सिसकता ब्लॉसम

वह एक खूबसूरत सुबह थी। सूरज अपने बसंती निखार पर उगा था। साफ़ नीले आसमान में झुण्ड के झुण्ड पंछी स्वदेश लौट रहे थे। चैरी ब्लॉसम के पेड़ अपने पूरे यौवन पर स्कूल कैंपस में गुलाबी फूलों के गुच्छों का छिछोरा प्रदर्शन करते इठला रहे थे। नीचे घास में हज़ारों पीले डैफोडिल खिल आये थे। आज सोमवार था। पिछले दो दिन धूप क्या पडी प्रकृति बौरा गयी।
सफीना की कक्षा के बाहर एक लॉन का टुकड़ा है। यह ख़ास प्रिविलेज केवल उसी को मिला हुआ है। किस्मत से। सहायिका ग्लोरिया ने आते ही अपनी राय दे डाली।
” ओउटडोर्स टुडे सैफ़ी ! द डे इस ब्राइट ! लेट द किड्स शेड द विंटर ब्लूज !”
” श्योर श्योर ! ”
सैफ़ी ने पेंटिंग का प्लान तय किया। काले मोटे कागज़ पर चाक से पेड़ की आकृति खींची। भूरे रंग से उसके तने को रंगा। फिर गुलाबी पेंट में मोटा बुरुश डुबोकर नन्हे नन्हे छपके शाखों व् टहनियों पर सजा दिए। इसी तरह महीन बुरुश से हरी पत्तियां टिपका दीं। महज़ तीन स्टेप्स में तस्वीर तैयार हो गयी। आज का विषय होगा चेरी ब्लॉसम।
अभी वह ग्लोरिया को समझाकर हटी ही थी। जल्दी जल्दी घंटी बजने से पहले काले कागज़ पर पेड़ के ढाँचे खींच रही थी। इतने में डिनीस – हेड टीचर – ने प्रवेश किया। उसके साथ बेहद कमसिन एक लड़की थी।
” यह मिसेज़ चाऊडरी हैं। हफ्ते में तीन दिन हमारे स्कूल में ट्रैनिंग लेगी। इसे मैंने तुम्हारे संग रखा है। ”
डिनीस इतना ही बताती है। चाहे नई टीचर हो या नया छात्र। कई बार बड़ी कोफ्त होती है। मगर उसपे इतना वक्त कहाँ कि रुक कर पूरी जानकारी दे। मिसेज़ चाऊडरी शक्ल सूरत से पक्की यूरोपियन , बाल सुनहरे, आँखें नीली। मगर लिबास ? — सलवार कमीज़ , मफलर की तरह लपेटा दुपट्टा , सीधी मांग और एक लम्बी छोटी। सफा लग रहा था किसी अँगरेज़ लड़की ने पाकिस्तानी लड़के से शादी कर ली है और अब इस्लामी तौर तरीके से रहने लगी है।
जब ग्लोरिया रेड ग्रूप के छह बच्चों को लेकर बाहर पेंटिंग कराने चली गयी तब नई आगन्तुका ने शुद्ध उर्दू में कहा , ” बाजी मेरा नाम आयशा है। प्लीज आप मुझे इसी नाम से पुकारें। शुक्र है डिनीस ने मिसेज़ चाऊडरी कहा वर्ना अँगरेज़ तो चूडरी ही बना देते हैं चौधरी का। ”
सैफ़ी को हंसी आ गयी। रजिस्टर के बाद आयशा बोली कि आप कहें तो मैं बच्चों से पेंटिंग बनवा लूं. . ग्लोरिया कुछ और काम कर लेगी। यह अच्छा लगा। ग्लोरिया को रीडिंग कराने पर लगा दिया। सुबह के कॉफ़ी ब्रेक के पहले पहले तीस काली शीटें रैक पर सूख रही थीं। पेंटिंग के बाद आयशा ने कंप्यूटर पर बच्चों को गेम खेलने की बारी लगा दी।
लंच टाइम में आयशा दो कप कॉफ़ी बना लाई और उसके पास ही आ बैठी। चुपचाप एक साफ़ सुथरे डिब्बे को खोलकर पराँठा और आलू की सब्ज़ी खाने लगी। बड़े कायदे से उसने दो पराँठों के बीच तरकारी को फैला दिया था और चाकू से उसे चार हिस्सों में काट दिया था। इस तरह सैंडविच बनाकर आराम से कुतर रही थी। इतनी आधुनिक लड़की !कितना रंग गयी है भारतीय संस्कृति में !! सैफ़ी को आश्चर्य हुआ। आयशा ने भाँप लिया। मुस्कुरा दी मगर कुछ नहीं कहा। तीन दिन तक रोज़ उसने जी जान से बच्चों को लुभाए रखा। चौथे दिन उसे गूंगे बहरों के स्कूल में जाना था और पांचवें दिन अपने कॉलिज।
