शांता ने मुझे खाने पर बुलाया है। मेरा चार हफ़्तों का भारतवास लगभग समाप्ति पर है। मगर उसने बहुत ज़ोर देकर आग्रह किया है कि मैं बिना उसे सेवा का मौका दिए वापिस न चली जाऊं। दरअसल उसने मेरे सम्मान में अपने सभी कंपनी वालों को बुलाया है।
मैं इस बार अपने भारतवास में स्वस्थ न रह सकी। गन्ने का रस पीने की अदम्य इच्छा ने सारा मज़ा ही किरकिरा कर दिया। ऐसी संग्रहणी हुई कि फिर कुछ खा पी न सकी। पूरे समय उबला पानी और गोलियां निगलनी पड़ीं। अभी भी तबियत सम पर नहीं आई है। मगर शांता का अनुग्रह टालना कठिन बात है।
शांता मेरी ननद अर्चना की सहेली है। उसका पति विश्वनाथ झा और अर्चना का पति रासबिहारी घोषाल एक ही कंपनी ” बोस एंड ठकोर लिमिटेड ” में काम करते हैं। तीन मॉस पहले वह बच्चों की छुट्टियों में लंदन आई थी। जिनके घर ठहरी थी ,वहां बच्चो को अच्छा नहीं लगा। लंदन में आप जानते हैं महँगाई कितनी है। और शांता के दोनों नवयुवा बच्चे लंदन की हर अच्छी वस्तु खाना पाना चाहते थे। बात बात पर जूस , डेलिकेटेसन ,चोकोलेट , आदि के खर्चे हर कोई नहीं उठा सकता। कंपनी के खर्चे पर गुलछर्रें उड़ाने वाला शांता परिवार मितव्ययिता की भाषा नहीं समझता।
मेरी ननद उन दिनों मेरे पास लंदन ही आई हुई थी यह जानकार शांता उससे मिलने आई। दोनों की प्रगाढ़ मैत्री देखकर मैंने उसे भी अपने ही घर ठहरने का निमंत्रण दे दिया। बच्चों के स्कूल खुलनेवाले थे इसलिए वह तो अगले दिन ही वापस चले गए मगर शांता को हमने रोक लिया।
वह दोनों सखियाँ सुबह शॉपिंग के लिए निकल पड़तीं। सेल्फ्रिजेस हो या हैरड्स या हर्वि निकल्स , एक बार जो अंदर घुसतीं थीं तो मैनेजर के निकालने पर ही बाहर आतीं। ढूह के ढूह शॉपिंग बैग उन दोनों ने जमा कर लिए। मैंने बरजा ,
” अरे इतना ले जा सकोगी ? ”
” हमें क्या ? कंपनी वाले अपने आप भुगतान करेंगे। ”
दोनों मस्तानियाँ ,एकदम बेफिक्र।
अर्चना का पति रासबिहारी उन दिनों बैंकॉक से कंप्यूटराइज्ड मशीनरी खरीदने गया हुआ था। मशीन खरीदने के साथ ही उसको चलाने की ट्रेनिंग भी उसे लेनी थी अर्चना सात आठ महीने अकेली रहकर क्या करती। उसके बच्चे दार्जिलिंग में पढ़ते थे। अतः उसने लंदन आने का मन बना लिया। घरों की अंदरूनी सज्जा का विषय लेकर वह डिप्लोमा करने के लिए वयस्कों के कॉलेज में दाखिल भी हो गयी।
मगर रासबिहारी? अब मैं अपने मुँह से क्यों कहूँ। जो है सो है !
