इतिहास में लिखी घटनाओं को अगर हम आंखों से देख परख सकें तो हमें उनकी प्रामाणिकता पर विश्वास हो जाता है. अभी इतिहास की दो घटनाओं का जिक्र करती हूं. तीसरी घटना आगे बताऊंगी.
शहजादा सलीम एक कनीज अनारकली के प्रेम में इतना पागल हो जाता है कि वह मुगलिया सल्तनत का तख्तो ताज़ ठुकरा देता है. दूसरी घटना उसके साहबज़ादे शाहजहां के बारे में हैं. शाहजहां अपनी बेगम मुमताज़ महल से इस कदर मोहब्बत करता था कि मुमताज की मृत्यु के बाद उसकी याद में इतनी शानदार मकबरा बनवाया जो आज भी पूरी दुनिया में मोहब्बत का शाहकार है.
चाहे वह अनारकली हो या मुमताज महल उनकी सुंदरता के दीवानों ने उनकी चाहत में अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया.
कहते हैं कि ये मुगलबादशाह तैमूर लंग के खानदान के थे. वही तैमूरलंग जो 15वीं सदी में सोने की चिड़िया भारत वर्ष को लूटने आया था. वह आकर चला गया. किस्सा वहीं खत्म नहीं हुआ उसके बाद आया उमर शेख मिर्जा यानी बाबर का पिता.
आमिर तैमूर समरकंद का निवासी था जो आज उज्बेकिस्तान का एक प्रांत है. जिसे आज समरकंद कहा जाता है.
बाबर लौटा नहीं वह यही हिंदुस्तान में बस गया. उसके साथ लाव लश्कर में आए सरदार, सैनिक, व्यापारी उन सबके बीवी बच्चे सब यही बस गए. अब हिंदुस्तान ही उनका मुल्क था. मगर उन लोगों ने शादी-ब्याह का रिश्ता अपनी बिरादरी में ही रखा क्योंकि वे अपनी नस्ल शुद्ध बनाए रखना चाहते थे.
उज्बेकिस्तान 1991 में रुस से आजाद होने के बाद अस्तित्व में आया. इसकी राजधानी ताशकंद बनाई गई. ताशकंद में भी भारत के इतिहास का एक पन्ना जुड़ा हुआ है. वह है हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत का त्रासद इतिहास.
इस तरह हमारा उज्बेकिस्तान से अपने देश के इतिहास और संस्कृति के एक युग का संबंध रखते हैं.
मुझे 24 जून से 1 जुलाई 2012 तक फेसबुक पर सृजनगाथा डाट कॉम के संपादक जयप्रकाश मानस का आमंत्रण मिला कि पांचवां अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ताशकंद में आयोजित किया जा रहा है तो ऐसा लगा कि कोई सूत्र जुड़ने जा रहा है. अतीत की झलक वर्तमान को दिखने वाली है.
इस सम्मेलन में कहानी, कविता और परिचर्चा सत्र के अतिरिक्त कई पुस्तकों का विमोचन भी होना था. मैं पिछले पांच साल से एक कहानी संग्रह की तैयारी कर रही थी. मैंने मानसजी से शर्त रखी कि यदि मेरी किताब का विमोचन ताशकंद में होता हो तभी मैं इस सम्मेलन में शिरकत करुंगी. उन्होंने `हां’ कह दी.
कार्यक्रम के लिए दो महीने का समय बचा था अब इतने कम समय में दिल्ली का कोई प्रकाशक संंग्रह छापकर देने से रहा. समस्या का निवारण मानस जी ने ही किया. उन्होंने अपने मित्र शिल्पायन के प्रकाशक ललित शर्मा से बात की और कहानी संग्रह का बचा हुआ काम पूरा करके फाइल ई-मेल से भेज दी. इस तरह मेरी कहानीसंग्रह छप गयी.
ताशकंद के लिए 24 जून 2012 की रात 3.30 बजे की उड़ान थी. देशभर से लगभग 136 प्रतिभागी इसमें शामिल हो रहे थे. मेरी यह पहली विदेश यात्रा थी. वह भी अकेली. व्यस्तताआें के कारण मेरे पति देव नहीं जाना चाहते थे. सो मैंने मुंबई से अपनी सहेली कवियित्री प्रमिला शर्मा और प्रोफेसर वंदना दुबे को साथ जाने के लिए तैयार कर लिया. इसके साथ-साथ बनारस से अपनी दीदी सुषमा शुक्ला को भी मैंने जाने के लिए मना लिया. मुझे पता था कि मुंबई से वरिष्ठ कवि देवमणि पांडेय और लेखिका संतोष श्रीवास्तव भी ताशकंद जा रहे हैं.
मैं मुंबई के अलावा अन्य किसी प्रतिभागी को पहले से नहीं जानती थी. एअरपोर्ट पर कुछ फेसबुकिया मित्र नजर आ रहे थे. इनमें से जयप्रकाश मानसजी पास में ही लाइन में खड़े थे. दिल्ली के साहित्यकार लालित्य ललित जी अपने डील-डौल के कारण तुरंत पहचान में आ गए. एक कहानीकार के नाते विवेक मिश्रा से भी पहचान हो गई थी.
सुबह चार बजे के करीब एच वाय 424 फ्लाइट ने उड़ान भरी. मन ही मन सभी रोमांचित हो उठे. पूरे विमान में हिंदी ही सुनाई पड़ रही थी क्योंकि अधिकतर संख्या हमारी ही थी.
