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” हिंदी एक गौरव गाथा ”

हिंदी एक ऐतिहासिक भाषा ही नहीं एक पूरा इतिहास बताने में समर्थ भाषा है . इसके अनेकों शब्द अपने आप में एक पूरी कहानी समेटे हुए हैं . इस भाषा का प्रादुर्भाव संस्कृत भाषा से हुआ है और यह सर्वमान्य तथ्य है कि संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा है . संस्कृत से ही शब्द निकला है —संस्कार . जिसमे उचित संस्कार हों वही व्यक्ति सुसंस्कृत कहलाता है . संस्कृत भाषा उत्तर भारत की सभी भाषाओं का मूल है परन्तु इसका प्रभाव दक्षिण भारत की भाषाओं पर भी भरपूर पड़ा जिसके कारण आज भारत में धार्मिक व सांस्कृतिक एकता स्थापित हो सकी .
आज कम्प्यूटर के युग में भारतीय भाषाओं को कम इस्तेमाल किया जा रहा है .यह उचित नहीं है . भारतीय शब्दों का प्रयोग करके ही हम हिंदी की समृद्धी को समझ पायेंगे . इस भाषा के शब्दों का आकलन करके हम पूरे विश्व का इतिहास लिख सकते है . जो इतिहास लिखा गया है वह सापेक्षिक है . हमने यह काम लुटेरे आगंतुकों पर छोड़ दिया . पहले मुग़ल फिर अंग्रेज . दोनों ही जातियां हमारे देश की सांस्कृतिक संपदा से अनभिज्ञ व हेठी थीं . भारत पर राज करने वाले ना स्वयं सुशिक्षित थे और न ही वह चाहते थे कि शिक्षा बनी रहे . उन्होंने अपनी उच्चता को पोषित करने के लिए भारत के इतिहास को गलीचे के नीचे बुहार दिया . इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है लॉर्ड मकॉले का भाषण जो उन्होंने ब्रिटिश पार्लियामेंट को दिया . ई० तारीख थी २ फरवरी १८३५ .
” I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar , who is a thief . Such wealth I have seen in this country ,such high moral values , people of such calibre , that I do not think we would ever conquer this country , unless we break the very backbone of this nation , which is her spiritual and cultural heritage , and , therefore, I propose that we replace the old and ancient education system , her culture , for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own ,they will lose their self esteem their native culture and they will become what we want them ; a truly dominated nation . ”
हिंदी में अनुवाद :—-

”मैंने भारत की पूरी लम्बाई और चौडाई की यात्रा की है मगर मैंने ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं देखा जो भिखारी या चोर हो . ऐसी दौलत मैंने इस देश में देखी , ऐसे उच्चादर्श ,ऐसी योग्यता कि जैसी कहीं भी नहीं देखी . मै नहीं सोचता कि हम कभी इन लोगों को जीत पायेंगे जब तक कि हम उनकी रीढ़ ही ना तोड़ दें जो कि उनकी वर्षों पुरानी संस्कृति और आध्यात्मिकता है . इसलिए मै चाहता हूँ कि इनकी शिक्षा पद्धति ही ख़तम कर दी जाय क्योंकि अगर भारतीय यह मान लें कि विदेशी वस्तुएं और सभ्यता उनसे अच्छी है तो उनका स्वाभिमान टूट जाएगा और वह वही बन जायेंगे जो हम चाहते हैं —हमारे गुलाम . ” शिक्षा संस्थाओं के उन्मूलन के साथ साथ अंग्रेजी भाषा को राजकाज की भाषा बना कर हिन्दी के वर्चस्व को कम कर दिया गया .पढने वालों को अंग्रेजी लिखना पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया जिससे उन्हें नौकरी मिल सकती थी .
इतिहास साक्षी है कि इसके बाद ही से विलियम बेंटिंक ने भारतीय रीति रिवाजों में दखल देना शुरू किया जिसके परिणाम स्वरूप जो आक्रोश जनता में फैला वह सन १८५७ तक आते आते अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया . अनेकों अन्य गवर्नर जनरलों ने इस रोष की परवाह न करते हुए जो परिवर्तन राज काज में किये उन्ही का सीधा फल निकला —- १८५७ ई० की क्रांति या भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम . स्वतंत्रता संग्राम के बाद जो एक संस्था देशी लोगों की बनाई गयी राज काज में मदद करने के लिए वह उन लोगों की थी जो अंग्रेजों के पिछलग्गू थे , अंगरेजी ढंग से रहते थे , पहनते ओढ़ते थे और अपने को अंग्रेज समझते भी थे , यह अंगरेजी बोलते थे और अपने बच्चों को अंगरेजी स्कूलों में भेजते थे , अफ़सोस भारत आज इन्ही के कटखनो पर चल रहा है . किसी देश की अस्मिता को ख़तम करना है तो उसकी भाषा को ख़तम कर दो .

