी इंसान एक ऐसी जगह पहुँच जाता है जहाँ से उनका वापस आना बहुत मुश्किल हो जाता है।
जी, होता है और हो भी सकता है, बावजूद नामुमकिन नहीं होता। अरे अर्शू, किसी की चाहत को पालना बेवकूफी है।
फिर क्या करना बुद्धिमानी है?
कुछ नहीं… लेट पास्ट बी ब्रीड। बीते क्षण, बीते लम्हे, बीती बातें और गुजरा जमाना वापस नहीं आता और जिसे किसी भी तरह वापस नहीं लाया जा सकता उसके पीछे आँसू बहाना, यादों में खो जाना बेवकूफी है। सच तो यह है कि जिसका कोई इलाज न हो, उसे बर्दाश्त कर लेना चाहिए।
हूँ…।
चलो, फिर बताओ क्या हुआ?
तुम तो हद हो जी… एक तरफ भूलने की बात करती हो और दूसरी तरफ याद भी दिलाती हो।
ओहो… कोई भी फिल्म या सीरियल पूरी देखनी चाहिए, इंटरवल में ही फिल्म खत्म नहीं होती।
अगर फिल्म शॉर्ट रहे तो…
उसमें इंटरवल होता ही नहीं…
सच में निकहत तुम न बहुत ही इंटेलिजेंट हो।
क्यूँ, इतनी देर बाद पता चला…
पता तो कब का चल गया था, लेकिन…
ये लेकिन-उकिन क्या है?
यही कि एग्जाम की कॉपी केवल देख लेने पर उसका मार्किंग नहीं किया जाता, जब तक कि एवेल्यूएट नहीं किया जाता।
ओ..हो.., तुमने क्या मुझे कोई एग्जाम की कॉपी समझ लिया है?
नहीं जी, ऐसा भी नहीं… एग्जाम्पल के तौर पर कहा।
बताओ यार, फिर क्या हुआ?
अच्छा जी अब मैं अर्शु से यार बन गया।
नहीं, ऐसा भी नहीं। बोलने के सेक्वेंस में इंसान किसी को भी यार बोल जाता है। ये कोई इंटेंसली नहीं होता।
इसका मतलब यार इंटेंस्ली बोल गए?
ओहो, बाबा तो क्या कान पकड़ लूँ…
नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होता दोस्त… कान पकड़ने की बात नहीं। सच में न में काफी एमोट हो जाता हूँ, जब उसकी याद आती है।
पता है…
कैसे?
बस यूँ ही…
फिर भी कोई तो वजह होगी न?
अरे बाबा, कोई वजह नहीं है। मैं बेवजह ही कुरेद देती हूँ… बताओ न फिर क्या हुआ?
जी निकहत, फिर मैं उस दिन के बाद कॉलेज नहीं जाने लगा। दिन-रात उसकी यादों में खोया रहता। सोचता – कितना अच्छा होता, मैं उसे पहले ही दिन लिफ्ट की बात नहीं करता। फिर उसकी गाड़ी पर नहीं बैठता। क्या जरूरत थी बातों के सिलसिले को इतनी दूर ले जाने की? इंसान एक पल में कितनी दूर चला जाता है, उसे तब एहसास होता है, जब उसे हाथ मलते उस पल से दूर अकेले आना पड़ता है। मैं चुप कभी रात की तनहाई में घर से कुछ दूर पहाड़ी के पास चट्टान पर बैठ जाता और मन ही मन गुनगुनाता – खुद से ही खुद की बातें करता। कभी हाँ और कभी ना खुद ही बोल जाता। ड्रामेटिक मॉनोलोग की भांति बातें करता। खुद ही स्पीकर और खुद ही लिस्नर बन जाता… या यूँ कहिए मन और हृदय से वार्तालाप होती। क्या अजीब होती है यह जालिम दुनिया और प्रकृति की विडम्बना। जिसे चाहो मिलती नहीं और जो न चाहो गले पड़ जाती है।
हूँ… ये तो है। फॉर एग्जाम्पल आई…
नो, यू आर नॉट ऑनली एन एग्जाम्पल, बट ओल्सो एन ऑब्जेक्ट… अंडरस्टैंड?
