कडुवे सच से नज़र बचा कर ,
एक भरम पलने दो I
जीवन का अब गद्य ज़रा सा ,
गीतों मे ढलने दो I
मौसम बदले सदियाँ बीती ,
परत परत विश्वास जमा I
छिन्न भिन्न बिखरा पलभर मे,
एक भूल भी नहीं क्षमा I
भीतर का दुःख का जमा हिमालय,
बर्फ़ ज़रा गलने दो I
बंद रहे खारे सागर मे ,
कुंठित लहरें उठीं निरंतर |
दूर गगन मे करें प्रवासन ,
मीठे जल की बदरी बन कर |
अन्धकार से भरी अमावास
दिया एक जलने दो |
कंटक पथ और घना अँधेरा ,
मंथन मे बस मिला हलाहल I
पाँव छिले हैं ,कल देखेंगे |
बंजर जैसा ठोस धरातल |
अभी मुलायम नरम गुदगुदे ,
सपने पर चलने दो |
- संध्या सिंह
जन्म: २० जुलाई
स्थान: देवबंद जिला सहारनपुर , उत्तर प्रदेश
प्रारंभिक शिक्षा: गाँव की पाठशाला में
शिक्षा: स्नातक ( विज्ञान ) , मेरठ विश्वविद्यालय
सम्प्रति: कुछ पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन , एक काव्य संग्रह और एक गीत संग्रह प्रकाशाधीन
इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र लेखन , हिन्दी के प्रचार – प्रसार से जुडी साहित्यिक गति विधियों में सहभागिता
पता: इंदिरा नगर , लखनऊ , भारत