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राजभाषा हिंदी की व्यथा:

हिन्दी की कठिनाइयों का अंदाजा तभी हो गया था जब संविधान सभा में हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाये जाने का विरोध करते हुए भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा –

संविधान और कानून भले ही हम हिंदी के पक्ष में बना लें लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी बनी रहेगी

तभी ये तय हो गया की हिन्दी की राह में सबसे बड़ी रुकावट हमारी मानसिकता और पूर्वाग्रह है. बहरहाल 14 सितम्बर 1949 में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा मिला और संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी को मान्यता दी गई. पर सरकार ने ये तर्क दिया की हिन्दी को पूरी तरह स्वीकार करने में भारत को कठिनाई है और ये कहके अनुच्छेद 343 (2) में कहा गया की संविधान बनने के बाद 15 वर्षो तक के लिए अंग्रेजी का ही प्रयोग होगा. एक तरफ हिंदी विरोधी स्वर और दूसरी तरफ सरकार का अंग्रेजी के प्रति अत्यधिक मोह, हिन्दी के लिए स्थितियां बहुत प्रतिकूल थी, तभी 343 (3) में कहा गया की 15 वर्षो बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत करने का अधिकार हमारे संसद को होगा और इस तरह आधे-अधूरे प्रयासों और बाधाओं के साथ हिन्दी ने आजाद भारत में कदम रखा.

1955 में बाल गंगा खैर की अध्यक्षता में पहले राजभाषा आयोग का गठन हुआ उसका प्रतिवेदन 1956 में आया. इसमें कहा गया -

(क) माध्यमिक शिक्षा तक हिंदी की अनिवार्यता,

(ख) विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी की पढाई की व्यवस्था.

(ग) प्रशासनिक कार्यो के लिए हिंदी ज्ञान की अनिवार्यता.

(घ) केंद्रीय सेवा से सम्बंधित प्रतियोगी परीक्षाओं में अनिवार्य रूप से हिंदी का समावेश, इत्यादि प्रावधानों की संस्तुति की जिनके आधार पर 1960 में उच्चतम न्यायलय की भाषा, केंद्र सरकार के स्थानीय कार्यालयों के आतंरिक कार्यो की भाषा हिंदी होने सहित कुछ महत्वपूर्ण बातें कही गईं. 1963 में बने राजभाषा अधिनियम में तय किया गया की कुछ कार्य हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओ में किये जाये, फिर राजभाषा अधिनियम 1964 में ये कहा गया की सभी राजकीय कार्यो में अंग्रेजी का प्रयोग 26 जनवरी 1971 तक होता रहेगा. कठिनाइयों में ही सही मगर हिन्दी चलती रही. 26 जनवरी 1965 को सैद्धांतिक रूप से हिन्दी को राजभाषा बनाया गया. पर इसके बाद ही हिन्दी पर राजनीती की काली छाया पड़ी. 1965 के बाद तमिलनाडु से विरोध आन्दोलन शुरू हो गया हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने के विरुद्ध. और देखते ही देखते हिन्दुस्थान में तूफान सा खड़ा हो गया. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, कर्णाटक, केरल, में भारी हिंसा हुई और सैकड़ों लोग मारे गए. भारतवासी राष्ट्र भाषा का विरोध कर रहे थे और भारत की स्वतंत्रता अपने दुर्भाग्य पर विलाप कर रही थी. हिन्दी तो मान-अपमान की सीमा से परे थी मगर ये उन लाखों आत्माओं की भावना का अपमान था जिन्होंने विभिन्न प्रान्तों से होते हुए भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने और राष्ट्र की स्वतंत्रता को गरिमामय बनाने का स्वप्न देखा था.

त्रिभाषा सूत्र—– अंततः इसी दुर्भाग्य का बहाना बनाकर 1967 में ये प्रावधान किया गया कि केंद्र सरकार और अहिन्दी भाषी राज्यों के मध्य पत्र व्यवहार में तब तक अंग्रेजी का प्रयोग होगा जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिंदी में पत्र व्यवहार करने का निर्णय स्वयं न कर ले. इस तरह त्रिभाषा सूत्र लागु किया गया. 1976 में राजभाषा से जुड़े कुछ नियम बनाये गए. इसमें राज्यों को तीन वर्गों में बाटा गया —-

‘क’ वर्ग – उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजेस्थान, हरियाणा, हिमांचल प्रदेश, दिल्ली.

‘ख’ वर्ग – पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, चंडीगढ़, व अंदमान निकोबार समूह.

‘ग’ वर्ग – इसमें बाकी के शेष राज्यों को रखा गया.

‘क’ वर्ग के राज्यों में राजकीय सेवाओं में हिंदी को वैकल्पिक माध्यम रखा गया, प्रशिक्षण केन्द्रों में हिंदी माध्यम से प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गई, हिंदी में लिखे गए पत्रों का जवाब हिंदी में देना अनिवार्य किया गया. और ये लक्ष्य रखा गया की जहां हिंदी प्रचलित है वहां हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग किया जाये, और जहां एकदम प्रचलन नहीं है वहां इसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाये, हिंदी के विकास के लिए विभिन्न मंत्रालयों में समितियां गठित की गई. पर परिणाम वही ढाक के तीन पात. न ही सरकार ने गंभीर प्रयास किये और न ही हिन्दी को पूर्ण प्रतिष्ठा मिली.

हिन्दी के शुभचिंतको में भी निराशा आई. और वे हिन्दी के भाग्य पर विलाप करते थे. कैसे अपने शैशव काल से ही हिन्दी को मुश्किलें उठानी पड़ी. पहले विदेशी भाषाओं से टकराना पड़ा और अब अपने ही घर की राजनीती से. कुछ उत्साही समर्थको ने हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर जगह दिलाने और वैश्विक भाषा बनाने का स्वप्न तक देख लिया. जब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यकारी भाषाओं में स्थान दिलाने की बात सोची गई तब हिन्दी के  मन में यही व्यथा है की पहले हिन्दी को अपने घर में तो सम्मान और प्रतिष्ठा मिले.

दिनेश प्रसाद ,

हिंदी ऑफिसर , इंडियन स्कूल ऑफ़ माँइन्स ,

धनबाद, भारत

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