देख-देख कर
रोज होते नर-संहार,
आतंक का नग्न-ताण्डव,
मानव जीवन का
कौड़ी भर मोल,
नयन हुए संज्ञा शून्य,
और आँसू सूख गए ।
कल ही तो मिली थी
उसको नौकरी,
किसी की उठी थी
डोली,
किसी की चली थी
बारात,
किसी के घर
रौशन हुआ था ‘चिराग,
किसी के आँगन में
गूंजी थी किलकारियाँ,
पर आतंक के जलजले में
सब उजाड़ गया,
ह्रदय दुःख से तार-तार
हो गया,
पर सूखे रहे नयन,
क्यूंकि आँसू सूख गए ।
देख गरीबों की
दिन-प्रतिदिन दरिद्र
होती हालत,
स्त्री के अस्मत पर
होते नित्य नए प्रहार,
आत्मा रो पड़ी,
पर नयन न हुए द्रवित,
क्यूंकि आँसू सूख गए ।
देख-देख कर
देश की दुर्दशा-बद्हालत,
इसके धूल-धूसित होते
गौरव और कराहती
मानवता को,
मन पीड़ा से छटपटाने लगा,
पर चाह कर भी रो ना सका,
क्यूंकि…………क्यूंकि
‘अमित’ आँसू सूख गए ।
- अमित कुमार सिंह
बनारस की मिट्टी में जन्मे अमित जी की बचपन से कविता और चित्रकारी में रूचि रही है|
कालेज के दिनों में इन्होने विश्वविद्यालय की वार्षिक पत्रिका का सम्पादन भी किया|
अमित कुमार सिंह टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज में सॉफ्टवेर इंजिनियर हैं|
इनकी कवितायेँ और लेख अनुभूति, हिंदी चेतना, दैनिक जागरण, सुमन सौरभ, कल्पना, हिंदी नेस्ट , वेब दुनिया, भोज पत्र, भोजपुरी संसार , रचनाकार एवं अनेकों पत्रिकाओं में छप चुकी है|
पिछले कई वर्षों से ये कनाडा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका हिंदी चेतना से जुड़े हुए हैं|
इनकी पेंटिंग्स टाटा कंपनी की मैगज़ीन में कई बार प्रकाशित हो चुकी है और देश विदेश की कई वर्चुअल आर्ट गैलरी में प्रकाशित हैं |
दो बार ये अपने तैल्य चित्रों की प्रदर्शनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज के ऑफिस प्रांगड में लगा चुके हैं |
वर्तमान में ये हॉलैंड में कार्यरत है और हॉलैंड से प्रकाशित होने वाली हिंदी की प्रथम पत्रिका अम्स्टेल गंगा के प्रधान सम्पादक और संरक्षक हैं |