कह भी दो न!

यह रुचि का घर है। लंबी सड़क…दोनों ओर क़रीब 250 गुलमोहर के पेड़ लगे हैं। सड़क के दोनों ओर कारों की क़तार लगी है।

बीच बीच में मोटर सायकिलें और स्‍कूटर मानो अपना मुंह छिपाये खड़े हैं। सुबह चार बजे से दूधवालों को तांता शुरु हो जाता है।

एक दिन उसे पता नहीं क्‍या हुआ कि एक ऑटो की आवाज़ सुनकर जाग गई और साथ ही अपनी नाइटी को ठीक किया… वह लाल रंग की नाइटी है।

उसमें ऊपर की ओर रिबननुमा पट्टियां लगी हैं…दिन में उसे टाइट रखती है और रात को उन्‍हें ढीला छोड़ देती है, ताकि बदन खुला खुला रहे।

वह बहुत खुश है कि आज सड़क पर कोई नहीं है, वह आराम से वॉक करेगी। नीचे उतरते ही वह गेट से बाहर चली ही है कि चार कुत्‍ते भोंकने लगे हैं। उसे आश्‍चर्य हुआ कि ये क्‍या हुआ?

अपनी गली के कुत्‍ते भोंकने लगे, जबकि दिन या देर रात आने पर भी कभी चूं.चपड़ नहीं की है। हुश्‍त…हुश्‍त करके उनको भगाया है।

आज सोचा कि आज गेट के बाहर जाकर खुली सड़क पर सैर करेगी। अपनी नाइटी को लहराते हुए वह गेट के बाहर चार कदम ही चली है कि फिर से कुत्‍ते भोंकने लगे हैं…

ओहो…ये क्‍या मुसीबत है। फिर भी साहस करके वह चार कदम बढ़ी तो देखा कि सामने के बीयर बार से लड़कियां निकल रही हैं। बड़ी जल्‍दी में हैं।

उनमें से एक लड़की बोली, ‘आज तो सुबह के चार बज गये, बच्‍चे को स्‍कूल भेजना होता है। यदि नमि आ जाती तो वह जल्‍दी जा सकती थी। अब तो नींद भी नहीं आयेगी।‘

रुचि ने देखा कि सड़क पर ऑटो की कतार लगी हुई है और बार डांसर एक एक करके अपने ऑटो में धंसी जा रही हैं और ऑटो…ये गये..वो गये। वे फर्राटे से सड़क पर दौड़ने लगे हैं।

तब कहीं जाकर रुचि को भान हुआ है कि वह ब्रह्म मुहूर्त के पहले ही जाग गई है। तब तक सड़क पर इक्‍का दुक्‍का पेपरवाले भी लड़के भी दिखने लगे हैं।

वह हिम्‍मत करके और आगे की सूनसान सड़क पर चलने लगी है। अहा…कोई शोर नहीं है और वह शौकिया सैर करनेवालों से पहले ही घर आ गई है।

वे औरतें गाउन में पहने ग्रुप में चलती हैं और ज़ोर ज़ोर से बातें करते हुए आराम से लटपटाती और ऊंघती चलती रहती हैं। उन्‍हें अपने गिरने का डर है…सो सांकली बनाकर चल रही हैं।

पुरुष बाड़मूरा पहने, कुत्‍तों को भगाने के लिये हाथ में लकड़ी लिये और कान में मोबाइल लगाकर अपनी ही धुन में रोबोट की तरह चलने लगे हैं।

वह धीरे धीरे गुनगुनाने लगती है…चल अकेला..चल अकेला..चल अकेला/तेरा मनवा पीछे छूटा राही चल अकेला…हज़ारों मील लंबे रास्‍ते तुझको बुलाते…ओ ओ ओ।

गा तो वह रही है…झटका किसका लगा? वह आदमी सामने से आते हुए रुचि के कंधे को रगड़ गया था। उसने आंखें झपकाईं और पलक झपकते ही वह उस आदमी के पीछे चली गई थी।

फिर अपने कदम वापिस ले लिये और यह सोचकर मन ही मन हंसने लगी कि अच्‍छा हुआ, उसका कॉलर नहीं पकड़ा।

