पत्नी ने हफ्ता भर पहले ही ऐलान कर दिया था कि उसके बचपन की सहेली अपनी पति के साथ आज दोपहर के खाने पर आने वाली है। बच्चे घर को व्यवस्थित करने की पूरी कोशिश कर रहे थे। मैं भी उनका हाथ बँटा ही रहा था कि ड्राइंग रूम से आती आवाज़ सुन बच्चे हँसने लगे। मैंने आँख कड़ा किया तो वह पुनः अपने कार्य में मशगूल हो गए। कुछ ही पल बाद श्रीमती जी का किचेन से बुलावा भी आ गया,” मैंने कुछ कहा था आपको! याद है भी या भूल गए?”
“सब समान तो सवेरे ही ला दिया था। अब क्या छूट गया?” मैंने दिमाग पर ज़ोर देते हुए जबाब दिया।
“अरे, बाबूजी को…!”
“चुप..चुप। भगवान के लिये चुप हो जाओ।” ये आजकल के बिल्डर भी न टु बी एच के इतना छोटा बनाते हैं कि थोड़ा जोर से साँस भी लो तो दूसरे कमरे में खबर पहुँच जाती है। मैं बहुत हिम्मत कर पिताजी के पास पहुँचा। ड्रॉइंग रूम में एक चारपाई ही उनका कमरा बना हुआ था।
“पिताजी!”
“हाँ बेटा, बोलो!”
“वो आप! कुछ देर के लिये…पार्क चले जाते तो…!”
“अरे, तुम्हरा दिमाग ठीक है या नहीं। इतनी धूप में मुझे घर से बाहर भेजना चाह रहा है। क्या बात है?”
“वो दरअसल…कुछ मेहमान आने वाले हैं …तो..!”
“तो…मैं नौकर जैसा दिखता हूँ क्या? मुझे अपना बाप बताने में आपको शर्म आयेगी न! ठीक है, मैं चला जाता हूँ। लाओ मेरा बेंत दो!” उनके आँखों में आँसु देख मेरी आँखें दरिया बनने को बेकरार हो उठीं।
“नहीं पिताजी” मैंने उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुये कहा, “दरअसल, आपको गैस की बीमारी है न! हर पाँच-दस मिनट पर जो आवाज़ निकलती है। वह मेहमानों के सामने अच्छा लगेगा क्या?”
“ओह्ह! तो यह बात है। इस उम्र में दस में से हर तीन-चार को यह बीमारी रहती ही है। अगर आने वाले मेहमान के माँ-बाप को यह बीमारी हो तो उन्हें घर से बाहर कर दिया होगा न! क्यों?” पिताजी ने मेरा हाथ छिटक दिया।
“पिताजी…पिताजी! मेरे कहने का यह आशय नहीं था।”
“मैं तेरा बाप हूँ। तेरा आशय खूब समझता हूँ।” आँसु अब उनके नियंत्रण के बाहर जा चुके थे।
इधर मैं शर्म से गड़ा जा रहा था कि किचन से आयी कड़क आवाज़ ने सबको चौंका दिया,”कहीं नहीं जायेंगे बाबुजी। जिसको आना है आये और जिसको नहीं आना हो, न आये।”
पत्नी को गिरगिट बनते देख एक पल के लिये तो बहुत गुस्सा आया फिर उसकी बुद्धिमानी समझ दोनों हाथ जोड़ मैं अपने भाग्य पर इतराने लगा।
“सब समान तो सवेरे ही ला दिया था। अब क्या छूट गया?” मैंने दिमाग पर ज़ोर देते हुए जबाब दिया।
“अरे, बाबूजी को…!”
“चुप..चुप। भगवान के लिये चुप हो जाओ।” ये आजकल के बिल्डर भी न टु बी एच के इतना छोटा बनाते हैं कि थोड़ा जोर से साँस भी लो तो दूसरे कमरे में खबर पहुँच जाती है। मैं बहुत हिम्मत कर पिताजी के पास पहुँचा। ड्रॉइंग रूम में एक चारपाई ही उनका कमरा बना हुआ था।
“पिताजी!”
“हाँ बेटा, बोलो!”
“वो आप! कुछ देर के लिये…पार्क चले जाते तो…!”
“अरे, तुम्हरा दिमाग ठीक है या नहीं। इतनी धूप में मुझे घर से बाहर भेजना चाह रहा है। क्या बात है?”
“वो दरअसल…कुछ मेहमान आने वाले हैं …तो..!”
“तो…मैं नौकर जैसा दिखता हूँ क्या? मुझे अपना बाप बताने में आपको शर्म आयेगी न! ठीक है, मैं चला जाता हूँ। लाओ मेरा बेंत दो!” उनके आँखों में आँसु देख मेरी आँखें दरिया बनने को बेकरार हो उठीं।
“नहीं पिताजी” मैंने उनका हाथ अपने हाथों में लेते हुये कहा, “दरअसल, आपको गैस की बीमारी है न! हर पाँच-दस मिनट पर जो आवाज़ निकलती है। वह मेहमानों के सामने अच्छा लगेगा क्या?”
“ओह्ह! तो यह बात है। इस उम्र में दस में से हर तीन-चार को यह बीमारी रहती ही है। अगर आने वाले मेहमान के माँ-बाप को यह बीमारी हो तो उन्हें घर से बाहर कर दिया होगा न! क्यों?” पिताजी ने मेरा हाथ छिटक दिया।
“पिताजी…पिताजी! मेरे कहने का यह आशय नहीं था।”
“मैं तेरा बाप हूँ। तेरा आशय खूब समझता हूँ।” आँसु अब उनके नियंत्रण के बाहर जा चुके थे।
इधर मैं शर्म से गड़ा जा रहा था कि किचन से आयी कड़क आवाज़ ने सबको चौंका दिया,”कहीं नहीं जायेंगे बाबुजी। जिसको आना है आये और जिसको नहीं आना हो, न आये।”
पत्नी को गिरगिट बनते देख एक पल के लिये तो बहुत गुस्सा आया फिर उसकी बुद्धिमानी समझ दोनों हाथ जोड़ मैं अपने भाग्य पर इतराने लगा।
- मृणाल आशुतोष
जन्म-एरौत(महाकवि श्री आरसी प्रसाद सिंह की पुण्य भूमि),समस्तीपुर(बिहार)।
पिताजी, चाचाजी और दादाजी शिक्षक रहे हैं।
शिक्षा-एम बी ए (मार्केटिंग) एम डी यूनिवर्सिटी रोहतक, एम ए(इतिहास) इग्नू यूनिवर्सिटी।
सम्प्रति- भरूच(गुजरात) एक मैनेजमेंट कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर पद पर कार्यरत।
प्रकाशन- दरभंगा रेडियो स्टेशन से लघुकथा और कविता का प्रसारण ।
प्रतिष्ठित लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर के सम्पादन में लघुकथा कलश महाविशेषांक सहित अनेक पत्र-पत्रिका में लघुकथा और कविता का प्रकाशन।
शौक: पुराने गीत सुनना, लघुकथा और कविता पढ़ना व उसकी समीक्षा करने की कोशिश करना