सुबह का समय था कुछ गहरी नींद में सो गए थे. कुछ रह रहकर झपकी ले रहे थे. मगर मैं जब से मुंबई चली थी आंखों में नींद नहीं थी. शायद घर पर बच्चों के पास रह गई हो. यात्रा के बीच में विंडो सीट मिल गयी. दूर बादलों से ऊपर लालिमा दिखाई दी. पंिक्तयां याद आ गई
`बीती विभावरी जाग री…’
मुंबई के भागदौड़ में न तो सूर्योदय दिखता है न ही सूर्यास्त देखने की फुर्सत रहती है.
सो जी भर कर देखा सूर्योदय को वो भी जमीन से सैकड़ों फीट ऊपर बादलों से भी ऊपर सोच रही थी कि कहीं सूर्यदेव दिख जाएं सात घोड़ों के रथ पर सवार. कल्पनाएं कभी साकार होती हैं क्या? तभी उद्घोषणा हुई कि हम उज्बेकिस्तान की वायुसीमा में पहुंच गए हैं और कुछ ही समय बाद विमान उतरने वाला है. यह उद्घोषणा उज्बेक भाषा और अंग्रेजी दोनों में हुई. पर हमें उनकी उज्बेक तो समझ आई ही नहीं और अंग्रेजी भी नहीं.
सो अपनी समझ से ही काम चलाया.
जैसे-जैसे प्लेन बादलों से नीचे उतरने लगा, ताशकंद की धरती दिखाई देने लगी. पहाड़, मैदान, नदियां, हरियाली, रास्ते, इमारतें मगर हमारे मुंबई एअरपोर्ट की तरह झोपड़ियां नहीं दिखी.
प्लेन से उतर कर एअरपोर्ट के गेट पर पहुंचे तो एक दम सामान्य सा जैसे 20 साल पुरानावाला मुंबई का एअरपोर्ट हो. सारी औपचारिकताआें को पूरा कर जब एअर पोर्ट से बाहर निकले तो `फर्स्ट इंप्रेशन इज द लास्ट इंप्रेशन’ की धज्जियां उड़ गइंर्. इतनी चौड़ी और भव्य सड़कें. सामने 3 लिमोजिन बसें खड़ीं थीं हमारे लिए. पूरे रास्ते हम चकित होते रहें. मेरे बस की गाईड जरीन थी. इतनी खूबसूरत की पूछो मत आंखों पर गागल्स लगाए मॉडर्न ड्रेस पहने हुई वह किसी इस्लामिक देश की युवती कहीं से नहीं लग रही थी. वह अंग्रेजी में हमें जानकारी देती चल रही थी. कुछ-कुछ हिंदी के जुमले भी फेंक देती थी.
ताशकंद की मुख्य सड़क से होते हुए हम अपने होटेल द पार्क ट्यूरान पहुंचे. रास्ते भर ऊंची, भव्य और आधुनिक इमारतें देख कर मैं चकरा रही थी कि यह असली शहर नहीं है इसे योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया है. पर कैसे? शहर तो अपने-आप बसते हैं. लोग आते रहते हैं जिसको जहां जगह मिली नहीं बना लिया अपना आशियाना. मगर ताशकंद में इस तरह की बेतरतीबी दिखाई नहीं दी और मेरा दिमाग इसी रहस्य में उलझ गया था. रास्ते में हमने देखा ताशकंद टीवी टॉवर, ऑपेरा हाऊस, थिएटर बड़े और भव्य होटल, फिर लालबहादुर शास्त्री चौक से होते हुए हम अपने होटेल पहुंचे. जब हम बस में बैठे थे उस समय घड़ी में सुबह के 9 बज रहे थे. गाइड जरीन ने बताया कि ताशकंद का समय आधा घंटा आगे है इंडिया से. इसलिए सबने अपनी घड़ियों की सुइयों को आधा घंटा आगे कर दिया.
यानी साढ़े नौ बज चुके थे. सुबेह 9.30 का समय यानी स्कूल-कालेज, आफिस जाने का समय सड़क लोगों की भागमभाग, गाड़ियों का ट्रैफिक जाम. और सोमवार का दिन. मगर पूरे रास्ते में दो सिग्नल के अलावा कहीं बस रुकी नहीं. सड़क पर ट्रैफिक नहीं के बराबर. अपने यहां तो छुटि्टयों में भी इतनी खाली नहीं रहती सड़कें और सड़क पर पैदल-इक्का-दुक्का. ऑटो रिक्शा, मोटर बाईक तो दिखे ही नहीं. पता चला कि मोटर बाइक यहां बैन है. ऑटो रिक्शा क्या होता है पता ही नहीं.
पूरा शहर, पूरी सड़कें ऐसी लग रही थीं कि किसी मेहमान के आगमन में झाड़-फूंक कर सजा कर रख दी गई हों. अच्छा भी लगा और थोड़ी झेप भी हुई अपने शहरों से तुलना करके.
होटेल में पहुंच कर सभी को नाश्ता करने में लगा दिया गया. अभी तक लोगों को रूम एलॉट नहीं हुए. देखा तो टूर ऑपरेटर विक्की मल्होत्रा लोगों से उलझ रहा था रुम एलाटमेंट की उसकी पूर्व योजना धरी रह गई थी.
मुझे और मेरी दीदी को एक कमरा मिला प्रमिला जी और वंदनाजी को निर्धारित कमरा नहीं मिला. खैर हमलोग होटल पहुंच गए. बाद में एक लंबी कवायद के बाद प्रमिला, मैं और दीदी एक रूम में एडजस्ट किए गए.
दोपहर का लंच एक इंडियन रेस्त्रां में किया गया. यह होटेल भी काफी विस्तृत इमारत में था. लंच के बाद सभी को आधे दिन के सिटी टूर पर ले जाया गया.