अर्चना ने भरसक चेष्टा की थी कि किसी को पता न चले कि उसका पति उसे अपने संग बैंकॉक नहीं ले गया। और नहीं तो क्यों नहीं ले गया। पुरुष वर्ग में सबको पता है कि जब उम्र जवान होती है और पैसा अथाह होता है तो बैंकॉक या हाँग काँग से बढ़कर ऐश दुनियाभर में कहीं नहीं। कंपनियों के गुमाश्ते खर्चा पैसा कंपनी के खर्चे में दिखाते हैं और जी भर के रंग रास के मज़े लूटते हैं। कंपनियों का क्या ? जनता से शेयर में पैसा लगवा कर आये दिन घाटा दिखा देती हैं। रासबिहारी को बस वही सब चाहिए था।
यह बात और है कि उसने श्री प्रफुल्ल बनर्जी की एकलौती कन्या अर्चना बनर्जी से प्रेम विवाह किया था। कारण ? उस समय पूरे उत्तर भारत में अर्चना की टक्कर की कोई और नर्तकी नहीं थी। तीन साढ़े तीन घंटे मंच पर कत्थक का प्रदर्शन करना उसके लिए आम बात थी। प्रत्येक सांस्कृतिक आयोजन में वह बुलाई जाती थी। जब वह पुरस्कार लेकर मंच से उतरती ,रासबिहारी अपने मित्र समूह के साथ दर्शकों की अगली पंक्ति में विराजमान होता। और ज़ोर शोर से उसकी अभ्यर्थना कर रहा होता। सब उसकी दीवानगी पर हँसते। लगभग जबरदस्ती , अर्चना को लाज से सिमटते देखने के लिए, वह मँहगा सा गुलदस्ता ,सबके सामने उसे भेंट करता।
तीन साल तक रासबिहारी ने हमारे घर के चक्कर लगाए। हर मित्र हर रिश्तेदार से ज़ोर लगवाया। जात का अंतर था। रासबिहारी कुलीन ब्राह्मण नहीं था। अर्चना भी उसको अपना इष्ट नहीं समझती थी। रासबिहारी का रंग पक्का था। यद्यपि उसपर मरने वाली तितलियों की संख्या सर्वाधिक थी। इसके विपरीत अर्चना ? — निर्मल स्वभाव , कोमलांगी कुंद कली ! रासबिहारी की रूक्षता उसके गले नहीं उतरती थी।
फिर भी संयोगवश रासबिहारी की जीत हुई। इंजिनीरिंग के इम्तिहान में वह फर्स्ट आया। अपने पिता से कहकर उसने अपना नाम ,चित्र सहित ,दैनिक अखबार के मुखपृष्ठ पर छपवा लिया। इसके बाद ही उसकी माँ और पिशि माँ , थाल भर जेवर लेकर हमारे घर पधारीं और पिताजी ने रिश्ता मंजूर कर लिया।
पिताजी तो अब रहे नहीं इस दुनिया में। होते तो देखते कि जिसे मृत्यु जड़ नहीं कर देती वह कैसे कैसे रूप बदलता चलता है इस जीवन में , खासकर कोई रिश्ता। रासबिहारी ,यथा नाम तथा गुण साबित हुआ ! जहां तक करियर का सम्बन्ध है ,वह उन्नति करता गया। मगर रोज़ रोज़ अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी वर्ग का चक्कर ,उनके विक्रय वृद्धि के कुत्सित हथकंडे रासबिहारी की स्वभावगत उच्छृंखलता के पोषक सिद्ध हुए। और उसका चारित्रिक पतन अर्चना और उसके बीच व्यवधान बन गया। अर्चना का प्रतिवाद। उसकी आत्मा का आर्तनाद ,विलासिता के प्रलोभन के सामने तुच्छ पड़ गया। उसको चुप करने के लिए रासबिहारी ने पाशविक प्रयास भी किये। मृत पिता। प्रवासी भाई। अर्चना असुरक्षित रही। जो कुछ घटा वह सिर्फ मुझको पता है। शुतुरमुर्ग की तरह वह रेत में अपना सर न छुपा सकी। ब्राह्मण आभिजात कन्या झूठा नहीं खा सकी। उसने अपना सुहाग बाहर वालियों के संग बांटना स्वीकार नहीं किया।
भारत जैसे समाज में सम्बन्ध विच्छेद करके अकेले रहना भी चौतरफी बेइज़्ज़ती को न्योता देना था। फिर उसे अपने बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए उनके पिता की आवश्यकता थी ,खासकर पुत्री के निष्कलंक भविष्य के लिए। अतः दुनिया की नज़रों में घरवाली बनी रहकर भी उसने पदत्याग कर दिया। इसका अर्थ यह नहीं कि उसमे कोई हीन भावना घर कर गयी हो। उलटे वही मर्यादा की सुदृढ़ चारदीवारी बनी रही जिसके अंदर रासबिहारी की इज़्ज़त सुरक्षित रही। यह अर्चना का अपने देवताओं से वादा था जिनको अग्नि की साक्षी देकर आमंत्रित किया था विवाह के समय। चुनरी छीज गयी तो क्या ,वह अपने पिता की आबरू से ढंकी रही। बच्चों को इस माहौल से पढ़ने के लिए दूर भेजकर , उसकी तन्हाई और भी कटु हो गयी। परन्तु वह नहीं चाहती थी कि उसके बच्चे पिता को हेय दृष्टि से देखें या उसका अनुसरण करें।
अर्चना के राज़ का पर्दाफाश न हो इसलिए जैसे ही रासबिहारी ने बैंकॉक का कार्यक्रम बनाया ,मैंने उसे अपने पास लंदन बुला लिया। घर के नौकरों को भी कुछ संदेह नहीं हुआ। एयरपोर्ट के लिए एक ही टैक्सी में सामान रखा गया। वह पूरब गया यह पश्चिम।
मगर होनी क्यों न हो ?