अगले हफ्ते वह अकेली नहीं आई। उसका पांच वर्ष का बेटा भी उसके साथ आया था। उसी की तरह गोल मटोल सुन्दर चेहरे वाला प्यारा सा बच्चा। तबियत खराब थी इसलिए माँ से चिपका हुआ था। आयशा ने पूछा आप माइंड तो नहीं करेंगी अगर यह भी साथ रहे। मैंने डिनीस से पूछ लिया है। सैफ़ी ने सहर्ष अनुमति दे दी। बच्चे से उसने इंग्लिश में उसका नाम पूछा तो वह माँ की तरफ देखने लगा। आएशा ने इशारों की भाषा में उसे अपना नाम बताने को कहा। उसने झट से कागज़ पर टेढ़े मेढ़े अक्षरों में लिखा ‘ हामिद ‘ . सैफ़ी ने देखा उसके कानों के पीछे हियरिंग एड लगी थी। बेचारा बच्चा पैदायशी बहरा था। इसीलिए आयशा ऐसे बच्चों को शिक्षा देने वाले स्कूल में ट्रैनिंग लेने जाती है। वहाँ पंद्रह बच्चे और भी हैं जिनके लिए अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक विशेष यूनिट बना हुआ है।
आयशा ने बताया कि वहाँ उसके दो बच्चे और भी जाते हैं। ओफ़ ! कितनी बड़ी त्रासदी थी !
रात को सैफ़ी के डॉक्टर पति ने कहा कि यदि माँ और बाप एक ही वंश के हों तो ब्लड ग्रुप के एक होने से अक्सर यह विकार पैदा होता है इसीलिये हिन्दू समाज में सगोत्र शादियां वर्जित हैं। अनेक जातियां और वंश इस दुनिया से कतई ख़त्म हो गए क्योंकि उनमे पारिवारिक सम्बन्धों में शादियां कर दी जाती थीं अतः रक्तविकार पैदा हो गए और वह कालांतर में नष्ट हो गए।
अगले दिन सैफ़ी ने यह बात आयशा को बताई तो वह सहज हँस कर बोली ,”मुझे पता है यह बात बाजी। मेरा पहला बच्चा ज़ुबैर –एकदम पत्थर कि तरह सुन्न है।डॉक्टर ने मुझे अगले बच्चे की तरफ से आगाह कर दिया था मगर फुफु न मानी उनकी दलील थी की उनके बच्चे तो ठीक ठाक पैदा हुए थे। दूसरा शमीम कुछ ठीक है और यह तीसरा हामिद। सब अल्लाह की देन है। हम इंसानो का इम्तिहान लेता है वह। हमें शुक्र गुज़ार रहना चाहिए। मान लीजिये यह बेटियां होती ? अब तसल्ली तो है कि यह मर्द सूरत कहीं भी कमा खा लेंगे। कोइ हुनर पकड़ लेंगे। ”
” पर आयशा तुम्हारे केस में यह बात फिट नहीं बैठती। जरूर तुम्हारे पति के वंश में कोइ रक्तदोष होगा क्योंकि तुम तो यूरोपियन नस्ल की हो। ”
” अरे बाजी आप भी मेरे साथ नाइंसाफी कर रही हैं ? मुझे अंग्रेज क्यों बना दिया। ये कम्बख्त तो अपनी औलाद के भी सगे नहीं होते। मैं तो पक्की लाहौरन हूँ बिलकुल आपकी तरह ! ”
” सच ! मैंने गोरी चिट्टी लहौरने तो कई देखी हैं मगर इतने सुनहरी बाल और नीली आँखें देखकर तो कोइ भी ठगा जायेगा। ”
” जी दरअसल मेरी माँ आयरलैंड से थीं। इसलिए हम दोनों बहनो का रंग रूप उन्हीं पर पड़ा है। ”
” थीं ? क्या अब नहीं हैं ? ”
