रिहाई

कुशलगढ़ – एक ओर मध्यप्रदेश व दूसरी ओर गुजरात को छूता हुआ राजस्थान का दक्षिणतम, टापूनुमा आदिवासी अंचल, जिसके चारों ओर नदी ऐसे बहती है जैसे इस अंचल को उसने प्यार से बाहों में भर रखा हो । यहां की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी आदिवासी गण की है लेकिन कुशल-मंगल यहां सिवाय आदिवासी के बाकी सभी हैंं। थे वे भी कभी सकुशल जब इस इलाके का संस्थापक उनका अपना सरदार कुशला भील हुआ करता था। उसकी बस्ती के चौकीदार से उसके सरदार तक हर कोई नदी के पानी से महुआ शराब, आम, सीताफल और मक्की की उपज से लगाकर पशु-पक्षियों के शिकार तक, सब कुछ वनवासी रंग में रंगी, प्रकृति मां की गोद में खेलती यह  प्रकृति-संतान तब अति प्रसन्न थी।
एक दिन जोधपुर के क्षत्रिय राठौड राजवंश का एक वीर सरदार एक बडी सैनिक टुकड़ी लिये उधर से गुजरा और अचानक कुशला भील और उसके रक्षकों पर हमला कर उस इलाके को आनन-फानन मे ही अपने कब्जे में ले लिया। अनेक वर्षों तक पहले राजशाही और अब आजाद प्यारे हिन्दुस्तान के बहुरंगी राजाओं और उनके प्यादों के शोषण से त्रस्त है यहां का आदिवासी। आश्चर्य है कि इतना सब होते हुए भी यहां के आदिवासी स्त्री-पुरुषों के महुआ शराब की मस्ती में लोकगीतों पर थिरकते कदम जारी है। तनाव नहीं है इनके जीवन में। आज तक यहां शायद ही किसी आदिवासी को रक्तचाप या हृदय रोग हुआ हो।
अभी कोई छह माह ही तो हुए है मुझे यहां आये हुए और काफी कुछ जान चुका हूं इनके बारे में। बहुत रोमांचक लग रही है मुझे यहां की तैनाती।
मुंसिफ मजिस्ट्रेट के रूप में यहां की तैनाती का आदेश जब मुझे मिला तब सबसे पहले राजस्थान के नक्शे में मैंने कुशलगढ़ को ढूंढ़ा। जोधपुर से कुल बाईस घण्टे की निरन्तर बस यात्रा। पूरे बांसवाड़ा जिले में ही रेल मार्ग नहीं है। जोधपुर से बांसवाड़ा उन्नीस घण्टे और आगे कुशलगढ़ के लिए तीन घण्टे। यहां पहुंचते-पहुंचते हालत खस्ता हो जाए। फिर किसी ने यह भी बतला दिया था कि यहां मध्यप्रदेश के आदिवासी -डकैत यदा-कदा लूटपाट मचाने आ जाते हैं। युद्धग्रस्त सीमा पर जाने वाले जवान की भांति मैं अपने सभी निकट सम्बन्धियों से मिलकर ही कुशलगढ़ के लिए रवाना हुआ था। पता नहीं कब लौटना नसीब हो और फिर हो भी या…।
यहां इस बार लगातार तीसरा वर्ष है अकाल का। अर्द्ध नग्न, आधे भूखे आदिवासी स्त्री-पुरुष जंगल से लकड़ी, गोंद व महुआ लेकर अपनी दैनिक आवश्यकता का सामान जुटाने के लिए कस्बे में आते हैं। अर्द्धनग्नता इनकी सांस्कृतिक पहचान जरूर है, लेकिन भूख किसी मानव संस्कृति की पहचान नहीं हो सकती, यह केवल मजबूरी है।
ठीक साढ़े दस बजे सुबह मेरी अदालत की कार्यवाही आरम्भ हो गयी।
‘‘सर, एक चोरी का मुलजिम है और चालान भी साथ में पेश कर रहा हूं।’’ कस्बे के थानेदार ने मुझे कड़क सैल्यूट मारते हुए निवेदन किया।
मैंने आरोप-पत्र और अन्य दस्तावेजात पर सरसरी तौर से नजर दौड़ाई। केवल पन्द्रह किलो मक्की चोरी का मामला था। अचानक मुझे कुछ याद आया। केवल पन्द्रह किलो मक्की की चोरी ? कहीं यह वह तो नहीं। मैं मुलजिम को देखने के लिए अधीर हो उठा। उसे तुरन्त पेश करने का आदेश दिया। दो सिपाहियों की अभिरक्षा में उसे अदालत में लाया गया। उसने गर्दन झुका रखी थी। कद, रंग उम्र से तो वही लगता है, मैंने सोचा।