सबसे पहले हमारी बस वहीं रुकी जो ताशकंद को हमारे देश से जोड़ती हैं. लालबहादुर शास्त्री स्ट्रीट. यहां एक बगीचे में लालबहादुर शास्त्रीजी की प्रतिमा लगी हुई है. वहां पहुंचते ही दिल भर आया जैसे कोई अपना बरसों पहले यहीं छूट गया हो. सभी ने नम आंखों से अपने लाडले प्रधानमंत्री को भावभीनी श्रद्धांजली दी. और स्मृतियों को संजोए रखने के लिए फोटो खिंचवाए.
इस बार जिस बस में हम बैठे थे उसके गाइड थे रूस्तम. रुस्तम ने हमें शहर के बारे में जानकारी दी. रुस से अलग होकर नए देश उज्बेकिस्तान बनने के बारे में. यहां की आर्थिक व्यवस्था पर भी प्रकाश डाला. और जब उसने लालबहादुर शास्त्रीजी की मौत के बारे में चर्चा की तो मन कहीं उस अपराधबोध से भरा हुआ जो उसके देश ने नहीं किया था.
इसके बाद म्यूजियम ऑफ विकटीम ऑफ रिप्रेशन्स यानी दमन का शहीद स्मारक देखा. चारों तरफ से खूबसूरत बगीचों से सजाया गया. गुंबद जिसके नीचे स्वतंत्र रूप से उज्बेकिस्तान की मांग करनेवाले लोगों को इकट्ठा करके दफना दिया गया है.
`होते हैं बलिदान कई तब देश खड़ा होता है
अपने जीवन से भी बढ़कर देश बड़ा होता है…..’
हर देश की मिट्टी शहीदों के खून के रंग से रंगी हुई, किसानों के पसीने से सींची और मेहनतकशों के श्रम से ही नया जीवन पाती है.
यहीं पर हमने एक नवविवाहित ईसाई जोड़े को विवाह की पोशाक में इसी स्मारक में दाखिल होते देखा. मैं सोच रही थी कि शादी के बाद ये लोग यहां क्या कर रहे हैं. बाद में जब ताशकंद के बारे में अतिरिक्त जानकारी खगाल रही थी तो पता चला कि हर नवविवाहित जोड़ा शादी के तुरंत बाद शहीदों की मजार पर मत्था टेकने आता है. इसके आगे हम इंडिपेंडेटस् स्क्वेअर देखने गए जो उज्बेकिस्तान की आजादी की कहानी पत्थरों की जुबानी सुनाता है. यहां लेनिन की प्रतिमा को हटाकर एक ग्लोब बनाया गया है. जिसमें उज्बेकिस्तान को हाइलाईट किया गया है. यहीं पर है सभी शहीदों की मां जो आनेवाली आजादी की आस लगाए बैठी है.
यहीं पर मेरी मुलाकात हुई देहरादून से आए वरिष्ठ साहित्यकार बुद्धिनाथ मिश्र जी से. जान-पहचान के दौरान पता चला कि वे दीदी के रिश्ते में आते हैं. देखो दो रिश्तेदार मिले तो अपने देश से हजारों मील दूर मेरे बरसों पुराने परिचित देवमणि पांडेय और बुद्धिनाथ जी पूरी यात्रा में हर जगह एक साथ ही दिखे.
यहीं हमारी परिचय शहर के बाशिंदों से हुआ. महिलाआें और लड़कों ने `नमस्ते-नमस्ते’ कहते हुए हमें घेर लिया. और ऐसे अनुभव हमें पूरे प्रवास में दौरान हुए.
शाम का धुंधलका छाने लगा था. सभी को होटेल लाया गया. एक घंटे के बाद तरोताजा होकर हमें फिर मिलना था रात के भोजन के लिए.
रात्रि भोज के लिए हम लोकल इंडियन रेस्त्रां में पहुंचे. गेट से अंदर घुसते ही भारतीय ढाबे का लुक आया. अरेबियन पोशाक पहने लड़कियों ने हमारा स्वागत किया.
डायनिंग हॉल के अंदर बीचोबीच लकड़ियों की रेनिंग से घिरा गोलाकार मंच बना हुआ था. डिनर शुरु होते ही लाईट बंद और उज्बेकी म्यूजिक बज उठा. कुछ नकाबपोश नर्तकियां मंच पर आकर नृत्य करने लगी. उत्तेजक पोशाक और मादक अदाएं इतनी खूबसूरत जैसे संगमरमर की मूरतों में किसी जादूगरनी ने जान डाल दी हों.
इस तरह एक खुशनुमा माहौल से ताशकंद की सरजमीं पर हमारा पहला दिन खत्म हुआ.
दूसरे दिन यात्री 26 जून 2012 को अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की शुरुआत हुई. होटेल कांफ्रेंस रूम में.
सुबह 10 बजे से शाम आठ बजे तक विभिन्न सत्रों का आयोजन हुआ. सभी प्रतिभागियों के परिचय के बाद अलंकरण सत्र में मुंबई की वरिष्ठ लेखिका संतोष श्रीवास्तव को `सृजन गाथा’ और नागपुर के डॉ.प्रमोद कुमार शर्मा को निराला काव्य सम्मान दिया गया.
यह सम्मेलन मेरे लिए महत्वपूर्ण इसलिए भी था कि यहीं पर मेरी पहली पुस्तक का विमोचन होना था. विमोचन सत्र का प्रारंभ भी मेरे ही कहानी संग्रह `मादा’ लोकार्पण से हुआ. जो निश्चय ही मेरे लिए गर्व का अवसर था.
देवमणि पांडेय `अपना तो मिले’ दिनेश पांचाल `बहुरुपिये लोग’ लालित्य ललित `चिड़ियाभर शब्द’ सुनील जाधव की तीन पुस्तकें आदि कई पुस्तकों का विमोचन हुआ. एक साथ 27 साहित्यक कृतियों के विमोचन का एक अूठा आयोजन था यह.