” बस यूं ही समझ लीजिये। ” आयशा ने ठंडी सांस ली।
सैफ़ी फिर पसोपेश में पड़ गयी।
” वो मेरे अब्बू को छोड़कर किसी अपने के संग रहती हैं। — मैं तब आठ साल की थी और मेरी बड़ी बहन ताहिरा दस की भी पूरी नहीं हुई थी। ”
आयशा की आवाज़ में कोइ लरज़ नहीं थी। साफ़ सपाट शब्दों में वह ऐसे सुना रही थी कि जैसे किस्सा अलिफ़ लैला का हो। न उसे गुस्सा था न विषाद। जैसे यह कहानी वह कई बार सुना सुना कर अपनी तल्खी को छुपाने की आदि हो गयी हो।
” और तुम्हारे अब्बू ? ”
” वो क्या करते ? उनहोंने हम दोनों बेटियों को पकिस्तान अपनी बहन के पास भेज दिया। तबसे वही हमारी माँ हैं। बहुत प्यार से पाला उनहोंने हमें। हर तरह की तालीम दी। बहुत मज़हबी हैं। हम तक़रीबन दस साल तक वहीँ रहे। ”
” फिर यहाँ वापिस ?”
” जी वो हम दोनों बड़ी हो गईं तो फुफु ने हमारी शादी अपने दोनों बेटों से कर दी। इस तरह वह दोनों यहाँ आने के हक़दार हो गए। पकिस्तान में क्या रखा था। फुफु ही अब हमारी माँ हैं और सास भी। हमारे साथ ही रहती हैं। अब्बू ने हमारा पुराना मकान हमें दहेज़ में दे दिया उसी में हम रहते हैं। ताहिरा के आदमी ने अभी दो साल पहले अलग घर ले लिया है बहुत दूर नहीं है हमसे। ”
सैफ़ी चुपचाप सुनती तो रही मगर उसके मन में कई सवाल नागफनी की तरह डंक उठाये खड़े हो गए। यह कहानी इतनी सहज नहीं हो सकती।
लंच में अब वह रोज़ सामने ही बैठती।
” बाजी कल आलू के परांठे बना कर लाऊंगी आपके लिए। ”
” अरे सुबह सुबह बच्चों के संग इतना काम क्यूँकर कर लेती हो ?”
” दरअसल मेरे खाविंद शफ़ीक़ सवेरे सवेरे चार बजे उठ जाते हैं। पाकिस्तान में तो उस वक़्त अज़ान पड़ती थी। शफ़ीक़ नमाज़ अदा करते हैं। उनके उठने के साथ ही बीवी को भी उठ जाना चाहिए वरना फुफु बुरा मानती हैं। बस तब ही से चूल्हा चालू हो जाता है। सुबह यहाँ आने से पहले ही मैं दिनभर का खाना पका लेती हूँ। है क्या उसमे एक हांडी गोश्त और एक हांडी पुलाव।
स्कूल से बच्चे आते हैं तो मैं फ़ौरन खाना परोस देती हूँ। मैं और शफ़ीक़ डिब्बे ले जाते हैं मगर बच्चे तो स्कूल डिनर ही खाते हैं। ”
” तुम लोग तो इतने पक्के हो। बिना हलाल गोश्त के चल जाता है? ”
” जी , हमने बच्चों को शाकाहारी लिखवा रखा है। क्योंकि स्कूल मील में तो पोर्क वगैरह के हाथ लग जाते हैं। यह लोग इतना परहेज़ रखना क्या जाने। ”
एक दिन सैफी ने पूछा , ” क्या करते है आपके अब्बू ? ”
आयशा बुझे से स्वर में बोली , ” वकील हैं बाजी। अच्छी आमदनी है। हमारे लिए पाकिस्तान में नया मकान बनवा दिया था इस्लामाबाद में ताकि हमें गलियों के गंदे घर में न रहना पड़े।”

सैफी को लाहौर में अपनी ससुराल की हवेली याद आ गयी उसके दरवाज़ों पर संगमरमर की जड़ाई थी मगर गुसलखाना पुराने ज़माने का था जिसमे बाल्टी उठाने बेचारी जमादारिन को सुबह शाम आना पड़ता था। घर के कमाऊ मर्दों का ध्यान कभी इस तरफ नहीं गया। कैसे यह बच्चियां उस तरह के माहौल में सांस भी ले पति होंगी ?