या, ए लिटल, नॉट लाइक यू…
जी, निकहत, फिर मैंने कभी दुबारा उससे मुलाकात नहीं की। यदा-कदा उसकी याद मुझे खूब सताने लगती। सोचता – क्या सोचती होगी वह? किस किस कदर के लोग होते हैं इस दुनियां में? लेकिन क्या बताऊँ निकू, जब कभी उनके मासूम चेहरे को याद करता, खो जाता किसी और दुनिया में। इंसान कितना लाचार हो जाता है कभी कभी, जिसे किसी को न सुना सकता और न ही रख सकता अपने पास।
दिन बीतता चला गया। वक्त घाव को भरते गये। आँखों में उनकी तस्वीर धुंधली सी दिखने लगी। बहुत कोशिश करने पर भी उनकी तस्वीर आंखों में सही-सही नहीं आने लगी। वही अंतिम चेहरा, जिसे मैंने देखा था आज भी आंखों में कैद था। यह आँख भी प्रकृति की एक अजीब नेमत है, सारी की सारी तस्वीर जस की तस रखी रहती है। आखिर इसका लेंस, इसका कैमरा और इनकी क्षमता कितने डायोप्टर की होगी। फिर यह कितने जीबी का होगा – अपने आप में रहस्य भी है और खोज भी।
एक दिन की बात है, यकायक मेरी मुलाकात रूही से एयरपोर्ट में हो गई। वह चुपचाप रेक पर बैठी मोबाईल टिप रही थी। बगल में एक लाल रंग का हाइड्रोलिक था, जिसके उपरी भाग पर बड़ी ही खूबसूरत एक छोटी-सी तस्वीर लगी थी। रूही का झुका हुआ सिर ऐसे लग रहा था मानो एक फूल की झुकी हुई डाली हों जिसके अन्तर्गत अनेक फूल खिले हों। मैं कुछ दूर बैठा रह-रहकर उनकी ही तरफ निहारता और वह भी मुझे देख ले, इसकी प्रतीक्षा करता। सोचता आखिर अकेली क्यूँ थी वह? फिर सोचता – हो सकता है कि उनके साथ कोई हो और कहीं इधर-उधर गए हों या अन्यत्र बैठे हों। मुझे अंदर से भय भी लगता और इच्छा भी होती कि करीब जाऊँ। इधर-उधर अनदेखा बन टहलूँ। अगर वह खुद से कुछ बोले तो बोलूँ, वरना चुप ही दूर से उनके एक्टिविटीज को फॉलो करूँ। एक अलग दुनिया में खोया – सच बताऊँ दोस्त, अपना सब कुछ खो दिए हों, ऐसा फील होने लगा। दिल करता – उनके करीब की खाली जगह पर बैठ जाऊँ और वही गीत जो झील के किनारे, सफेद उड़ते बादलों के बीच गाया था, गुनगुना दूँ। यह जिंदगी भी क्या अजीब इत्तेफाक होती है… कब, कहाँ, कैसे, किस हाल में किससे मिला देती, कोई नहीं जानता। कॉलेज से लेकर झील फिर झील से लेकर गाड़ी और फिर उनकी माँ की दी हुई नसीहत और इल्तिज़ा एक-एक करके आँखों को घेरे हुई थी। पलकों पर आसुओं का पिघला हुआ तरल बार-बार कोने पर आकर भारी होता जा रहा था।
कुदरत क्या चीज़ है और किस्मत क्या होती है – किसी को नहीं पता। आज मेरी जिंदगी की, मेरे लिए सबसे खुशी का दिन था। एक तरफ बेचैनी और भय, दूसरी तरफ इत्मीनान और सुकून। मैं उससे बात करने का साहस आखिरकार नहीं ही जुटा पाया। एक अपराधी की माफिक मुझे गिल्टी फील हो रही थी। इंसान कोई गलती करे तो माफी मांग लेनी चाहिए, बट मुझसे कोई गलती नहीं होने के बावजूद मैं अपने आपको कसूरवार समझ रहा था। देखते ही फ्लाइट में जाने के लिए टिकट का चेकिंग शुरू हुआ। सभी अपनी पंक्ति में सामान लेकर खड़े थे। मैंने देखा रूही भी उसी फ्लाइट से जानेवाली थी, जिससे मुझे