उसके मित्र संजय तो बात बात में अपनी महिला मित्र के गले में प्‍यार की झप्‍पी डाल देते हैं और वे सब भी अपने चेहरे पर गुलाबी रंगत लाते हुए खुश होकर ‘थैंक्‍यू’ कहती हैं।

पता नहीं, वह किस दुनिया में रहती है। उसने हमेशा खुद को आगे रखने का शौक पाल रखा है। इसके लिये बहुत मज़बूत मनोबल, महत्‍वाकांक्षा और ललक अपेक्षित है।

उसके पारिवारिक परिवेश ने यह सब उसे विरासत में दिया है। किसीको ज़बर्दस्‍ती पीछे धकियाकर आगे बढ़ना…ना बाबा…ना। यह सब कभी सोचा ही नहीं है तो कर कैसे सकती है?

समुद्र के किनारे बसे महानगरों  और नदियों के शहरों में बसे लोगों में यह अंतर हमेशा उसने देखा है। पता है क्‍या…उस दिन वह मोनी से बात कर रही थी। वह छोटे शहर में रहती है।

उस शहर से जो नदी बहती है, वह मार्च आते आते सूख जाती है। गर्मियों आते आते अधिकांश नदियां सूख ही जाती हैं। जहां तक मोनी जानती है..  संगम पर मिलती नदियां, व्‍यास, कावेरी, गंगा नदी व कुछ अन्‍य नदियां कभी नहीं सूखतीं।

इनके रास्‍ते में जहां कहीं भी बड़े पत्‍थर रुकावट के रूप में आ जाते हैं, वे नदियां अपना रास्‍ता बदल लेती हैं। उनकी कलकल ध्‍वनि में कोई अंतर नही आता..शीशे सा चमकता है पानी।

ये सभी नदियां अंतत: समुद्र के आगोश में आकर अपना नाम व मीठापन खारेपन में बदल देती हैं। समुद्र कभी नहीं सूखता। वह ज्‍वार के रूप में हरहराता है तो भाटे के रूप में आराम भी फ़रमाता है। महानगरीय ज़िंदगी जीने के अपने टंटे और अपने मज़े हैं।

बाय द वे, ज़बर्दस्‍ती भिड़ने का अपना मज़ा है। उस दिन रुचि अपनी खिड़की से देख रही है। एक आदमी लंबे लंबे डग भरता हुआ जा रहा है।

पीछे से दूसरा आदमी आया और तेज़ चलनेवाले आदमी से आगे निकल गया है। इस पर तेजराम नाराज़ हुए हैं। आगे बढ़कर उस आदमी के कुर्ते को पीछे से पकड़कर उसे पीछे करते हुए बोले,

‘इस सड़क पर सबसे तेज़ मैं चलता हूं। मेरे होते हुए तुम कैसे तेज़ चल सकते हो?’यह कहकर उसे धकियाते हुए वे आगे बढ़ गये हैं। यह सीन देखकर सभी लोग हंस पड़े हैं।

रुचि की ज़िंदगी में ऐसे लमहे, पल और अवसर आये थे, जब उसकी मेहनत को दरक़िनार करके कामचोर लोग आगे आ गये थे। यह कब और कैसे हुआ…उसे पता ही नहीं चला था।

वे यही जताते थे कि उस काम को करने के लिये कितनी मेहनत लगी थी, कोई क्‍या जाने? जेब तक से खर्च करना पड़ता है। इस पर रुचि आगे आई थी,

‘आपको उस काम के लिये आयोजकों ने कुछ हज़ार रुपये दिये हैं, वे कहां गये और आप लोगों को मंहगे उपहार भी दिये थे, सब कहां है?’ इस पर वे सब बगलें झांकते रह गये थे।

वह शुरु से ऐसी ही है..किसीने शेखी बघारी नहीं कि हवा फुस्‍स की नहीं। आये बड़े खर्च करनेवाले…उंह…मुफत का चंदन, घिस मेरे नंदन..यह कला भी हर किसीके पास नहीं होती।

बहुत ट्रेनिंग लेनी होती है और इस कला के ट्रेनर भी अलग किस्म के प्राणी होते हैं। रुचि के एक बहुत ही प्‍यारे मित्र हैं, वह उसकी कोई बात नहीं काटते और न वह काटती है।

वह अपनी ग़लती मानने में कोई क़ोताही नहीं बरतती। अपनी ग़लती न होने पर भी वह हंसकर कहती है,‘ठीक है भाई, मान लो सारी ग़लतियां मैंने ही की हैं….