” फुफु ने अपना पुराना घर किराए पर लगा दिया। इस तरह उन्हें अपनी खुद की आमदनी भी मुहैय्या करवा दी। उनके शौहर तो बड़े खाऊ पियु आदमी हैं। इधर उधर भागते थे। फुफु कितनी अच्छी फैमिली से और कितनी मज़हबी और ये बदबख्त छिछोरे। बनती कब थी। हमारे आने से एक पंथ दो काज पूरे हुए। अब्बू जो पैसा भेजते थे उससे रफ़ीक और शफ़ीक़ भी अच्छी तालीम पा गए। जो अल्लाह करता है ठीक करता है। ”
” और आपके शौहर और उनके भाई ?”
” माशल्ला दोनों सरकारी नौकर बन गए हैं। रफ़ीक़ भाई बस चलाते हैं। और शफ़ीक़ रेलवे में कोच अटेंडेंट बन गए हैं। आजकल पढ़ाई भी कर रहे हैं। कंप्यूटर वगैरह आ जाए तो इंजन ड्राईवर बन जायेंगे। पाकिस्तान में तो इतने पैसे सिर्फ तिजारत वाले कमा सकते हैं। और आप तो जानती हैं तिज़ारत में झूठ सच तो करना ही पड़ता है। फुफु इसके सख्त खिलाफ थीं। ”
आएशा मूक बधिर विद्यालय में जाकर बेहद खुश होती थी। बच्चों के शैक्षणिक विकास के लिए अनेकों उपकरण बना दिए गए हैं जो उनकी जरूरतों के मुताबिक़ उन्हें दिए जाते हैं। आयशा के घर में ऐसे अनेक विद्युत् चालित यंत्र लगवा दिए गए थे सरकारी खर्चे पर। वह उन्हें बड़ी योगयता से समझ लेती थी और अपने बच्चों को भी समझा सकती थी। सरकार की और से ही उसे घर के काम में मदद करने के लिए एक लड़की दे दी गयी थी जो खुद भी मूक बधिर थी। इसी सिस्टम से सीख समझकर उसे भाषा का थोड़ा बहुत ज्ञान था अतः वह जीवन में किसी की मोहताज नहीं थी। ड्राइविंग भी सीख ली थी। खुद अपनी गाड़ी से काम करने आ जाती थी। उसकी गाड़ी भी ख़ास बनी थी जिससे सडकपर उसे सब पहचान लें कि वह विकलांग है।

यह सब होते हुए भी आएशा खुले दिल से अंग्रेजों को कोसती थी। सैफ़ी ने एक दिन उसे समझाया कि जो लोग इतना इंतजाम उसे मुहैय्या करवा रहे हैं उनकी रहनुमाई का उसे शुक्रिया करना चाहिए ना कि उन्हें गालियां देना।
” आप नहीं जानतीं बाजी ये लोग कितने कमीने होते हैं। ज़रा मेरे शौहर के दिल से पूछिए और रफ़ीक़ भाई को तो आये दिन कोइ न कोइ बात सुननी पड़ जाती है। इनके संग रहना तो नामुमकिन है। ”
” सो तो मैं मानती हूँ ,मगर ज़रा सोंचो हिंदुस्तान या पाकिस्तान में इतनी हमदर्दी मिलती? क्या बनते ये बच्चे ? हमारे घरों में तो तुम्हें ‘ पनौती ‘ का खिताब देकर अपने बेटे की दूसरी शादी करवा देते और बच्चों से भी कोइ मतलब न रखते। यहाँ छोड़ा छुड़ाई तो आम बात है। क्या कर लेतीं? ”