देहली जाना था। एयर इंडिया लिखा कर्मी अब मुख्य द्वार पर खड़ा सबका टिकट का एक भाग ले रहा था। रूही मुझसे काफी आगे की पंक्ति में खड़ी थी। उसके पिछले भाग… आई मिन उसके लंबे-लंबे बाल कंधों पर बिखर रहे थे। लाल रंग का सलवार और बैंगनी रंग के साथ सफेद दुपट्टा उनकी सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे। बीते क्षणों की कठोर यादें मुझे घायल कर देतीं और आखों को दूर तलक ले जातीं, जहां अफसोस मेरे कंठ को सुखा डालता। सोचता यह कैसा मिलन है? पास रहकर भी दूरी है। कम से कम उससे बातें तो कर लेता… क्या होता? दिल को सुकून तो मिल जाता और नहीं तो कम से कम उनकी हालत और हालात तो समझ लेता। अगर वह बात नहीं करती तो नहीं करती… कम से कम उसकी नजरों को पढ़ तो लेता। उनके चेहरे मुकद्दस को तो देख लेता। इंसान कभी-कभी कितना मजबूर हो जाता है – इसका एहसास हो रहा था। हृदय और मस्तिष्क के बीच मन ही मन डिबेट चल रहा था। कभी दिल जीतता तो कभी दिमाग जीत जाता। इसी जीत और हार के बीच मैं गेहूँ के घुन की तरह पिसाता जा रहा था। अब वक़्त था कि मैं फ्लाइट के अंदर अपनी सीट पर था। देखा रूही मेरे ही बगल वाली सीट पर पहले से ही बैठी हुई थी। एक बार तो यकायक लगा कि मेरे शरीर को लकवा मार गया हो… भूकम्प के एक झटके की तरह मैं कांप उठा। रूही ने मुझे भरी आँखों से देखा, पलकों को नीचे कर ग्रीट किया और आँखें नीची कर लीं।
कुछ देर बाद आँखों को मलते कहा… कैसे हो अरशद?
जी, रूही, ठीक ही…
मतलब, तुमको तो बहुत ठीक होना चाहिए?
नहीं, ऐसा भी नहीं…
देखो अर्श, सच बताऊं…
जी?
मुमकिन था कि मैं अपनी सीट अलग कर लेता, अगर यह फ्लाइट नहीं होकर ट्रेन होता।
लेकिन रूही! यह कोई इलाज नहीं होता…
जो मर्ज लाईलाज हो उसके मरीज़ को ईलाज की उम्मीद भी नहीं होती।
बावजूद केवल किसी के प्रेस्क्रिप्शन से किसी बीमारी को सही नहीं माना जा सकता, जब तक कि सोनोग्राफी नहीं हो जाता।
बहाने बहुत होते हैं अरशद… लेकिन सच यह है कि तुम मेल हमेशा से फीमेल को चीट करते रहे हो। अरे, तुम्हारा क्या? तुम तो बर्तन की तरह रोज दोस्त बदल सकते हो, लेकिन मैं तो चूल्हा हूँ… कहाँ अपने को बदलूँ?
रूही, केवल एक तरफ की बात से कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता, जब तक कि अगला पक्ष को भी नहीं सुन ले।
यह काम वकील और जज का होता है अर्श…
फिर भी जब न्याय की बात होती है, तो इसकी जरूरत पड़ ही जाती है…
नहीं, मेरा सबसे बड़ा जज मेरा दिल है, आत्मा है और मेरा वकील मेरी रूह है और मेरी धड़कनें हैं मेरे गवाह।
ये दिल, आत्मा, रूह और धड़कनें सभी शरीर के अंदर हैं रूही, न्याय के लिए आई विटनेस की जरूरत होती है, जो ऑन द स्पॉट होने चाहिए।
जिस जुर्म की सजा के लिए जेल की जरूरत हो उसके लिए ऑन द स्पॉट विटनेस की नीड होती है और जिस जुर्म की सजा बददुआ हो, उसके लिए आंखों के आँसू ही गवाह के लिए काफी होते हैं – अरशद।
और जिसके गवाह आहें हों, उसके लिए कौन सी सजा होती है – रूही?