सूरा सुंदरी के मद में रासबिहारी खुद असलियत बक गया। हुआ यूँ कि कंपनी में उसका सहायक एवं मित्र ,सुरेश टीकाराम उर्फ़ ‘टीका’ ‘ भी किसी कार्यवश उन्हीं दिनों बैंकॉक गया और वहां रासबिहारी से मिला। टीका ऊंची पायदान का अफसर नहीं था। नीचे स्तर पर चुपचाप बैठकर कंपनी की व्यय पूँजी में कुतरा -कुतरी करना उसके लिए बहुत आसान था। और इस तरह वह अधिक पैसे बना लेता था। ऊपरवाले अफसरों की व्यय तालिकाएं उसी के हुजूर में भुगतान के लिए लाई जाती थीं। इसलिए सब उसके दोस्त थे। अपनी कंजूसी और लालच के कारण अपनी ऐश करने की इच्छा का उसको दमन करना पड़ता था। यूं भी बाकी अफसर तो कंपनी के खरचे पर जो करें सो थोड़ा। मगर उसको ऐसा कोई अधिकार नहीं मिला हुआ था और जेब में सूराख क्यों करता ? तिस पर उसकी बीबी एक मालदार आसामी की कन्या थी। टीका उससे दबता था। वह अमीर होने के साथ साथ एक संस्कारी सतवंती स्त्री थी। जिस दिन कंपनी में खान पान होता वह साईं भजन सभा में चली जाती। ऐसी पत्नी के होते टीका अपनी नाक पर मक्खी बैठने देता तो भला कैसे ?
बैंकॉक में रासबिहारी की कांख में एक कम उम्र की थाई लड़की नज़र आई तो टीका ने अपनी भवें उचकाईं। भेद खुल जाने पर रासबिहारी ने अपनी सफाई में मगरमच्छी आंसू बहाते हुए सारा दोष अर्चना पर डाल दिया। कहने लगा कि न वह बड़े घर की ,बुद्धिशीला लड़की से ब्याह करता और न उसके अभिमान का डंडा खाता। यही दुःख लगभग टीका का भी था। रासबिहारी ने ठीक बटन पर ऊँगली रख दी थी। दोनों नशे में थे। दोनों ने देर तक अपनी अपनी पत्नियों को कोसा और दर्दे दिल बयां किया। फिर एक दूसरे के आंसू पोंछे। फिर रासबिहारी ने उस थाई बाला को टीका के पीछे लगा दिया। और अपने आप नशे का बहाना करके लाउन्ज के सोफे पर औंधा जा गिरा और सो गया। इधर बैडरूम में टीका की लार तो टपक ही रही थी सो थाई बाला ने उसको जी भर कर अनुगृहीत किया।
अगले दिन जब टीका की आँख खुली तो रासबिहारी नाश्ते की मेज़ पर उसका इंतज़ार कर रहा था। उसकी उपहास रंजित दृष्टि टीका पर कुछ ऐसे पड़ी जैसे जाल में फंसे शिकार पर पड़ती है। टीका ने ऐसी सहजता दिखाई कि जैसे उसके लिए यह आम बात हो। यूँ भी वह कौन सा दूध का धुला था। शादी से पहले क्या नहीं कर चूका था। और बाद में भी तो चोर चोरी से जाए ,हेरा फेरी से नहीं !
