(1)
प्रवाह तीव्र उत्कण्ठ,
आतुर बिखेरने को सब कुछ
समेटा नहीं अपने में कुछ
किनारे तिलक लगाता पंडा
घाट पर बैठा पुजारी
अंजुली में बटोरने का करता प्रयास
आता हाथ अस्थियों से निकला सिक्का
साथ चुम्बक लगा बटोरता लड़का
सैनिक सा सचेत
समर्पण मुद्रा सा प्रवाह
निर्लिप्त गंगा, पर परित्यक्त नहीं
(2)
चप्पल उतारवाते लोग
रसीद लिए दान मांगते
इंकार सुनते, गेरूए होते
धूसर रंग कल-कल बहता
तर्पण, दीये, पिंड, गेंदें के फूल
ट्यूब, आत्मा, नज़र, पाप
धूसर के साथ गड़मड़ हो रहे
(3)
पानी रुकता नहीं पसीना भी घुल रहा है
बू कहीं नहीं
पुलिस की टुकड़ी नहीं कहीं
प्रेत नहीं घुमा रहा बाण
हिलती नहीं झोपड़ी
पूड़ी तब भी तली जा रही
चील उड़ रही है
आँगन अब नहीं है
पुल है, घाट है, भीड़ है, बीड़ी है
हिरनी आग से भयभीत नहीं है
आरती, प्रज्जवलन शीर्ष पर है
(4)
पवन, धारा प्रवाहित है
बढ़ रही लाठी टेकती बुढ़िया
बच्चे बैग लटकाए यूनीफार्म डाले जा रहे हैं
घोसलों से पँक्षी उतर रहे हैं
चाय की केतली भाप छोड़ रही है
चलने को आतुर है, छाती से चिपका लाड़ला
सुकुमार रूपसी असहज है
छिपता नहीं बदन
(5)
बहती कहीं पसीने की धारा
तो कहीं गेंदा बन सिमटती गंगा में
सिक्के को लगातार बटोरते जा रहे हैं
कलम छिटक गई है
गली का शोर जगा नहीं पा रहा
टिमटिमा रहे हैं अक्स, पर मौन
कलरव भी नहीं
कान सुन्न दिमाग क्लांत
आवाज़ तो है, पर आवाज़ नहीं
पानी तो है, पर पानी नहीं
धार तो है, पर धारा नहीं
बीड़ी अभी भी सुलग रही है
पीछा है, आहटों का
भगता जैसा झूमना घातक होगा
दूर निकल गई चाहते, रोकते
उस पार, दूर पेड़ से
टूटकर पत्ता गिरा छप से
आवाज़ कोई सुन न सका
- संजय अलंग
जन्म स्थान : भिलाई
प्रकाशित पुस्तकें: क. छत्तीसगढ़ की पूर्व रियासतें और जमीन्दारियाँ
ख. छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ और जातियाँ
पुस्तक संकलन, जिनमें लेखक/रचनाकार के रूप में रचनाएँ सम्म्मलित:-
क. कविता छत्तीसगढ़
ख. हिन्दी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवें सदी तक (प्रगतिशील वसुधा)
कविता प्रकाशन: राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिकाओं और पत्रों में
सम्प्रति: भारतीय प्रशासनिक सेवा