किस किसकी चरण रज लेनी है और किस किसके चरणों में पर माथा रगड़ना है।‘ यह सुनकर वे कई गुरुनाम गिना देते हैं। वह इन नामों से अच्‍छी तरह वाक़िफ है।

रुचि की छठवीं इंद्रिय बहुत तेज है। उसमें कमियां भी कूट-कूटकर भरी हैं जिन्‍हें छिद्रान्‍वेषी नज़रें खोजती रहती हैं। उसकी हर बात वे लोग उसके मित्र तक पहुंचाते हैं।

बाक़ायदा छोटी सुई के छोटे छेद में लंबे लंबे धागे शिकायत के रूप में फिरोये जाते हैं। इन कच्‍चे रेशम के धागों से बुने संबंध को तोड़ने की भरसक कोशिश की जाती है।

अब तो उन लोगों को सफलता मिलने लगी है। बावजू़द इसके ये पक्‍के और कांच से सुते हुए रिश्‍ते टूट नहीं पाते। खरोंच भर आई है।

रुचि ने उन रिश्‍ते के धागों के नीचे एक सरकनी गांठ लगाकर रखी है जो स्‍नेह और विश्‍वास से पगी है। यह नाज़ुक गांठ संबंधों को दरकने नहीं देती…

और वह गाने लगती है…क्‍या क्‍या न सहे हमने सितम आपकी खातिर। यह गाना गाकर वह अभिनेत्री बन सकती थी। यह सोचते ही वह खिलखलाकर हंस देती है।

पता नहीं, उसके व्‍यक्‍तित्‍व में क्‍या जादू है कि लोग चाहकर भी लड़ नहीं पाते उससे। उस दिन घर में छोटी सी बात पर कलह होते होते बचा था।

उसने सब्‍ज़ीवाले को सब्‍जी घर भेजने के लिये क्‍या कह दिया, उसके पति रमेश की तौहीन ही हो गई थी। तत्‍काल फोन किया,

‘तुमने सब्‍ज़ीवाले से क्‍यों कहा? कल तो मैं लेकर आया था……

अंगूर भी लाया था। तुमने भी मंगा लिये। अब डबल आ गये न अंगूर’। उन्‍होंने इस टुच्‍ची बात में फोन पर दो रुपये खर्च किये गये थे। इस पर उसने एक एस एम एस किया था।

‘सब्‍जी और फल डबल आ गये तो क्‍या हुआ? काश, तारीफ़ की होती’। इसके बाद no return sms. रुचि अपने आप में मस्‍त है।

वह अपने पति के मैसेज बॉक्‍स में चमकती-दमकती और गजरे लगाये सजी महिलाओं की फोटो देखती रहती है। अचानक वे होश में आते हैं और मैसेज बॉक्‍स बंद करते हैं।

उसके मन में अब कुछ भी नहीं दरकता है। फेसबुक ने एक नया और ग्‍लोबल संसार सबको दिया है। सभी अपने अपने तरीके से उसका इस्‍तेमाल कर रहे हैं।

उन जुनूनी कविताओं को पढ़कर अच्‍छों अच्‍छों का दिल एक दूसरे पर आ जाये। उसके तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। एक बार अपने मित्र से इस बात का ज़िक्र किया था।

वे ऐसे भड़के, मानो वे रंगे हाथों पकड़े गये हों। आज का ज़माना हां में हां मिलाने का है। चाहे वह सोशल साइट हो या समाज हो।

सामाजिक, पारिवारिक और मित्रता की विपरीत धारा में चलकर देखा तो पाया कि उसके रातोंरात कई दुश्‍मन तैयार हो गये हैं।