” क्या खाकर शफ़ीक़ मुझे छोड़ेंगे ,उन्हीं की लाई हुई तो यह मुसीबत है। फुफु की शादी भी तो ममेरे भाई से हुई थी। ”
” गोया तुम्हारे दिल में कहीं यह मलाल है कि काश तुम्हारी शादी किसी और से हुई होती ? ”
” बाजी सुबह सुबह कुफ्र ना बुलवाएं खुदा के वास्ते। ”
सैफ़ी ने देखा कि आएशा की आँखें डबडबा आईं थीं। मज़हब की आड़ में वह क्या क्या भूले बैठी थी ? उसकी सोंच इतनी कुंद कर दी गयी थी कि वह और कुछ ना समझे। सिर्फ अपना फ़र्ज़। नहीं यह कठपुतली वह ज़हीन आएशा नहीं हो सकती जो मिनटों में हर तरह की मशीन चला सकती है , जो इतने खूबसूरत चित्र बनाती है जिसके अपने हाथ के सिले सूट एक से एक डिज़ाइन के होते हैं। पाकिस्तान में रहकर सिलाई कढ़ाई बिनाई तरह तरह के सालन पकवान अचार मुरब्बे , दुपट्टे रंगना ,मेहंदी रचाना मोती पिरोना —आदि ; क्या नहीं सीखा था दोनों बहनो ने ? उर्दू में दक्ष ! रफ़ीक़ और शफ़ीक़ की सोहबत में उसे पतंगें उड़ाना भी आता था। एक दिन आएशा ने क्लास में पतंग बनाई और ग्लोरिया की सहायता से उसे छुड़ैया देकर उड़ाया भी. । पूरे स्कूल में सनसनी फ़ैल गयी। बारी बारी से हर क्लास में उसे डेमोंस्ट्रेशन देना पड़ा।
आएशा की दुनिया थी बच्चे। उन्हें बहलाना उन्हें रिझाना उन्हें हँसाना ! हर उस बच्चे को जो उसकी हद में प्रवेश करता वह अपनी तरफ से जन्मदिन का कार्ड और तोहफा देती। कार्ड बनवाना टाईमटेबल का अभिन्न अंग था । एक दिन वह रोज़ से ज्यादा चुप थी। अपना पेपरवर्क निपटाना था उसे। पर बच्चों ने उसे नहीं छोड़ा। वह सरलता से मुस्कुराई और क्राफ्ट की मेज़ पर जा बैठी। तमाम तरह का सामान छोटी छोटी डोलचियों में सजा था। बच्चे चुपचाप काम करते रहे। आएशा गम्भीर थी। दिन ख़त्म होने पर आएशा ने किसी अल्हड बच्चे की तरह कहा,” देखिये बाजी कैसा बना है। ”
सफ़ेद कार्ड पर एक पेड़ का रेखाचित्र। महज़ एक तना । उसमे एक कोटर ,बसंत का आभास देती नन्हीं नन्हीं कोपलों भरी एक हरी टहनी और तने से चिपका एक कठफोड़वे का जोड़ा। सबकुछ तो महीन ब्रश से रेखांकित था मगर पंछियों का जोड़ा उसने नन्हे नन्हे परों को क़तर जोड़ कर चिपकाया था। ऐसा खूबसूरत नफीस काम सैफ़ी ने पहले कभी नहीं देखा था। कार्ड को खोला तो उसमे लिखा था ,हैप्पी बर्थडे ममा !
सैफ़ी के मन में हूक सी उठी।
” आयशा भेजोगी इसे ?”
” हाँ बाजी ”.