पिछले तीस सालों में अंगरेजी शिक्षा का वर्चस्व बढ़ा है . इसके लिए जिम्मेदार , कुछ हद तक , शिक्षा में आरक्षण की नीति है . कोई भी नीति जनता की सेवा के लिए बनाई जाती है परन्तु भारत में नीतियां बना कर सब निश्चिन्त हो जाते हैं . उसका सही प्रयोग हो रहा है या नहीं यह देखना धरम नहीं . अतः आरक्षण की नीति केवल एक राजनैतिक हथियार बन कर रह गयी जिसके तहत वोट हासिल किये जाते हैं . शिक्षा के क्षेत्र में अनेकों पिछड़ी जातियों के विद्यार्थी केवल अपनी जाति के विशेषाधिकारों की बिना पर योग्य विद्यार्थियों के समकक्ष भरती कर दिए गए जिससे शिक्षा का स्तर गिरता गया . जो छात्र ऊंची योग्यता रखते थे उनके अभिभावक उन्हें अंगरेजी स्कूलों में ले गए जहां निजी विशेषाधिकारों के चलते संस्थाएं आरक्षण के क़ानून से बाध्य नहीं थीं . यह संस्थाएं चर्च और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा चलाई जाती रही हैं और इनमे हिंदी भाषा गौण रहती आई है . अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से और व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश के कारण भारत की आर्थिक उन्नति के साथ साथ , उपभोगवाद कुछ इस हद तक बढ़ा है कि भाषा संस्कृति आदि सब ताक पर फेंक दी गयी है . हिंदी संस्कृत और तमिल बोलने वाले पिछड़े हुए समझे जाते हैं . कबीर हों या रहीम , नानक हों या तुलसी ,सबकी छुट्टी कर दी गयी है . जिस फिल्म उद्योग ने भारत के कोने कोने में हिंदी को पहुंचाया था अब अंग्रेजी में बोलने लगा है . एक भी फिल्म किसी हिंदी या तमिल लेखक की कहानियों पर नहीं बनती . सभी अंग्रेजी की किसी पुरानी फिल्म की नक़ल होतीं हैं जो भारत से बाहर बसे भारतीयों को रोने पर मजबूर कर देतीं हैं क्योंकि नक़ल बेहद खराब होती है . एक एक शब्द करके अंग्रेजी भाषा हमारे फिल्मवाले भारत को सिखा रहे हैं ,
हमसे ही सीखकर अंग्रेजों ने बहुत तरक्की की . मगर इसे भारत के बहुत कम लोग जानते हैं .क्योंकि यह इतिहास वह नहीं पढ़ पाते . यह सब हिंदी में लिखा ही नहीं गया कभी . हमें इतिहास पढ़ाया जाता है हमारी हार का . मुग़लों का या अंग्रेजों का . नाकाम राजाओं का या भटके हुए धर्मान्धों का . . भारत ने विश्व को क्या दिया यह बहुत कम लोग जान पाते हैं क्योंकि यह सब अंग्रेजों ने अपनी भाषा में अपने नाम से लिखा . और भारत को इसकी खबर तक नहीं . कोण में cone में रखकर आइसक्रीम खाना हर हिन्दुस्तानी को आ गया .मगर किसी ने नहीं जाना कि यह कोण शब्द हमारे गणितज्ञों ने विश्व को सिखाया . त्रिकोणीय ज्यामिति trigonometry भारत में सिन्धु घाटी सभ्यता के काल से प्रचलित थी भवन निर्माण कला में ,यह कितने लोग जानते हैं .
त्रिकोण, जो triangle बन गया अंग्रेजी में, भारत की ईजाद है . इसी तरह दशमलव , इसी तरह शून्य जिसके कारण दशांश गणित का place value का आविष्कार हुआ जिसे abacas कहा जाता है . भारत के गणितज्ञों ने ही ईसा मसीह के जन्म की भविष्य वाणी की थी .
अभी हाल में बीबीसी की ओर से एक फिल्म बनाई गयी गणित के इतिहास पर . ग्रीक इतालवी . चीनी अंग्रेज आदि सबका जिक्र किया गया . आर्य भट्ट या लीलावती या रामानुजम या शकुन्तलादेवी आदि किसी का नाम नहीं लिया गया . ना बीजगणित ना रेखागणित ना त्रिकोणीय ज्यामिति .ना नाविक माप जो भारत के आविष्कार थे और सिकंदर के आगमन के बाद ग्रीस और रोम पहुंचे .

क्या है इस उपेक्षा का कारण ? क्या अंग्रेजों को ग्रीक ज्यादा प्यारे थे ? हरगिज़ नहीं . पर आधुनिक काल में धर्म एक है इसलिए मिशनरी भाईचारा जहां तक जाता है वहाँ तक मान्यता देते हैं . हम इसपर प्रतिवाद नहीं करते . उठकर कहते नहीं कि यह गलत है ,इसलिए वह अपनी पेलकर बड़े बन जाते हैं . हम खुद ही नहीं बता रहे अपने लोगों को तो उन्हें क्या पड़ी है .
क्या आपको पता है कि वेटिकन शब्द वाटिका से बना है ? कि वेटिकन में शिवलिंग स्थापित था ? कि वेटिकन में मनीषियों को बुलाया जाता था धर्म, गणित , ज्योतिष , भूगोल राजनीति आदि विषयों पर विवाद करने के लिए ? तब इस्लाम नहीं था . भारतीय धर्म व भाषा कश्यप सागर तक फैला हुआ था . आज का रूमानिया देश भारतियों का बसाया देश है . आज भी रूमानिया के लोग चर्च में ईसामसीह और माता मेरी की मूर्ती की परिक्रमा करते हैं . हाथ जोड़कर घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करते हैं . धर्म बदल गया मगर युगों से पैठे संस्कार जीवित रहे . वही हिन्दू धर्म के रिवाज . उसी के पास वारसा नामक शहर , जो पोलैंड में है , वर्षा शब्द से बना .
बी बी सी की एक और पेशकश है घड़ियों का इतिहास .कहीं भी जलघडी का उल्लेख नहीं किया . सूर्य किरण की दिशा से समय बताया जाता था . परन्तु जब वह बादलों से ढकी होती थीं तब समय बताना कठिन होता था . इसलिए हमारे देश में जल घड़ी का अविष्कार हुआ . हम लीलावती की कहानी पढ़ते हैं . लीलावती के भाग्य में विवाह सुख नहीं लिखा था . उनके पिता ने अपने समूचे ज्योतिष ज्ञान को खंगोल डाला . अंत में उन्हें एक ऐसा मूहूर्त नज़र आया जिसमे विवाह करने से अनिष्ट टल सकता था . उन्होंने एक सुयोग्य वर देखकर विवाह सुनियोजित किया . मूहूर्त तय करने के लिए उन्होंने एक कटोरे में पानी लिया और उसके पेंदे में एक बारीक सा छेद कर दिया . पानी एक निश्चित वेग से धीमे – धीमे टपकने लगा तो दुल्हन से कहा कि जब सारा पानी निकल जाय तब वरमाला पहनाना . जब मंत्र आदि पढ़े जा रहे थे तभी एक साँप मंडप में निकला और उसने वर को डस लिया . वर वहीँ मर गया . इस पर लीलावती के पिता ने देखा कि यह कैसे हुआ . उन्होंने पाया कि लीलावती की माला का एक मोती उस कटोरे में गिर गया था और वह छेंक बंद हो गया था . किसी ने ध्यान नहीं दिया . लीलावती बिना ब्याही रह गयी मगर उसने अपने पिता को वचन दिया कि वह ऐसा नाम कमाएगी कि कभी नहीं मिटेगा . कालांतर में लीलावती ने अपने पिता से गणित सीखा और वह बीजगणित की पहली विद्वान बनी . उसकी माला से जो नन्हा सा बीज कटोरे में गिरा था उसी के कारण उसके द्वारा चलाए गणित को बीजगणित कहा गया .
जलघडी का साक्ष्य आज भी हमारे मंदिरों में जीवित है . हम शिव मंदिर में शिवजी के ऊपर एक घरौन्ची के ऊपर रखे घड़े में से बूँद बूँद टपकता पानी देखते हैं . बारह बजे यह घडा खाली हो जाता है और देव शयन का समय हो जाता है . यह घडा समय बताने के लिए यन्त्र था तभी आजतक मंदिरों में इसका स्थायित्व बना हुआ है . यदि इसकी यह उपयोगिता ना होती तो यह कबका निर्वासित कर दिया गया होता . अनेकों रीति रिवाज़ समय के अंक में समा गए क्योंकि वह वैज्ञानिक नहीं थे परन्तु यह जलप्लावन केवल पत्थर के शिव का प्रक्षालन ना होकर एक जलघडी है . आज के युग में इसे कोई नहीं जानता . और हम मंदिरों की एक प्रथा के रूप में इसे बिना सवाल किये स्वीकार कर लेते हैं . बहुत संभव है की शुरू शुरू में यह पूरे समय चलता रहता हो . मंदिर का पुजारी जल ख़तम हो जाने पर दूसरा रख देता होगा . बराबर मंदिर से समय का उदघोष करता होगा . जनता के भले के लिए यह एक अनिवार्य सेवा थी जिसका उत्तरदायित्व पुजारी ही अच्छी तरह निभा सकता था .अब इन शब्दों में इस यन्त्र का प्रमाण देखिये
घट = घड़ा
घटना = कम होना
घटाना = कम करना
घटी = जो हो चुकी
घटना = जो घटी
घटित = जो वास्तव में हुआ .
यह सभी शब्द ‘ घट ‘ से प्रसूत हैं और भूतकाल के द्योतक हैं . जब घड़ा खाली हो जाता है तब उसमे से नन्न का स्वर निकलता है . अन्यथा नहीं . यदि घट में नन्न जोड़ दिया जाय तो शब्द बनता है ‘घंट ‘ यानी घंटा .
घट शब्द आम आदमी की बोली में घड़ा बनगया तो उसकी बनी घड़ी भी घड़ी कहलाई . यह एक यन्त्र था इसका दूसरा शाब्दिक साक्ष्य है गुजराती भाषा का शब्द ‘ कला ‘ . कल यानि नलका जिससे पानी निकलता है . पानी की आवाज़ को ‘ ‘ कल कल ‘ कहा जाता है . गुजराती में ‘ कला ‘ का मतलब है घंटा .
यह शब्द चूंकि संस्कृत भाषा में सदियों से उपलब्ध हैं यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पहली घड़ी जलघडी थी जो भारत में जन्मी . कदाचित रेत घड़ी भी भारत के पश्चिमी भाग में ईजाद हुई जहां पानी की किल्लत थी . रेत के निरंतर प्रवाह को उपयोग में लाकर रेतघड़ी का अविष्कार हुआ . कदाचित हमारे वंजारे इसे अरब और दूसरे देशों में ले गए .

कोई भी भाषा अगर खोली फरोली जाय तो इतिहास छन कर सामने आता है . इतिहास हमारे गौरव की गाथा है . इससे हमारा स्वाभिमान वर्धित होता है . आज के युग की पुकार है कि हम अपनी सच्ची अस्मिता को पहचानें और उसे दुनिया के सामने लायें . अगले भाग में मै अन्य कई ऐसे ही शब्दों से आपका परिचय कराऊंगी जो भारत की श्रेष्ठता को सिद्ध करते हैं .

कादंबरी मेहरा
३५ दी एवेन्यू , चीम , सरे , यूं के , एस एम् २ ७ क्यू ए

 

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हिन्दी की कहानी हिन्दी की जुबानी

हिन्दी की कठिनाइयों का अंदाजा तभी हो गया था जब संविधान सभा में हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाये जाने का विरोध करते हुए भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा –

संविधान और कानून भले ही हम हिंदी के पक्ष में बना लें लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी बनी रहेगी

तभी ये तय हो गया की हिन्दी की राह में सबसे बड़ी रुकावट हमारी मानसिकता और पूर्वाग्रह है. बहरहाल 14 सितम्बर 1949 में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा मिला और संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी को मान्यता दी गई. पर सरकार ने ये तर्क दिया की हिन्दी को पूरी तरह स्वीकार करने में भारत को कठिनाई है और ये कहके अनुच्छेद 343 (2) में कहा गया की संविधान बनने के बाद 15 वर्षो तक के लिए अंग्रेजी का ही प्रयोग होगा. एक तरफ हिंदी विरोधी स्वर और दूसरी तरफ सरकार का अंग्रेजी के प्रति अत्यधिक मोह, हिन्दी के लिए स्थितियां बहुत प्रतिकूल थी, तभी 343 (3) में कहा गया की 15 वर्षो बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत करने का अधिकार हमारे संसद को होगा और इस तरह आधे-अधूरे प्रयासों और बाधाओं के साथ हिन्दी ने आजाद भारत में कदम रखा.

1955 में बाल गंगा खैर की अध्यक्षता में पहले राजभाषा आयोग का गठन हुआ उसका प्रतिवेदन 1956 में आया. इसमें कहा गया -

(क) माध्यमिक शिक्षा तक हिंदी की अनिवार्यता,

(ख) विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी की पढाई की व्यवस्था.

(ग) प्रशासनिक कार्यो के लिए हिंदी ज्ञान की अनिवार्यता.

(घ) केंद्रीय सेवा से सम्बंधित प्रतियोगी परीक्षाओं में अनिवार्य रूप से हिंदी का समावेश, इत्यादि प्रावधानों की संस्तुति की जिनके आधार पर 1960 में उच्चतम न्यायलय की भाषा, केंद्र सरकार के स्थानीय कार्यालयों के आतंरिक कार्यो की भाषा हिंदी होने सहित कुछ महत्वपूर्ण बातें कही गईं. 1963 में बने राजभाषा अधिनियम में तय किया गया की कुछ कार्य हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओ में किये जाये, फिर राजभाषा अधिनियम 1964 में ये कहा गया की सभी राजकीय कार्यो में अंग्रेजी का प्रयोग 26 जनवरी 1971 तक होता रहेगा. कठिनाइयों में ही सही मगर हिन्दी चलती रही. 26 जनवरी 1965 को सैद्धांतिक रूप से हिन्दी को राजभाषा बनाया गया. पर इसके बाद ही हिन्दी पर राजनीती की काली छाया पड़ी. 1965 के बाद तमिलनाडु से विरोध आन्दोलन शुरू हो गया हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने के विरुद्ध. और देखते ही देखते हिन्दुस्थान में तूफान सा खड़ा हो गया. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, कर्णाटक, केरल, में भारी हिंसा हुई और सैकड़ों लोग मारे गए. भारतवासी राष्ट्र भाषा का विरोध कर रहे थे और भारत की स्वतंत्रता अपने दुर्भाग्य पर विलाप कर रही थी. हिन्दी तो मान-अपमान की सीमा से परे थी मगर ये उन लाखों आत्माओं की भावना का अपमान था जिन्होंने विभिन्न प्रान्तों से होते हुए भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने और राष्ट्र की स्वतंत्रता को गरिमामय बनाने का स्वप्न देखा था.

त्रिभाषा सूत्र—– अंततः इसी दुर्भाग्य का बहाना बनाकर 1967 में ये प्रावधान किया गया कि केंद्र सरकार और अहिन्दी भाषी राज्यों के मध्य पत्र व्यवहार में तब तक अंग्रेजी का प्रयोग होगा जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिंदी में पत्र व्यवहार करने का निर्णय स्वयं न कर ले. इस तरह त्रिभाषा सूत्र लागु किया गया. 1976 में राजभाषा से जुड़े कुछ नियम बनाये गए. इसमें राज्यों को तीन वर्गों में बाटा गया —-

‘क’ वर्ग – उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजेस्थान, हरियाणा, हिमांचल प्रदेश, दिल्ली.

‘ख’ वर्ग – पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, चंडीगढ़, व अंदमान निकोबार समूह.

‘ग’ वर्ग – इसमें बाकी के शेष राज्यों को रखा गया.

‘क’ वर्ग के राज्यों में राजकीय सेवाओं में हिंदी को वैकल्पिक माध्यम रखा गया, प्रशिक्षण केन्द्रों में हिंदी माध्यम से प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गई, हिंदी में लिखे गए पत्रों का जवाब हिंदी में देना अनिवार्य किया गया. और ये लक्ष्य रखा गया की जहां हिंदी प्रचलित है वहां हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग किया जाये, और जहां एकदम प्रचलन नहीं है वहां इसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाये, हिंदी के विकास के लिए विभिन्न मंत्रालयों में समितियां गठित की गई. पर परिणाम वही ढाक के तीन पात. न ही सरकार ने गंभीर प्रयास किये और न ही हिन्दी को पूर्ण प्रतिष्ठा मिली.

हिन्दी के शुभचिंतको में भी निराशा आई. और वे हिन्दी के भाग्य पर विलाप करते थे. कैसे अपने शैशव काल से ही हिन्दी को मुश्किलें उठानी पड़ी. पहले विदेशी भाषाओं से टकराना पड़ा और अब अपने ही घर की राजनीती से. कुछ उत्साही समर्थको ने हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर जगह दिलाने और वैश्विक भाषा बनाने का स्वप्न तक देख लिया. जब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यकारी भाषाओं में स्थान दिलाने की बात सोची गई तब हिन्दी के  मन में यही व्यथा है की पहले हिन्दी को अपने घर में तो सम्मान और प्रतिष्ठा मिले.

 

डॉ दिनेश प्रसाद

 

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“ मिस्टर “   से   “ महात्मा “

( डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, वित्त मंत्रालय भारत सरकार ;
वर्तमान पता : 15 , डोरसेट ड्राइव, अल्फ्रेडटन, विक्टोरिया 5510 , आस्ट्रेलिया
स्थायी पता : पी – 138 , एम् आई जी, पल्लवपुरम फेज़-2 , मेरठ 250 110 )

 

 

 

“ गाँधी ” उपनाम सुनते ही  आज की पीढ़ी के लोगों को राहुल गाँधी,  सोनिया गाँधी,  राजीव गाँधी,  इंदिरा गाँधी  ( जिनके पति फीरोज़ गाँधी के कारण ही यह उपनाम इस परिवार को मिला ) की याद आने लगती है, पर एक समय वह भी था जब यह उपनाम एक ऐसे महापुरुष के लिए मानों रिज़र्व था जिनका वास्तविक  नाम तो मोहन दास करमचंद गाँधी था,  पर इस देश की जनता ने जिन्हें ” महात्मा “,  ”बापू “, “ राष्ट्र पिता ” जैसे तरह – तरह के सम्मानप्रद नाम देकर अपनी श्रद्धा व्यक्त की थी . उनके जीवनकाल में अंग्रेजी समाचारपत्रों में उन्हें प्रायः ” मिस्टर गाँधी ” लिखा जाता था , अंग्रेज़ी-दां  लोगों के बीच बातचीत में भी उन्हें इसी नाम से संबोधित किया जाता था,  पर हिंदी  एवं अन्य भारतीय भाषाओं के समाचारपत्रों में उन्हें ” महात्मा गाँधी ” लिखा जाता था ,  और बोलचाल में तो लोग उन्हें केवल   ” महात्मा जी ” ही कहने लगे थे  . आइए, जानें कि उनके लिए इस संबोधन की शुरुआत कैसे हुई .

 

18 वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद गाँधी जी बैरिस्टरी की पढ़ाई करने  इंग्लैण्ड चले गए . तीन वर्ष बाद वे भारत वापस आए . लगभग दो वर्ष मुंबई और राजकोट में वकालत करने के उपरांत वे 24 वर्ष की आयु में ( सन 1893 में ) दक्षिण अफ्रीका चले गए जहाँ काफी संख्या में भारतीय रहते थे और उनमें से अधिकतर संपन्न व्यापारी थे . गाँधी जी वहां लगभग बीस वर्ष (सन 1915 तक) रहे.  यहीं रहते हुए उनके जीवन में ऐसे परिवर्तन आए जिनके कारण वे एक सामान्य  बैरिस्टर से कहीं ऊपर उठकर एक नेता, वास्तविक  अर्थ में ऐसे सच्चे नेता बन गए  जिसने अपने लिए आधुनिक  नेताओं वाली सुविधाएं जुटाने के बजाय समाज के दबे – कुचले आम आदमी के जीवन को बदल देने वाली सुविधाएं  आम आदमी को ही  उपलब्ध कराने में अपना सारा जीवन लगा दिया. भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष करने की योजना गाँधी जी ने यहीं रहते हुए बनाई . गाँधी जी जिस प्रकार की स्वतन्त्रता  देश के लिए चाहते थे , उसकी रूपरेखा  स्पष्ट करने वाली उनकी पुस्तक ” हिंद स्वराज ” की रचना भी यहीं हुई जो 1909 में प्रकाशित हुई. यहीं उन्होंने फीनिक्स आश्रम की स्थापना की जिसमें रहने वाले लोग अपने सभी काम स्वयं करते थे, फिर वह चाहे खेती का काम हो, या जूता गांठने का या मल उठाने का और यहीं टालस्टाय आश्रम बनाया जिसमें उक्त बातों के साथ ही शिक्षा सम्बन्धी वे प्रयोग किए जिनके आधार पर बाद में बुनियादी शिक्षा ( Basic Education ) का योजना बनाई गई .

 

दक्षिण अफ्रीका में उस समय अंग्रेजों का ही शासन था जो  वहां  प्रवासी भारतीयों के साथ तरह – तरह के भेदभावपूर्ण व्यवहार करते थे . डरबन कोर्ट में  एक मुकदमे की पैरवी के लिए बैरिस्टर के रूप में उपस्थित गाँधी जी से मजिस्ट्रेट का  ’ पगड़ी ‘ उतारने के लिए कहना (आज तो हमलोग अंग्रेजी संस्कृति इतनी अपना चुके हैं कि अब शायद पगड़ी का महत्व ही न समझ पाएं ) ,  या रेल में प्रथम श्रेणी का टिकट होने के बावजूद उन्हें रेल से उतार देना और सामान प्लेटफार्म पर फेंक देना  जैसे दुर्व्यवहार से तो हम परिचित हैं ही . वहां की सरकार ने भारतीयों को अपमानित करने  के लिए उन पर अनेक तरह के टैक्स लगाए और अनेक कानून बनाए . हर भारतीय को अपने फिंगर प्रिंट रजिस्टर कराना अनिवार्य कर दिया था.

दक्षिण अफ्रीका के ऐसे माहौल में  गाँधी जी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई . उन्होंने  इस प्रकार के टैक्सों और कानूनों का ‘ अहिंसात्मक ‘ ढंग से विरोध करने के लिए भारत की एक पुरानी परम्परा को अस्त्र बनाया जिसे यहाँ उन्होंने ’ सत्याग्रह ’ का नाम दिया. उनके प्रयासों से प्रवासी भारतीयों में स्वाभिमान जागा, वे संगठित हुए, और लगभग आठ वर्ष के संघर्ष के बाद गाँधी जी का यह प्रयोग सफल हुआ . दक्षिण अफ्रीका की सरकार से जब समझौता हुआ तो 13 प्रकार के टैक्स समाप्त किए गए और फिंगर प्रिंट की जगह आवास सम्बन्धी प्रमाणपत्र पर ही अंगूठे के निशान को पर्याप्त माना गया . इस सफलता ने एक ओर गाँधी जी को आत्म विश्वास से भर दिया और दूसरी ओर उनकी ख्याति दूर दूर तक फैला दी. भारत में भी उनकी यशः सुरभि राजनीतिक वातावरण को महकाने लगी.

जब यह “ सत्याग्रह आन्दोलन ” दक्षिण अफ्रीका में चल रहा था , तब इस कार्य के लिए अपेक्षित आर्थिक सहयोग जुटाने के प्रयास वहां तो किए ही जा रहे थे, भारत में भी गोपाल कृष्ण गोखले,   सी. एफ. एंडरूज़ ( गाँधी जी उनके सेवा भाव और परोपकारी स्वभाव के कारण उनके नाम के प्रारम्भिक अक्षरों का विस्तार  Christ’s Faithful Apostle  के रूप में करते थे , और बाद में ” दीनबंधु ” कहने लगे )  जैसे तत्कालीन नेता चन्दा  इकट्ठा करने में जुटे थे. इस कार्य में उन्हें विशेष सहयोग उस समय के एक और बड़े नेता स्वामी श्रद्धानंद से एवं उनके द्वारा सन 1902 में स्थापित शिक्षा की प्रसिद्ध  संस्था गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार ) के शिक्षकों और विद्यार्थियों से मिला.

जो पाठक गुरुकुल कांगड़ी  और / या स्वामी श्रद्धानंद की  विशिष्टताओं से परिचित नहीं, उनकी जानकारी  के लिए यह बताना आवश्यक है कि यह वह संस्था है जिसके बारे में ब्रिटेन के पूर्व प्रधान मंत्री ” रैम्ज़े मैक्डनाल्ड ”  ने कहा था, ” मैकाले के बाद भारत में शिक्षा के क्षेत्र में जो सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक प्रयोग (एक्सपेरिमेंट ) हुआ, वह गुरुकुल है .” संयुक्त प्रांत (वर्तमान उ. प्र.) के तत्कालीन गवर्नर  ” सर जेम्स मेस्टन ” ने गुरुकुल की कार्यप्रणाली  देखने के बाद टिप्पणी की, ” आदर्श विश्वविद्यालय  की मेरी यही कल्पना है .” और स्वामी श्रद्धानंद –  ये  वे  ही महापुरुष हैं जो उस समय कांग्रेस के एक बड़े नेता थे , जिन्होंने रौलेट एक्ट  के विरोध में 30 मार्च 1919 को चाँदनी चौक, दिल्ली में निकले जुलूस का ( जो इसी एक्ट के अंतर्गत प्रतिबंधित था ) नेतृत्व किया था, अंग्रेजों की संगीनों के सामने अपना सीना तानकर कहा था, ” ले, भोंक दे संगीन “,  पर जिनकी भव्य आकृति , रोबीली आवाज़ , और अदम्य साहस को देखकर सैनिक डर कर पीछे हट गए थे ; और इतना ही नहीं, जिन्होंने मुस्लिम समुदाय के आमंत्रण पर 4 अप्रैल 1919 को दिल्ली की जामा मस्जिद में वेद मन्त्र पढ़ कर व्याख्यान दिया था ( जी हाँ,  जामा मस्जिद में वेद मन्त्र पढ़कर व्याख्यान,  यह भारत का ही नहीं,   विश्व के इतिहास में अपनी तरह का एकमात्र उदाहरण है ), जिनके बारे में पूर्व ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर रैम्ज़े  मैक्डनाल्ड  ने कहा था, ” वर्तमान काल का कोई कलाकार भगवान् ईसा की मूर्ति बनाने के लिए यदि कोई सजीव मॉडल  चाहे,  तो मैं इस भव्य मूर्ति ( स्वामी श्रद्धानंद ) की ओर इशारा करूँगा. “   पर श्रद्धानंद नाम तो उनका तब पड़ा जब 12 अप्रैल 1917 को उन्होंने संन्यास आश्रम में प्रवेश किया. जिस समय की हम बात कर रहे हैं,  उस समय उनका नाम ” मुंशी राम ” था. वे अपने परिवार का त्याग कर चुके थे,  ” वानप्रस्थी ” का जीवन बिता रहे थे और अपना नाम ” मुंशीराम जिज्ञासु ” लिखते थे, पर लोग उनके त्यागपूर्ण और परोपकार में डूबे जीवन को देखकर उन्हें सम्मान से ” महात्मा मुंशीराम ” कहते थे.

दक्षिण अफ्रीका के ” सत्याग्रह आन्दोलन ” की सहायतार्थ भारत में चंदा इकट्ठा करने का प्रयास करने वाले दीनबंधु सी. एफ. एंडरूज़ और गोपाल कृष्ण गोखले ने अपने मित्र महात्मा मुंशीराम को अपने काम में सहयोगी बनाया. मुंशीराम जी ने गाँधी जी के काम का महत्व एवं इस आन्दोलन के लिए आर्थिक सहयोग देने की आवश्यकता अपने गुरुकुल के विद्यार्थियों / शिक्षकों को समझाई . सबने अपने भोजन में कमी करके , दूध – घी बंद करके, तथा हरिद्वार में बन रहे दूधिया बाँध पर मजदूरी करके  एक हज़ार पांच सौ रुपये इकट्ठे किए जो मुंशीराम जी ने गोखले जी के पास भेज दिए.  गोखले जी के पास यह राशि उस समय पंहुची  जब वे हताश हो गहरी चिंता में डूबे हुए थे. कहते हैं यह राशि मिलने पर गोखले जी प्रसन्नता में कुर्सी से उछल पड़े और बोले कि यह पंद्रह सौ नहीं, पंद्रह हज़ार से भी अधिक कीमती हैं . उन्होंने 27 नवम्बर , 1913 को महात्मा मुंशीराम जी को दिल्ली से हिंदी में अपने हाथ से पत्र लिखा जिसमें गुरुकुल के विद्यार्थियों और शिक्षकों की भावना और त्याग की भूरि – भूरि प्रशंसा की,  इसे देशभक्तिपूर्ण कार्य बताया,  भारत माता के प्रति कर्तव्यपालन  बताया और देश के युवकों एवं वृद्धों के समक्ष  एक आदर्श  उदाहरण बताया.

उन्होंने और श्री एंडरूज़ ने गाँधी जी को गुरुकुल के लोगों  के इस त्याग से अवगत कराया. अतः गांघी जी ने नैटाल, दक्षिण अफ्रीका  से  मुंशीराम जी को पहला पत्र अंग्रेजी में लिखा, पत्र का प्रारम्भिक अंश इस प्रकार था  :

“ प्रिय महात्मा जी,

मि. एंडरूज़ ने आपके नाम और काम का मुझे परिचय दिया है. मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मैं किसी अजनबी को पत्र नहीं लिख रहा. इसलिए आशा है कि आप मुझे ” महात्मा जी ” लिखने के लिए क्षमा करेंगे. मैं और मि. एंडरूज़ आपकी और आपके काम की  चर्चा करते हुए आपके लिए इसी शब्द का प्रयोग करते हैं…………………..”

इस प्रकार शुरू हुए पत्र – व्यवहार के माध्यम से गाँधी जी की मुंशीराम जी से निकटता बढ़ती गई . गाँधी जी ने जब भारत वापस आने  और स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन करने की योजना बनाई तो पहले अपने आश्रम के विद्यार्थियों को भारत भेजने की व्यवस्था की. अहमदाबाद में तब तक आश्रम की स्थापना का निश्चय नहीं हो पाया था. इसलिए गाँधी जी ने अपने विद्यार्थियों के लिए सर्वोत्तम स्थान गुरुकुल कांगड़ी ही तय किया . सन 1914 में ये विद्यार्थी गुरुकुल आ गए और कई महीनों तक वहीँ रहे ( बाद में  कुछ समय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में भी रहे ) . अगले वर्ष अर्थात 1915 में गाँधी जी भारत आए. उन्होंने पूना से महात्मा मुंशीराम जी को हिंदी में पत्र लिखा जिसमें अन्य बातों के साथ लिखा  :

“……….मेरे बालकों के लिए जो परिश्रम आपने उठाया और जो प्यार बतलाया उस वास्ते आपका उपकार मानने को मैंने भाई एंडरूज़ को लिखा  था लेकिन आपके चरणों में शीश झुकाने को मेरी उम्मेद है. इसलिए बिना आमंत्रण आने का भी मेरा फरज बनता है. मैं बोलपुर ( यह उस स्थान का नाम है जहाँ गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की)  पीछे फिरूं उससे पहले आपकी  सेवा में हाजिर होने की मुराद रखता हूँ ……..”

उस वर्ष 1915 में हरिद्वार में कुम्भ भी था. गाँधी जी वहां आए . गुरुकुल में  गाँधी जी ने महात्मा मुंशीराम जी के प्रति अपनी श्रद्धावश उनके चरण छूकर नमस्कार किया. यही वह पावन क्षण था जब मुंशीराम जी ने भी गाँधी जी को ” महात्मा जी ” कहकर संबोधित किया . एक महापुरुष ने जब दूसरे महापुरुष की साधना का सम्मान करते हुए उन्हें ” महात्मा ” की पदवी दी तो मानों सारा वातावरण धन्य हो उठा. और यही सम्मानसूचक शब्द देश में ही नहीं, पूरे विश्व में उनकी पहचान बन गया . गुरुकुल के विद्यार्थियों ने मौखिक रूप से कहे गए इस सम्मान को अपने उस अभिनन्दन पत्र में स्थायी रूप प्रदान कर दिया जो इस अवसर पर उन्होंने तैयार किया और गाँधी जी को सादर भेंट किया. इसमें उन्होंने गाँधी जी को ” महात्मा जी ” कहकर ही संबोधित किया. अभिनन्दन पत्र स्वीकार करते हुए गाँधी जी ने हिंदी में भाषण देते हुए कहा :

” मैं हरिद्वार केवल महात्मा जी के दर्शनों के लिए आया हूँ. मैं उनके प्रेम के लिए कृतज्ञ हूँ. मि. एंडरूज़ ने मुझको भारत में अवश्य मिलने योग्य जिन  तीन महापुरुषों का नाम बतलाया  था, उनमें महात्मा जी एक हैं. ……. मुझे अभिमान है कि महात्मा जी मुझको  ” भाई ” कहकर पुकारते हैं.  मैं अपने में किसी को शिक्षा देने की योग्यता नहीं समझता, किन्तु महात्मा जी जैसे देश के सेवक से मैं स्वयं शिक्षा लेने का अभिलाषी हूँ ………….”

 

गुरुकुल कांगड़ी की यह यात्रा गाँधी जी के लिए अविस्मरणीय बन गई . बाद में जब उन्होंने अपनी आत्मकथा ” सत्य के प्रयोग ”  लिखी , तो उसमें इस यात्रा का भी उल्लेख करते हुए लिखा ,

 

” जब मैं पहाड़ से दीखने वाले महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन करने और उनका गुरुकुल देखने गया, तो मुझे वहां बड़ी शांति मिली. हरिद्वार के कोलाहल और गुरुकुल की शांति के बीच का भेद स्पष्ट दिखाई देता था. महात्मा जी ने अपने प्रेम से मुझे नहला दिया. ब्रह्मचारी  ( गुरुकुल के विद्यार्थियों को ” ब्रह्मचारी ” कहा जाता था ) मेरे पास से हटते ही न थे. ………. यद्यपि  हमें अपने बीच कुछ मतभेद का  अनुभव हुआ , फिर भी हम परस्पर स्नेह की गाँठ में बंध गए……………मुझे गुरुकुल छोड़ते हुए बहुत  दुःख हुआ .”

 

गुरुकुल कांगड़ी में गाँधी जी के आगमन, उनके अभिनन्दन, ” महात्मा ” संबोधन, आदि के समाचार तत्कालीन समाचारपत्रों में भी छपे. जैसा गाँधी जी ने मुंशीराम जी को संबोधित पत्र में लिखा था, वे बाद में रवीन्द्र नाथ टैगोर से मिलने बोलपुर (शान्तिनिकेतन) गए जहाँ ” ब्रह्मचर्य आश्रम ” ( टैगोर ने अपने विद्यालय का यही नाम रखा था ) की 22 दिसंबर  1901 को  स्थापना हो चुकी थी, और टैगोर को उनके काव्य संग्रह ” गीतांजलि ” के टैगोर के द्वारा ही किए गए अंग्रेजी रूपांतर पर विश्व प्रसिद्ध नोबल पुरस्कार सन 1913 में मिल चुका था. अतः उनकी ख्याति भी दूर – दूर तक पहुँच चुकी थी , पर अभी तक इन महापुरुषों का संपर्क नहीं  हुआ था.   टैगोर के पास  गाँधी जी के लिए ” महात्मा ” संबोधन का सन्देश  पहुँच चुका था  जो  उन्हें गाँधी जी के व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप लगा . तभी तो जब उनकी गाँधी जी से साक्षात भेंट हुई तो उन्होंने भी गाँधी जी का अभिवादन ” महात्मा  जी ” कहकर ही  किया .  टैगोर की भव्य आकृति , बड़ी हुई दाढ़ी प्राचीनकाल के ऋषियों  की याद दिलाती  थी .  अपने ब्रह्मचर्य आश्रम के शिक्षक वे थे ही . अतः  गाँधी जी ने भी  उन्हें  ”गुरुदेव ” कहकर अपना सम्मान व्यक्त किया. दोनों ही एक – दूसरे के व्यक्तित्व से अभिभूत थे .

 

इस प्रकार गाँधी जी को  सबसे पहली बार ” महात्मा ” कहकर संबोधित करने वाले  महापुरुष थे स्वामी श्रद्धानंद ( महात्मा मुंशीराम) ,  और स्थान था गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) .  साथ ही उसे अपना समर्थन देकर संपुष्ट करने  और लोकप्रिय बनाने वाले थे स्वयं विश्वप्रसिद्ध गुरुदेव रवीन्द्र  नाथ टैगोर.  इन दोनों महापुरुषों ने गाँधी जी के प्रति जो सम्मान व्यक्त किया  उसी का परिणाम था कि कालान्तर में ” महात्मा ” संबोधन गाँधी जी के नाम का पर्याय बन गया.

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भाषा और समाज

भाषा भाष धातु से बनी है जिसका अर्थ “बोलना” होता है| कोई व्यक्ति क्यों बोलता है? अपनी अनिवार्य आवशयकता की पूर्ति के लिए वह बोलता है| व्यक्ति स्वलाप नहीं करता है|स्वलाप करने से उसकी आवशयकता की पूर्ति नहीं होगी और वह पागल भी समझा जाएगा| अतः वक्ता के सामने कोई श्रोता का होना आवश्यक है| इस प्रकार वक्ता और श्रोता का अनिवार्य सम्बन्ध स्थापित होता है| इसी वक्ता और श्रोता के सम्बन्ध से परिवार और समाज का निर्माण होता है|

 

वक्ता और श्रोता में अनुकूल योग्यता और क्षमता का होना आवश्यक है| वक्ता कभी अनाव्यशक   नहीं बोलता है| जब उसे बोलने की उत्प्रेरणा होती है, तब वह बोलता है| व्यक्ति का  उसकी उत्प्रेरणा की प्रतिक्रिया है| अर्थात व्यक्ति की उत्प्रेरणा —à प्रतिक्रिया ही बोलना है, भाषायिक अभिव्यक्ति है| इसे सुनकर श्रोता भी उत्प्रेरित हो जाता है और अनुकूल प्रतिक्रिया करता है| वक्ता की अभिव्यक्ति को सुनने के बाद भी श्रोता द्वारा कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उसका अर्थ यह है की वक्ता ने श्रोता की योग्यता और क्षमता के जाने बिना अपनी बात उसके सामने रख दी| जैसे एक प्यासा व्यक्ति किसी श्रोता से पीने के लिए एक गिलास पानी माँगे तो श्रोता उसे सुनकर उत्प्रेरित हो जाता है और प्रतिक्रिया स्वरुप एक गिलास पानी उस व्यक्ति को दे देता है| यदि श्रोता सुनकर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है, चुपचाप बैठा रह जाता है तो माना जाएगा की उस श्रोता में श्रोता होने की अनुकूल योग्यता और क्षमता नहीं थी| अतः इसमें श्रोता से कोई भूल नहीं हुई| इस भाषा व्यवहार में वक्ता द्वारा भूल हुई कि वह अनुकूल योग्यता और क्षमता वाले श्रोता का चयन नहीं कर सका| सामाजिक भाषा-व्यवहार में वक्ता को अपने वार्तालाप, संभाषण, भाषणों आदि में इसका ध्यान रखना पड़ता है कि उसका श्रोता किस योग्यता और क्षमता वाला है| इस तथ्य को इस आरेख द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है

वक्ता ( उत्प्रेरणा à प्रतिक्रिया ) à श्रोता ( उत्प्रेरणा à प्रतिक्रिया ) = भाषा  व्यवहार

अतः स्पष्ट है कि समाज में इस भाषा  व्यवहार के लिए वक्ता और श्रोता के मध्य अनुकूल योग्यता और क्षमता का होना अनिवार्य हैं| वक्ता कुछ बोले और श्रोता उसे कुछ  और ही समझ ले तो बहुत गड़बड़ी और हानि होने की सम्भावना है|

 

वक्ता हमेशा श्रोता की योग्यता, क्षमता, रूचि, उम्र, सामाजिकता, संस्कृति आदि को ध्यान में रखते हुए बोलता है| वक्ता सब से पीने का पानी नहीं मांग सकता और न वह सबसे अपनी प्यार की बातें करेगा| इस तथ्य को ध्यान में न रखते हुए यदि श्रोता अपनी बात समाज  के समक्ष रखता है  तो समाज उसे केवल तिरस्कृत  ही नहीं करता, कभी कभी उसे दंड भी देता है|

भाषा एक सामाजिक व्यवस्था है| समाज ही भाषा के व्यवहार, भाषा के रूप. तथा उसकी उचारानिक  , व्याकरणिक तथा अर्थगत एवं लिपिगत संरचनाओं  का नियम – निर्धारण करता है| भाषा सम्बन्धी इन नियमो का पालन करना उस समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य होता है| समाज जितना बड़ा होता है, उसकी भाषिक क्षमता भी प्रायः उतनी ही व्यापक हुआ करती है| हिंदी समाज आज विश्व के विभिन्न मुल्को में अपना विस्तार ले रहा है| विभिन्न मुल्को की भाषाओ के मेल जोल से हिंदी और भी समृद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं है|

भारतीय समाज हमेशा से ‘विश्व – बंधुत्व’ की भावना से प्रेरित रहा है| प्राचीन काल से ही भारतीय वांग्मय में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की ध्वनी गूंजती रही है| आज हिंदी अन्तराष्ट्रीय समाज में अपना विस्तार ले रही है| हिंदी में विश्व की सामाजिक संस्कृति को अभिव्यक्त करने की क्षमता है| आइए, हम सब मिलकर गंगा, यमुना के स्वरों की भांति थेम्स, वोल्गा और हुवांगो के कल-कल नाद को हिंदी के स्वन - स्वनिमो  से गुंजायमान कर दें|

 

राम कृपाल कुमार

५८/९, गणेश नगर, लायेर्स कालोनी

आगरा – ५

भारत

 

 

 

 

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