सुबह् सुबह् आखॆ खुली
हॊ गया था सबॆरा
मन मॆ जगा एक कौतुहल
कैसा हॊगा यॆ
परदॆशी सबॆरा
बात है उन दिनॊ कि
था जब मै लन्दन मॆ
लपक कर उठा मै
खॊल डाली सारी
खिडकिया ,
भर गया था अब
कमरॆ मॆ उजाला
रवि कि किरनॊ नॆ
अब मुझ पर था
नजर डाला
ध्यान सॆ दॆखा
तॊ पाया नही है
अन्तर उजालॆ की किरनॊ मॆ
सबॆरॆ की ताज़गी मॆ
या फिर बहती सुबह
की ठन्डी हवाऒ मॆ ,
पाया था मैनॆ उनमॆ भी
अपनॆपन का ऐहसास
लगता था जैसॆ कॊई
अपना हॊ बिल्कुल पास
मैनॆ तब यॆ जाना
अलग कर दू
अगर भौतिकता की
चादर कॊ तॊ
पाता हू एक ही
है सबॆरा ,
चाहॆ हॊ वॊ लन्दन
या फिर हॊ प्यारा
दॆश मॆरा
- अमित कुमार सिंह
बनारस की मिट्टी में जन्मे अमित जी की बचपन से कविता और चित्रकारी में रूचि रही है।
कालेज के दिनों में इन्होने विश्वविद्यालय की वार्षिक पत्रिका का सम्पादन भी किया।
अमित कुमार सिंह टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज में सॉफ्टवेर इंजिनियर हैं।
इनकी कवितायेँ और लेख अनुभूति, हिंदी चेतना, दैनिक जागरण, सुमन सौरभ, कल्पना, हिंदी नेस्ट , वेब दुनिया, भोज पत्र, भोजपुरी संसार , रचनाकार एवं अनेकों पत्रिकाओं में छप चुकी है।
पिछले कई वर्षों से ये कनाडा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका हिंदी चेतना से जुड़े हुए हैं।
इनकी पेंटिंग्स टाटा कंपनी की मैगज़ीन में कई बार प्रकाशित हो चुकी है और देश विदेश की कई वर्चुअल आर्ट गैलरी में प्रकाशित हैं।
दो बार ये अपने तैल्य चित्रों की प्रदर्शनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज के ऑफिस प्रांगड में लगा चुके हैं।
वर्तमान में ये हॉलैंड में कार्यरत है और हॉलैंड से प्रकाशित होने वाली हिंदी की प्रथम पत्रिका अम्स्टेल गंगा के प्रधान सम्पादक और संरक्षक हैं।