जिस गवाह का नाम चार्जशीट में नहीं होता, उसकी गवाही नहीं ली जाती…
उफ़! रूही, तुम मुझे माफ़ कर दो…
क्यों? अभी तो तुम अदालत में थे…
जी, अदालत में था और हूँ भी, लेकिन जनता की अदालत में नहीं…
नहीं, अरशद तुमको आज बताना पड़ेगा कि मेरे अंदर क्या कमी थी? क्या मैं बीच भंवर में तुमको छोड़ देती? आखिर किस प्रलोभन और किस वजह से तुम मेरी अंतर की आत्मा को जलता हुआ छोड़कर चले गये? क्या तुमको पता है कि जब कोई गर्ल किसी बॉय को पसंद करता है तो उसकी तमन्ना कितनी गहराई तक चली जाती है, जिसे तुम जैसे लोगों की सोच से कई गुणा अधिक होती है। उसकी पहली ख्वाहिश, पहली तमन्ना, पहली चाहत, पहला मकसद जीवन भर साथ निभाने का होता है। और हाँ, जब उसका प्रेम विश्वास में बदल जाता तब वह समुद्र से भी अधिक गहरा हो जाता है। अरशद, क्या कभी तुमने सोचा कि मैं किस हाल में जी रही हूँगी? अरे, तुमने जो मेरी आशा, भरोसा और आस्था का ध्वंस किया है, उसकी सजा खुदा खुद देंगे। ऐसा कभी नहीं सोचना कि सजा नहीं मिलेगी! मिलेगी और जरूर मिलेगी।
लेकिन रूही…
जी, तुम लड़कों के पास अनेक बहाने होते… मुझे नहीं सुनना…
फिर भी…
जी, नहीं। आखिर तुमने अपना नाम उस कॉलेज से क्यों हटवा लिया? इसके लिए केवल तुमने एक बार भी मुझसे बातें क्यों नहीं कीं? जी, तुमको पैसे की जरूरत थी न… कितने पैसे की जरूरत थी – दस लाख, बीस लाख, पचास लाख…? मैं तुमको एक करोड़ देती… एक करोड़! अरे, अरशद तुम तो मेरी ही बिरादरी के थे, फिर परेशानी क्या थी – बताओ? आँखें नीची क्यों कर रखी है? मेरे सवालों का जवाब दो… जी करता है तुम्हें पकड़कर झंकझोर दूँ, और दुनिया वालों के सामने तुम्हारी हकीकत बयां कर दूँ कि तुम कितने बड़े धोखेबाज हो।
नहीं, रूही… कभी-कभी इंसान परिस्थिति का गुलाम हो जाता है।
लेकिन यह गुलामी सौ साल तक नहीं रहती अरशद…
फिर भी… एक पल की गुलामी से सौ साल की आजादी छीन जाती है… रूही।
बातें बनाने से गुनाह खत्म नहीं होता।
गुनाह तब तक गुनाह नहीं होता, जब तक किया नहीं जाता… रूही।
ओह, और किसी का दिल तोड़ना, अरमां तोड़ना – क्या सबब है?
तुमको जितना भी जो कुछ कहना हो, कह लो… बक लो… लेकिन जब तुम मेरी सच्चाई को जानोगी तो तुम बहुत पछताओगी, अफसोस करोगी रूही… बहुत ही…ओ
सारे, अफसोस, पछतावा, आँसू खत्म हो चुके हैं – अरशद। अब आखों में कुछ भी नहीं, सिवा देखने के।
ये सब कहने को हैं – आँसू, दया, क्रोध, प्रेम और अफसोस कभी खत्म नहीं होते रूही।
मुझको और एनाटॉमी पढ़ाने की जरूरत नहीं…
अरे छोड़ो, कहाँ से आ रही हो और कहाँ की रवानगी है?
जहन्नुम से आ रही हूँ और जहन्नुम जा रही हूँ।
आखिर कहना क्या चाहती हो?
तुम्हारा कपार…
ओहो… तांबे की तरह क्यों गर्म हो रहे हो?
जिसे गरम करके लोहे से पीटा जाय वो तो तांबे कि तरह गरम तो होगा ही न…
लेकिन हथौड़ा तो है ही नहीं…
आज का एज इलेक्ट्रॉनिक है अरशद, किसी को गर्म करने और पीटने के लिए हथोड़े की जरूरत नहीं होती – समझे, बोतल छाप…।
जी, कुछ भी कह लो… सिर्फ बोतल छाप ही क्यूँ…? कांच के टुकड़े भी कह सकती हो…
लेकिन ये तो किसी के पांव में गड़कर दर्द देगा, जख्म भी और घाव भी तो…
क्या ये तीखी बातें कम हैं?
बातें ही तो हैं, कोई खंजर तो नहीं न…
लेकिन इन बातों में खंजर से ज्यादा घायल करने की क्षमता है।
तुमने कभी सोचा – रूही कितने जख्मों को खाकर जिंदा है?
