” शाहबुद्दीन ! पहचानो इसे !! यह तुम्हारी ही आबरू – - - ”
फिल्म पाकीज़ा में वरिष्ठ अभिनेत्री वीना की ओजस्वी ललकार अनजाने मेरे ह्रदय में गूँज उठी जब मैंने प्राचीन बौद्ध नगर ‘ मेस आयनक ‘ के विषय में पढ़ा। मुझे लगा मैं अपने पिछले जनम में भटक रही हूँ। यह अकूत धरोहर हमारी है और आज जाने किन- किन हाथों में पड़कर कभी लुट रही है ,तो कभी सिमट रही है।
भारतीय संस्कृति कहाँ कहाँ उपेक्षित बिखरी पडी है ? कितना अमूल्य खजाना हम छोड़ आये ?
हमारे धर्मग्रन्थ इस तथ्य के साक्षी हैं कि ईसापूर्व भारत की सीमा बाह्लीक तक थी। मगध -द्वारावती मार्ग पर निरंतर व्यापारिक यातायात होता था जो मध्य एशिया में चीन के रेशम-पथ से जा मिलता था। आज की ” ग्रैंड ट्रंक रोड ” जो अब कोलकता से पेशावर तक जाती है इसी भव्य राजपथ का आधुनिक स्वरूप है। यह बात और है कि अनेक शासकों ने इसका समय- समय पर पुनरोद्धार किया। यह राजपथ सिंधुघाटी सभ्यता से पूर्व का है। अनेक उदहारण पुरातत्व अन्वेषण से प्राप्त हुए हैं जो प्रमाण हैं कि गांधार और पुरुषपुर ,मूलस्थान और मेहरगढ़ से धातुओं और जवाहरातों का व्यापार श्री लंका तक होता था।
आज का अफगानिस्तान बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध केंद्र था। कुषाणकाल में कनिष्क ने अनेक धर्मो का आदर किया और महान साम्राज्य की स्थापना की जिसकी सीमाएं गांधार से लगाकर पश्चिमी बंगाल को छूती थीं।
यह केवल मौखिक इतिहास नहीं है जैसा कि ” मेस आयनक ” की खुदाई से सिद्ध हो चुका है।
काबुल से करीब ३० मील दक्षिण की ओर अगर मोटर से जाएँ तो गाड़ी एक कच्ची सड़क पर धचके खाती आगे बढ़ती है। एक तीखा मोड़ बाईं और मुड़ते ही एकदम सूखा प्रदेश शुरू हो जाता है। यहां सड़क के बजाय जो रास्ता मिलता है वह किसी सूखी नदी का पाट है। यह रास्ता एक सूखी निर्जन वादी में खुलता है। इस प्रदेश पर तालिबान और अन्य क्रूर आतंकवादी समूहों का अधिकार है। अतः रास्ते में अनेक बमबारी से टूटे फूटे घर ,उजड़े हुए गाँव आदि मिलेंगे। ,हरियाली का नामोनिशान तक नहीं। वादी की ज़मीन सुरागों और क्षत= विक्षत इमारतों से छितरी हुई है। इन्हीं के बीच दूर दूर तक एक अति प्राचीन दीवार के खंडहर बिखरे हुए हैं जो हाल ही में खुदाई करके अनावृत किये गए हैं।
यह गांधार क्षेत्र है। यहां अनेक संस्कृतियों का समावेशन होता था। आधुनिक काल में यहां सूखा और गरीबी का साम्राज्य है। अनेकों बार वर्षाकाल में बाबा वली पर्वत की ढलानों पर नीले ,बैंजनी व हरे रंग का कीचड़ बह कर आता था। अनपढ़ गरीब इसका कारण नहीं जानते थे। कुछ वर्ष पूर्व यहां खुदाई में एक कंकाल मिला जिसकी हड्डियां हरी नीली हो गयी थीं। परीक्षण से पता चला कि उनपर तांबे का थोथा जमा हुआ था। विश्व के पुरातत्व शास्त्रियों का ध्यान इस ओर गया और यहां उत्खनन का काम शुरू कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय विद्वानो का दल अफ़ग़ान सरकार के सहयोग से पिछले सात वर्षों से इस विशाल योजना में जुटा है ,जिसके परिणाम मिस्त्र की खुदाई के महत्त्व से कम नहीं हैं। यहां एक पूरे बौद्ध नगर का अनावरण किया गया है। यहां एक विस्तृत ,सुदृढ़ दुर्ग पाया गया है जिसमे अनेक स्तूप, भवन, मंदिर सभागार आदि हैं। हज़ारों की संख्या में प्राचीन सिक्के , पांडुलिपियां , बुद्ध की मूर्तियां व आभूषण मिले हैं जो तीसरी से सातवीं शताब्दी के निश्चित किये गए हैं। ६५० प्रबुद्ध मजदूर इसकी महीन खुदाई में जोते गए। इस अमूल्य निधि की सुरक्षा हेतु १०० चौंकियां दुर्ग के चारों तरफ नियुक्त की गयी हैं जिनमे १७०० सिपाही हथियार सहित पहरा देते हैं।