कलकत्ता पहुंचकर उसने अपनी सफाई में पहले ही पकियाई कर ली। शांता का पति विश्वनाथ झा रासबिहारी का जोड़ीदार था। रासबिहारी कंपनी के लिए मशीनें खरीदता था और झा स्टेशनरी। टीका दोनों से कुतरता था। हर डील पास करने की रकम उसकी जेब में। टीका ने पहुंचते ही सारी कहानी नमक मिर्च लगाकर झा को सुना दी अलबत्ता अपनी रंगीन रात की बात छुपा ली। सीनियर होने के नाते झा ने उसे उसके छोटेपन पर झाड़ पिलाई ,रासबिहारी की तरफदारी करते हुए उसे समझाया कि यह सब मनोरंजन मशीन बेचनेवाली कंपनी की ओर से होता है अतः अपनी जेब से कुछ नहीं जाता। किसी को क्या कोई कुछ भी करे।
ऊपर से हामी भरकर टीका मन ही मन झल्लाया। अब समझ में आया कि रासबिहारी ने अपना कौर क्यों बिना सोंचे उसके मुंह में रख दिया था। खुंदक में उसने बदला ये लिया कि यह गल्प संक्रामक रूप से पूरे ऑफिस में फ़ैल गयी। उधर अर्चना भी कलकत्ता वापिस चली गयी। जाते ही उसको यह सब झेलना पड़ा। लंदन से जो डिप्लोमा किया था उसमे उसको प्रथम श्रेणी मिली थी। जाते ही अपना घर आदि संभाला और बच्चों को लाने दार्जिलिंग चली गयी। कुछ दिन वहां रहकर अपने नीरस जीवन का मातृत्व से सिंचन कर लेती तो एकाकीपन का कुछ और समय कट जाता।
इस काण्ड के कुछ दिन बाद ही हमारा कलकत्ता जाना हुआ था। शांता का न्यौता हमने मान लिया। न्यू अलीपुर में उसके घर जाने के लिए हमने टैक्सी ली। बँगला था कि जैसे राजमहल ! आधुनिकतम उपकरणों से सजा हुआ उसका ड्राइंगरूम लास- विलास को आमंत्रित करता था. एक दीवान-ए – खास बना रखा था जिसमे एक ओर स्वचालित ड्रिंक्स ट्रे वाला बार था। ट्रे पर गिलास रख कर नंबर और बटन दबाने पर ही इच्छित पेय उसमे भरने लगता था।
आगंतुकों के हिसाब से क्षेत्र में अधिक बड़ा न होने के कारण शांता ने फर्श पर मसनद बिछा दी थी। पूरी सज्जा फिरोज़ी व बैंगनी रंग की थी। बीच बीच में सुनहरी ज़री के परदे , ज़रदोज़ी गांव तकिये , चांदी सोने के हुक्के सुराहियाँ , सब मिलकर मुग़लिया माहौल का स्वर्गिक अनुभव करा रही थे। दीवारों से सटाकर हैदराबादी कुर्सियां स्त्रियों के लिए रख दी गईं थीं।
मेहमान परिवार कंपनी परिवार था। केवल हम बाहरी थे। शांता का बेटा लखनवी अंगरखा पहने बार पर खड़ा था और बेटी स्त्रियों की पसंद का ध्यान रखने के लिए तैनात थी।
अमूमन ऐसी पान गोष्ठियां जल्दी ही गरमा जाती हैं। पहली प्यास में पुरुषों ने चीयर्स वाला पहला ड्रिंक तो फटाफट गटक लिया . यूं भी भारतीय पीनेवालों की कम से कम समय में अधिक से अधिक फायदा उठाने की मानसिकता के चलते ,आधे घंटे में ही सब पर रंग चढ़ गया। थोड़ा न नुकुर करने के बाद स्त्री समाज में भी ,जूस आदि निर्दोष पेय से शुरू करके दूसरे और तीसरे दौर तक आते आते शैरी, मार्टीनी ,ब्लडी मेरी , या आयरिश कॉफी की मांग पेश होने लगी। दो एक तो पुरुषों के समकक्ष दो तीन व्हिस्कियाँ चढ़ा चुकी थीं। एकमात्र मुझे ही नींबू पानी बनाकर देनेवाला बेयरा मुझे कुछ विचित्र नज़रों से घूर रहा था।