जी, एहसास है…
नथिंग, कुछ नहीं। तुम्हारे अंदर दिल ही नहीं है, तुम बेदिल हो, एक भटकती आत्मा हो… प्रेत हो… पुरुष के नाम पर एक धब्बा हो…।
पता नहीं रूही, तुम किस चीज का बदला इस क़दर ले रही हो। क्या फेयर था तुम्हारा, तुम्हारी गाड़ी की?
क्या तुम चुका दोगे?
जी, बिल्कुल और इसी वक्त…
दस करोड़… चुकाओ…
तुम्हारी गाड़ी की कीमत कितनी होगी?
दस लाख…
और ये फेयर दस करोड़!
जी, इंसान के नाक की कीमत कितनी होगी – पाँच लाख…? तो क्या तुम अपनी नाक पाँच लाख में काटने दे दोगे? तुम्हें एक करोड़ देती हूँ अपनी नाक काट कर दे दो।
रूही, इस बात को मत भूलो कि तुम मेरी दोस्त हो…
दोस्त हो नहीं, कभी दोस्त थे…
तो अभी तुम किस हैसियत से मुझसे बातें कर रही हो?
इंसानियत की हैसियत से, वरना तुमसे बात करने के बजाय में किसी गीदड़ से बातें करतीं…
अच्छा, तुम जो मुझ पर आग बबूला हो रही हो, तो समझ रही हो कि मेरी क्या मज़बूरी है?
नहीं, कोई मज़बूरी नहीं है…
नहीं, मेरे दोस्त… मुझको माफ कर देना कि मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सका। जब उस दिन तुम्हारे साथ झरना के पास से घर वापस आया तो रात हो चुकी थी। घर बिल्कुल अंधेरा था। खुद से लाइट ऑन किया और मुँह हाथ धोकर स्टडी रूम में बैठ गया। थका हुआ था सो बहुत जल्दी ही नींद आ गई। अचानक रात को लगभग साढ़े बारह बजे मुझे बाथ लगा। मैं यूरिनल में गया और जैसे ही अपने कमरे में पहुंचा, अचानक दिल में एक अजीब किस्म की जलन महसूस हुई। यह जलन रफ्ता-रफ्ता बढ़ता चला गया। पहले तो मैं इसे एसिडिटी समझा लेकिन जब अंटेसिड ग्रुप की दवा खाने के बाद भी जलन खत्म नहीं हुई तो परेशान होने लगा। पूरी गरदन और पीठ पसीने से तर-बतर हो गया।
मैं रात भर बेचैन रहा। सुबह हुई, घरवाले मुझे किसी तरह उठाकर मिशन हॉस्पिटल दुर्गापुर ले गये। इमरजेंसी वार्ड में रखा गया। रिक्वेस्ट कर मुझे एडमिट करा दिया गया। मैं जलन से परेशान था। चेक-अप के बाद पता चला कि मेरा लंग्स का प्रॉब्लम है। आईसीयू में ग्यारह दिन तक रखा गया। डॉक्टर ने बताया कि मेरे लंग्स में एबोसिस हो गया है, जो यहाँ हमारे भारत की चिकित्सा से ठीक होना संभव नहीं है। मेरे घरवाले उस स्थिति में नहीं थे कि मेरा ट्रीटमेंट एबॉर्ड में करा सके। मेरी माँ ने खूब मिन्नतें की। साल भर लगातार रोजा रखने की नियत की। फिर मेरे दोस्त अल्लाह पाक की नियामत है कि मैं आज तुम्हारे सामने जिंदा हूँ। मेरे दोस्त, रूही, तुम्हारी हर बददुआ और शिकायत को इस्तेकबाल करता हूँ और साथ ही अर्ज भी कि यह बात तुम किसी को नहीं कहना।
