बिम्बों के जादूगर –माखनलाल चतुर्वेदी

 

मुझे तोड़ लेना वनमाली!

उस पथ पर देना तुम फ़ेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने

जिस पथ जावें वीर अनेक।”

“पुष्प की अभिलाषा “ माखन लाल चतुर्वेदी की इस कालजयी रचना को देश का ऐसा कौन सा नागरिक होगा, जिसने अपने विद्यार्थी जीवन में इसे न पढ़ा हो ?और दूरदर्शन पर प्रभावशाली एवं सुर बद्ध प्रस्तुति देख कर इसके रचियता के भावों पर न रीझा हो ? माखनलाल चतुर्वेदी जी का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबई नामक गाँव में 4 अप्रैल, 1889 को हुआ था।माखनलाल चतुर्वेदी जी का बचपन संघर्षमय था। बचपन में ये काफ़ी रूग्ण और बीमार रहा करते थे। इनका परिवार राधावल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था। चतुर्वेदी जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय कवि, कुशलवक्ता, एक दिग्गज पत्रकार, सफल संपादक और हिंदी के कुशल लेखक थे। वे स्वावलंबी थे। हरिशंकर परसाई जी के शब्दों में : “वे महान कवि थे। निराले थे। अदभुत गद्य-लेखक थे। शैलीकार थे। राजनैतिक, समाजिक टिप्पणीकार थे। इतने गुणों से युक्त उनका एक ‘लीजेंडरी’ व्यक्तितत्व था। मझोले कद गौर वर्ण, चिंतनशील आंखों और लंबी नुकीली नाकवाले इस व्यक्तित्व में एक गजब कोमलता तथा दबंगपन था। यह आदमी जब मुंह खोलता या कलम चलाता तो लगता कि या तो ज्वालामुखी फ़ूट पड़ा है या नर्मदा की शीतल धार बह रही है।”

माखन लाल जी ने अपनी कविताओं में ऐसी बिम्बात्मक दृष्टि, सूक्ष्म सौंदर्य बोध, आत्मविभोर गेयता अपनायी, जिसने सभी समकालीन एवं पूर्ववर्ती श्रृंगारिक भाव-भंगिमाओं को बहुत पीछे छोड़ दिया। माखनलाल जी की  पहली रचना ”रसिक मित्र” ब्रजभाषा में प्रकाशित हुई थी। उनकी रचनाएं खड़ी बोली में है। कहीं कहीं उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है और कुछ स्थानों पर आवश्यकतानुसार उर्दू के शब्दों को भी अपनाया है।  उनकी शैली भावप्रधान है।  उनकी भाषा सुबोध, प्रवाहपूर्ण तो है ही, ओज और प्रसाद गुण से भी पूर्णत: संपन्न है। मुहावरों और सूक्तियों के प्रयोग से उसके सौन्दर्य में अभिवृद्धि हुई है।

2 दिसंबर, 1934 को नागपुर विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए माखनलालजी ने साहित्य के संदर्भ में अपनी अवधारणा स्पष्ट की – “लोग साहित्य को जीवन से भिन्न मानते हैं, वे कहते हैं साहित्य अपने ही लिए हो। साहित्य का यह धंधा नहीं कि हमेशा मधुर ध्वनि ही निकाला करे। जीवन को हम एक रामायण मान लें। रामायण जीवन के प्रारंभ का मनोरम बालकांड ही नहीं किंतु करुण रस में ओतप्रोत अरण्यकांड भी है और धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्वलित लंकाकांड भी है।” उनके  काव्य को चार श्रेणियों में रखा जा सकता है- राष्ट्रीयता, प्रेम, प्रकृति और अध्यात्म। माखनलाल चतुर्वेदी जी की भाषा शैली पर बेडौल होने का आरोप लगाया जाता है। आलोचकों के अनुसार इसमें व्याकरण की अवहेलना की गयी है। कहीं कठिन संस्कृत शब्दों का प्रयोग है तो कहीं बुन्देलखण्डी के ग्राम्य प्रयोग। सकारात्मक पहलु से सोचे तो ये कहा जा सकता है कि उनके लिए अभिव्यक्ति और उसकी मौलिकता ज्यादा महत्वपूर्ण थी और नियमों में बंधे रहना उन्हें स्वीकार्य नहीं था।समझौता रचनातमक कार्यों में हो या राष्ट्र के मामले उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। समझौतों के खिलाफ उन्होंने हमेशा जनमानस में चेतना जागृत की। उन्होंने लिखा –

“अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र, यह मेरी बोली

यह सुधार समझौतों वाली, मुझको भाती नहीं ठिठोली।”

उनके निरभिमानी व्यक्तित्व व सोच का परिचय उनके इस कथन से मिलता है : “प्रभु करे सेवा के इस पथ में मुझे अपने दोषों का पता रहे और आडंबर, अभिमान और आकर्षण मुझे पथ से भटका न पाए।”  उनकी देश प्रेम की आग इस कविता में भी झलकती है :

