कभी कभी इंसान इतना खुदगर्ज हो जाता है वो भी अपने ही माँ बाप के प्रति, जिन्होंने अपना सब कुछ लुटा कर औलाद को सक्षम बनाया हो … जिन्होंने खुद से ज्यादा अपने औलादों का ख्याल किया हो … और औलाद … समय और काम का बहाना कर कितने आसानी से बच निकलते … पर जब उन्हें इस बात का एहसास होता है तब तक शायद काफी देर हो चुकी होती है वापस आने के लिए। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ … लेकिन ऊपरवाले ने शायद मुझे खुदगर्ज होने के इल्जाम से मुक्त होने का एक मौका दिया था ….
राहुल … बेटा राहुल … जरा सुनना … सुबह – सुबह ऑफिस के लिए तैयार होते माँ की आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी। आज काफी वयस्त कार्यक्रम है ऑफिस का … एक विदेशी क्लैंट्स के साथ मीटिंग है … शायद इक बड़ी डील हाथ लग जाये …
सुबह समय ही कितना होता है … अभी तो मैं तैयार भी नहीं हो पाया था कि माँ की आवाज आ गयी … उफ़ … थोडा अनमना … थोडा चिडचिडाते हुए वोला … माँ अभी मेरे पास जरा भी समय नहीं है … मुझे ऑफिस के लिए देर ही रही है … शाम को आ कर आप से बात करूँगा …। बिना माँ से पूछे … बात क्या है … मैंने अपना निर्णय सुना दिया।
पर बेटा सुन तो … इक धीमी सी आवाज कानों में पड़ी … पर मैंने अनसुनी करते हुए खाना बनाने वाली को आवाज दी … माया … मेरा नास्ता और दोपहर का खाना पैक कर दो मुझे देर हो रही है … और … हाँ माँ को टाइम से खाना और दवा खिला देना।
तभी माया की डरी – डरी सी आवाज मेरे कानों में पड़ी … साहब … माँ जी की तबीयत दो-तीन दिनों से ठीक नहीं है … थोड़ा सा समय … मेरे चेहरे पर आने वाले गुस्से को शायद उसने पहले ही भांप लिया था और बात अधूरी छोड़ रसोई की तरफ मुड़ गयी।
ये लोग क्या जाने कितनी कितनी व्यस्तता रहती है … कितनी मेहनत पड़ती है … खैर … समय नहीं था अभी मेरे पास कुछ कहने को … बैग उठाया और निकल पड़ा ऑफिस को।
काम के कारण कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला … फ़ोन देखा तो माया के दस मिस्ड काल … क्या हो गया … मन इक घबराहट से कांप सा उठा … फिर खुद को काबू करते मैंने माया को कॉल किया … उधर से माया सिर्फ इतना ही बोली … माँ जी हास्पिटल में है साहब आप जल्दी आ जाइये।
क्या … क्या हो गया माँ को … जो हॉस्पिटल जाना पड़ा … न जाने कैसे – कैसे ख्याल जेहन मे एक के बाद एक आने लगे … मैं तुरंत हास्पिटल की ओर भागा … माया वहां अपने पति के साथ मौजूद थी … वो बोली माँ जी बेहोश हो गयी थी … अपने पति की मदद से मैं उन्हें हास्पिटल ले कर आई हूँ … माँ जी आईसीयू में है … शायद उन्हें हार्ट अटैक आया था … फिलहाल डॉक्टर ने खतरे से बाहर बताया है।
वही पड़ी कुर्सी पर मै धम्म से बैठ गया … माया की बातों ने मुझे इतना एहसास जरुर करा दिया कि मैं अपनी माँ का ख्याल नहीं रख पाया। वो गलत भी नहीं थी … रिश्तों का महत्व कहाँ समझा मैंने … पैसे कमाने की अंधी दौड में मैंने अपने बेटे के फर्ज को कहीं का पीछे छोड़ दिया … हमेशा पैसो के पीछे ही भागा … भूल गया था कि माँ को पैसो से ज्यादा मेरी जरूरत है … पैसों के पीछे इतना खुदगर्ज हो गया था मैं … उसे सिर्फ मेरे साथ कुछ पल ही तो बिताना था जो उसके लिए लाखों के बराबर थे … आज लाखों की डील फाइनल करके भी मैं … इतना असहाय … इतना बेबस।
लेकिन ऊपरवाले ने शायद माया को सही वक्त पर इसलिए भेजा … कि मैं खुदगर्ज होने के अपराधबोध से मुक्ति पा सकूँ … दोनों हाथ जोड़ दिए मैंने माया के सामने … और फिर आईसीयू के बाहर … माँ … आँखे खोलो माँ … देख तेरा बेटा वापस आ गया है तेरे पास माँ … वो खुदगर्ज नहीं हैं माँ …
- डॉ ज्ञान प्रकाश
शिक्षा: मास्टर ऑफ़ साइंस एवं डॉक्टर ऑफ़ फिलास्फी (सांख्यकीय)
कार्य क्षेत्र: सहायक आचार्य (सांख्यकीय), मोतीलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश ।
खाली समय में गाने सुनना और कविताएँ एवं शेरो शायरी पढ़ना ।