लेकिन अरशद, तुम यह बात कह सकते थे। अरे, तुम यहीं सोचते होगे न… कि इससे मेरी जिंदगी खराब हो जाती। नहीं अर्श, जिंदगी तो खराब मेरी अब हो गई कि मैंने तुम्हें भला-बुरा कहा। न जाने, क्या-क्या कह दी। फिर भी मेरे दोस्त, हो सके तो तुम मुझको माफ कर देना। मुझे भी कम से कम तुम्हारी खोज-खबर लेनी चाहिए थी। इंसान कभी-कभी गलतफहमी का शिकार हो जाता है और उसी गलतफहमी को सही मान बैठता है। सचमुच अरशद, यह जिंदगी तेरी मेरी कहानी जैसा एक गीत है, एक नगमा है। फिर भी तुम यह जान लो कि मैं यहीं गुड़गांव में पोस्टेड हूँ और मेरा सौहर दुबई में सॉफ्टवेअर इंजीनियर है। लो यह मेरा कार्ड… कहते हुए भरी आंखों से रूही ने मुझे थमा दिया था।
अब फ्लाइट देल्ही के एयरपोर्ट में थी और देखा कि रूही को लेने उसके परहैप्स सोहर बाहर खड़े इंतजार कर रहे थे। मैंने भी अपनी जल्दबाजी दिखाई और टर्मिनल वन से बाहर हो गया।
लेकिन… अरशद, तुमने इतना बड़ा झूठ क्यों बोला? तुम्हें सच बोल देना चाहिए था।
नहीं, निकहत। दोस्ती का मतलब समर्पण है, त्याग है, बलिदान है। अपनी खुशी, अपनी प्रसन्नता का डेडीकेशन ही प्रेम है। किसी की भलाई के लिए खुद को न्यौछावर कर देना ही प्यार है। पाने की लालसा प्रेम नहीं है, प्रेम खुद को खोने का नाम है। जब मैंने देखा कि मेरे एक झूठ बोलने की वजह से उसकी जिंदगी बन सकती है, तो मेरा झूठ बोलना सही था। इंसान की इंसानियत किसी की इज्जत और आबरू की हिफाजत करना होता है, निकहत।
तो फिर क्या तुम मेरे साथ नहीं हो सकते?
नहीं निकहत, ऐसा नहीं कर सकता। अगर मैं तुमसे…
क्या?
कुछ नहीं…
नहीं, अरशद, तुम कुछ कहना चाह रहे थे…
नहीं, ऐसा कुछ नहीं…
लेकिन, कुछ कहने के पहले तुम रुक क्यों गए?
बस , यूँ ही…
नहीं, अरशद… अरे मैं तुम्हारा दोस्त हूँ, भले तुम न मानो… जी, हाँ और मुझे यह भी मालूम है कि तुम्हारी पहली मुहब्बत, पहली ख्वाहिश रूही की जगह मैं नहीं ले सकती और न कोई भी, फिर भी जो घाव गहरा हो, उसका मरहम तो बन ही सकती हूँ।
अरे, निकु, तुम बेवजह मुझको टीज कर रही हो… ऐसी कोई बात ही नहीं है। सच में नीकू, उसकी याद आने पर मैं आज भी दूसरी दुनिया में खो जाता हूँ, और कोई बात अच्छी नहीं लगने लगती…।
जी, एहसास है… इसलिए मैं चाह रही थी कि तुम्हारा दोस्त बन जाती…
दोस्त, तो हो ही मेरे यार…
जी, परमानेंट हो जाती…
नहीं प्यारे, मुझे माफ़ कर देना। ऐसा नहीं कर पाऊँगा।
फिर भी, कोई तो रीजन…?
ऐसा भी कुछ नहीं। बट, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर रूही की मुलाकात मुझसे हो जाए और वह मुझे तुम्हारे साथ परमानेंट दोस्त, आई मिन लीगल दोस्त बना देख ले या जान ले तो उसे क्या फील होगा? यही न कि मैं अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए, अपनी खुशी के लिए उससे झूठ बोलकर उसे छोड़ दिया था और मैं ऐसा नहीं करना चाहता।
निकहत, शायद तुमको नहीं मालूम… पुरुष का प्यार अडिग होता है, वह हिमालय की तरह खड़ा -जीवन भर अपनी प्रेमिका की याद में यूँ ही जीवन गुज़ार देता है और फिर किसी को यथावत प्रेम नहीं करता। उसका प्रेम – उसकी प्रतीक्षा होती है… उसका इंतजार होता है…।
तो तुम नारी के प्रेम के बारे में क्या कहना चाहोगे?