विमोचन सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ गीतकार डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र ने की. इस अवसर पर जयप्रकाश मिश्र, हरिसुमन विष्ट, एकांत श्रीवास्तव, धनंजय सिंह और डॉ.रेशमी रामधुनी मुख्य अतिथि थे.
`आलोचना और उत्तर औपनिवेशिक समय’ तथा `भाषा की संस्कृति : संस्कृति की भाषा’ का वक्ताआें ने अपने विचार रखे. इस सत्र के संचालक थे डॉ.प्रमोद वर्मा एवं लालित्य ललित. डॉ.रेशमी रामधुनी डॉ.ओमप्रकाश सिंह, डॉ.कामराज सिंधु डॉ.महासिंह पुनमिना आदि ने अपने विचार व्यक्त किए.
`कविता पाठ’ सत्र के अध्यक्ष डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र थे. संचालन देवमणि पांडेय,और कवि मुमताज ने किया. डॉ.सविता मोहन, देवमणि पांडेय, डॉ.वंदना दुबे, डॉ.पीयूष गुलेरी, सुषमा शुक्ला, प्रमिला शर्मा और प्रियंका सोनी आदि कवियों ने अपनी रचनाआें से समा बांध दिया.
इसी सत्र में जानी-मानी कत्थक नृत्यांगना चित्रा जांगिड ने अपने नृत्य से भारतीय कला का प्रदर्शन किया. इस अवसर पर डॉ.जे.एस.बी.नायडू की पेंटिंग भी लगायी गयी थी. सो कला-नृत्य और साहित्य का अनूठा संगम एक ही जगह देखने को मिला.
रात के आठ बज चुके थे. इसलिए यह तय किया गया कि 28 जून 2012 को कहानी-पाठ सत्र का आयोजन किया जाएगा.
28 तारीख को कहानी पाठ का समय निश्चित नहीं था. इसलिए कई महिला साहित्यकार मेरे कमरे में जमा हो गई थी. परिचय का स्तर घनिष्ठता तक आ पहुंचा. तब तक प्रमिला शर्मा की जलगांव वाली सहेली प्रियंका सोनी आ गई मुझे बुलाने क्योंकि मेरा नाम कहानी पाठ में था.
हम सब जैसे थे कि मुद्रा में सेमिनार हॉल में पहुंचे. हमारे पहुंचने तक हरिसुमन बिष्ट, मेजर रतन जांगिड़ आदि कहानी पाठ कर चुके थे. दिनेश पांचाल का कहानी पाठ शुरु था. उनकी यह कहानी मैं पहले भी पढ़ चुकी थी. चूंकि आज माइक की व्यवस्था नहीं थी सो वक्ताआें के कंठ की परीक्षा थी. पहले ही हिदायत दे दी गई थी कि कहानी ज्यादा लंबी न हो. मगर कई वक्ताआें का प्रस्तुतिकरण ढीला था तो श्रोता उखड़ जाते थे.
इस सत्र का संचालन कर रही थी अपनी संतोष जी. मुंबई का परिचय यहां दो दिनों में आत्मीयता में बदल चुका था. और दूसरे रचनाकारों से भी परिचय संवाद तक पहुंच चुके थे. इसलिए पहले दिन क़ी अपेक्षा आज का सत्र सहज और परिचित लग रहा था.
संतोष जी ने मेरा नाम पुकारा. मैं अपनी कहानी लेकर हाजिर थी.
मैंने कहना शुरु किया, `मैं अपनी कहानी `तिलचट्टा’ सुनाना चाहूंगी. वैसे यह कहानी है तो बहुत बड़ी, पर कोई बात नहीं मैं इसे संक्षिप्त करके सुनाती हूं.’ श्रोताआें ने इस बात पर शुक्र मनाया उन्हें लगा होगा जैसे मैं दो पन्नों में इस कहानी को समेट लूंगी. मैंने कहानी शुरु की जो मुंबईया परिवेश पर आधारित एक आम स्त्री के संघर्ष की कथा है.
कहानी के दो वाक्य पूरे कर मैंने श्रोताआें पर नजर डाली. बीच की पंिक्त में बैठे लालित्य ललित, सुनील जाधव और विवेक मिश्र ध्यान से सुनने की मुद्रा में बैठे थे. उनके पीछे तीन चार अन्य श्रोता जो इस कोशिश में थे कि प्रस्तुतिकरण ढीला पड़े तो हूट किया जाए.
`शब्बो की कहानी आगे बढ़ी. शब्बो जैसे ही अपने जख्मों पर तेल लगाने के लिए सलवार नीचे करती है….’ इस घटना पर सब चौकन्ने हो उठे. एक महिला के मुंह से इतनी बोल्ड कथानक सुनकर सभी हैरत में पड़ गए.
मगर कहानी इतनी संवेदनशील थी कि बिना किसी टिप्पणी के दम साधे सुनते रहे…और जब कहानी खत्म हुई तो हॉल में एक सन्नाटा तन गया था. कहानी के असर से जो उबरे तो सबने खूब तालियां बजाई.
इसी सत्र में दिल्ली के कहानीकार विवेक मिश्र ने अपने पिता की मृत्य से जुड़े अनुभव को `गुब्बारा’ कहानी में दिखाया. एक भावुक, मार्मिक कथा, सधा हुआ प्रस्तुतिकरण कि श्रोता भी मृत्यु के अवसाद से घिर गए. कहानी पाठ के दौरान ऐसा लगा कि मौत की घड़ी दुबारा उनके सामने आ खड़ी हो गई है.
सत्र खत्म होते ही सभी ने मुझे बधाई दी. कार्यक्रम के आयोजन जयप्रकाश मानस जी ने टिप्पणी की – `तिलचट्टा’ कहानी सुमन को हमेशा के लिए जिंदा रखेगी.
