जितेन्द्र ‘जौहर’ की ग़ज़ल
ख़ुशामद का मिरे होठों पे, अफ़साना नहीं आया।
मुझे सच को कभी भी झूठ बतलाना नहीं आया।
कहीं गिरवी नहीं रक्खा, हुनर अपना कभी मैंने,
इसी कारण मेरी झोली में नज़राना नहीं आया।
भले ही मुफ़लिसी के दौर में फ़ाक़े किये मैंने,
मगर मुझको कभी भी हाथ फैलाना नहीं आया।
किसी अवरोध के आगे, कभी घुटने नहीं टेके,
मैं दरिया हूँ मुझे राहों में रुक जाना नहीं आया।
सियासत की घटाएँ तो बरसती हैं समुन्दर में,
उन्हें प्यासी ज़मीं पे प्यार बरसाना नहीं आया।
परिन्दे चार दाने भी, ख़ुशी से बाँट लेते हैं,
मगर इंसान को मिल-बाँट के खाना नहीं आया।
अनेकों राहतें बरसीं, हज़ारों बार धरती पर,
ग़रीबी की हथेली पर कोई दाना नहीं आया।
सरे-बाज़ार उसकी आबरू लु्टती रही ‘जौहर’
मदद के वास्ते लेकिन कभी थाना नहीं आया।
जितेन्द्र ‘जौहर’
समीक्षक एवं स्तम्भकार: ‘तीसरी आँख’
(त्रैमा. ‘अभिनव प्रयास’, अलीगढ़, उप्र)
(संपा. सलाहकार: त्रैमा. ‘प्रेरणा’, शाहजहाँपुर, उप्र)
(संपा. सलाहकार: ‘साहित्य-ऋचा’, ग़ाज़ियाबाद, उप्र)
(अतिथि संपा: त्रैमा. ‘सरस्वती सुमन’/मुक्तक विशेषांक, देहरादून)
(अतिथि संपादक: ‘आकार’/मुक्तक विशेषांक, मुरादाबाद, उप्र)
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Geet
धरती सोई थी
अम्बर गरजा
सुन कोलाहल
सहमी गलियां
शाखों में जा
दुबकी कलियां
बिजली ने उसको
डांटा बरजा
राजा गूंगा
बहरी रानी
कौन सुने
पीर-कहानी
सहमी सी गुम-सुम
बैठी परजा[प्रजा]
घीसू पागल
सेठ-सयाना
दोनो का है
बैर पुराना
कौन भरेगा
सारा कर्जा
2
गाँव नही अब
हमको जाना
कहकर हैं,चुप
बैठे नाना
प्रीत-प्यार की
बात कहां
कौन पूछता
जात वहां
खत्म हुआ सब
ताना-बाना
कोयल कागा
मौन हुए
संबंध सभी तो
गौण हुए
और सुनोगे
मेरा गाना
बूआ-काका
नहीं-वहां
गीदड़-भभकी
हुआं-हुआं
खूब-भला है
पहचाना
shyam..
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नगमें
१.
प्यार क्या है ? एक ख़ुशी है कभी तो है गम कभी.
है करीब तो लगे पल, हो दूर तो है सदी.
हमे यु छुआ उस पल ने की सदी का एहसास दिला गया.
है दवा जो साथ दे तो, जो हो दूर तो बन जाये दारू.
है दिन में किरण, हो रात तो चांदनी,
ना हो तो है काली बदरी, हो ना तो है अमावस्या.
हमे भी मिली थी वो दवा जो दारू में बदल गयी,
थी चांदनी हमारी रात भी, की बादल से छा गए,
एक काली घनी रात में हमे तनहा बना गए.
२.
तुम साथ होती हो तो यूँ लगता है की समय मन रूपी पक्षी पे सवार कहीं उड़ा चला जा रहा है.
मैंने समय से गुज़ारिश की, ठहर, ठहर जा मेरे दोस्त की हमदम है मेरी बाहों में.
पर उसे भी अपने मीत से मिलने की जल्दी थी, वो ना रुका, बस मुस्कुराया के आगे बढ़ गया.
अब मैं तनहा फिर समय की रहमों करम के इंतज़ार में बैठा हो.
इस उम्मीद में की वो फिर मेरे हमदम को ले आएगा.
अमित सिंह , कुवैत
अक्स
जिंदगी जीना बहुत मुश्किल है ,
जब साथ में कोई हमसफ़र न हो !
पर कभी खुद को यूँ तनहा न समझना
कहा जाता है की रिश्ते खुद ही नहीं बनते ,
जब अनजाने चेहरे को ढूंढ़ता है मन !
किसी का अक्स है दिल में …………..
तो फिर वो हमसाया भी कंही होगा ……….
आँख उठाकर देखना ,मेरा साया तुम्हारे साथ होगा !
आवाज लगाना मेरे कदम तुम्हारे साथ होंगे ,
इसे झूठ मत समझना, मेरे अहसास भी तुम्हारे दिल के पास होंगे !
लेखनी यूँ ही नहीं चलती ,
न ख़ामोशी के हर्फो से कभी गीत यूँ सजती !
अगर शब्दों में है स्पंदन
तो फिर कोई भाव भी होगा!
By reema Sharma (Singapore)