मुझको नहीं पता… लेकिन मैं समझता हूँ कि नारी नदी की भांति होती है, जो स्थिर नहीं रहती और अपनी गति को आगे बढ़ाती हुई किसी सागर में मिलकर शांत हो जाती है।
नहीं, अरशद, तुम्हारा यह विजन गलत है। नारी का प्रेम संदेह भरा होता है और वह संभावित जीवन जीती है। आशा, प्रत्याशा उनकी जिंदगी में नहीं होती।
मे बी…
तो क्या… मैं तुम्हारा पार्टनर नहीं बन सकती? चलो, मैंने तुमको बहुत ही कष्ट दिया। मुझे तुम्हारे अतीत में जाने का कोई हक नहीं था।
अरे अतीत तो एक यथार्थ होता है, चली भी गई तो क्या गुनाह किया?
फिर भी, तुम जैसे इंसान को पाकर एहसास हुआ कि तुम एक न एक दिन हिमेश रेशमिया के हाथ लगोगे और तुम्हारा भी नाम इतिहास के पन्नों में लिखा जाएगा।
मुझे कोई चिंता नहीं… और न ही कोई शौक… लेकिन…
क्या?
यही, जिस दिन रूही को पता चलेगा कि वह अपनी माँ की औलाद नहीं है और उसकी माँ की ही वजह से अरशद उनकी दुनिया से अलग हुई है, तो क्या सोचेगी?
जी, यह तो है। बट आईं थिंक तुम इसके भी हल सोच लिए होंगे…
हाँ…
क्या?
कुछ नहीं…
कुछ नहीं?
जी, कुछ नहीं… कुछ भी नहीं… बिल्कुल भी नहीं…
फिर दिन की शाम रात होती गुजरती चली गई। एक दिन अचानक अरशद का एक मेसेज आया, लिखा था -
“प्यारी नीकु, तुम मेरे बहुत ही अच्छे दोस्त हो। तुम्हारी दोस्ती की हर भावना का मैं तहेदिल से इस्तेकबाल करता हूँ, कद्र करता हूँ। तुमसे मेरी इल्तिज़ा है कि मेरे एक पैगाम को, जो मैं तुम्हारे ही नाम भेज रहा हूँ, रूही को पहुँचा देना। उसने लिखा था – रूही, मैंने तुमसे झूठ बोला था कि मेरा लंग्स खराब हो गया है, सच्चाई यह थी कि मैं तुम्हारी माँ की लाचारी देख तुमसे अलग हो गया था। सच बताऊँ रूही, मैंने तुम्हारी याद में अपना सब कुछ खो दिया। चाहत, खुशी, अरमां, प्यार, और अपना जीवन भी। जब मुझे पता चला कि तुम्हारी माँ अब इंतेकाल कर चुकी है और मैंने अब तक न किसी से प्यार और न ही निकाह की है, तुम्हें बता देना मुनासिब समझा। रूही तुम मेरी पहली ख्वाहिश थी, है और रहोगी लेकिन यह ख्वाहिश पाक होगी, थी भी। मैं तुम्हें बता देना चाहूँ कि मेरा मेसेज पढ़कर जब तुम मुझे ढूँढ़ना चाहोगे, तब तक मैं जमीं से ऊपर हवा के संग-संग आकाश में विलीन हो चुका होऊँगा”। तुम्हारा ही तो अरशद…।
मैने अरशद की खूब खोज ली, लेकिन फिर दुबारा मुलाकात नहीं हो सकी। उनकी प्रत्याशा आज भी उसी तरह स्थिर है।
- डॉ0 मु0 हनीफ़
डॉ (मु)हनीफ साहित्य की कई विधाओं जैसे-कविता,कहानी,लघुकथा,उपन्यास,संस्मरण इत्यादि से गहरा सरोकार रखते हैं।हिंदी,अंग्रेजी,संस्कृत,उर्दू,अरबी,बंग्ला,संथाली पर समान अधिकार रखनेवाले अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक रचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित है।पत्थर के दो दिल(उपन्यास),कुछ भूली बिसरी यादें,और दर्द कहूँ या पीड़ा,कहानी संग्रह अमेज़न पर उपलब्ध है।प्रतिभा सम्मान,राष्ट्र गौरव सम्मान,राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान,बेस्ट एडुकेशनिस्ट अवार्ड, सुपर अचीवर्स अवार्ड, ग्लोबल आइकॉन अवार्ड,शिक्षक सम्मान और अन्य कई अवार्ड सेसम्मानित डॉ हनीफ जनसरोकार और मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी रचनाएँ लिखनेवाले सम्प्रति स प महिला महाविद्यालय में बतौर अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में दुमका,झारखण्ड (भारत) में कार्यरत हैं।