हमारा परिचय तो चीयर्स वाली ड्रिंक के पहले ही दिया जा चूका था जिसमे हमारे लंदन में रहने की बात पर विशेष जोर दिया गया था जैसे हमारे वर्षों के उद्यमी जीवन की वह एकमात्र उपलब्धि हो। हमारे उन सबसे ऊपर होने का प्रमाण। अचानक टीका ने मुझे एक ज़ोरदार नमस्ते फेंकी। वह मुझसे चार हाथ की दूरी पर एक सुनहरी रंगी पंजाबी खटोली पर बैठा था। मैं बिलकुल अचकचा गयी। मेरे हिसाब से किसी को दूर से पुकारना ,वह भी सभ्य गोष्ठी में , गँवारपना था। ऊपर से उसने वहीँ से प्रश्न उछाला —-
” कैसा रहा आपका ट्रिप भाभी जी ? मुझे टीका कहते हैं। इतनी दूर से ,लोगों की चकड़ पकड़ के ऊपर अपनी आवाज़ उठाना मुझे बेहूदा लगा अतः मैं अपनी जगह से उठकर उसके पास जा बैठी। संक्षेप में बताया की अस्वस्थता के कारण अधिक घूम फिर नहीं पाए।
मेरे उत्तर के पूरा होने से पहले ही उसने उसी अंदाज़ में दूसरा प्रश्न किया
” अर्चना तो बहुत दिन रही आपके पास ! क्या वह भी वहां जाकर बीमार पड़ गयी थी ? ” व्यंग स्पष्ट था।
” नहीं बहुत तो नहीं। ठीक थी। ” मैंने उसको टालने के लिहाज से अपना मुंह दूसरी तरफ मोड़ लिया और पास बैठी एक नवोढ़ा की हाथ की कढ़ी साड़ी की तारीफ करने लगी। मगर ढीठ टीका फिर टहूका।
” रासबिहारी मुझे बैंकॉक में मिला था। उसी ने बताया। वह भी एक ही लफंगा है। ”
मैं समझ गयी यह कहाँ ऊँगली रखना चाहता है। न अपनी शर्म न दूसरों की। मेरा इस विषय में कुछ भी कहना मुझे ही हज़ार दर्पणों में प्रतिबिंबित करेगा। उनमे से कई विकृत दर्पण भी होंगे। अतः उसको चुप करवाने की गरज़ से उलटा प्रश्न ठोंका
” अच्छा मिले थे आपसे ? कब आ रहे हैं बताया तो होगा। अर्चना अपने बच्चों के पास है वरना बताती। ”
टीका फिर भी निर्लज्ज।
” मुझे क्यों बताने लगा। आपको क्या नहीं पता कि वह कितना घटिया इंसान है ? अरे जानबूझ कर लम्बी खींच रहा है। भागना इसी को कहते हैं. ”
मेरा मुंह तमतमा गया। पर सहज मुस्कुराते हुए मैंने कहा , ” आपसे भाग रहा होगा। मुझसे तो जब भी मिलता है एकदम खिले गुलाब की तरह। इतना खुशनुमा व्यक्तित्व मैंने आज तक किसी का नहीं देखा। यहां भी उसके चाहनेवाले कई बैठे हैं क्योंकि कभी स्वप्न में भी उसको किसी की छीछालेदर करते नहीं देखा। ”
टीका को सूझा नहीं कि स्थिति को कैसे संभाले। शर्मिंदा सा बोला —
” आप ठीक कह रही हैं भाभीजी। वाकई बड़ा होनहार अफसर है हमारा। मगर बीबी उसे ज़रा तगड़ी मिलनी चाहिए थी जो उसको बाँध सकती। ”