” और फुफु ? ”
” उन्हें नहीं बताना। मगर मुझे शफ़ीक़ ने इजाज़त दे रखी है। इसलिए यह गलत नहीं है। औरत की आख़िरी जवाबदेही उसके शौहर के लिए है। ” ” ” ” मिलती हो क्या अपनी ममा से ?”
” हाँ चुपके से.। . . वह भी मिलने आती हैं। हमारे यहां आने की उन्हें खबर मिल गयी थी। दरअसल हम अपने पुराने घर में ही आ बसे थे तो पुराने पड़ोसियों ने ममा को बता दिया। वह चुपके चुपके साथ वाले घर से हमें निहारतीं और दूर से देखकर तसल्ली कर लेती थीं। पड़ोसिन ने एक दिन मुझे बताया तो मैं और ताहिरा अपने को रोक नहीं सके। पहले कुछ दिन हम वहीँ मिलते रहे मगर जब हमारे शौहरों को पता चला तो उन्होंने इजाज़त दे दी। अब हम उनके घर जा सकते हैं। वह अलबत्ता इस घर में कभी नहीं आईं। फुफु के डर से। उन्हें हक़ है फुफु से नफरत करने का। अब अक्सर वह हमें कहीं अच्छे से रेस्टोरेंट में बुलाकर ट्रीट देती हैं। हमारे बच्चों को बहुत तोहफे देती हैं। उनके लड़कों के सब छोटे कपडे इन बच्चों ने पहने हैं।
” कभी पूछा उनसे कि क्यों छोड़ दिया ?”
” कौन छोड़ता है अपनी औलाद को ? हालात छुड़वा देते हैं। और हालात का मालिक सिर्फ अल्लाह है। ”
आएशा के होंठ और हाथ काँप रहे थे। अब रोई के तब रोई। शायद उसे एक कंधा चाहिए था सर रखने के लिए। वह घर जाते जाते रुक गयी।
” बैठो आएशा। एक कप चाय चलेगी। पहले यह बताओ कि इतना सुन्दर काम कहाँ सीखा। ”
एक हिचकी को गले में घुटकते हुए लरज़ती सी आवाज़ में वह बोली ,” मेरी माँ बाजी बहुत सुघढ़ थीं। वही इस तरह की खूबसूरत चीज़ें बनाया करती थीं। तब हम दोनों बहनें उन्हें देखा करते थे। तरह तरह के फल और नन्हें नन्हें जानवर चिड़ियाँ वह मारजीपैन से बनाती थीं.। किसी का जन्मदिन आता था तो केक ,कार्ड और चोकोलेट वह खुद से तैयार करती थीं। हमारी गुड़ियाँ सजाती थीं। हमारी सहेलियां अक्सर हमारे घर आती थीं तो बेबात की पार्टी हो जाती थी। हिन्दुस्तानी खाना भी अच्छा सीख लिया था मगर उन्हें हिजाब से चिढ थी। पाकिस्तानी फ़िल्में नहीं देखती थीं जो कि अब्बू की जान थीं। वह कहती थीं कि एक ख़ुशी बांटो तो सौ इबादतों का सवाब मिलता है। एक लतीफा सुनाना बेहतर है बजाय माला फेरने के।
अल्लाह सबका पिता है तो खुद ही देख लेगा बन्दों के दिल की। अब्बू पांच बार नमाज़ अदा करते थे मगर किसी का दिल खुश करने के लिए उनके पास वक्त नहीं था। जब हम शादी के बाद वापस इंग्लैंड आये तब अब्बू ने हमें पुराना घर दे दिया। बाजी हमारा रोना ही न रुका घंटों तक.। हम दोनों बहनें एक कमरेसे दूसरे में जाते और हाथ पकड़कर ,गले से लिपटकर सिसकियाँ भरते। रात में जब सब सो गए तब हमने ममाँ का कमरा खोला। पता नहीं कबसे वह खुला नहीं था। जाले धूल और घुटन के मारे हम सांस नहीं ले सक रहे थे। फुफु तब वहां नहीं आईं थीं।