सरजूआ की महतारी ने फिर से आज जोर देकर कहा था, “ललिया, लाल कार्ड बनवा ले, दिन फिर जावेंगे!” उसकी बातें चुपचाप सुनी थी।
लाल-कार्ड के नाम पर मन ही मन साहब को याद करती। उनकी घूरती भारी आँखें, उफ्फ! काँप उठी।
ना! ना जरूरत लाल कार्ड की, दो घर और बर्तन-भाँडा कर लेगी। उसने पलटकर खाट की ओर देखा और झट् से दौड़ी।
“अरे, रे, रे, बचवा, मेरा लाल, फिर-से कै कर दिया, लगता है बुखार चढ़ी गवा है।” गोदी में उठा धीरे-धीरे पीठ सहलाने लगी। सुबह होते ही डाकटर को दिखा लायेगी।
आँचल में बँधी गाँठ को छूकर अंदाज करने लगी। मन मसोस गया। पचास रुपये से कम की पर्ची डाकटरवा बनाता नहीं है! कहाँ से लाए, किससे मदद माँगे? पहले से ही सबका क़र्जा मत्थे चढ़ा है। फिर से ध्यान गेंहूँ, चावल पर जा टिका। कार्ड पर इलाज फ्री में होगा और अनाज भी सस्ते में…..! मन उब-डूब करने लगा।
साहब नगर-निगम में बड़ा अधिकारी है, करवा ही देगा अगर वो आगे बढ़कर कहेगी तो, लेकिन…!
उनसे कहूँ…,सोचते ही धक्क-से कलेजा मुँह को आ गया। जो भी हो अबकि कार्ड तो बनवाना ही है।
चींख-चिकर-कर अब बचवा पस्त हो शांत था, उसको कथरी पर सुला, कै साफ़ कर, चूल्हे की ओर लपकी!
आटा में नमक, मिर्ची मिला कर पानी का घोल बना चूल्हे पर चढ़ा दिया। एक हाथ से लई पकाती रही दूसरे से चूल्हे की मुँह को घास से भरती रही, इधर जितना चूल्हा धधकता उधर तसली की ढकनी उतनी ही ढकढकाती।
खदबदाती लई उतार कटोरे में परोसा ही था कि बचवा फिर से चिहुँक कर उठ बैठा।
“लई नई खईबो, उँ..उँ…!” ठुनकता हुआ चिल्लाया,”ओ, अम्मा, भात कब्बे बनैबोे?”
“कल बनैबोे!”
“कल, कल, हर बेरी झूठ कहे है, सरजूआ की महतारी तुझसे अच्छी है, रोज भात बनौओत है।”
“मोसे अच्छी है तो, हुनक लल्ला बन जाके!”
“ना, तोहर लल्ला बनबो और तोरे हाथे कौर खईबो, बना दे ना भात!”
“लाल कार्ड होतो, तो रोज भात बनतो बचबा!”
“काहे नहीं होतो?”
“हमरे पास भी होतो बचबा, आज साहब से कहब। बन जईहैं।”
पेट भर भात खा,पढ़-लिख बचबा गबरू जवान बनत। स्वप्न से भरी आँखें चमक, चूल्हे की आँच में लहक उठी। उसने तुरंत पानी का छींटा डाला।
घूरती भारी आँखें निगाहों में कौंधा लेकिन इस बार वह नहीं काँपी।
बँगले पर लाल कार्ड बनवाने का आश्वासन देते हुए साहब नजदीक आ उसके कंधों पर हाथ रखकर जोर से दबाया तो वह खदबदाई लेकिन अपमान को पी, चुप रहीं। पोंछा कर बाल्टी का पानी बगीचे में फेंकने आई तो,
“बचवा की माई, ओ बचवा की माई, जल्दी चल!” सरजूआ की महतारी!
“अपना काम-धाम छोड़कर इधर काहो गला फाड़ चिकर रही है। कहीं बचवा ……..!”
हाथ से बाल्टी छूटते-छूटते बचा।
“का हुआ, बचवा ठीक तो है ना…!”
“आरे दादा, जल्दी चल, ओ ठीक है, भात खिलाकर आई हूँ, सुबह तेरा नम्बर लगा दिया था ऑफिस में, सब काम करवा दिया है, बस, पहचानपत्र के लिए तेरी जरूरत है ललिया, कुछ दिनों में तेरा लालकार्ड बन जायेगा।”
“क्या,सच!”
“हाँ रे, सच!”
“तूने तो पौरुष-हरण कर लिया रे सरजूआ की माई!”
पीछे पलटकर भारी लाल आँखों को हिकारत से देख, मटियाते आँचल को सिर पर सम्भाल सरजूआ की महतारी के साथ झट-से चल दी।
- कान्ता रॉय
जन्म दिनांक- २० जूलाई,
शिक्षा- बी. ए.
लेखन की विधाएँ-लघुकथा, कहानी, गीत-गज़ल-कविता और आलोचना
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (वेवसाईट विभाग की जिम्मेदारी)
प्रधान सम्पादक: लघुकथा टाइम्स
संस्थापक : अपना प्रकाशन
घाट पर ठहराव कहाँ (एकल लघुकथा संग्रह),
पथ का चुनाव (एकल लघुकथा संग्रह),
आस्तित्व की यात्रा (प्रेस में)
चलें नीड़ की ओर (लघुकथा संकलन)
सोपान-4 (काव्य संकलन),
सहोदरी लघुकथा-(लघुकथा संकलन)
सीप में समुद्र-(लघुकथा संकलन)
बालमन की लघुकथा (लघुकथा संकलन)
2. लघुकथा कार्यशाला करवाया : हिन्दी लेखिका संघ मध्यप्रदेश भोपाल में 2016 में
3. दून फिल्म फेस्टिवल कहानी सत्र में अतिथि वक्ता के तौर पर सहभगिता।
साहित्य शिरोमणि सम्मान, भोपाल।
इमिनेंट राईटर एंड सोशल एक्टिविस्ट, दिल्ली।
श्रीमती धनवती देवी पूरनचन्द्र स्मृति सम्मान,भोपाल।
लघुकथा-सम्मान (अखिल भारतीय प्रगतिशील मंच,पटना)
तथागत सृजन सम्मान, सिद्धार्थ नगर, उ.प्र.
वागवाधीश सम्मान, अशोक नगर,गुना।
गणेश शंकर पत्रकारिता सम्मान.भोपाल।
शब्द-शक्ति सम्मान,भोपाल।
श्रीमती महादेवी कौशिक सम्मान (पथ का चुनाव, एकल लघुकथा संग्रह) प्रथम पुरस्कार सिरसा,
राष्ट्रीय गौरव सम्मान चित्तौरगढ़,
श्री आशीष चन्द्र शुल्क (हिंदी मित्र) सम्मान, गहमर, तेजस्विनी सम्मान,गहमर.
‘लघुकथा के परिंदे’ मंच की संचालिका।