मैं अंदर ही अंदर तड़प उठी। टीका को क्या पता जब मैं सुबह तड़के खिड़की का पर्दा उठती थी तो रासबिहारी पहले से ही मोटर साइकिल लिए एन अर्चना के कमरे की खिड़की ओर ताकता खड़ा होता था। वह भी दिन थे। कैसा बंधा था तब ! मैंने आखिरी फैसला सुनाने के स्वर में कहा , ” टीका जी आपके भी तो दो पुत्रियां हैं। भगवान् करे आपको भी रासबिहारी जैसे होनहार जँवाई मिलें। ”
टीका के मुख पर जैसे राख पुत गयी हो।
मैं वहां से उठकर वापस अपनी जगह आकर बैठ गयी। ऐसा भान हुआ कि जैसे यह संवाद सब लोग रस ले ले कर सुन रहे थे। हालांकि कोई भी मुझसे आँख नहीं मिला रहा था और कुछ यूं ही तथस्ट चेहरों से आपस में बतियाने का ढोंग कर रहे थे। कोई कोई मुझे उपहास से घूर रहे थे। यह रासबिहारी के मित्र रहे होंगे। जिनके चेहरों पर मेरी विजय की दाद लिखी थी वह टीका के प्रतिद्वंदी रहे होंगे। मगर कुछ ? उफ़ क्या बताऊँ ! वो सुना है न ,” कैसे कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं। … ”
ऐसे ही एक साहब अधलेटे होकर मेरे बहुत करीब आ गए। उनके हाथ में भरा हुआ गिलास था। लखनवी काढ़ा हुआ सस्ते मेल का कुरता ,उसपर टिम टिम करते हीरक बटन , लटकी हुई खुली बटनपट्टी , उसमे से झाँकती भालू-मार्का नंगी छाती ,छाती में थुल थुल करते वसा वलय ,उनमे फँसी पाउडर की गीली लकीरें जो अपनी खुशबू ख़तम करके अब निरा पसीना महका रही थीं। नशे से लाल ,गोल गोल भारी आँखें नचाते हुए उन्होंने एक बेतुका शेर दागा ;
वो हुस्न भला किस काम का ,
जिसे चाहनेवाला ही न हो।
जी चाहा उसे उत्तर दे डालूं
उस चाँद की क्या चांदनी जो चाँद हो उन्तीस का ,
उस दोस्त की क्या दोस्ती जो दोस्त हो दस बीस का।
मगर मैं ,श्रीयुत प्रफुल्ल बनर्जी की एकमात्र कुलवधू इस सस्ती चीर फाड़ में हिस्सा लूँ ? कदापि नहीं।
मैं मुंह फेरकर उन्हीं की श्रीमती जी के संग बातचीत में रम गयी। ऐसा दिखाया कि जैसे सुना ही न हो। एक दो कमजोर स्वर वाह वाह के भी उठे मगर मेरी उपेक्षा से उनका मूड शायरी छोड़कर गिलास में अटक गया।
शांता ने माहौल बदलना चाहा। बोली कि हमारी ट्रेवल एजेंट मिसेज़ आप्टे बहुत सुन्दर गाना गाती हैं।
कंपनी की ट्रेवल एजेंट हैं तो ज़ाहिर है कि रासबिहारी की यात्रा योजनाएँ यही निर्धारित करती होंगी। इन्हें जरूर पता होगा कि अर्चना पति से अलग गयी थी लंदन। मिसेज़ आप्टे अपने पति से तलाक़ ले चुकी थीं। शांता की तरफ एक मुस्कान फेंकी और गाने की भूमिका बांधने लगीं। थोड़ा ना ना किया ,घूँट मार्गरिटा का पिया , गला खखारा , थोड़ा नखरे से शर्माई , फिर बोलीं ,’सारा याद नहीं। .. ‘ तदुपरांत मेरी ओर किंचित रोष से देखा और गाना छेड़ा ,
” मैं मइके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो। ..
झूठ बोले कौआ काटे ,—-
फिर मेरी तरफ गहरी दृष्टि डाली और गाया
तू मायके चली जायेगी मैं दूजा ब्याह रचाऊँगा
मैं तेरी सौतन लाऊंगा —-
यूं दूजा ब्याह रचाएगा ,है मेरी सौतन लाएगा ?
