ग़ज़ल- शिज्जु शकूर

अब खुलके उगलते हैं वो ज़ह्र फ़िज़ाओं में

क्यों आज क़यामत की है गंध हवाओं में

 

उफ़! कितना भयानक है ये मंज़रे फ़र्दा क्यों

इक आग सी दिखती है नज़रों को खलाओं में

 

खुश तुम भी रहो अपनी दुनिया में हरीफ़ानो

ढूँढो न जफ़ा नाहक यूँ मेरी वफ़ाओं में

 

आँखों में दिखी नफ़रत अंजाम अयाँ था ये

बेलौस बदन लिपटे वो सुर्ख़ कबाओं में

 

है शिद्दते ग़म दिल में इतना कि झुका के सर

हर शख़्स यहाँ माँगे बस अम्न दुआओं में

 

ये ख़ल्क मुकम्मल ही कम पड़ गई थी यारों

जा जाके उसे ढूँढा फूलों में घटाओं में

 

(मंज़रे- फ़र्दा आने वाले कल का मंज़र, हरीफ़ानो- दुश्मनो जैसी सोच वालों

बेलौस- निष्कपट, कबा- चादर, ख़ल्क़- सृष्टि)

 

-  शिज्जु शकूर

 

पता:                 हिमालयन हाइट्स, डूमरतराई, रायपुर, छत्तीसगढ़

जन्मस्थान:            जगदलपुर (छत्तीसगढ़)

लेखन की विधायें:       ग़ज़ल, अतुकांत, दोहे

साहित्यिक गतिविधियाँ:   ओपेन बुक्स आनलाईन डॉट कॉम में कार्यकारिणी सदस्य,

प्रकाशन:               ग़ज़ल संग्रह “ज़िन्दगी के साथ चलकर देखिये” प्रेस में

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