हिंदी साहित्य का रेवड़ी युग

काल के बदलते स्वरूप से साहित्य के इतिहास और युग बदलते हैं। रॉकेटों, सुपर कंप्यूटर, ई-मेल, स्मार्टफ़ोन वाले गतिशीलता के युग में किसी भी क्षेत्र में विकास का धीमापन कैसे हो सकता है? साहित्य इससे अछूता नहीं है। सन् 1850 से भारतेंदु, द्विवेदी, शुक्ल/प्रेमचंद युग से गुज़रता हुआ हिंदी साहित्य में 1936 के बाद से आधुनिक युग माना गया है। लेकिन तब से अब तक बड़ा लंबा समय निकल गया है। हिंदी साहित्य का विकास इस कालखंड में, खासकर पिछले दो दशकों में, बड़ी तेज़ी के साथ हुआ है। अब साहित्यकार के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए बरसों तक कलम घिसते रहने की यंत्रणा सहना आधुनिक युग का अपमान है। ज़ाहिर है, अर्थशास्त्र के डिमांड और सप्लाई के सिद्धांत के अनुसार मांग के अनुरूप आपूर्ति हो जानी चाहिए वर्ना मंहगाई बढ़ जाती है। इसी के मद्देनज़र 2000 से साहित्य में ‘रेवड़ीवाद’ का उदय हुआ ताकि बिना समय खोये ज़्यादा से ज़्यादा ‘मान्यताप्राप्त साहित्यकार’ बाज़ार में आ सकें। तभी से साहित्य की बजाय सम्मान या पुरस्कार रूपी रेवड़ी का ज़्यादा महत्त्व हो गया है। मान्यता प्राप्त करने के लिए यह निर्विवाद रूप से मानदंड बन गया है कि लेखक ने किसी न किसी उत्पादक से रेवड़ी ज़रूर प्राप्त की हो। साहित्यकारों को मान्यता प्राप्त करने की जल्दी रहती है, जो रेवड़ी उत्पादन बढ़ाने में योगदान देती है। रेवड़ी की बहुलता के चलते ‘मान्यताप्राप्त’ साहित्यकारों और साहित्य की भी श्रीवृद्धि हो रही है। शायद यही कारण रहा होगा कि इस सुचक्र के अंतर्गत पिछले दो दशकों में रेवड़ी उत्पादन में बढ़ोतरी और रेवड़ी उत्पादन केन्द्रों का बड़ी संख्या में प्रादुर्भाव हुआ है। अतः 2000 के बाद का समय आधुनिक हिंदी साहित्य का ‘रेवड़ी युग’ कहा जा सकता है।

शब्दावली में नए शब्दों, मुहावरों, आदि के समायोजन से भाषा की समृद्धि होती है। इसीलिए साहित्य में रुचि रखने वाले सभी पाठकों के लिए हिंदी साहित्य के ‘रेवड़ी युग’ की शब्दावली जानना आवश्यक है। आधुनिक हिंदी साहित्य धार्मिक व्यवस्था से काफ़ी हद तक प्रभावित हुआ है। धर्म के क्षेत्र में एक मंदिर होता है, उसमें एक भगवान होता है, एक पुजारी रखा जाता है और भक्त होते हैं जो अपनी भक्ति द्वारा भगवान को प्रसन्न करने का प्रयत्न करते रहते हैं। शोधकर्ताओं और इतिहासकारों ने बताया है कि उसी तरह आधुनिक हिंदी साहित्य के क्षेत्र में मंदिर की तर्ज़ पर विभिन्न अखाड़े या मठ स्थापित किये गए हैं जिन्हें ‘संस्था’, ‘अकादमी’, ‘समिति’, ‘फाउन्डेशन’ ‘ट्रस्ट’ आदि के नाम से जाना जाता है। ये मठ बड़े प्रकाशन समूह और प्रसिद्ध पत्रिकाएं वगैरह भी हो सकते हैं। इस क्षेत्र में मामूली लेखकों या साहित्यकारों को ‘भक्त’ कहा जाता है। ‘प्रसाद’ प्राप्ति से पहले तक भक्त बेचारा एक निरीह प्राणी होता है। वह भक्ति से अधिक कुछ नहीं कर सकता। पुस्तक आदि के रूप में सृजन करके वह जो योगदान देता है या ‘मंदिर’ में ‘अर्पण’ करता है, उसे ‘भक्ति’ कहते हैं। इन साहित्यिक ‘मंदिरों’ में कोई अलग से भगवान नहीं होता बल्कि भगवान और पुजारी एकाकार हो जाते हैं। अतः पुजारी को भी भगवान के नाम से संबोधित करना ही उचित रहता है। सम्बंधित ‘भगवान’ को प्रसन्न करने के बाद जो प्रसाद मिलता है उसे ‘रेवड़ी’ कहा जाता है। ‘मंदिरों’, मठों द्वारा आयोजित कोई भी कार्यक्रम, सम्मेलन या समारोह जो होता है वह ‘सत्संग’ कहलाता है। मुख्यतः ये मठ ही रेवड़ी उत्पादन केन्द्रों का काम भी करते हैं।