“सूली का पथ सीखा हूँ

सुविधा सदा बचाता आया।

मैं बलि पथ का अंगारा हूँ

जीवन ज्वाल जलाता आया।”

 

प्रभा, कर्मवीर और प्रताप जैसे पत्रों के संपादन द्वारा इन्होंने अंग्रेजी शासन का पुरजोर विरोध किया और युवाओं को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मर-मिटने को प्रेरित किया। स्वतंत्रता के पश्चात् भी राष्ट्र रक्षा और राष्ट्र निर्माण का उद्घोष  इन्होंने अपनी प्रेषक कविताओं के माध्यम से किया।

महादेवी वर्मा  के शब्दों में -

“माखनलाल चतुर्वेदी विराट भारत की अखण्ड आत्मा हैं। उनके काव्य में हिमालय की गरिमा हरिताम्बरा धरती से बोली है। संकल्प और भावना, बुद्धि की तीव्रता, दर्शन की दुरूहता और जीवन की सहज छवि एक साथ ही उनके काव्य में मिलती है”।
गद्य रचनाओं में ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ और ‘साहित्य देवता’ का विशेष महत्त्व है। ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ अपने समय की बहुत लोकप्रिय रचना रही है। पारसी नाटक कम्पनियों ने जिस ढंग से हमारी संस्कृति को विकृत करने का प्रयत्न किया, वह किसी प्रबुद्ध पाठक से छिपा नहीं है। ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ शायद ऐसे नाट्य प्रदर्शनों का मुहतोड़ जवाब था। ‘साहित्य देवता’ माखनलाल जी के भावात्मक निबन्धों का संग्रह है।

माखनलाल जी न केवल उच्चकोटि के साहित्यकार थे अपितु एक प्रखर वक्ता ,पैनी दृष्टियुक्त संपादक एवं स्वतंत्रता सेनानी थे ।महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन्‌ 1920 के ‘असहयोग आंदोलन’ में महाकोशल अंचल से पहली गिरफ्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन्‌ 1930 के ‘सविनय अवज्ञा’ आंदोलन में भी उन्हें गिरफ्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला। वास्तव में माखन लाल जी मानव नहीं संपूर्ण मानव थे। ‘एक भारतीय आत्मा’ जो सदैव अपने भारत के उत्कर्ष और भारतवासियों के उत्थान के लिए चिंतित एवं प्रयासरत रहती थी ।

उर्दू के नामवर साहित्यकार रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ के अनुसार – ‘उनके लेखों को पढ़ते समय ऐसा मालूम होता था कि आदिशक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही है। यह शैली हिन्दी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई। मुझ जैसे हजारों लोगों ने अपनी भाषा और लिखने की कला माखनलालजी से ही सीखी।’ माखनलाल चतुर्वेदी ने ही मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित कराया था कि ‘साहित्यकार स्वराज्य प्राप्त करने के ध्येय से लिखें।’ नागपुर विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए (2-12-1934) माखनलालजी ने साहित्य के संदर्भ में अपनी अवधारणा स्पष्ट की थी- ‘लोग साहित्य को जीवन से भिन्न मानते हैं, वे कहते हैं साहित्य अपने ही लिए हो। साहित्य का यह धंधा नहीं कि हमेशा मधुर ध्वनि ही निकाला करे।।। जीवन को हम एक रामायण मान लें। रामायण जीवन के प्रारंभ का मनोरम बालकांड ही नहीं किंतु करुण रस में ओतप्रोत अरण्यकांड भी है और धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्वलित लंकाकांड भी है।’

माखन लाल जी एक भावुक हृदय के इंसान थे आखिर जो इंसान पुष्प का दर्द अपने अन्दर महसूस कर सकता है उसे इंसानों का दर्द कैसे बर्दाश्त हो सकता था ? किसानों की दुर्दशा, उनका संगठित शक्ति के रूप में खड़े न होना और इस वजह से उनके कष्टों और समस्याओं की अनदेखी करना माखनलालजी को अन्दर ही अन्दर बहुत ही बेचैन कर देता था। ’कर्मवीर’ के 25 सितंबर 1925 के अंक में वे लिखते हैं- ‘उसे नहीं मालूम कि धनिक तब तक जिंदा है, राज्य तब तक कायम है, ये सारी कौंसिलें तब तक हैं, जब तक वह अनाज उपजाता है और मालगुजारी देता है। जिस दिन वह इंकार कर दे उस दिन समस्त संसार में महाप्रलय मच जाएगा। उसे नहीं मालूम कि संसार का ज्ञान, संसार के अधिकार और संसार की ताकत उससे किसने छीन कर रखी है और क्यों छीन कर रखी है। वह नहीं जानता कि जिस दिन वह अज्ञान इंकार कर उठेगा उस दिन ज्ञान के ठेकेदार स्कूल फिसल पड़ेंगे, कॉलेज नष्ट हो जाएँगे और जिस दिन उसका खून चूसने के लिए न होगा, उस दिन देश में यह उजाला, यह चहल-पहल, यह कोलाहल न होगा। फौज और पुलिस, वजीर और वाइसराय सब कुछ किसान की गाढ़ी कमाई का खेल है। बात इतनी ही है कि किसान इस बात को जानता नहीं, यदि उसे अपने पतन के कारणों का पता हो, और उसे अपने ऊँचे उठने के उपायों का ज्ञान हो जाए तो निस्संदेह किसान कर्मपथ में लग सकता है।’ 30 जनवरी, 1968 को 80 वर्ष की आयु में देशभक्त,बेहतरीन सृजनकार और संपादक  बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी माखनलाल चतुर्वेदी जी का निधन हो गया।

