परायों के दिए दुखों की
आवाज होती है
अपनों के दिए दुख
बेआवाज ही रहते हैं।
काश! दुख आंधी-तूफान होते
आते और चले जाते
काश! दुख बाढ़ या सूखा होते
दुख
जो न दिखते हैं
न दिखाने का कोई अर्थ होता है
जंगल की आग की तरह
कैंसर की तरह
सब राख में परिणत कर देते हैं।
बेआवाज दुख
घुटे -घुटे दुख
जिन्हें न परिचित -पड़ोसी देते हैं
न गुंडे-बदमाश
न व्यवस्था -अव्यवस्था
न सामाजिक -सरकारी नीतियां
न मूल्यवत्ता या अवमूल्यन ।
दुख
जो घुलते नहीं
पालथी मार बैठ जाते है
मन के इस कोने से उस कोने तक।
दुख
जो निर्णय की शक्ति छीन लेते हैं
पीस देते हैं कतरा-कतरा
जिनकी अंधेरी, बीहड़, यातनामय, कारावास का
कोई रास्ता
रोशनी में नहीं खुलता।
- डॉ मधु संधु
शिक्षा : एम. ए., पी-एच. डी.
प्रकाशन : दो कहानी संग्रह, एक काव्य संग्रह , दो गद्य संकलन, तीन कोश ग्रंथ और छह आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित ।
पचास से अधिक शोध -प्रबन्धों/अणुबन्धों का निर्देशन।
विश्व भर की नामी पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित ।
सम्प्रति : गुरु नानक देव विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग की पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष ।