एक दीये का अकेले रात भर का जागना..
सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना !
सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच
फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !
फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।
राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?
सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !
क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी
दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ।
हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना ! [ताज़ीम – इज़्ज़त, आदर
आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ?
किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना !
- सौरभ पाण्डेय
जन्मतिथि : 3 दिसम्बर
शिक्षा : बी.एस.सी (गणित), डिप. इन सॉफ़्टवेयर, डिप. इन एक्स्पोर्ट मैनेजमेण्ट, एमबीए.
पुस्तकें : परों को खोलते हुए शृंखला (सम्पादन), इकड़याँ जेबी से (काव्य-संग्रह), छन्द-मञ्जरी (छन्द-विधान)
प्रकाशन : राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं तथा ई-पत्रिकाओं में, अनेक सम्पादकों के संकलन में रचनाएँ सम्मिलित.
सम्बद्ध मंच : प्रबन्धन सदस्य, ई-पत्रिका ओपनबुक्सऑनलाइन; सदस्य, प्रमर्शदात्री समूह, विश्वगाथा (त्रैमासिक)
पता : नैनी, इलाहाबाद (उप्र)