वे लोग आक्रामक तो इतनी जल्‍दी होते हैं, ग़ोयाकि उनके हाथ से सत्‍ता छीनने की तैयारी हो। जातीय, क्षेत्रीय, भाषिक और धन के आधार पर गुट बनाकर वे रुचि पर हमला कर देते हैं

…जैसे वह मेमना….फ्रीलांसर मेमना हो…वही तो है वह। इसीलिये वे गिद्ध से टूट पड़ते हैं उस पर और वह चील की तरह जान बचाकर अपने को इज्‍ज़त के डैनों में बंद कर लेती है।

उसने खुद को निरीह मेमने की तरह पाया है, पर डरती नहीं….मौका पाकर चुपचाप पतली गली से निकल जाती है और वे हवा में तलवार भांजते रहते हैं।

वह जब जब भिड़ी, तो अपने आपसे….जहां वह नितांत अकेली है। न उसके पास मित्रों को ज़खीरा है और न बेतहाशा प्रसंशक और न उसके ज़ख्‍म सहलानेवाला कोई मित्र है या सहेली है।

अपने मित्र तनिश की बात से अंतस्‍तल में ज़लज़ला सा उठ गया है। ‘तुम यह बात कैसे कह गये? कहने से पहले एक क्षण को भी नहीं सोचा कि मेरे दिल पर क्‍या गुजरेगी यह सुनकर। ना, यह तुमने ठीक नहीं किया।

….तुम इस बात के हिमायती कब से हो गये कि कम हंसा जाये। तुमको तो मेरी हंसी बहुत अच्‍छी लगती है। यह ‘है’ ‘था’ में क्‍यों बदलता जा रहा है? नहीं, तुम ऐसा कर नहीं कर सकते।

…..देखो, तुमने एक बार कहा था, ‘आई कैन बी नेस्‍टी टू और मैंने उसे हंसी में उड़ा दिया था। पर अब सच लगने लगा है। मेरा तो दिमाग़ भन्‍ना गया है, सोचते सोचते। हर बात के लिये मैं ही दोषी क्‍यों ठहराई जाती हूं हर बार?

……आज ये दिन आ गया है कि रुचि को खुद से ही बातें करना पड़ रहा है। संगत रंग लाती है, यह वह भी समझती है। पर ऐसा तो रंग न चढ़े कि बाकी सब रंग ख़त्‍म हो जायें। कोई और मुझे जाने या न जाने, इसकी कोई परवाह नहीं, पर तुम तो मुझे जानते हो न!

……फिर तुममें यह बदलाव क्‍यों? क्‍यों हमारे विश्‍वास की दीवारें दरकने लगी हैं?’ तुमने एक बार किसी बीना का ज़िक्र किया था फोन पर, ‘आप बोलने का शऊर सीखिये। बीनाजी आपका कितना मज़ाक उड़ाती हैं, फोन पर आपकी बातें सुनकर।‘

उसने पूछा था, ‘ये बीना कौन हैं और इन्‍हें मेरी बात सुनने का अधिकार किसने दिया?’ इस पर निमिष अचकचा गये थे पर साथ ही कहा, ‘मेरी मित्र हैं, मेरे लिये कितना कुछ करती हैं। मेरा भी अपना कोई जीवन है जो मुझे अपने तरीके से जीने का अधिकार है।‘

वह सन्‍न रह गई थी यह सुनकर और बस, उस दिन से निमिष चुप से रहने लगे थे। वह ‘तुम’ से ‘आप’ बन गई थी। जब इस बदलाव का कारण पूछा तो बोले थे,

‘मैं खुद को बदल रहा हूं। बोलना कम कर रहा हूं।‘ रुचि ने बात को हल्‍के रूप में लेते हुए कहा था, ‘फिर तुम ‘तुम’ कहां रह जाओगे? पर सच मानो मुझे कतई भान नहीं था कि मेरा दोस्‍त बुत में बदलता जा रहा है। वह कैसे ज़िन्‍दा रह पायेगा?