और इस तरह कहानी पाठ ने एक ही प्रयास में मुझे एक सशक्त और स्थापित लेखिका के रूप में पहचान दे दी.
लगा कि एक लाख रुपए खर्च करके यहां ताशकंद आना सार्थक हो गया. पर कोई मेरे पतिदेव से पूछे कि उनको अपनी पत्नी का कहानी लिखने का शौक कितना महंगा पड़ा. अभी तक उनकी किश्ते जारी हैं.
इस सत्र के बाद लंच के लिए सभी इंडियन रेस्त्रां को रवाना हुए. वहां होटल के अहाते में शहतूत, आड़ू के बगीचे थे. छोटे-छोटे पेड़, जो रसभरे फलों के भार से झुक रहे थे. कितने फल टपक कर जमीन पर धूल धुसरित पड़े थे. ऐसा दृश्य देखकर कोई भी लोभ संवरण नहीं कर पाया. सभी तोड़-तोड़कर फल खाने और खिलाने लगे. हमारी प्रमिला जी तो एक बच्ची की तरह पेड़ पर ही चढ़ गयीं. फलों के रसस्वादन के बाद वहां से निकल कर हम खजरत इमाम मौसिलिया देखने गए.
ताशकंद शहर के बीचो बीच बसा 16वीं शताब्दी का यह स्मारक बहुत ही विशाल एवं स्थापत्य कला का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. वर्गाकार आकार के इस परिसर की चारो भुजाआें पर एक विशालकाय दरवाजा और गोल गुंबद है. हर गुंबद अपने में इतिहास का एक-एक पन्ना समेटे हैं.
सबसे महत्वपूर्ण है बराक खान मदरसा. यह इस्लामिक संस्कृति और शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र था. इस पुस्तकालय में कुरान की सैकड़ों दुर्लभ हस्तलिखित पांडुलिपियां संग्रहीत हैं.
अंदर प्रवेश करने पर सबसे पहले खलीफा ओथमान की एक विशाल कुरान के दर्शन होते हैं. हमारे गाइड रुस्तम ने बताया कि सातवी सदी की यह 353 पृष्ठों की हस्तलिखित पांडुलिपि है. इस पाक कुरान के कुछ पृष्ठ सेंट पीटर्सबर्ग और कुछ पृष्ठ बगदाद के संग्रहालय में हैं.
कहते हैं कि खलीफा ओथमान पैगंबर मोहम्मद के साथियों में से एक थे. और पैंगबर साहब की मृत्यु के बाद तीसरे नंबर पर खलीफा बनाए गए थे. खलीफा ओथमान की हत्या कुछ अज्ञात हमलावरों ने उस समय कर दी जब वे पाक कुरान का पाठ कर रहे थे. उनके खून के छींटे अब भी इस पुस्तक पर हैं.
इस स्क्वायर में दूसरी ओर टिला शेख मस्जिद, सेंट कफल शश मुकबरा और अल बुखारी के इस्सलामिक संस्थान हैं. मीनारों की दीवारें इंटों से सजाई गई हैं. नीले रंग के मोजाइक और नक्काशीदार टाइल्स लगी हैं. इन पर फारसी और मुगल शैली वास्तुकला का वैभव देखते ही बनता है. सुनहरे रंगों से पच्चीकारी से अलंकृत इमारतें अपनी भव्य इतिहास की साक्षी हैं. अखरोट की लकड़ियों के नक्काशीदार दरवाजे ईरान के बने गलीचे भव्यवता को और भी बढ़ाते हैं.
खजरत इमाम स्क्वायर ताशकंद का प्राचीन धार्मिक केंद्र है और मुस्लिम तीर्थयात्रियों के लिए इबादतगाह.
ताशकंद की जीवटता की कहानी बयां करता है. मोनूमेंट ऑफ करेज यानी साहक का स्मारक. यहां महाकाय प्रतिमा है काले पत्थरों की. माता-पिता और गोद में बेटा. यह उस स्थान पर बनी हैं जो 26 अप्रैल 1966 को आए विनाशकारी भूकंप से तहस नहस हो गया था. इस भूकंप में पूरा ताशकंद शहर धराशायी हो गया था.
फिर इस शहर का सोवियत रूस की तर्ज पर योजनाबद्ध रुप से निर्माण किया गया.
सन 1970 में लगभग 1,00,000 नए घर बन कर तैयार हुए जिनमें से ज्यादातर घरों में उन्हें बिल्डरों के और व्यापारियों के परिवार रहते हैं.
…तो अब जाकर समझ आया कि ताशकंद शहर इतना खूबसूरत और व्यवस्थित क्यों हैं.
इस शहर का निर्माण कार्य आज भी जारी है. 1991 में सोवियत संघ से आजाद होने के बाद से ताशकंद नित नई ऊंचाइयों को छू रहा है. कई परिवर्तन भी हुए. इंड़िपेंड़ेंस स्क्वायर से लेनिन की प्रतिमा हटाकर वहां विशालकाय ग्लोब लगाया गया. और इस ग्लोब में नए देश उज्बेकिस्तान को उकेरा गया है. अपने दिल में आजादी का जज्बा लिए बैठी है एक मां जिसकी गोद में एक नन्हा बच्चा है जो आनेवाले कल का नागरिक है. यह मूर्ति हमें भावुक कर देती है.
