ट्रैन तेज आवाज करते हुए आगे निकल गई। सुरेश ने एक बार जाती हुई ट्रैन को देखा और फिर उतरी हुई सवारियों और उनको लेने आए परिजनों की ओर। बड़ी चहल पहल थी। बहुत ढूंढने पर भी किशन कहीं नजर नहीं आया। माया को उसने कितना समझाया था कि अब वक्त बदल चुका है। किशन अब शहरवासी हो गया है, लेकिन वह मानी नहीं। ठीक किया कि उसे साथ नहीं लाया, बोलती थी कि किशन ट्रैन से उतरते ही तुम्हें लेने आ जायेगा। अनपढ़ सुरेश ने अपनी मुट्ठी में रखे कागज को कसकर दबा दिया। “भई शहर में तो आजकल मोबाईल नम्बर ही सबसे बड़ा पता होता है।” कह रहा था किशन जब वह पिछली बार गाँव आया था।
सुरेश ने नजरें दौड़ाई लेकिन उसे कहीं पब्लिक फोन की सुविधा दिखाई न दी। भारी कदमों से वह स्टेशन से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर बढ़ने लगा। आते जाते लोगों पर नजर डालता लेकिन वो चेहरा नजर न आता जिसकी उसे तलाश थी।
“माया तो नासमझ थी ही लेकिन मैं भी उसकी जिद के आगे मजबूर हो गया।” बुदबुदाते हुए कदम बढ़ाने लगा सुरेश।
तभी उसे लगा कि कोई उसके पीछे दौड़ते हुए आ रहा है। बैग को कस कर पकड़ लिया उसने। मुड़कर देखा तो तब तक वह बिल्कुल नजदीक आ चुका था।
“अरे कितनी देर लगी तुमको ढूँढने में मुझे?”
“किशन!” शब्द अब होठों से कम व आँखों से ज्यादा बह रहे थे।
“हम प्लेटफॉर्म नम्बर 4 पर इंतजार कर रहे थे लेकिन अभी थोड़ी देर पहले ही उद्घोषणा हुई कि गाड़ी नम्बर एक पर आ रही है। हमें वहाँ से आने में समय ज्यादा लग गया। तुम परेशान हो गए तब तक।”
“मैं तो बात नहीं करूंगी आपसे। इतना तो कहा था भाभीजी को साथ लाने के लिए, आ गए अकेले अकेले।”
किशन अपने बचपन के यार के गले लग गया। तीन जोड़ी आँखों से गंगा जमुना बह रही थी।
- यशपाल शर्मा ‘यशस्वी’
विविध क्षेत्रीय व राष्ट्रीय पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन