अपना देश छोड़, पराये देश में बसना,
इतना भी आसान नहीं था।
माँ का आँचल छोड़,
खुद का घर बसाना, इतना भी आसान नहीं था।
पिता का आंगन छोड़,
पति के संग चल देना, इतना भी आसान नहीं था।
देश छोड़ आई परदेश,
हो गई पराई उस आंगन से, बसेरा बना अब नया देश।
बन गई हूँ अब मैं भी माँ,
कर रही हूँ अपने कर्तव्यों का निर्वाहन।
पर जो छोड़ के पीछे आई हूँ,
उससे मुँह ना मोड़ पाई हूँ मैं।
आज भी याद आती है उस गली की जहाँ बिताया था बचपन,
अपने आंगन की वो जगह जहाँ खेला था छुपाई छुप्पम।
कभी कभी थक जाती हूँ,
मन करता है तोड़ दूँ समाज की बेड़ियाँ।
पर जीवन थक कर बैठने,
और हारने का नाम नहीं है।
ये तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए,
निरंतर आगे बढ़ते रहने का ‘अमित ‘ नाम है।
- स्वाति सिंह देव
वाणिज्य प्रबंधन में स्नातकोतर पूरा करने के बाद वाराणसी में कुछ दिनों बैंक में कार्यरत रहीं।
विवाह के तत्पश्चात कुवैत आयीं। हिंदी लेखन, नृत्य और चित्रकारी में रूचि रखती हैं।