इसके अलावा ताशकंद में आमिर तैमूर का भव्य म्यूजियम भी है. सन 2006 में यह बनकर तैयार हुआ. विशाल परिसर में फोव्वारा बना हुआ है. इस संग्रहालय में 3000 से अधिक ऐतिहासिक महत्व के चित्र, हथियार, दुर्लभ पांडुलिपियां, पोशाकें, बर्तन, सिक्के, इमारतों के अवशेष संग्रहित हैं. आमिर तैमूर के जीवन से संबंधित दस्तावेज और उसके शरीर के अवशेष जैसे उसकी पलकों के बाल, नाखुन आदि सहेज कर रखे हुए हैं. पूरी इमारत एक महल का आभास देती हैं.
इसी संग्रहालय की एक महिला कर्मचारी ने हमें भारतीय जानकर गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया. उसने 1978 में अपने हाथों से बनाया अभिनेता राजकपूर का स्केच दिखाया और हमारे हस्ताक्षर भी लिए. फिर हमने हाथों में हाथ डालकर राज कपूर साब के गाने गाए.
ताशकंद की आबादी कम है. सड़क स्मारकों, पार्कों बाजारों में सभी जगह गिनती के लोग होते थे और जब हमारी तीन बसें भरी-भरी पहुंचती तो हम ही हम दिखाई देते. स्थानीय युवा, बच्चे हमारे करीब आ जाते और मुस्कुराकर हमें `नमस्ते’ कहते. जवाब में हम `वालेकुम सलाम’ बोलते. यह हमने अपने गाईड रुस्तम से सीखा था.
ताशकंद को `सिटी ऑफ प्र्ाऎेंडशिप’ कहते हैं यानी दोस्ती का शहर. स्थानीय लोग `तोशकंद’ कहते हैं. तोश यानी पत्थर और कंद यानी शहर. मगर पत्थरों का यह खूबसूरत शहर जिंदादिल और प्यारे लोगों से भरा पड़ा है.
27 जून को हमने ताशकंद से 120 किमी. दूर चिमगन पर्वत जाना था. बस से डेढ़ घंटे का सफर बेहद हंसी-खुशी से बीता. रास्ते भर साहित्य चर्चा, इतिहास चर्चा, दोनों देशों के सांस्कृतिक प्रभावों पर विचार-विमर्श हुआ. गाइड रुस्तम में मियां नसीरु ीन के लतीफे भी सुनाए.
एक कस्बे गजलकंद के बारे में भी बताया. कहते हैं अदब में गजल की मिठास भरनेवाला यही कस्बा है. पूरी दुनिया में गज़ल यहीं से रवां हुई हैं. एक खुशनुमा सफर था यह. पूरी सड़क पर हमारी ही 3 बसें. कोई अन्य वाहन नहीं. इक्का दुक्का कोई कार आगे-पीछे से आ जाती थी. रास्ते में एक से बढ़कर एक नैसर्गिक दृश्य. लहरियेदार पहाड़ उन पर जतन से ओढ़ाई गई हरियाली की चादर. हिंदी साहित्य छायावाद जीवंत हो उठा था. जैसे प्रकृति की नारी आसमान के पुरुष से मिलने के लिए आतुर हो रही हो. भरत व्यास का गाना अगर वहां सुनाई दिया होता तो सोने पर सुहागा होता.
हरी-हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन
कि बादलों की पालकी उड़ा रहा है पवन
यह किस कवि की कल्पना का चमत्कार है
ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार है…
केबल कार से चिगमन पहाड़ी की चोटी पर पहुंचे. यह भी एक रोमांचक यात्रा थी. चोटी पर सामने ही हिम से आच्छादित रियान-शॉन चोटी दिखाई दी. उसे देखकर हिमालय के केदारनाथ का सुमेरु पर्वत याद आ गया.
यहां भी मन्नत का टोटका माना जाता है. इस पहाड़ी के दायीं तरफ लोहे की जाली दार दीवार लगाई गई थी. जो रंगबिरंगे कपड़ों की पटि्टयों से अटा पड़ा था. निश्चित ही प्रेमी जोड़े लता बांधकर मन्नत मंगते होंगे. क्योंकि वहां कई युवा प्रेमी जोड़े दिखे.
पहाड़ी से उतरकर चरवाक झील में स्पीड वोट का लत्फ उठाया. पहाड़ी की तलहटी में बनी चरवाक झील की मयूर पंखी हरे-नीले रंग की पानी की आभा देखते ही बनती है. झील के किनारे रेत बिखरी है. इसलिए इसे `चरवाक सी’ कहा जाता है.
29 जून को रेल से ऐतिहासिक महत्व वाले शहर समरकंद को रवाना हुए. रेल्वे स्टेशन पर भी भीड़ नहीं के बराबर. ताशकंद रेलवे स्टेशन पर एक स्टॉल से मैंने पर्यटन पोस्टकार्ड खरीदा. 2000 सूम का. उस पर 2000 सूम का टिकट लगाया और अपने पति और बेटे-बेटी के नाम संदेश लिखकर अपने घर को रवाना कर दिया. वह पोस्टकार्ड मुझे मिला अगस्त महीने में.
रेल से समरकंद की यात्रा लगभग साढ़े तीन घंटों की रही. ट्रेन में फक्त कोच थे. राजधानी एक्सप्रेस में फर्स्ट क्लास के कोच की तरह थे.
तो ट्रेन में बैठते ही फुल टू मस्ती चालू हो गई. कविताआें, शायरियों की अंताक्षरी खेली गई. बीच में सब एक दूसरे से मिलते भी रहे. रायपुर के राजेश्वर आनदेव जी आए हमारे पास.
रेलवे स्टाल हम मेहमान यात्रियों का पूरा ध्यान रख रहा था.
हमारी तरह उज्बेकी लोग मसालेदार खाना नहीं खाते. बेहद फीका खाना रहता है उनका बिलकुल कांटिनेंटल फूड की तरह.