‘‘सुका, तुम्हारा नाम है ?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘जी’’ – कहते हुए उसने अपनी गर्दन उठाई, लेकिन मुझे देखते ही उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। तुरन्त ही वह सहज होने का प्रयास करने लगा। शायद उसे विश्वास था कि मैंने उसे नहीं पहचाना। फिर भी निपुण चोर या अपराधी न होने से उसके मन के अपराध भाव चेहरे पर आ ही गये थे। सर्दी का मौसम होते हुए भी उसके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई।
उधर सुका को पहचानते ही मेरे मन में भी अचानक क्रोध से बिजली सी कौंध गयी।
‘‘सीधा खड़ा हो’’ – मैं अनावश्यक क्रोधवश चिल्लाया। अनावश्यक इसलिए कि सुका तो पहले से सीधा ही खड़ा था।
सुका और अधिक घबरा गया और हाथ जोड़ कर खड़ा रहा। अदालत में उपस्थित सरकारी वकील और पेशकार मेरे इस असाधारण रूप से असंयत व्यवहार पर अचंभित थे। उन्होंने क्रोधावस्था में मुझे शायद पहली बार देखा था। शायद मुझे क्रोध भी यहां पहली बार ही आया था. लेकिन मैंने तुरन्त ही स्वयं पर काबू कर लिया।
यह वही सुका था। वही 18-20 वर्ष की उम्र, अर्द्धनग्न, नाटा कद, काला कलूटा, घुंघराले बाल और काणा। करीब दो माह पूर्व की एक भयावह रात का सारा दृश्य मेरे स्मृति पटल पर सजीव हो उठा।
उस रात मैं कुशलगढ़ के सरकारी क्वार्टर के आंगन में मच्छरदानी ताने अपनी खाट पर लेटा था। यही कोई बारह बजे का समय था। दोपहर में सो लेने से मुझे नींद नहीं आ रही थी। छत पर जल रहे बल्ब का प्रकाश आम व नीम्बू के पेडों के हिलते हुए पत्तों से छन कर मेरे आंगन में झिलमिल झिलमिल थिरक रहा था। अचानक आंगन की चार दीवारी पर से कूद कर दो मानव आकृतियां एक के बाद एक मेरे आंगन के भीतर उतरी। आश्चर्य था कि उनके कूदने की कोई आहट तक नहीं हुई, जैसे उनके पैर न होकर बिल्ली के पंजे हो या फिर उनके पैरों में कोई साइलेंसर लगा हो। करीब 18-20 वर्ष की उम्र, काले, नाटे, घुटनों तक सफेद धोती पहने हुए नंगे बदन, तीर-कमान कन्धे पर लटकाये दो आदिवासी युवक, हाथों सें एक-दूसरे को कुछ इशारा कर रहे थे। मैं इस अप्रत्याशित दृश्य को देखकर घबरा गया। स्थिति की नजाकत को देखते हुए मैं कभी आंखें मूंदे व कभी कुछ खोल कर उन्हें देखते हुए निश्चेष्ट पड़ा रहा। एक युवक ने कमान पर तीर चढ़ा लिया और मेरी ओर तान कर चौकस मुद्रा में खड़ा रहा। उसके शरीर के पसीने की बू का एक हल्का सा  झांंका मेरी नाक को छू गया था। मुझे लगा  अब वह मेरी  मच्छरदानी का एक कोना उठाकर मुझे अच्छी तरह देख रहा है। मेरी घबराहट चरम सीमा पर थी। डर यह था कि घबराहट के मारे मैं कोई मूर्खता भरी हरकत न कर बैठूं। मेरी स्थिति आंखें मूंदे उस कबूतर की सी थी जिसके सामने बिल्ला खड़ा हो। तरह-तरह के विचार आने लगे। मेरी कुछ भी हरकत हुई नहीं कि उसके साथी का तीर मेरे जिगर के पार उतरा नहीं। निशानेबाजी और चपलता में इनका कोई मुकाबला नहीं। इस अनजान क्षेत्र में मैं बेमौत मारा जाऊंगा। ऐसे कठिन क्षणों में भी मुझे यह आशंका हुए बिना नहीं रही कि न्यायपालिका द्वारा मुझे मरणोपरान्त शहीद का गौरव तो देना दूर रहा, कहीं वे इस बात की जांच न बैठा दें कि मृतक अधिकारी घटना के समय बाहर आंगन में क्यों सो रहा था ? कमरे के भीतर क्यों नहीं सोया था ? तब भला यह स्पष्टीकरण देने कौन आयेगा कि चार-चार बार स्मरण पत्र भेजने पर भी पी.डब्ल्यू.