मैं मायके नहीं जाऊंगी ,मैं तेरे सदके जाऊंगी
मैं सातों वचन निभाऊंगी ,मैं मायके नहीं जाऊंगी —-
बाकि के बोल उन्हें याद नहीं आये या वह केवल इतना ही मुझे सुनाना चाहती थीं राम जाने। लड़की को बुलाकर मायके रख लेने और पति को लाचार छोड़ देने का दोष मुझपर मढ़ा जा रहा था। अतः अब अगर वह दूसरी के पीछे दौड़ जाए तो उसका क्या कसूर। सारा कसूर अर्चना का।
शांता ने खाना लगाने का हुक्म दिया। रात के ग्यारह बज रहे थे। एक तो तबियत खराब ऊपर से मेरा मूड। उनके तानों से नहीं, अपनी अर्चना के लिए। कैसी सीता जैसी बच्ची और ये अशोक वाटिका। शांता ने कोई व्यंजन छोड़ा नहीं था। सब अपनी देखरेख में घर पर बनवाया था। पाँच गज़ लम्बी मेज़ देसी और विदेशी खानों से भरी पडी थी। मैंने कुछ सलाद एक प्लेट में डाला और एक ओर सिमटकर खड़ी हो गयी। शांता परोसने में व्यस्त हो गयी।
तभी मैंने देखा ,कुर्तेवाला थुल-थुल चिकन बिरयानी का मंदिर प्लेट पर सजाये , झूमता झामता ,सबसे टकराता मिसेज़ आप्टे की ओर बढ़ रहा है। वह भीड़ से अपने को बचाती , जैसे तैसे उससे दूर गैलरी में खिसक गयी। शिकार फिसल गया देखकर वह इश्क़ मिजाज़ी भूल गया और मोटी -मोटी उँगलियों से चुल्लू भर भर कर बिरयानी निगलने लगा।
शांता मेरी बगल में आकर खड़ी हो गयी। सारी शाम उसने ना कुछ खाया था ना पिया था और न ही वह अभी कुछ खाने के मूड में थी। धीरे से उसकी ओर दिखाकर बोली ,” यह भल्ला है। कंपनी को मोटरों के पुर्जे सप्लाई करता है। रासबिहारी का खास है। ”
तभी मुझे याद आया। हमारे घर भल्ला नाम का एक सर्वकाम मुंशी हुआ करता था। बनर्जी परिवार की रसद लाना , फोन बिजली के बिल आदि भुगतान करवाना बैंक में पैसा जमा करवाना आदि सब काम उसके जिम्मे थे। मैंने तपाक से पूछा ,” कहीं इसका नाम इक़बाल चन्द भल्ला तो नहीं ?”
” हाँ हाँ नाम तो यही है। आई. सी.भल्ला। तुम जानती हो ? ”
उसकी पत्नी हमारे पास आ खड़ी हुई थी इसलिए मैंने बात बदलते हुए कहा ,” नहीं। यूं ही कहीं नाम सुना होगा। याद नहीं। ”
खाना निपटाते रात के एक बज गए सब अपनी अपनी गाड़ियों में निकल गए। मैंने शांता से कहा एक टैक्सी बुला देतीं तो हम भी निकल जाते।
” अरे नहीं भाभी , मुझे तो आपसे बात करने का मौका ही नहीं मिला। आप लोग कल जाइएगा। गेस्ट रूम हाज़िर है। ”
मरता क्या न करता। रात हम वहीँ रुक गए।
सुबह शांता जल्दी ही खुद चाय बनाकर ले आई। उसने लाल पाड़ की ,हाथ करघे की बनी असमिया रेशम की साड़ी पहन रखी थी। धुले हुए लम्बे बाल अभी तक गीले थे। मांग में ताजा सिन्दूर लगाए वह साक्षात उषा देवी लग रही थी।
” मैं सुबह सूरज की पहली किरण को अर्घ देकर देवी का पाठ करती हूँ इसलिए जल्दी उठ जाती हूँ ”. पुरुष अखबार लेकर बाहर बालकनी में बैठे। हम दोनों शांता के कमरे में।
” भाभी मैं कल रात के लिए बहुत शर्मिंदा हूँ पर आपने भी टीका को अच्छी तरह चुप करा दिया। ” फिर वह आगे बोली –
” क्या करें – यह स्वर्ण लंका है और लंका में सब बावन गज़ के। यहां कोई दूध का धुला नहीं है। किस मुंह से मुआ भल्ला ताने दे रहा था अर्चना के लिए ? अभी पिछले महीने की ही बात है इतना बड़ा काण्ड किया। बीबी सब्जी भाजी लेने बाज़ार गयी थी। इतने नौकर चाकर हैं तो भी उसकी पुरानी आदतें नहीं जातीं। हमेशा तो अमीर नहीं थे। जब लौट कर आई तो देखा भल्ला बेटी के बराबर नौकरानी के संग उसी के बिस्तर पर लगा हुआ था। कमीना है एक नंबर का। और यह टीका ? खुद बघार रहा था कि रासबिहारी ने बैंकॉक में उसे ट्रीट दी। सबसे ज्यादा काइयाँ है। वह जो कोने में बैठा आपके पति से लंदन की बातें कर रहा था न वह जानती हैं कौन था ? इस कंपनी का चीफ अकाउंटेंट ! सीधा जर्सी आइलैंड जाता है। सारा ब्लैक का पैसा वहीँ जमा होता है। खुद के भी तमाम खाते खोल रखे हैं। दो दो किलो सोना बाहर से लेकर आता है और वी आई पी गेट से सीधा बाहर आ जाता है। लंदन में एक घर ले रखा है उसमे गोरी रखैल रहती है। एक लड़का भी है उससे। सब कंपनी को दीमक की तरह चाट रहे हैं। जिस दिन दिवाला निकलेगा ,पैसा जनता का जाएगा जिसने इसमें निवेश कर रखा है।
सुबह सुबह ब्राह्म मुहूर्त में ऐसे बातें तौबा !