ताशकंद में चाय बिना दूध बिना शक्कर की मिलती थी. एक कप चाय की कीमत 20,000 सूम. इसलिए हमने वहां, खरीद कर चाय पी ही नहीं. होटेल के कमरे में जो टी मेकर रखा रहता था उसी से काम चलाते थे. एक लिटर पानी की कीमत 4000 सूम और पता है एक लिटर पेट्रोल की कीमत 1600 सूम. है ना हैरत की बात. वो इसलिए की वहां पेट्रोल बहुतामत से मिलता है. पानी निकालने के लिए कुआं खोदो तो पेट्रोल निकल आता है. ताशकंद में पीने के पानी का एक मात्र स्त्रोत चिरचिक नहीं जो चिमगन पर्वत से निकलती है.
इसलिए पूरी यात्रा के दौरान हम चाय की तरह पानी खरीदकर पीने से बचते रहे. सुबह ही सबको पानी की बोतलें दे दी जाती थीं. हम उसी से काम चलाते थे.
पानी की कमी के चलते सार्वजनिक शौचालयों में सिर्फ बाहर वाशबेसिन के नल में पानी आता है. टॉयलेट के अंदर अमूमन नल नहीं होता है. बस फ्लश की टंकी से पानी की पतली धार निकलती है जिससे कमोड साफ हुआ करता है. सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है. किसी भी टॉयलेट में गंदगी या बदबू नहीं मिली. इसके लिए उज्बेकी तारीफ के हकदार हैं.
तो रेल से साढ़े तीन घंटे की यात्रा पूरी होने वाली थी. दोपहर एक बजे के करीब हम तैमूर लंग की राजधानी समरकंद पहुंचे. आमिर तैमूर युद्ध के दौरान पैर में हथियार लगने से लंगड़ा हो गया था. इसलिए भारतीय इतिहास में उसे तैमूर लंग कहा जाता है. मगर समरकंद का वह शासक था इसलिए यहां बाइज्जत उसे आमिर तैमूर कहा जाता है.
हमारी ताशकंद यात्रा का एक संदर्भ रामायण से भी जुड़ता है. राजा दशरथ की सबसे छोटी और प्राणप्यारी रानी कैकेयी, जिसकी हठ ने पूरी रामायण बदल डाली, वह समरकंद की थी. यह सुनते ही हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. अब हम इतिहास को अपनी दृष्टि के निकष पर परखना चाहते थे. समरकंद की स्त्रियों को पोस्टमार्टम की नजरों से देखा तो पाया कि कैकेयी वाकई बला की खूबसूरत रही होगी तभी तो राजा दशरथ उसके हठ के सामने अपना सबकुछ हार बैठे.
ट्रेन से उतरकर स्टेशन से बाहर निकले. कड़कती धूप थी. कुछ महिलाएं मिलीं. वहीं दिलकश हंसी. एक ने पूछा हिंदुस्तान? पाकिस्तान?
मैंने जवाब दिया – हिंदुस्तान.
वह तपाक से बोली – नमस्ते.
मैंने अपने गाइड का सिखाया अभिवादन किया – वालेकुम सलाम.
बड़े आश्चर्य से मैंने प्रमिलाजी से कहा – अरे वाह, यहां के लोग भी हिंदी बोलते हैं.
तभी एक सुखद झटका लगा. वही औरत मुस्कुराकर बोली – थोरा – थोरा (थोड़ा-थोड़ा)
हम सब हैरत में.
मैंने पूछा – कहां से सीखा ?
वह बोली `बॉलीवुड मूवी’. उज्बेकी -ड कोद और टकोत उच्चारण करते हैं) सच में बॉलीवुड की फिल्में दुनिया में हमारे देश का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करती हैं.
ताशकंद में स्कूलों में विदेशी भाषा के विकल्प के रुप में हिंदी पढ़नेवाले छात्रों की संख्या ज्यादा है. हम जिस होटेल में रुके थे एक दिन शाम को हमने एक उज्बेकी सिंगर को कैरिओ के माइक पर हिंदी गानों की रिहर्सल करते देखा.
उस दिन हम स्वीमिंग करके लौटे रहे थे. तभी हिंदी गाने की आवाज सुनाई दी. देखा तो एक गोरा गीत गा रहा था-
चेहरा है या चांद खिला, जुल्फ अंधेरी छांव है क्या
सागर जैसी आंखों वाली, ये तो बता तेरा नाम है क्या.
एक गोरे की जुबान से हिंदी गाना सुनकर सब उस पर फिदा हो गए.
आम उज्बेकियों को अंग्रेजी न समझ आती हो मगर हिंदी वे समझ लेते हैं, यह हिंदी फिल्मों का प्रताप ही तो है.
हम स्टेशन परिसर से बाहर निकले तो हमारे लिए समरकंद शहर की सैर कराने की बसें तैयार खड़ीं थी.
उज्बेकिस्तान का तीसरा बड़ा शहर है – समरकंद.
चीन और पश्चिम को जोड़ने वाले सिल्क रोड के रूप में इस शहर की पहचान है. सन 2001 में यूनेस्को ने इसे `वर्ल्ड हैरिटेज’ की सूची में शामिल किया. यह विश्व की पुरानी सभ्यता वाले शहरों में से एक है. चौदहवीं शताब्दी में यह आमिर तैमूर की राजधानी हुआ करती थी.
और अयोध्या की रुपगर्विता रानी कैकेयी का यह गृहनगर भी है. पर अभी भी मुझे इसके पुख्ता प्रमाण ढूंढने बाकी हैं.
समरकंद की किसी महिला को देखते वक्त आंखे जैसे कैकेयी की छवि को ढूंढ रही थी. दिल कर रहा था कि युगों पुराने अंधकार को चीरते हुए ध्रुवतारे की रोशनी पहने कैकेयी के तेजस्वी रूप की झलक इन आंखों को मिल जाए. हां ! क्या ऐसा कभी संभव है?
