१ .
ज़िन्दगी तू बता आज़माऊँ किसे
जाम या फिर क़लम अब उठाऊँ किसे
तुझको रग़बत नहीं मेरे फन से अगर
अपने अल्फ़ाज़ आखिर दिखाऊँ किसे
इक तरफ मेरा एह्सास सोया है और
इक तरफ रिश्ते पहले जगाऊँ किसे
क्या मुहब्बत भी है और शर्तें भी हैं
ये बता दोनों में मैं निभाऊँ किसे
मेरे दिल में है सैलाब जज़्बात का
खुद को या अपनी ग़ज़लें छुपाऊँ किसे
तेरे नग़मे या मेरी ग़ज़ल आख़िरश
मुझको तड़पाएँ मैं गुनगुनाऊँ किसे
पास जो है वही दूर भी है ‘शकूर’
क्या मेरे दिल में है ये बताऊँ किसे
रग़बत- दिलचस्पी,
२ .
न ढूँढें अहल-ए-नज़र रेग्ज़ार कितने हैं
मेरी ग़ज़ल में, फ़क़त संगो-ख़ार कितने हैं
तुम्हारा अपने ख़यालों पे इख़्तियार नहीं
तुम अपने सर पे तो देखो सवार कितने हैं
न गिन हजूम में शामिल सरों को मेरे दोस्त
ये देख इनमें तेरे ग़मगुसार कितने हैं
पहुँच सका न कोई रास्ता किसी मुक़ाम तलक
इक और ढूँढ यहाँ रहगुज़ार कितने हैं
तमाम कर्ज़, गरीबी, ये सूखे के हालात
तुम्हारी जाँ के लिये रसन-ओ-दार कितने हैं
ये जानकर भी हुनर उनका बेनक़ाब हुआ
पता है सबको कि वो शर्मसार कितने हैं
लुटेरे शहर में कितने हैं मसअला ये नहीं
पता करें कि यहाँ शहरयार कितने हैं
३ .
दर्द-ए-दिल का इस तरह हमने मुदावा कर लिया
मून्द कर आँखें तसव्वुर बस तुम्हारा कर लिया
खूब यह तरकीब थी तारीक़ियों से लड़ने की
चाँद को मेह्माँ किया घर में उजाला कर लिया
मुल्क के हर मसअले में अपना दख्ल इतना ही है
चिलमनें खींची दरीचे से नज़ारा कर लिया
बस तेरी चाहत के सदके में ऐ मेरी हमनफ़स
इक दफा फिर मैंने जीने का इरादा कर लिया
दर्द को हमने समेटा अपनी थाली में ‘शकूर’
सर झुकाकर अपने ही ग़म को निवाला कर लिया
४ .
शाम के मद्धम उजालो में वो डर का जागना
मेरी किस्मत में लिखा है उम्र भर का जागना
खामुशी से जुल्म का कब हो सका है एहतिजाज
देखना बाकी है अब सोए नगर का जागना
जब भी वापस लौटता हूँ, देखता हूँ मैं फ़क़त
एक तनहा शाम के साए में घर का जागना
काश देखा होता तुमने मेरे चेहरे पर कभी
राह तकती दूर तक बेबस नज़र का जागना
याद है वो सर्दियों की नर्म रातें और फिर
चाय की वो चुस्कियाँ लेकर सहर का जागना
एहतिजाज- प्रतिरोध करना
५ .
दो खेतों के बीच ज़मीं बंजर क्यों है
सड़कों, घर, बस, कारों में दफ़्तर क्यों है
जीने के अवसर कम होते जाते हैं
बढ़ती उम्र में गिरता जीवन स्तर क्यों है
ऊँचे-ऊँचे महलों की तामीर करे जो
मज़दूर बताओ वो ही बेघर क्यों है
गाड़ी, बँगले, रुत्बे के पीछे भागा
अब पूछे जिस्म आखिर ये जर्जर क्यों है
नींद न आये धन के पीछे रातों को
लालच आखिर सेहत से ऊपर क्यों है
लोहे के खरपतवार उगे खेतो में
मत पूछो ऊपर तपता अम्बर क्यों है
मुँह फाड़े छुपकर बैठे हैं लोग यहाँ
मुल्क़ अपना मगरों वाला पोखर क्यों है
६.
तुम्हारी याद में इक रात रुखसत और हो जाती
तो फिर दुनिया के कहने को हिक़ायत और हो जाती
मेरी जाँ को ऐ मालिक तूने बख़्शी नेमतें क्या-क्या
बस उनके दिल में भी पैदा बसीरत और हो जाती
नहीं रहता निशाँ तक मेरे घर का ऐसा लगता है
अगर मुँह खोलने की इक हिमाक़त और हो जाती है
मैं अपनी ज़िन्दगी तो जी चुका ये इल्तिज़ा है अब
मेरे लख़्त-ए-जिगर पर तेरी रहमत और हो जाती
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं हमें लम्हात जीने को
न कहना ये कि जी लेते जो फुर्सत और हो जाती
हिकायत- कहानी, बसीरत- दृष्टि,
७.
किस ओर जाएँ हम कि हमें रास्ता मिले
फ़िरक़ापरस्ती का न कहीं फन उठा मिले
नाज़ुक है मसअला ये अक़ीदत का दोस्तो
हैरत न होगी तुमको अगर बद्दुआ मिले
दिल सामयीन का अभी इतना बड़ा नहीं
सच कहने पर न आपका ही सर झुका मिले
ख़्वाहिश नहीं रही मुझे महलों की ऐ ख़ुदा
बस ज़ेरे-आसमाँ तेरा ही आसरा मिले
ढहने लगी इमारतें, ढहने लगा अदब
ऐसा न हो कि मलबे में तू भी दबा मिले
धरती थमी-थमी है फलक भी झुका-झुका
किस मोड़ पर न जाने कज़ा मुझसे आ मिले
इंसान खो गया कहीं आभासी दुनिया में
अब तर्जनी से अपनी, सुकूँ ढूँढता मिले
फ़िरक़ापरस्ती- सम्प्रदायवाद, अक़ीदत- श्रद्धा, सामयीन- श्रोता
ज़ेरे- आसमाँ- आसमाँ के नीचे, अदब- साहित्य
८.
कोई साया ही न था मैं रुकता कहाँ
हाल मेरा तुमने भी समझा कहाँ
आँसू पीने के लिए अभिशप्त है
उसकी किस्मत में भला रोना कहाँ
जिस्म को सीपी कहते हो, मगर
मोती तुमने अब तलक ढूँढा कहाँ
रब महज बुतखाने तक सीमित नहीं
वो कहाँ है और तू बैठा कहाँ
लहरों ने साहिल पे ला पटका उसे
कूदकर सागर में भी डूबा कहाँ
मैं मुकम्मल हूँ खुद अपने आपमें
मैं कहाँ, तुम और ये दुनिया कहाँ
लौट आता है यहीं हर रास्ता
ऐ खुदा लाकर मुझे छो़ड़ा कहाँ
- शिज्जु शकूर
पता: हिमालयन हाइट्स, डूमरतराई, रायपुर, छत्तीसगढ़
जन्मस्थान: जगदलपुर (छत्तीसगढ़)
लेखन की विधायें: ग़ज़ल, अतुकांत, दोहे
साहित्यिक गतिविधियाँ: ओपेन बुक्स आनलाईन डॉट कॉम में कार्यकारिणी सदस्य,
प्रकाशन: ग़ज़ल संग्रह “ज़िन्दगी के साथ चलकर देखिये”