यह विषम सुरक्षा केवल प्राचीन इतिहास व सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा हेतु नहीं नियुक्त की गयी है। वरन इस धराशायी बौद्ध नगर के नीचे दबा है एक प्राकृतिक अमूल्य खजाना ! यहाँ विश्व की सबसे समृद्ध तांबे की खान दबी हुई है जिसकी चौड़ाई ढाई मील है और जो डेढ़ मील पर बाबा वली पर्वत के अंदर तक समाई है जिसे आंकना बिना खुदाई के संभव नहीं है। इसमे दबा हुआ ताम्बे का भण्डार है जिसका वज़न १,२५००००० टन ( अनुमानित ) आँका गया है। इसके बिकने से अफ़ग़ानिस्तान विश्व का सबसे अमीर देश बन सकता है।
पर्याप्त प्रमाण यह घोषित करते हैं कि प्राचीन काल में यहां धातु का खनन होता था। संभवतः इसकी समृद्धि ने अरब के मुसलमानो को आकर्षित किया होगा। बाबा वली पहाड़ से फिसलती रंग विरंगी कीचड़ इसी धातुशुद्धिकरण का प्रमाण है। ” मेस आयनक ” का शाब्दिक अर्थ है ” ताम्बे का नन्हा सा कुआँ ” . परन्तु वास्तव में यह इतना विशाल है कि चीन ने इसे खरीदने के लिए तीस अरब डॉलर का प्रस्ताव रखा। इसके अतिरिक्त उत्खनन के लिए आधुनिकतम वैज्ञानिक उपकरण , ४०० मैगावाट बिजली बनानेवाले एक विशाल बिजलीघर व पर्यावरण के सम्पूर्ण आधुनिकीकरण की भी योजना रखी। यातायात के लिए सड़कें ,पुल रेलगाडियां व हवाई अड्डे बनाने का जिम्मा उठाया। मगर अफ़ग़ानिस्तान के विद्वानो ने इस योजना को कार्यान्वित करने पर रोक लगा दी।
विश्व के पुरातत्व शास्त्रियों का कहना है कि काम शुरू होने से पहले इस क्षेत्र की अमूल्य धरोहर को सुरक्षित किया जाए।
धर्मांन्ध क्रूर इस्लामी शक्तियों के रहते ,विद्वानो को भय है कि यह नगर यदि चीन के हाथों नहीं तो लुटेरों के हाथ जरूर बर्बाद हो जायेगा और यह अमूल्य खजाना विज्ञान व मानवता के हाथ नहीं आ पायेगा। अभी ही अनेक नमूने नष्ट हो गए हैं या जान बूझकर कर दिए गए हैं। अनेक चोरी से तस्करों के हाथ पड गए हैं। चारों तरफ अलकायदा और तालिबान के धर्मांधों ने उत्पात मचा रखा है। धरती में रूस की छोड़ी हुई लैंड माइंस बिछी हुई हैं जिनका पता नहीं चलता और वे जब तब फट जाती हैं। आठ दस चीनी भूगर्भशास्त्री एवं धातु – वैज्ञानिक भूमि का निरीक्षण ,परीक्षण करते समय २०१४ में , तालिबान के हमलों की भेंट चढ़ गए थे। . यहीं पर ओसामा बिन लादेन का भी पड़ाव था। शायद उसके शिष्य अभी भी सक्रिय हैं। इसके साथ ही यहां पानी और बिजली की भारी कमी है। इन हालातों में चीन ने अपनी कुछ शर्तों से मुंह मोड़ लिया। जिससे अफ़ग़ान सरकार ने योजना पर आपत्ति उठाई। अतः फिलहाल चीन ने हाथ समेट लिए हैं। जो धातु के खनन का कार्य २०१२ में चालू हो जाना चाहिए था वह अब २०१८ तक शायद संभव हो सके। इसलिए पुरातत्व विभाग को खुदाई के लिए अधिक मोहलत मिल गयी।
