ग़ज़ल – राजन स्वामी

१ .
अधूरेपन का मसला ज़िन्दगी भर हल नहीं होता
कहीं आंखें नहीं होतीं , कहीं काजल नहीं होता
कहानी कोई भी अपनी भला कैसे करे पूरी
किसी का आज खोया है , किसी का कल नहीं होता
रहे आदत पसीना पोंछने की आस्तीनों से
मयस्सर हर घड़ी महबूब का आँचल नहीं होता
अजब है दिल्लगी कि सौ बरस की ज़िन्दगी में भी
जिसे दिल ढूंढता है , बस वही इक पल नहीं होता
सभी से तुम लगा लेते हो उम्मीद - ए - वफ़ा लेकिन
लिए पैगाम सावन का हरेक बादल नहीं होता
२ .
आड़ी-तिरछी, खट्टी - मीठी , कड़वी-खारी बातें हैं
करना चाहो तो इस दिल में कितनी सारी बातें हैं
मुद्दत बाद मिले जब तुम से , तो ऐसा महसूस हुआ
हमको भूल चुके हो ,लेकिन याद हमारी बातें हैं
ज़रा -ज़रा सी बातों ने जन्मों के रिश्ते तोड़ दिए
ऐसा लगता है जैसे रिश्तों पर भारी बातें हैं
जाने कितने रूप लिए बातें इतराती फिरती हैं
ठंडी ठंडी मरहम बातें , तेज़ कटारी बातें हैं
जब -जब बिगड़ी बात , हमेशा बातों पर इलज़ाम लगे
कड़ी कठघरे में हरदम ,कितनी बेचारी बातें हैं
३ .
हमसफ़र मिलते नहीं हैं हर सफ़र के वास्ते,
हर ख़ुशी होती नहीं है हर बशर के वास्ते.
आपने पत्थर की मीनारें उग  दीं हर तरफ़ ,
मैं ज़मीं लाऊँ कहाँ से अब शजर के वास्ते?
हैं मयस्सर सैंकड़ों फ़ानूस महलों के लिए,
इक दिया भी तो नहीं है खंडहर के वास्ते.
दाल-रोटी पर टिकी है ज़िन्दगी माना ,मगर,
दाल-रोटी ही नहीं काफ़ी बसर के वास्ते.
रेल,बिजली,कारख़ाने तो जुटा  लाए हो तुम,
अब ज़रा तहज़ीब ले आओ शहर के वास्ते.

४ .
अपनेपन की तक़रीरों के सच तक जाना मुश्किल है,
कौन भला है,कौन बुरा है, तय कर पाना  मुश्किल  है.
फैल चुकी है चप्पे-चप्पे ख़ुद गरज़ी की नागफनी,
इन रिश्तों की पगडंडी पर अब चल पाना मुश्किल  है.
बच्चों के अरमानों का क़द मेरी हद को लांघ गया,
अब मेरा अपने ही घर में आना-जाना मुश्किल  है.
जो आसानी से मिल जाए, क्यों उसको बिसराकर दिल,
उसके पीछे चल पड़ता है,जिसको पाना मुश्किल  है.
हां, यह सच है,दिल में उलझन हो तो मुश्किल होती है,
यह भी सच है, हर उलझन को सुलझा पाना मुश्किल  है.

५ .
रिश्ता बदन से रूह का लो टूटने लगा,
जो कुछ यहाँ मिला था,यहीं छूटने लगा .
कोई थकान थी नहीं,जब तक सफ़र में था,
मंज़िल जो मिल गई तो बदन टूटने लगा .
जब तक मैं ग़ैर था,वो मनाता रहा मुझे,
मैं उसका हो गया तो वही रूठने लगा .
इस दौर के रिवाज को मैं कैसे तोड़ दूं !
कहकर कहार पालकी को लूटने लगा .
आँखों की मय कहाँ गई?वो ज़ुल्फ़ क्या हुई?
कैसे सवाल आईना अब पूछने लगा!

६ .
बुझा-बुझा सा है मेरे नसीब-सा मौसम,
लगे है इसलिए शायद अजीब-सा मौसम.
चली हैं आरियाँ जब से जवां दरख्तों  पर,
लगा है काँपने इक अंदलीब-सा मौसम.
जहाँ से बेख़बर , मौसम को देखते हो जब,
लगे है उस घड़ी हमको रक़ीब -सा मौसम.
हरेक शख़्स ने क़ुदरत को इस क़दर लूटा,
कभी अमीर था, अब है ग़रीब -सा मौसम.
गुलों से दोस्ती, यारी करो बहारों से,
मिलेगा तुमसे गले फिर हबीब-सा मौसम.

- राजन स्वामी
जन्म: 23 मई ( मेरठ )

शिक्षा: बी०ए०, एल०एल०बी०

आजीविका: अधीक्षक, केंद्रीय वस्तु एवं सेवाकर ( भारत सरकार के आधीन राजपत्रित अधिकारी )

साहित्यिक यात्रा: पैंतीस  वर्षों से हिंदी/उर्दू कविताओं ,ग़ज़लों का सृजन

‘आजकल’, ‘साहित्य अमृत’, ‘उत्तर प्रदेश’ , ‘वागर्थ’ , ‘वनिता’ आदि पत्रिकाओं में रचना प्रकाशन

एक ग़ज़ल संग्रह , एक काव्य संग्रह  एवं दो सम्पादित काव्य संग्रह प्रकाशित

सन 2011  में  इंडियन आयल कारपोरेशन गुजरात द्वारा आयोजित अखिल भारतीय काव्य प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार

अन्य: गत बीस वर्षों से वास्तु शास्त्र  के क्षेत्र मे। लगभग दो वर्षों तक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक ’हिंदुस्तान’(मेरठ) के वास्तु स्तंभकार  के रूप में  पाठकों की वास्तु जिज्ञासाओं का समाधान

वास्तु और फेंगशुई पर दो पुस्तकें प्रकाशित

संपर्क: स्वर्ण विला, पांडव नगर, मेरठ-250001 (उ ० प्र ० )

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