तुमने मुझे
कभी तो चाहा होता,
सराहा होता ।
एक शहर में ही
रहते नहीं
अलग -अलग से ,
भोली भूलें थीं
माना मेरी भी कहीं,
पर तुम्हारे ?
अक्षम्य अपराध
भ्रम-सर्पों के
मन के पाताल में
पालते रहे
जो हर पल दिल
सालते रहे ।
दे गये नेह-पीड़ा,
उलाहनों के
तेरे दिये वो दंश,
यूँ मुझमें भी
समा गया आखिर
विष का अंश ।
फिर भी यह मन
तुझमे खोया,
चाहे टूटा या रोया
एक ही आस
भर देती है श्वास
गाते अधर-
ज़हर को ज़हर
करेगा बेअसर ।
- ज्योत्स्ना प्रदीप
शिक्षा : एम.ए (अंग्रेज़ी),बी.एड.
लेखन विधाएँ : कविता, गीत, ग़ज़ल, बालगीत, क्षणिकाएँ, हाइकु, तांका, सेदोका, चोका, माहिया और लेख।
सहयोगी संकलन : आखर-आखर गंध (काव्य संकलन)
उर्वरा (हाइकु संकलन)
पंचपर्णा-3 (काव्य संकलन)
हिन्दी हाइकु प्रकृति-काव्यकोश
प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन जैसे कादम्बिनी, अभिनव-इमरोज, उदंती, अविराम साहित्यिकी, सुखी-समृद्ध परिवार, हिन्दी चेतना ,साहित्यकलश आदि।
प्रसारण : जालंधर दूरदर्शन से कविता पाठ।
संप्रति : साहित्य-साधना मे रत।