पुरातत्व के क्षेत्र में फ्रांस और अमेरिका सबसे अधिक सहायक रहे हैं। अतः २००९ से लगाकर २०१४ तक फ्रांस के विद्वान श्री फिलिप मार्कविस के निर्देशन में इस क्षेत्र का उत्खनन हुआ और अनेक अमूल्य ऐतिहासिक अवशेष प्राप्त हुए। उन्होंने स्थानीय विश्वविद्यालयों की सहायता से इन वस्तुओं की अलग अलग व्याख्या पंजीकृत की और सारिणी बनाई। जिसे इलेक्ट्रॉनिक साधनो से भी सुरक्षित किया ,ताकि तस्कर अपना करतब न दिखा सकें।
विडम्बना यह है की जो प्राचीन इतिहास इस उत्खनन से अनावृत हुआ है वह इस प्रदेश की शांतिप्रिय संस्कृति का साक्षी है जो कि आधुनिक काल की हिंसात्मक गतिविधियों से कतई उलटा है। यहां आध्यात्मिकता का साम्राज्य था। करीब सात बहुखण्डीय भवन भिक्षुओं के पाये गए हैं जिनमे पूजा वेदियां ,विशालकाय कमरे आदि हैं। यह भवन अर्द्धचन्द्राकार इस दुर्ग के चारों ओर फैले हुए हैं। इनपर ऊंची बुर्जियां बनी हैं जिनपर चढ़कर दूर दूर तक देखा जा सकता था। इन प्रासादों के मध्य करीब सौ स्तूप पाये गए हैं। यह स्तूप पक्के और विशाल भी हैं और छोटे छोटे ,उठा लेने योग्य भी।
प्रसिद्ध अफ़ग़ानी पुरातत्ववेत्ता अब्दुल कादिरी तैमूरी के शब्दों में यह तत्कालीन ” विश्व का केंद्र ” था। गांधार के बौद्ध भिक्षुओं ने कला व संस्कृति की अपूर्व उन्नति की व उस काल की सभी सभ्यताओं की कलात्मकता के समिश्रण से बुद्ध की प्रतिमाएं बनाने का आविष्कार किया । विशेषकर यूनान और रोम की नक़ल में प्रतिमा बनाने की कला का जन्म यहीं पर हुआ। संभवतः बाकी हिन्दू क्षेत्र में इष्टदेव को साकार रूप देने का रिवाज़ यहीं से शुरू हुआ। मध्य एशिया की भाषाओं में प्रतिमा को ” बुत्त ” कहा जाता है। इन भाषाओं में ” द्ध ” व्यंजन नहीं था। अतः यह बुद्ध को बुत्त बुलाते थे। ” बुत्तपरस्ती ” संज्ञा का यही उद्गम है। कालांतर में जब इस्लाम ने जिहाद उठाया और बुतों को तोड़ा तो वह इन्हीं बुद्धों को तोड़ते आगे बढे। मेस आयनक में जो बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं उनमे लाल नीला पीला व नारंगी रंग भरा गया था जो अभी भी सुरक्षित है। यह प्रभाव मिस्त्र की कला से आया लगता है। इसके अतिरिक्त स्वर्ण व अन्य धातुओं के कीमती आभूषण पाये गए हैं जिनका सौंदर्य आज के आभूषणो से कम नहीं है। भवनो की आतंरिक सज्जा चकित कर देनेवाले भित्ति चित्रो से पूर्ण है।
यहीं पर सिद्धार्थ की अलभ्य प्रतिमा मिली है जो उनके बुद्धत्व प्राप्त करने से पूर्व की है जब वह केवल एक राजकुमार थे। हज़ारों की संख्या में ताम्बे के सिक्के मिले हैं जो तीसरी से सातवीं शताब्दी तक के हैं। कई सिक्कों पर कनिष्क की छाप है। कईयों पर एक ओर कनिष्क और एक ओर बुद्ध या आर्दोक्ष की छाप है। इससे यह साबित होता है की कनिष्क ज़ोरोआस्तरियन धर्म का भी आदर करता था। इन सिक्कों का मान रोम से चीन तक था। कुषाण काल के इन सिक्कों में कुल मिलकर २३ देवी देवताओं की मूरत की छाप है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह काल तत्कालीन उत्तर भारत में सहिष्णुता और व्यापक दृष्टिकोण का था। मेस आयनक इस बात का साक्षी है कि इस प्रदेश के बौद्ध मतावलम्बी उद्योगी व संपन्न थे। यहां दबी ताम्बे की खान तब समृद्धि उलीचती थी और यह प्रदेश एक व्यस्त व्यापारिक केंद्र था।