डी. वालों ने कमरे का पंखा ठीक नहीं किया और परिणामस्वरूप गर्मी के कारण मुझे बाहर आंगन में सोना पड़ा था। अतः हरि स्मरण के अलावा कोई चारा नहीं था, सो मन ही मैं करता रहा। ईश कृपा से वह युवक आंगन में बने टिनश्ेड की ओर बढ़ा। शायद वह आश्वस्त हो गया था कि मैं गहरी नींद में सोया हूं। मैंने डरते-डरते आंखें थोड़ी-सी खोली और तिरछी नजर से उसे देखने लगा। शायद वे कोई व्यवसायिक व निपुण चोर नहीं थे। टिनशेड के नीचे मेरा खुला रसोई घर था। रसोई के सामान पर पास की गली के बिजली के खंभे की ट्यूबलाइट का प्रकाश पड़ रहा था। सो उस युवक का चेहरा मुझे साफ दिखाई दे गया। निश्चित ही यह सुका ही था। उसने आटे के पीपे में डालडा घी का डिब्बा डाला और उस पीपे को व पास पड़े करीब पन्द्रह-बीस किलो मक्की के कट््टे को उठाकर वह अपने साथी की ओर बढ़ा। देखते ही देखते दोनों युवक उक्त सामान को लेकर पिछवाड़े की दीवार कूदकर तुरन्त अदृश्य हो गये।
मैंने राहत की सांस ली। मैं हौले से उठा और अपनी खाट अन्दर कमरे में ले गया। बरामदे का दरवाजा बंद कर भीतर से ताला लगाया और कमरे में आकर लेट गया। लेकिन नींद कहां आनी थी। इधर गर्मी, उधर मन इस हादसे से उत्पन्न भय, अपमान और खिन्नता से अशान्त था। किसी पड़ोेसी को जगाकर भी क्या करता। किसी को कहने से हंसी और बदनामी अलग होती। कस्बे में बात और फैल जायेगी। मुंसिफ मजिस्ट्रेट के घर में चोरी ? और वह भी आटा, अनाज और मामूली घी की ? इतने बड़े अफसर के घर में कुछ था नहीं क्या चुराने के लिए ? शायद ऐसे ही किसी मौके के लिए रहीमजी ने ‘‘रहीमन निजमन की बिथा, मन ही राखो गोय, सुनि अठिलेहे लोग सब, बांटि न लेहे कोय’’ लिखा था।
भोर के समय मेरी कुछ आंख लगी ही थी कि कालू चपरासी ने घण्टी बजाकर मुझे जगा दिया। सफाई करते समय टिनशेड के नीचे आटे का पीपा, डालडा घी का डिब्बा और मक्की का कट्टा न पाकर वह परेशान सा मेरे पास आया और बोला – ‘‘साब वो आटा, घी और मक्की रात को तो यहीं पड़े थे, अभी यहां नहीं हैं।’’
‘‘चूहों के कारण रात में मैंने स्टोर में रख दिये’’ – मैंने कालू की जिज्ञासा शान्त की। इससे पहले कि कालू स्टोर में जाकर रसोई की तैयारी के लिए सामान संभालता मैंने यह कह कर उसकी छुट्टी कर दी कि आज मेरा खाना डॉ. सिद्दीकी के यहां है और शाम को ही मैं एक सप्ताह की छुट्टी जा रहा हूं।
छुट्टी के दौरान व कुशलगढ़ लौटने के बाद भी काफी दिनों तक मैं उस हादसे को भूल नहीं पाया। आज सुका को देखकर उस रोमांचक रात की हर बात मेरे दिमाग में जीवन्त हो उठी थी। आज मुझे उस अपमान, परेशानी और क्षति का पूरा बदला लेना था।
सरकारी वकील को मैं आज बहुत असहज लग रहा था। असहज तो मैं था ही।
‘‘सर आपकी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है। आप फरमाये तो मैं कुछ देर बाद हाजिर होऊ’’ – वह मेरी ओर गौर से देखते हुए बोले।
‘‘नहीं, नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूं। आप बहस सुनाइये’’ – लेकिन मैं कहां ठीक था। मैं दूसरों को सच बोलने की शपथ दिलाने वाला, झूठ बोल गया।
सरकारी वकील ने सुका के विरुद्ध पुलिस की ओर से बहस की। सुका का कोई वकील नहीं था। मैं सरकारी वकील को ध्यान से सुनने का अभिनय मात्र कर रहा था। वस्तुतः मैं अभी भी उस रात के रोमांच में भटक रहा था।
‘‘लंच के बाद आदेश होगा’’ – यह कह कर मैं चेम्बर में चला गया। इस बार सुका की पत्रावली का मैंने ध्यानपूर्वक अध्ययन किया।
चैम्बर में मैं अकेला होते हुए भी अकेला नहीं था। एक मैं, क्रोध और प्रतिशोध से प्रेरित अधीर, अशान्त व्यक्ति और दूसरी ओर मेरे भीतर बैठा शान्त, सम्यक्, धीर-गंभीर न्यायाधीश। असली बहस तो अब होने लगी थी, दोनों के बीच।
