शिवोऽहम्‌

प्रेम की रसधार,

आपादमस्तक आप्लावित

अस्तित्व…!

***

 

अब

उभरने लगे हैं

परिवेश में

एक अलौकिक सरगम

के सुहाने स्वर…

बज उठा है नया संगीत…

जीवन-संगीत,

जो कहीं खो गया था

नंगे पाँव भागते हुए

दुनिया के

बेतरतीब घने जंगल में…!

***

 

अब

तितलियों को

फूलों से संवाद करता देखकर

पत्ते तालियाँ बजाते हैं…!

अब भँवरे

सच्चे अर्थों में

मधुर स्वर में गुनगुनाते हैं…!

दुनिया लगने लगी है

असीम सौन्दर्य से भरपूर

कुरूपता से बहुत दूर…!

***
अब

रोम-रोम पर

ख़ुशबू की इबारत

लिखने लगीं हैं हवाएँ…!

जिसे पढ़कर

पुलकित हो उठती हैं

दिशाएँ…!

***

 

अब

नूतन राग अलापता

एक व्याकुल गीत

गाने लगा है

पूरा वजूद,

जीवन के तमाम

संघर्षों के बावजूद…!

***
अब

दूरियाँ…

नजदीकियों की नयी परिभाषा

लिखने लगी हैं…

अब

काँपते / कसमसाते होंठ

पहुँच जाते हैं…

ख़यालों में

उसकी तस्वीर के गिर्द…

कर देते हैं उसके होंठों पर

प्यार-भरे चुम्बन के

स्वर्णिम हस्ताक्षर…!!!

***
तभी अचानक

सुदूर क्षितिज से

आने लगती है एक सुचीह्नी-सी आवाज़…

हवा के रथ पर सवार

जिसे सुना है मेरे कानों ने

ध्वनि-तरंगों के रूप में

अगणित बार…

यह कहते हुए कि

बस…मेरे प्रेम…मेरे व्योम

बस…

अब और नहीं पी सकूँगी…

यह मदिरा…

तुम्हारा यह दिव्य सोम…!

***
तभी मैं भींच लेता हूँ…

उसकी छाया को

अपने आगोश में

उतर जाता हूँ

प्रेम की अतल गहराइयों में

हो जाता हूँ एकाकार…

जहाँ नहीं रह जाती कोई दूरी…

जहाँ उभरती है एक लय

जहाँ हो जाता है विलय

‘मैं’ का ‘तुम’ में…

और

‘तुम’ का ‘मैं’ में…!

तब बन जाता है सिर्फ़

एक एकीकृत अस्तित्व-

‘हम’…!

***

 

तभी चेतना के उँचे आकाश में

गूँजने लगता है

एक अलौकिक स्वर

कि-

‘शिवोऽहम्‌ …शिवोऽहम्‌… शिवोऽहम्‌..!’

 

 - जितेन्द्र ‘जौहर’

 

समीक्षक एवं स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’ 
 (त्रैमा. ‘अभिनव प्रयास’, अलीगढ़, उप्र)
(संपा. सलाहकार: त्रैमा. ‘प्रेरणा’, शाहजहाँपुर, उप्र)
(संपा. सलाहकार:  ‘साहित्य-ऋचा’, ग़ाज़ियाबाद, उप्र)
 (अतिथि संपा: त्रैमा. ‘सरस्वती सुमन’/मुक्तक विशेषांक, देहरादून)
(अतिथि संपादक: ‘आकार’/मुक्तक विशेषांक, मुरादाबाद, उप्र)
 
कार्यस्थल    : अंग्रेज़ी विभाग, ए.बी.आई. कॉलेज,  रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र)।

 

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