…..तनिश, तुम ऐसा क्‍यों कर रहे हो? ज़रूर कोई कारण होगा, तुम ऐसे ही खुद को नहीं बदल रहे होगे और लोगों से खुद को अलग नहीं कर रहे होगे। तुम मुझे ख़ुद को बदलने की नसीहत देने लगे हो।

…..मेरे जिस खिलंदड़ेपन को पसन्‍द करते थे, उसे ही खत्‍म करने को कहते हो? नहीं मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगी। तुम्‍हें पता है कि तुम खुद को बदलने के चक्‍कर में कितने चिड़चिड़े होते जा रहे हो?

…..मैं महसूस कर सकती हूं।  तुम्‍हारी हमेशा तनावभरी आवाज़ सुनाई देती है। मेरे पति और तुम्‍हारे दोस्‍त नरेश भी तुम्‍हारे अन्‍दर आ रहे बदलाव को महसूस कर पा रहे हैं, पर तुमसे बोलने की हिमाक़त कोई नहीं करता।‘

अब तो रोज़ कहने लगे हो, ‘तुम्‍हारे सुधरने का कोई चांस नहीं है।‘ मुझे कितना बुरा लगता होगा यह सुनकर, इसका तुम्‍हें अंदाज़ा है? हम जिन गुणों के वशीभूत होकर मित्र बने थे, वही गुण अवगुण कैसे हो सकते हैं? मुझे यह गणित अभी तक समझ में नहीं आया है।

…..बात-बात में कमियां निकालने लगे हो, तुम पहले तो ऐसे नहीं थे। तुम्‍हें किस बात का डर है? तुम मुझसे नज़रें क्‍यों चुराने लगे हो? दो हमउम्र मित्रों के बीच यह औपचारिकता मुझे बिल्‍कुल रास नहीं आ रही, मैं क्‍या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा। बात-बात में चिड़चिड़ाहट।‘

अजीब सा घालमेल  हो गया है संबंधों में। उसने कितनी बार तनिश से फोन पर बात की, यह हिसाब उनकी नई मित्रों को क्‍यों दिया जाये, उसे सिर्फ़ इतना बता दिया जाये। क्‍या दोनों ने ऐसा सोचा था कि हर बात के लिये सफाई देनी पड़ेगी?

यह भी तुमने ही कहा था… ‘तुमने मुझे फोन किया तो बीना को क्‍यों नहीं बताया था?’ वे होती कौन हैं तुम्‍हारे मित्रों का और तुम्‍हारे फोन का हिसाब रखनेवाली?

रुचि का भी मूड उखड़ गया था। पहली बार चिल्‍लाई थी तुम पर, ‘दुनियां के सारे नमूने मेरे ही नसीब में लिखे हैं। इनको और कहीं ठौर नहीं मिली जो मेरे गले की हड्डी बन बैठीं।‘‘

परन्‍तु साथ ही यह भी कह दिया, ‘लोग भी न बस, मुसीबतें बनकर ज़बर्दस्‍ती गले पड़ जाते हैं। तुम अपनी मित्र से कह देना कि मेरी और तुम्‍हारी मित्रता के बीच में कोई टांग न अड़ाये, हां बताये देती हूं।‘

रुचि की इस झल्‍लाहट पर पति  नरेश चिढ़ गये और बोले, ‘तनिश मानेगा तब न? वह बीना को कह सकता है क्‍या कि वे तुम दोनों के बीच में न बोलें। तुम अपनी दोस्‍ती अपने तरीके से निभाओ। बीना-मीना के चक्‍कर में अपने संबंध खराब मत करो। थोड़ी देर मॉल हो आओ।

……तरोताज़ा महसूस करोगी।‘ यह कहकर नरेश फिर पेपर पढ़ने में मशगू़ल हो गये हैं।

औरत की छठवीं इंद्रिय बहुत ज़बर्दस्‍त होती है। वह स्‍थितियों को बहुत जल्‍दी भांप लेती है और रुचि भी एक औरत है। यह सर्वविदित है कि आदमी को इमोशनली ट्रैप करना बहुत आसान होता है।

कोई औरत यह भांप जाये कि फलां आदमी की क्‍या कमज़ोरी है, तो फिर उसके लिये यह काम और आसान हो जाता है। ‘तनिश, तुम्‍हारे साथ ही यह होना सबसे आसान है। अपनी तारीफ़ सुनना ही तुम्‍हारी सबसे बड़ी कमज़ोरी है।

