भारतीय लोकतंत्र – विधायिका का कुठाराघात

भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है। लोकतंत्र के स्तम्भ भी हम जानते हैं जिनमें विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका शामिल हैं। निश्चय ही इन तीनों में विधायिका सबसे अधिक शक्तिशाली है क्योंकि यही जनता से लोकतंत्र के सम्बन्ध का सीधा जरिया है। किसी भी लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ यह है कि इसके सभी स्तंभों में आपसी तालमेल के साथ सभी स्तंभों के अपने अधिकार सुरक्षित रहे। पर जब एक स्तम्भ दूसरे पर न केवल आरोप लगाए अपितु उसके अधिकार क्षेत्र में भी दखल देने की कोशिश करे तो यह स्तिथि किसी भी लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक साबित हो सकती है। भारतीय लोकतंत्र का हाल देखकर लगता है कि आज कल वह भी इसी राह पर अग्रसर हो चला है। हाल के दिनों में जो कुछ भी भारत की जनता ने देखा है उस से एक बात तो आसानी से सिद्ध हो जाती है की भारतीय संसद लोकतंत्र के एक स्तम्भ के बजाय खुद को ही लोकतंत्र मानने लगी है और यह साबित करने में भी लगी हुई है।
जब तक बात सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों तक सिमटी हुई थी तब तक सब कुछ लोकतंत्र की हदों में ही प्रतीत होता था। परन्तु हाल ही में जब से सरकार ने कैग यानी महा लेखानियंत्रक पर भी गलत तथ्य एवं आकड़ों के आधार पर उसे बदनाम करने जैसे आरोप लगाए हैं तब से स्तिथि चिंताजनक हो गयी है। कैग इस देश की न सिर्फ एक स्वतंत्र संस्था है अपितु इस का काम ही है सरकार के काम की जांच करके उसमे हुई अनियमितताओं को उजागर करना। ऐसे में एक ही बात प्रतीत होती है कि सरकार कैग को शायद इसीलिए निशाना बना रही है क्योंकि वह सरकार के अधीन नहीं है अपितु भारतीय लोकतंत्र के अधीन है। सरकार ने न सिर्फ कैग पर आरोप लगाए अपितु उसे संसद में बहस की खुली चुनौती तक दे डाली। यहाँ संसद के माननीय शायद यह बात भूल गए कि कैग का काम संसद में बहस करना नहीं है और जहां तक बहस का सवाल है अगर संसद के माननीय प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुद्दे पर संसद रोकने के बजाय अगर उसपर सार्थक बहस करें तो कहीं अच्छा रहेगा।
लेकिन इस सब में केवल सरकार को खींचना उचित नहीं है क्योंकि फिर तो यह मुद्दा सरकार बनाम कैग बन जाएगा। विधायिका के कुठाराघात में विपक्ष भी उतना ही ज़िम्मेदार है जितना की सत्ता पक्ष। हाल ही मैं सीबीआई के नए निदेशक की नियुक्ति के आदेश दिए गए हैं लेकिन प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने इसके खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया है। भाजपा ने तो अपने कुछ नेताओं पर भी कार्यवाही करने का मन बना लिया है क्योंकि उन्होंने सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के पक्ष में बयान दिया था। रामजेठमलानी को सिर्फ इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया क्योंकि वह अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते उनसे इस्तीफा मांग रहे थे।भाजपा सभी पार्टियों को वंशवादी और खुद एक लोकतान्त्रिक पार्टी होने का दम भरती है। अगर भाजपा को यही सब करना था तो वह अपने आप को लोकतान्त्रिक पार्टी किस आधार पर मानती है क्योंकि लोकतंत्र में तो सबको विरोध का हक है और उसने तो विरोध करने वालों को ही बाहर का रास्ता दिखाने का मन बना लिया है।
इस सब के निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि विधायिका को शायद खुद के ही लोकतंत्र होने का वहम हो गया है। विधायिका को खुद ही अपनी हदों को समझना होगा क्योंकि यहाँ सरकार कैग पर सवाल उठा रही है और विपक्ष सीबीआई पर। यह एक लोकतान्त्रिक आचरण के तहत सर्वथा अनुचित कदम है और लोकतंत्र के हित में यह बहुत ज़रूरी हो गया है कि संसद खुद को एक तानाशाह समझने के बजाय भारतीय लोकतंत्र का अंग समझे तभी भारत सभी मायनों मैं एक प्रजातंत्र बना रह सकेगा।

 

 - अविनाश यदुवंशी

भारतीय खनिज विद्यापीठ ,भारत

 

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