सुनहरी किरणें
जब छूती है इंसान को।
तब भेदती हुई शरीर को
टटोलती है मन
इस दौरान देती है न्यौता
स्वर्णिम अवसर को
गले लगाने का।
फिर,
किरणें थोड़ी होती है प्रचण्ड
समय के साथ
मस्तक को छूती है
या देती है आशीर्वाद
देती है जब वह संबल
थोड़ा और आगे बढ़ने का।
किन्तु,
फिर किरणें
होती है शांत थोड़ी-सी
सुबह की तरह,
शाम के वक्त।
इस दरमियान ढेर सारे
जवाब छोड़ जाती है
बिना प्रश्न किए।
अंत में उसी इंसान को
भेदती है यह लंबी किरणें
बहुत लंबी हो जाती है
मानो अनुभव की
एक लंबी कतार हो।
- संजय आटेड़िया
शिक्षा - एम.ए. हिंदी साहित्य, यूजीसी-नेट, 21 वीं सदी के प्रथम दशक के हिंदी दलित उपन्यासों में
संवेदना और शिल्प- विषय पर शोध अध्येता |
संप्रति - अतिथि व्याख्याता, शा. कन्या महाविद्यालय, रतलाम
प्रकाशन - अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित
पता - रतलाम, म.प्र.