‘‘सूका के विरुद्ध शून्य साक्ष्य का मामला है। उसे पन्द्रह किलो मक्की चुराते किसी ने नहीं देखा। इसका भी कोई प्रमाण नहीं है कि सुका के कथित कब्जे से बरामद मक्की वही हो जो चोरी हुई थी। उसे रिहा किया जाना चाहिए।’’मेरे भीतर का न्यायाघीश बोला
‘‘लेकिन मैं जानता हूं कि यह चोर है, इसका एक साथी भी चोर है। मैंने स्वयं ने इसे मेरे घर से आटा, मक्की और घी चुराते देखा है। तीर कमान लेकर घुसे थे, स्साले’’ – मैं चिल्लाया।
‘‘वह एक दूसरा, तुम्हारा अपना मामला था। उसकी यदि तुम रिपोर्ट करते तब तुम स्वयं साक्षी-कटघरे में होते और न्यायाधीश कोई और होता। तुम्हारा अपना अनुभव इस न्यायिक आदेश का हिस्सा नहीं बन सकता. उसेे इस मुकदमे में देखना विधि और न्यायसंगत नहीं है’’ मेरे भीतर से आवाज आई।
‘‘विधि और न्यायसंगत ! क्या मुझ पर बीती वह न्यायसंगत थी ? सुका चोर है – मेरा विश्वास मेरे अपने प्रत्यक्ष प्रमाण पर आधारित है। मैं प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की शक्तियां रखता हूं। तुम अपना उपदेश बंद करो’’ मैं सन्तुलन खो बैठा।
‘‘शक्तियां….. हः, ह हः…, यह एक भ्रामक शब्द है मेरे भाई। यह तभी सार्थक है जब इसका दुरुपयोग किया जाए। अन्यथा यह तो न्याय प्रदान करने का एक साधन मात्र है। इस समय तुम मात्र न्यायाधीश हो। तुम्हारा अपना व्यक्तित्व और अपनी व्यथा सब बेमाने हैं। केवल इस मुकदमे में उपलब्ध साक्ष्य को निर्पेक्ष, निर्लिप्त भाव से गुणावगुण के आधार पर आंक कर निर्णय देना ही तुम्हारा धर्म है। न्यायाधीश पद की दिव्य गरिमा और पवित्र दामन पर अपने व्यक्तिगत राग, द्वेष, क्रोध व प्रतिशोध के छींटें लगाना पाप होगा। आगे तुम जानो’’ मेरा न्यायाधीश गंभीर हो गया।
मेरा माथा चकराने लगा।
‘‘तो क्या उसे मेरे यहां की गयी चोरी के दण्ड से बचाना उचित होगा ?’’ मैंने प्रश्न किया।
‘‘जब तुमने उस घटना को एक लम्बे अर्से तक स्वेच्छापूर्वक छिपाये रखा तब अब सुका के उस दुष्कृत्य को क्षमा भाव से भूलकर सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देना ही श्रेयस्कर है।’’ न्यायाधीश का मत था।
मैं अभी भी उद्धिग्न था, लंच समय पूरा हो गया था। मैं अदालत में लौटा। सुका अभियुक्त कटघरे में नतमस्तक खड़ा था।
‘‘तुम क्या धन्धा करते हो ?’’ मैंने सुका से पूछा।
‘‘कुछ नहीं’’ – वह धीरे से बोला।
‘‘अकाल राहत की मजदूरी क्यों नहीं करते ?’’ मैंने सुझाया।
‘‘मेट रखता नहीं है।’’
‘‘घर में और कौन है ?’’ – मैंने पूछा।
‘‘बेइर (पत्नी) तो दूसरे के साथ भाग गयी। बूढ़ी मां है’’ – वह बोला।
मुझ पर न्यायाधीश हावी होने लगा था।
सुका के विरुद्ध चोरी के आरोप का प्रसंज्ञान लेने का कोई सबूत नहीं था इसलिए और प्रश्न कर समय गंवाना व्यर्थ था।
‘‘मुलजिम सुका के विरुद्ध चोरी का आरोप निराधार होने से उसे रिहा किया जाता है।’’ मैंने निर्णय सुनाया।
सुका को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसके वीभत्स चेहरे पर कुछ अजीब भाव थे। वह अचानक भाव-विह्वल हो चिल्लाने लगा, ‘‘बाबजी मने जेल भेजो। मैंने तो आपके…’’ वह पूरी बात कहता उससे पहले ही मैंने उसका आशय भांप कर उसे चुप रहने का संकेत किया।
‘‘मैं जानता हूं’’ – मैंने उससे कहा।
सुका अब और भी चकित था। उसकी अश्रुधारा तेज हो चली। मुझे लगा वे उसके आंसू नहीं, उसके भीतर से शायद पश्चाताप का लावा निकल रहा था.
रिहाई केवल सुका की ही नहीं हुई थी। कुछ क्षणों के लिए अपने व्यक्तिगत क्रोध व प्रतिशोध के कलुषित घेरे में स्वयं मैं भी तो कैद हो गया था।