….यह बात तुम्‍हारी महिला मित्र जानती हैं। सच कड़वा तो लगेगा पर तुम्‍हें इस बात को समझना ही होगा।‘ जब वह  इस बात का संकेत देती है तो सबसे बड़ी दुश्‍मन हो जाती है। वह बिना बोले रह भी तो नहीं पाती और वहीं उसकी कज़ा आ जाती है।

‘तनिष, तुम कभी किसीसे दो-चार बार मना कर दो कि तुम उनका कोई काम नहीं कर सकते। बहाना तो कोई भी बना सकते हो और देखो, लोग कितनी जल्‍दी तुमसे किनारा कर लेंगे। पर नहीं, तुम ऐसा नहीं करोगे क्‍योंकि तुम भ्रम में जीने के आदी हो गये हो।‘

आज बहुत दिनों के बाद तनिश का फोन आया है, ‘तुम यह सब कैसे कर पाये? तुम कैसे मेरे खिलाफ़ सुन पाये? अपने से परे क्‍यों नहीं कर पाये उनको जो तुम्‍हारे और मेरे बीच दूरी लाने की कोशिश कर रहे हैं?

…..अब तो मैं बर्फ़ की सिल्‍ली हो गई हूं, एकदम ठंडी और कछुआ हो गयी हूं, अपने खोल में बंद। कई बार मन में करता है कि यदि तुम्‍हें विकल्‍प मिल गया है दोस्‍त के रूप में तो मैं क्‍यों नहीं अपना सकती कोई विकल्‍प?’

   इस पर हंसकर बोले हो,ऐसा कर पाओगी?’ इस पर उसने हंसकर कहा था,उमर भी है, रंग-रूप भी है पर मन गवाही नहीं देता। कभी विकल्‍प के बारे में सोचा ही नहीं। कई बार तो मुझे लगता है कि मानो मेरे शरीर और ज़ुबान में कांटे उग आये हैं

……..जो तुम्‍हें चुभते हैं। मैं यह मानती हूं कि कई बार मैं तुम्‍हारे प्रति निर्मम हो जाती हूं। क्‍या करूं यदि मैं निर्मम न होऊं तो? मैं तुम्‍हारी दुश्‍मन तो नहीं हूं, दोस्‍त हूं।‘ इस पर वहां से आवाज़ आई थी,सॉरी बाबा। अब हंस भी दो।‘

     उसका हंसना इतना आसान है क्‍या? उसने कहा था,मुझे कितनी कोफ्त़ होती है जब तुम मेरी बात नहीं मानते। मेरे पास तुम्‍हारे जैसा अनुभव न सही, पर महसूसने की ताक़त है। अब इसे शक़ मत कहना। यदि शक़ भी है तो इसकी नौबत ही क्‍यों आई?

…..बस, बाबा, अब कुछ नहीं बोलूंगी। तुम फिर नाराज़ हो जाओगे। नाराज़गी भी ऐसी कि मानो सब कुछ खत्‍म हो गया है। अग़र तुम मेरी बातों को सही परिप्रेक्ष्‍य में समझ पाये हो तो बुरा नहीं मानोगे।

…..तुम यह तो मानते हो न कि हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। पैसेवालों से दूर रहो वही तुम्‍हारे हित में होगा। वे तुम्‍हें कहीं का नहीं छोड़ेंगे। ज्‍य़ादा प्रसिद्धि की चाह बहुत कुछ ग़लत करवा जाती है।‘

  रुचि ने भी दुनिया देखी है।  जब तक सही-ग़लत का विश्‍लेषण करने बैठो तो बहुत देर हो चुकी होती है। फिर तो ग़लत-सही से समझौता करना ही होता है और उससे छुटकारा नहीं मिलता।

 रुचि का मन नहीं माना तो उसने तनिष को फोन कर ही लिया,तनिश, सच कहूं तो मुझे फोन करते डर लगता है कि कहीं फिर मेरी किसी कमी को लेकर शोला न भड़क उठे। हम तो कभी झगड़ते नहीं थे। लोग रश्‍क़ करते थे हमारी दोस्‍ती पर। आज भी करते हैं और मैं तो चाहती हूं कि ज़िन्‍दगीभर करते रहें। है न!