मैंने उसको चुप करवाने की गरज़ से कहा, ” रहने दे शांता , अच्छी अच्छी सुना। अपनी कोई बात कर। ”
शांता ने झटके से मुंह घुमा लिया। मैं हक्की बक्की रह गयी।
वह घूमकर विकृत स्वर में बोली , ” अपनी बात करूँ ? क्या खरीदा ,क्या पहना , क्या दे डाला ? —- कल पार्टी थी तो घरवाला भी घर पर था। वर्ना तो — . और क्या है मेरी ज़िन्दगी में ? आँखें बंद कर ली हैं , कान फोड़ डाले हैं। मुंह सी लिया है। खाती पीती हूँ , सजती संवरती हूँ , बच्चों को पढ़ा देती हूँ , पलंग बैठी हुकुम चलाती हूँ। राजरानी बनी बैठी हूँ। यही माँ ने सिखाया था ,यही उसने चाहा था —- ( निःश्वास लेकर ) उसने ,मैंने नहीं। ”
उसकी आँखों की कोरों पर मोती अटके हुए थे। मैं नीचे देख रही थी। कम से कम बारह कमीज़ें तो लाई थी शांता लंदन की नामी दुकानों से उस सामने बालकनी में बैठे, इकहरे बदन के, गोरे व्यक्ति के लिए !
” शादी के पहले दिन मेरी बगल खड़े होकर विशु ने आईने में देखते हुए कहा था —- अक्वा कुस्तम की लेटेस्ट कमीज हो और नई नवेली सुंदरी बगल में खड़ी हो ! वाह !! बस ज़िन्दगी ख़्वाब है —- तब मुझे नहीं पता था कि जितनी कमीज़ें होंगी उतनी नई नवेलियाँ।”
दोनों हथेलियों से आंसू पोंछकर आगे कहने लगी, ” भाभी अर्चना ने एकदम तुडू कर ली। कहती है कि समझ लो जैसे तुम्हारी कोई टांग या बांह कट जाती है या तुम अंधे हो जाते हो। या कोई और प्राकृतिक क्षमता तुमसे छिन जाती है। वैसे ही मान लो कि तुम्हारी यौन क्षमता तुमसे छिन गयी है ,उस हिस्से को फ़ालिज मार गया है ,बस सब आसान हो जाएगा। पर मैं नहीं समझ पाती। मैंने आँखें बंद कर ली हैं। मैं अपना फ़र्ज़ बांटने को भी राजी हूँ। मगर वह दिन नहीं आता। वह रात नहीं आती। कहीं किसी और के घर पार्टी होती है तो हम सज बन के संग जाते हैं मगर देर रात मैं अकेली लौटती हूँ। नौकर ड्राइवर के संग ,उनकी दया से लथ-पथ !
जब आपके घर रही थी दो हफ्ते ,सब भूल गयी थी। ना वहां यह घर था ,न बच्चे ,ना उनका इंतज़ार ! बस थी मैं और मेरी सहेली। फिर बुलाओगी न भाभी ? दो दो अर्चना हैं तुम्हारी। ”
- कादंबरी मेहरा
प्रकाशित कृतियाँ: कुछ जग की …. (कहानी संग्रह ) स्टार पब्लिकेशन दिल्ली
पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) सामयिक पब्लिकेशन दिल्ली
रंगों के उस पार (कहानी संग्रह ) मनसा प्रकाशन लखनऊ
सम्मान: भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान २००९ हिंदी संस्थान लखनऊ
पद्मानंद साहित्य सम्मान २०१० कथा यूं के
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अखिल भारत वैचारिक क्रांति मंच २०११ लखनऊ
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