- मुरलीधर वैष्णव

जन्म तिथि: ०९ फरवरी, जोधपुर

शिक्षा : बी.ए., एलएल.बी.

राज्य सेवा: करीब ३४ साल का राज.न्यायिक वं उच्चतर न्यायिक सेवा अनुभव रजिस्ट्रार प्रशासन राज.उच्चन्यायालय,जोधपुर व सुपर टाइम स्केल 
जिला न्यायाधीष पद से २००६ में सेवा निव्रत। ५ वर्ष के लिए अघ्यक्ष उपभोक्ता संरक्षण मंच जोधपुर पद पर पुर्ननियुक्ति।

साहित्य- स्रजन: कवि-कथाकार

प्रकाशन : ’पीड़ा के स्वर’कथासंग्रह अक्षय-तूणीर लघुकथा संग्रह व ‘हेलौ-बसंत’काव्य-संग्रह
राज.पत्रिका दैनिक भास्कर, हंस, कथादेश, सरिता, मुक्ता, मधुमति आदि अनेक राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में सतत रूप से साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार की सैंकड़ों रचनाएं प्रकाशित।
बाल साहित्य आदि प्रकाषन-दो बाल कथा संग्रह ’पर्यावरण चेतना की बालकथाएं’ ,’चरित्र विकास की बाल कहानियां ’ ,एक बालगीत संग्रह व एक बालकथा संग्रह प्रकाषनाधीन, बाल वाटिका का संरक्षक।

राजस्थानी भाषा में भी कविताएं ’जागती जोत’ में प्रकाशित

अंग्रेजी में विभिन्न कानूनी बिंदुओं पर अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका सीटी.जे. (कन्जूमर एंड ट्रेड प्रेक्टिस लॉ) में अनेक आलेख

प्रदत्त सम्मानः 
१ . राज.पत्रिका सृजनात्मक साहित्यपुरस्कार २००२ 
२ .राज.साहित्यअकादमीकाविषिश्टसाहित्यकारसम्मान २०१३ 
३ . वीरदुर्गादाससाहित्य सम्मान मेहरानगढ ट्रस्ट जोधपुर २००८ 
४ . सर्जनात्मक संतुश्टि संस्थान जोधपुर सर्वश्रेश्ठ लघुकथासम्मान २०१२ 
५ .रेस्पेक्ट इंडिया २००८ सम्मान
६ .उत्सव मंच,अजमेर २०१२ सम्मान
७ .सुमित्रानंदन पंत बाल साहित्य सम्मान २०११

अन्य सामाजिक कार्य : संरक्षक ‘जाग्रति’ आरटीआइ एनजीओ जोधपुर गरीब प्रतिभाशाली बच्चों को आर्थिक मदद उदयपुर, प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, कुशलगढ़, बांसवाड़ा एवं जोधपुर में अब तक करीब ३००० से अधिक वृक्षारोपण एवं उनका पोषण ,निःशुल्क कानूनी सेवा के दर्जनों केम्प्स में विधिक शिक्षा प्रसार
जोधपुर संभाग में उपभोक्ता कानूनी शिक्षा प्रसार एवं जाग्रति हेतु उल्लेखनीय कार्य

सम्प्रति पता आदि: विधिक सलाहकार एवं स्वतंत्रलेखन ’ , रामेष्वरनगर ,बासनी , प्रथम फेस, जोधपुर , जोधपुर (राज.)

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