आधे घंटे की दूरी तय कर हम पहुंचे रेगिस्तान स्क्वायर. आमिर तैमूर का मकबरा. ये मकबरा हमें इसबात की याद दिलाता है कि इंसान कितनी भी लड़ाइयां जीत ले. कितने भी किले बना ले मगर वह अपनी तकदीर से नहीं जीत सकता, अपनी बिगड़ी नहीं बना सकता.
आमिर तैमूर ने अपने प्रिय पोते उलुग वेग की असमय मौत होने पर उसके लिए यह मकबरा बनवाया था. सफेद संगमरमर से बने इस नक्काशीदार मकबरे को बनवाकर कितना तड़पा होगा एक बेबस दादा. पोते से दादा का यह रिश्ता मौत के बाद भी नहीं टूटा. इसी सफेद मकबरे के बराबर एक काले पत्थरों से बना मकबरा है जिसमें आमिर तैमूर एक सुकून से दफन पड़ा होगा. यहीं आसपास छोटे आकार की उसके रिश्तेदारों की अन्य कब्रे और हैं.
यहां पर 15वीं से 17वीं सदी के तीन मदरसे बने हुए हैं. जहां विद्यार्थी इस्लाम की शिक्षा ग्रहण करते थे.
आमिर तैमूर ने अपनी सबसे प्यारी बेगम बीबी खातून का मकबरा भी बड़े सूकून के साथ बनवाया है. बीबी खातून, इतिहास प्रसिद्ध चंगज़े खान की बेटी थीं. हिंदुस्तान का सोना लूट कर तैमूर लंग ने उसे खर्च भी किया तो कहां – अपनी बैगम और पोते के लिए मकबरा बनवाने में किसी ने सच ही कहा है पाप की कमाई, गटर में जाती है.
यह रेगिस्तान स्क्वायर अपने समय में धर्म, शिक्षा और राजनीति का मुख्य केंद्र होता था. यहां पर उलुग-वेग मदरसा (1417-1420) टिलया-कोरी मदरसा (1646-1660) और शेर-दर मदरसा (1619-1636) में इस्लामिक शिक्षा दी जाती थी.
1740 में नादिर शाह के जुल्मों का शिकार यह शहर भी बना. इसके बाद 20वीं सदी में यानी 1942 में इस्लामिक रस्मो-रिवाज के अनुसार इस इमारत का पुर्न निर्माण कराया गया. आज भी समय-समय पर इन इमारतों का रख-रखाव किया जाता है. इसलिए ये इमारतें नई और संवरी हुई लगती है.
समरकंद उज्बेकी परंपरागत शहर है. यहां के मकान बाहर से सामान्य मगर अंदर से बड़े और भव्य होते हैं. गली के दोनों ओर मकान बने होते हैं. मकानों के अहाते में अखरोट, आडू, शहतूत आदि के पेड़ लगे होते हैं. पूरी गली अंगूर की लताआें से छायी रहती है जैसे किसी ने अंगूरलताआें का मंडप बना दिया है.
उज्बेकी महिलाएं रंगबिरंगे गाऊन जैसे कुर्ते और सलवार पहनती है. सिर पर एक स्कार्फ बंधा होता है. पुरुष मुख्यत: टीशर्ट और जींस पहनते हैं.
उज्बेकिस्तान को देखकर इस्लामिक रिपब्लिकन देश होने के कई भरम टूट गए. इस्लामिक देश होने के बावजूद धार्मिक कट्टरता दिखाई नहीं देती और वह भी लड़कियों के प्रति. लड़कियों को भी लड़कों के बराबर दर्जा है. वहां लड़कियों का प्रतिशत अधिक है.शिक्षा और रोजगार के समान अवसर हैं. शहरी महिलाएं अन्य आधुनिक महिलाआें की तरह फैशनेबल कपड़े पहनती हैं. नौकरी करती हैं. धड़ल्ले से यहां-वहां आती जाती हैं. यह देखकर मन को सुकून मिला. यहां जनसंख्या घनत्व भी बहुत कम है. महंगाई है मगर फल और सब्जियां सस्ती और उत्कृष्ट श्रेणी की मिलती है.
30 जून को वतन लौटने का समय आ गया. होटेल के स्टाफ और सभी गाइड़ों ने हमें भावभीनी विदाई दी. एअर पोर्ट के अंदर दाखिल होते समय हमने हाथ हिलाया, और कहा – दस्वीदानिया (अलविदा)
ताशकंद - यात्रा के कुछ फोटो :
1. मुजियम ऑफ़ विक्टिम ऑफ़ रिप्रेशंस यानी दमन का शहीद स्मारक
२. इंडिपेंडेंस स्क्वायर – जहाँ आज़ादी की लौ जलाये शहीदों की माँ
3 . उज्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में 26 जून 2012 से 30 जून 2012तक सृजनगाथा , रायपुर की ओर से आयोजित 5वें अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन में लोकार्पण सत्र का आरम्भ मुंबई की कथाकार सुमन सारस्वत के कहानी संग्रह ‘मादा’ से हुआ .इस फोटो में देवमणि पाण्डेय , कार्यक्रम के संयोजक जयप्रकाश मानस , डॉ. हरिसुमन बिष्ट , धनंजय सिंह , बुद्धिनाथ मिश्र,सुमन सारस्वत ,रेशमी रामधुनी , शम्भू बदल और एकांत श्रीवास्तव दिखाई दे रहे हैं
4. अपने लाड़ले प्रधानमंत्री स्व. श्री लालबहादुर शास्त्री जी की ताशकंद स्थित स्मारक पर लेखिका
- सुमन सारस्वत