  …..क्‍या तुम सबकुछ बह जाने दोगे? याद रखना कि यदि संवेदनाएं सूख गईं, मर गईं तो फिर महसूसने को कुछ भी तो बाकी नहीं रह जायेगा। फिर तो हम मशीन हो जायेंगे। तुम और मैं चाहेंगे कि हम मशीन बन जाएं?’

…..सबके अपने अपने परिवार और दायरे हैं, जिसमें सब बंद हैं और वह अपने मन की गुफा में बंद है। जब जब वह अपने मित्रों को शांत देखती है, मन आशंका से भर जाता है।

किस ओर से और किस तरह का आक्रमण होगा, पता नहीं। क्‍या जाने किस आगामी तूफान का संदेश है। वह तनिश को फोन करती है और कहती है….’कह डालो न मन की बात, प्‍लीज़ कह भी दो न। अपने मन को खोलो तो संबंधों में ज़हर नहीं घुलेगा’।

 

 

- मधु अरोड़ा

  • कृतियां:
  • · ‘बातें’- तेजेन्द्र शर्मा के साक्षात्कार- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर।
  • · ‘एक सच यह भी’- पुरुष-विमर्श की कहानियां- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, नई दिल्‍ली।
  • · ‘मन के कोने से’- साक्षात्‍कार संग्रह, यश प्रकाशन, नई दिल्‍ली।
  • · ‘..और दिन सार्थक हुआ’- कहानी-संग्रह, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्‍ली।
  • · ‘तितलियों को उड़ते देखा है…?’—कविता—संग्रह, शिवना प्रकाशन, सीहोर।
  • · मुंबई आधारित उपन्‍यास प्रकाशनाधीन
  • · भारत के पत्रकारों के साक्षात्‍कार लेने का कार्य चल रहा है, जिसे पुस्‍तक रूप दिया जायेगा।
  • · सन् २००५ में ओहायो, अमेरिका से निकलनेवाली पत्रिका क्षितिज़ द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्‍मान से सम्‍मानित।
  • · ‘रिश्‍तों की भुरभुरी ज़मीन’ कहानी को उत्‍तम कहानी के तहत कथाबिंब पत्रिका द्वारा कमलेश्‍वर स्‍मृति कथा पुरस्‍कार—२०१२
  •  उपन्‍यास…उम्‍मीद अभी बाकी है’ प्रकाशित….2017…… मिररस्‍टोरी, मुम्‍बई
  • · हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, परिकथा, पाखी, हरिगंधा, कथा समय व लमही, हिमप्रस्‍थ, इंद्रप्रस्‍थ, हंस, पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
  • · जन संदेश, नवभारत टाइम्‍स व जनसत्‍ता, नई दुनियां, जैसे प्रतिष्‍ठित समाचारपत्रों में समसामयिक लेख प्रकाशित।
  • · एस एनडीटी महिला विश्‍वविद्यालय की हिंदी में एम ए उपाधि हेतु कहानी संग्रह ‘और दिन सार्थक हुआ’ में वर्णित दाम्‍पत्‍य जीवन पर अनिता समरजीत चौहान द्वारा प्रस्‍तुत लघु शोध ग्रंथ…..२०१४ —२०१५
  • · उपन्‍यास…’ज़िंदगी दो चार कदम’ प्रकाशनाधीन
  • · अखिल भारतीय स्‍तर पर वरिष्‍ठ व समकालीन पत्रकारों के साक्षात्‍कार का कार्य हाथ में लिया है।
  • · आकाशवाणी से प्रसारित और रेडियो पर कई परिचर्चाओं में हिस्सेदारी। हाल ही में विविध भारती, मुंबई में दो कहानियों की रिकॉर्डिंग व प्रसारण। मंचन से भी जुड़ीं। जन संपर्क में रूचि।
  • सन् 2015..2016 का महाराष्‍ट्र राज्‍य हिंदी साहित्‍य पुरस्‍कार मिला तथा डाक्‍टर उषा मेहता अवार्ड से सम्‍मानित किया गया।

 

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