मठ रूपी ‘मंदिरों’ की व्यवस्था के लिए पुजारी की जगह स्वयम्भू मठाधीश होते हैं, जिन्हें अध्यक्ष, संचालक, महासचिव या ऐसे ही किसी नाम से पुकारा जाता है। अधिकतर मंदिर पुजारी के नाम से ही प्रसिद्ध हो जाते हैं। उन्हें ‘कार्य’ करते समय गांधारी को अपना आदर्श मान कर चलना होता है। अगर रेवड़ी वितरण जैसे महत्वपूर्ण कार्यों का निष्पादन करने के लिए मठाधीश पूरी तरह धृतराष्ट्र ही हो तो वह ज़्यादा योग्य माना जाता है। उसे किसी सार्वजनिक या गैर-सरकारी संस्था में रेवड़ी वितरण का अनुभव हो तो और अच्छा रहता है, वर्ना वैसे भी यह विलक्षण क्षमता कार्य करने के दौरान ही बहुत जल्दी पैदा हो जाती है।

जैसा पहले बताया गया है, साहित्य में रेवड़ी का महत्व इसलिए माना जाता है कि इसके प्राप्त होते ही एक मामूली लेखक भी अगले दिन से ही आधिकारिक रूप से ‘सम्माननीय’ साहित्यकार के रूप में अवतार लेने का गौरव प्राप्त कर लेता है। रेवड़ी बहुरूपा होती है। यह किसी भी रूप में ‘भक्त’ को बांटी जा सकती है। कभी पुरस्कार के रूप में, कभी किसी सम्मान के रूप में, कभी प्रकाशन के रूप में। किन्तु यह प्रसाद हर भक्त को नहीं मिलता। भगवान उर्फ़ पुजारी द्वारा यह प्रसाद केवल उन ‘भक्तों’ को बांटा जाता है जो उनकी दृष्टि में इसके ‘योग्य’ हों। भक्त द्वारा किसी भी पारंपरिक तरीक़े से अर्पण की गयी ‘भक्ति’ या उसकी गुणवत्ता पर दृष्टिपात करके कोई मंदिर समय नष्ट नहीं करता। रेवड़ी प्रदान करने के लिए ‘भक्त’ की पात्रता की इस बात से पैमाइश की जाती है कि उसने ‘पुजारी’ का कितना कीर्तन और गुणगान किया है, ‘मंदिर’ की निरंतर परिक्रमा की है कि नहीं, वह ‘पुजारी’ का कृपापात्र है या नहीं, कितने ‘भक्तों’ को व्यक्तिगत रूप से जानता है, ‘मंदिर’ द्वारा आयोजित सभी ‘सत्संगों’ में बेनागा उपस्थिति दर्ज कराई है कि नहीं, अन्य ‘भक्तों’ के साथ उसने मेलमिलाप रखा है कि नहीं, वगैरह। मेलमिलाप का एक अतिरिक्त लाभ यह भी होता है कि पीठ में खुजली की स्थिति में प्रभावशाली भक्त लोग यदाकदा परस्पर एक दूसरे की मदद कर सकते हैं।