माखनलाल जी ने कुल 19 पुस्तकें लिखीं। इसमें 10 कविता संग्रह, 2 गद्य काव्य, एक कहानी संग्रह, एक नाटक, 3 निबंध संग्रह, एक संस्मरण और एक भाषण संग्रह शामिल है। माखनलाल जी की आरम्भिक रचनाओं में भक्तिपरक अथवा आध्यात्मिक विचारप्रेरित कविताओं का भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसलिए इनकी रचनाओं में वैष्णव परम्परा का घना प्रभाव दिखायी पड़ता है साथ ही निर्गुण, सूफ़ी आदि विचारधाराओं का भी समावेश है। ‘रामनवमी’ जैसी रचनाओं में देश-प्रेम और भगवत्प्रेम को समान धरातल पर उतारने का प्रयत्न स्पष्ट है। ‘झरना’ और ‘आँसू’ में भावों की गहराई और अनुभूतियों की योग्यता का स्वर प्रबल है।

1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ माखनलालजी को ‘हिम किरीटिनी’ पर दिया गया था। 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार दादा को ‘हिमतरंगिनी’ के लिए प्रदान किया गया। ‘पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी।लिट्। की मानद उपाधि से विभूषित किया। 1963 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। 10 सितंबर 1967 को राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलालजी ने यह अलंकरण लौटा दिया।

16-17 जनवरी 1965 को मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। तत्कालीन राज्यपाल श्री हरि विनायक पाटसकर और मुख्यमंत्री पं। द्वारकाप्रसाद मिश्र तथा हिन्दी के अग्रगण्य साहित्यकार-पत्रकार इस गरिमामय समारोह में उपस्थित थे। तब मिश्रजी के उद्गार थे- ‘सत्ता, साहित्य के चरणों में नत है।’ सचमुच माखनलालजी के बहुआयामी व्यक्तित्व और कालजयी कृतित्व की महत्ता सत्ता की तुलना में बहुत ऊँचे शिखर पर प्रतिष्ठित है और सदैव रहेगी।

प्रकाशित कृतियाँ
हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिणी, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, माता, वेणु लो गूँजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं। कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पाँव, अमीर इरादे :गरीब इरादे आदि आपकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियाँ हैं।

 

- सपना मांगलिक

जन्मस्थान –भरतपुर

वर्तमान निवास- आगरा(यू.पी)

शिक्षा- एम्.ए ,बी .एड (डिप्लोमा एक्सपोर्ट मेनेजमेंट )

सम्प्रति–उपसम्पदिका-आगमन साहित्य पत्रिका ,स्वतंत्र लेखन, मंचीय कविता,ब्लॉगर

संस्थापक – जीवन सारांश समाज सेवा समिति ,शब्द  -सारांश ( साहित्य एवं पत्रकारिता को समर्पित संस्था  )

सदस्य- ऑथर गिल्ड ऑफ़ इंडिया ,अखिल भारतीय गंगा समिति जलगांव,महानगर लेखिका समिति आगरा ,साहित्य साधिका समिति आगरा,सामानांतर साहित्य समिति आगरा ,आगमन साहित्य परिषद् हापुड़ ,इंटेलिजेंस मिडिया एसोशिसन दिल्ली

प्रकाशित कृति- (तेरह)पापा कब आओगे,नौकी बहू (कहानी संग्रह)सफलता रास्तों से मंजिल तक ,ढाई आखर प्रेम का (प्रेरक गद्ध संग्रह)कमसिन बाला ,कल क्या होगा ,बगावत (काव्य संग्रह )जज्बा-ए-दिल भाग –प्रथम,द्वितीय ,तृतीय (ग़ज़ल संग्रह)टिमटिम तारे ,गुनगुनाते अक्षर,होटल जंगल ट्रीट (बाल साहित्य)

संपादन– तुम को ना भूल पायेंगे (संस्मरण संग्रह ) स्वर्ण जयंती स्मारिका (समानांतर साहित्य संस्थान)

प्रकाशनाधीन– इस पल को जी ले (प्रेरक संग्रह)एक ख्वाब तो तबियत से देखो यारो (प्रेरक संग्रह )

विशेष– आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर निरंतर रचनाओं का प्रकाशन

सम्मान- विभिन्न राजकीय एवं प्रादेशिक मंचों से सम्मानित

पता- कमला नगर , आगरा

 

 

 

 

 

 

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