इसी के उत्तर पश्चिम में करीब १२५ मील की दूरी पर प्रसिद्ध बामियान प्रदेश है। बामियान नगर चीन और मिस्त्र के बीच रेशम पथ पर स्थित है जहां उस काल में अनेक देशों के व्यापारी डेरा डालते थे। उस काल तक बौद्ध धर्म चीन ,मंचूरिया ,मंगोलिया , उज़्बेकिस्तान ,समरकंद ,सोगड़ियाना आदि देशों में अपनी जड़ें जमा चुका था। यहां छठी शताब्दी में पर्वत शिलाओं में काटकर बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाएं बनाई गईं थीं। इस काल तक इस्लाम धर्म का जन्म नहीं हुआ था। प्रचार भी सातवीं शताब्दी के बाद शुरू हुआ था। इन्हें २००१ में तालिबान द्वारा निर्ममता से बारूद लगाकर धराशायी कर दिया गया धरम के नाम पर।
मेस आयनक उद्योग का केंद्र होने के साथ साथ धर्म और संस्कृति का भी ” समावेशन कूप ” था। यहाँ से मिले अवशेष स्वयं इस बात की गवाही देते हैं कि अनेक धर्म यहां समानांतर पलते थे और यहाँ किसी युद्ध के प्रमाण नहीं मिले हैं। उस समय के सभी आस पास के राज्यों से ऐसी सहभावना और मैत्री का एक भी उदहारण नहीं मिलता। दरअसल न आगे ना पीछे के काल में। बामियान लुप्त हो गया ,परन्तु मेस आयनक अपनी खदानों के कारण दबा रहा और बच गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि अपनी पराकाष्ठा के काल में इस प्रदेश में धातु के उत्खनन और परिष्करण के कारण इस प्रदेश की हरियाली को भीषण आघात पहुंचा और यहां सूखा पड़ गया। नगरवासी पलायन कर गए या सूखे से मर गए। आज की तारीख में यह प्रदेश बंजर , ऊबड़ -खाबड़ एवं श्रीहीन है। अनुमान लगाया जाता है कि एक सेर तैयार माल — शुद्ध ताँबा —- बनाने के लिए भट्टी में एक मन ( ४० सेर ) कच्चा कोयला डालना पड़ता था। बाबा वली पर्वत की ढलानों पर उगे हिमालयी जंगल जो सदियों से खड़े थे , शनैः शनैः कच्चा कोयला बनाने ले लिए काट डाले गए। जंगलों को कटाने से वर्षा का क्रम बदल जाता है। पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है। इस प्रदेश की हरियाली को इतना नुकसान पहुंचा कि प्रदेश में अकाल पड़ गया।
धातु को आँच पर गलाकर शुद्ध करने के बाद उसे ठंडा करने के लिए मनो पानी की जरूरत पड़ती है। पानी यहां पर्वतीय जलधाराओं, कुओं, अथवा बरसाती नदियों से प्राप्त होता था। इसके अतिरिक्त भूमिगत नदियां भी थीं। खुदाई में जो प्रमाण मिले हैं वह बताते हैं कि भूमिगत नहरें , जिन्हें ” करेज़ ” कहा जाता है , बनाई गईं थीं। मगर जब वर्षा की कमी होने लगती है तब यह पानी की सतह और नीचे चली जाती है। विशाल पेड़ों की जड़ें वर्षा के पानी को भूमि में संचित करती हैं। उनके कट जाने से यह प्राकृतिक क्रम बंद हो गया अतः यह नदियां और करेज़ सूख गए। पानी की अंदरूनी सतह और भी दब गयी। भयानक बात यह है कि यदि यहां फिर से उत्खनन का काम चला तो पानी की रही सही सम्पदा भी खत्म हो जाएगी।
एक और समस्या पुरातत्ववेत्ताओं के समक्ष मुंह बाए खड़ी है। अभी तक खुदाई से निकले बेजोड़ नमूनो को संभालने के लिए कोई संग्रहालय नहीं है। काबुल के राष्ट्रीय संग्रहालय में इतना स्थान नहीं बचा है कि सारा सामान सजाया जा सके। काबुल के संस्कृति अधिकारी इन कलाकृतियों को लेकर बहुत चिंतित हैं। इन्हें मेस आयनक के निकट ही अस्थायी गोदामो में फिलहाल रख दिया गया है। कई नमूनो का विश्लेषण व पंजीकरण भी अभी नहीं हुआ है।
