मृत्यु का भय

टूटी सी चारपाई पर
बरसों से पड़ी है
दिन प्रतिदिन बूढ़ी होती एक महिला
कभी उठती है, दिनचर्या करती है
फिर उसी चारपाई पर सवार हो जाती है
कभी कोई आता है, दो रोटी दे जाता है
कभी कोई “अम्मा क्या हाल है ?”
पूछता और चला जाता है |
जीवन की अंधी दौड़ से दूर
बूढ़ी महिला बीते दिनों के पलों को
कभी ओढ़ती है तो कभी बिछाती है
कभी झाड़ती, पोंछती है और कभी
मन में ही सवांरती है
कभी ह्रदय से लगाकर उन्हें
अपने ही में दुबका लेती है
चारपाई का एक पाँव जो हिलता है
उसके नीचे ईंट रख कर
संतुलन बनाती है
अपनी फटी चादर की पेबंद को
हाथों से दबाती है
घिसे गले धागों से उम्मीदें जगाती है
कि और जियें और उसका साथ देते रहें
अपने साथ अंत तक जीने का
आश्वासन पाना चाहती है
हर दिन का सूर्य उसे नई चमक देता है
हर रात उसे तन्हा छोड़ जाती है
वह एक अग्नि में जल रही
लकड़ी का दूसरा सिरा
जो आग की लपटों से दूर है
सोचता है वह नहीं जलेगा
परन्तु समय आता है वह सिरा भी
आग की चपेट का शिकार हो जाता है
जानती है सब फिर भी
हर पल मृत्यु का भय उसे सताता है
इसीलिये अपनी वस्तुओं से
उसका गहरा नाता है
आकाश के दूसरे सिरे पर बैठा यम
मुस्कराता है, इंतज़ार में है
घड़ियाँ गिन रहा है
किस तरह बूढ़ी को मृत्यु के भय से मुक्त करे
और उस चारपाई को शून्य कर दे
जिस पर उसने जीवन के कई दशक बिताए हैं
उसे छोड़ दे किसी दीवार पर टंगी तस्वीर सा
जिस पर धूल की परतें जमती रहें
और पहचानना भी संभव न हो उस तस्वीर को |

 

- सविता अग्रवाल “सवि”

 

आप एक हिंदी भाषी और हिंदी प्रेमी हैं ।
आपको कवितायेँ, कहानियां और संस्मरण लिखने का शौक है ।

निवास : मिसिसागा, कनाडा

 

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