कई छोटे मोटे मठ ऐसे भी होते हैं जहाँ यह सुविधा दी जाती है कि आप खुद के लिए रेवड़ी प्रायोजित कर सकें। जिस तरह धार्मिक मंदिरों में आपके चढ़ाये हुए लड्डुओं के भोग में से पुजारी थोड़े से रख कर बाकी आपको वापस प्रसाद के रूप में दे देता है, ठीक उसी प्रकार साहित्यिक ‘मंदिरों’ में भी आप द्वारा प्रायोजित ‘भोग’ का कुछ भाग रख कर शेष रेवड़ी के रूप में आपको ही बांट दिया जाता है। इस व्यवस्था से ये लाभ है कि तब आप ‘रेवड़ी प्राप्त’ साहित्यकारों में शुमार हो जाते हैं और इसी बहाने ‘मंदिर’ के नाम भी एक ‘सत्संग’ का आयोजन दर्ज हो जाता है। जिसने जितने अधिक उत्पादकों की रेवड़ियाँ चखी हैं वह उतना ही बड़ा मान्यताप्राप्त साहित्यकार होता है और अपने प्रोफ़ाइल में उन सारी रेवड़ियों के ब्रांड बड़े फ़ख्र के साथ लिख कर जनता को प्रभावित कर सकता है। कुछ मंदिर मिलजुल कर आपसी समीकरण से रेवड़ी उत्सव आयोजित करते हैं जिसके अंतर्गत वे एक दूसरे के भक्तों को अपने अपने ब्रांड की रेवड़ी का वितरण करते हैं।

हिंदी साहित्य में रेवड़ीवाद के उद्भव, प्रचलन व प्रसारण के कारण ‘भक्ति’ की मात्रा का भी ज़बर्दस्त विस्तार हुआ है। इसी ने हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हर आम भक्त फटाफट भक्ति का सृजन करके रेवड़ी प्राप्त करने के लिए मंदिरों का चक्कर लगाने लगता है और पुजारियों को प्रसन्न करने के जुगाड़ में लग जाता है। इस विकास ने अर्थशास्त्र को भी व्यावहारिक रूप से समझने में मदद की है। नए नए और ज़्यादा से ज़्यादा रेवड़ी उत्पादन केन्द्रों का प्रकट होना भक्तों के लिए प्रेरणास्पद सिद्ध होता है। इससे नए नए भक्त और तरह तरह की भक्तियाँ बाज़ार में उभर रहे हैं। उत्पादन केन्द्र रेवड़ियों की एक से एक आकर्षक क़िस्में ला रहे हैं।

हिंदी साहित्य में आधुनिक युग के इस कालखण्ड में रेवड़ी प्राप्त करने वाले खुश हैं, बांटने वाले खुश हैं और जो बच गए हैं वे रेवड़ी प्राप्ति की दिशा में तेज़ रफ़्तार कारवां के साथ अग्रसर हैं। जिन इने गिने लोगों को रेवड़ी खट्टी लगती है, वे सिर्फ़ ऐसे लेख लिख कर ही अपनी भंडास निकाल रहे हैं।

पर यह निर्विवाद सत्य है कि इस नए युग में हिंदी साहित्य का अभूतपूर्व विकास हो रहा है।

- कमलानाथ

कमलानाथ (जन्म 1946) की कहानियां और व्यंग्य ‘60 के दशक से भारत की विभिन्न पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। वेदों, उपनिषदों आदि में जल, पर्यावरण, परिस्थिति विज्ञान सम्बन्धी उनके लेख हिंदी और अंग्रेज़ी में विश्वकोशों, पत्रिकाओं, व अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में छपे और चर्चित हुए हैं। हाल ही (2015) में उनका नया व्यंग्य संग्रह ‘साहित्य का ध्वनि तत्त्व उर्फ़ साहित्यिक बिग बैंग’ अयन प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है तथा एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है।

कमलानाथ इंजीनियर हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय सिंचाई एवं जलनिकास आयोग (आई.सी.आई.डी.) के सचिव, भारत सरकार के उद्यम एन.एच.पी.सी. लिमिटेड में जलविज्ञान विभागाध्यक्ष, और नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैक्नोलोजी, जयपुर में सिविल इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफ़ेसर पदों पर रह चुके हैं। जलविद्युत अभियांत्रिकी पर उनकी पुस्तक देश विदेश में बहुचर्चित है तथा उनके अनेक तकनीकी लेख आदि विभिन्न राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं व सम्मेलनों में प्रकाशित/प्रस्तुत होते रहे हैं। वे 1976-77 में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय (अमरीका) में जल-प्रबंधन में फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन फ़ैलो रह चुके हैं। विश्व खाद्य सुरक्षा और जलविज्ञान में उनके योगदान के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिल चुके हैं।

वर्तमान में कमलानाथ जलविज्ञान व जलविद्युत अभियांत्रिकी में सलाहकार एवं ‘एक्वाविज़्डम’ नामक संस्था के चेयरमैन हैं।

 

 

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