पेट की खातिर गरीब मजदूर जल्दी से तालिबान की कुचालों के झांसे में फंस जाते हैं। यदि शीघ्र ही उनकी रोजी रोटी का समुचित प्रबंध नहीं हुआ तो वे कुचक्री शक्तियों के ग़ुलाम बन जायेंगे। इससे मेस आयनक की सुरक्षा को भारी ख़तरा है। चीन को ताम्बे की बेहद जरूरत रही है अनादि काल से। अभी भी है। इसीलिये उसने इस खदान का सौदा किया है। यदि यहां काम चालू हो जाता है तो करीब साढ़े चार हज़ार नौकरियाँ स्थानीय जनता को मिलेंगी। और आस -पास के रहनेवालो को अपना खेत गाँव आदि छोड़ना पडेगा जिसके लिए वे कतई तैयार नहीं हैं। अतः जब तक उनको आजीविका के समुचित साधन उपलब्ध न हों ,मेस आयनक का भविष्य अनिश्चित है। रूस द्वारा छोड़ी गयी लैंड -माइंस से जख्मी एक व्यक्ति अपने बाल बच्चों का पेट भरने के लिए ,एक टांग पर बैसाखी की सहायता से चलकर रोज़ दो घंटे की यात्रा पूरी करता है ,केवल खुदाई में मिले सामान को पानी से धोकर साफ़ करने के लिए। चिंता इस बात की है कि यहां काम करनेवाले मजदूर इस अमूल्य खजाने को अपने धर्म से नहीं जोड़ पाते। तालिबान के क्रूर अनुयायी उन्हें ‘ काफिर ‘ कहकर लज्जित करते हैं और उनपर इलज़ाम लगते हैं कि तुम मुसलमान होकर बौद्ध धर्म का प्रचार कर रहे हो। इसलिए यह ऐतिहासिक धरोहर खतरे में हैं। सबसे बड़ा डर चोरी का है।
•परन्तु जो प्रबुद्ध हैं वह पक्के खानदानी मुसलमान होते हुए भी अपने देश के इतिहास पर गर्व करते हैं और उसकी भव्यता का गुणगान करते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं काबुल के युवा विद्वान सुल्तान मसूद मुरादी। अपनी डिग्री पूरी करते ही वह इस उत्खनन के काम में जी जान से जुट गए। उनको गर्व है कि उनकी टीम में अनेक धर्मो के कार्यकर्ता हैं जो हिल मिलकर काम करते हैं। और अफ़ग़ानिस्तान की ५००० वर्ष पुरानी सभ्यता पर गर्व करते हैं। उनका हर संभव प्रयास है कि अफ़ग़ानिस्तान के युवा इस धरोहर से परिचित हों और इसका सम्मान करें। उनका खेदपूर्ण वक्तव्य है कि इसके बिना उनका देश केवल आतंकवाद और अफीम के लिए विश्व में बदनाम रहेगा। आनेवाली सदियाँ उनकी आबरू को रसातल में ले डूबेंगी। आजकल सुल्तान मसूद इन कलात्मक नमूनो का इंटरनेट पर पूरा ब्यौरा सुरक्षित करने में संलग्न हैं। उनका स्वप्न है कि यहां एक भव्य संग्रहालय बने और यह नगर पुनः आबाद हो व विश्व के पर्यटक यहां आएं। इसका वही रूतबा हो जो मिस्त्र के पिरामिडों व कब्रों का है जिन्हें देखने लाखों की संख्या में यात्री आते हैं। पर्यटन स्वयं में एक बहुत बड़ा आय का साधन होता है। सुरक्षित सुन्दर आधुनिक पर्यटन स्थल करोड़ों की संपत्ति अर्जित करते हैं। मेक्सिको देश ने माया संस्कृति को देश की सम्पदा मानकर उसके सभी खंडहरों के आस पास हॉलिडे नगर विकसित किये हैं केवल पिछले ४० वर्षों में और अरबों डॉलर कमा रहा है।
- कादंबरी मेहरा
प्रकाशित कृतियाँ: कुछ जग की …. (कहानी संग्रह ) स्टार पब्लिकेशन दिल्ली
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रंगों के उस पार (कहानी संग्रह ) मनसा प्रकाशन लखनऊ
सम्मान: भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान २००९ हिंदी संस्थान लखनऊ
पद्मानंद साहित्य सम्मान २०१० कथा यूं के
एक्सेल्नेट सम्मान कानपूर २००५
अखिल भारत वैचारिक क्रांति मंच २०११ लखनऊ
” पथ के फूल ” म० सायाजी युनिवेर्सिटी वड़ोदरा गुजरात द्वारा एम् ० ए० हिंदी के पाठ्यक्रम में निर्धारित
संपर्क: लन्दन, यु के