सच जानिए हम इतने खुश हुए जब ममा की चीज़ें देखीं। हमने उनके कपड़ों को सहलाया। दोनों में से कोई बोल नहीं पा रहा था। बस हम उस हवा में माँ को महसूस करते रहे सुबह तक। अब्बू ने हमारी चीज़ें भी वहीँ बंद कर दी थीं। हमारे पुराने खिलौने ऐटिक में डाल दिए थे। रफीक भाई हमारे दर्द को समझते थे। सुबह होने पर देखा हम एक दूसरे को गले लगाए मामा के पुराने बिस्तर पर सो रहे थे। उस दिन पहले दोनों भाईयों ने हमारे खिलौने और सामान उतारे और साफ़ सफाई की। बहुत दिन लगे हमें पुराने और नए में समझौता करने में। करीब दो महीने तक कोई किसी से नहीं बोलता था। ताहिरा मशीन की तरह चुप चाप खाना बनाती। जब भी वक्त मिलता हम पुरानी यादें फरोलते। कभी हँसते कभी रोते । हमने बाजार से माइनस साइज के नए कपडे लाकर अपनी पुरानी बेबी डॉल्स को पहनाये। ममा की गृहस्थी के सब बर्तन भांडे प्यार से दुबारा सजा सजा कर रखे। उन्हीं से अभी तक हमारा काम चल रहा है। ताहिरा भी कुछ ले गयी अपने नए घर में। पर हमें हरेक चीज़ अज़ीज़ है उनकी।
” आपके अब्बू ने उनसे शादी क्यों की अगर अपने मज़हब का उन्हें इतना ख्याल था तो? ”
” मेरे ख़याल में यह सवाल मज़हब का नहीं था। बस मर्द होते ही हैं कंट्रोल फ्रीक ! हिजाब तो एक बहाना था। ममा अपनी तरह का कुछ पका लेतीं तो अब्बू दुबारा खाना बनवाते। ममा दिनभर खाली होतीं थीं। वह नौकरी करना चाहती थीं ताकि घर की घुटन से बाहर जा सकें। किसी से ज्यादा मेल जोल नहीं था। उनके अपने अब्बू को पसंद नहीं थे और पाकिस्तानी औरतें उनकी तरह बातें नहीं करती थीं हालाँकि वह खुद बहुत पढ़ी लिखी नहीं थीं। स्कूल भी पूरा नहीं किया था। अब्बू वकील थे। ख़ासा कमाते थे। अपने रुतबे का गुरूर था। छोटे मोटे काम को नीची नज़र से देखते थे।
ममा के लिए कोइ भी काम नीचा नहीं था। ”
” क्या बहुत झगड़ा हुआ था ? ”
” नहीं बाजी। बस ममा बुझती चली गईं। अब्बू देर से घर आते। खाना खाकर फ़िल्में देखने बैठ जाते। हम स्कूल से आते तो ममा हमें अपना काम खुद करने की हिदायत देतीं। उनकी खास खास सेंटें यूँ ही पडी रहतीं। उनके पास से सिगरेट की बू आती। फिर एक दिन सब खत्म हो गया। खाने की मेज़ पर एक पर्ची मिली जिसमे लिखा था, ” मैं घर छोड़कर जा रही हूँ।जल्दी ही जगह लेकर बच्चों को लेने आऊंगी। ”
यह नोट पढ़कर अब्बू झटपट हमें लेकर पाकिस्तान आ गए। पहले हम दोनों कुछ भी नहीं समझे। अब्बू ने हमें हॉलिडे का झांसा दिया था। मामा कहाँ गईं थीं उन्हें नहीं पता था मगर हमे कहा कि वह अपनी बहन से मिलने गईं हैं इसलिए अब्बू भी अपनी बहन से मिलने जा रहे हैं। हम खुश थे मगर ममाँ का साथ न होना हमें अखर रहा था। मैं बार बार रो देती थी। जब लाहौर पहुँच गए तब हमें अहसास हुआ कि कुछ बेहद गलत हो रहा है। घर पुराना , गली गन्दी ,खिड़कियों पर पड़े टाट के परदे। गंदे पिंडे बच्चे। हम हॉलिडे पर नहीं नरक में आ पड़े थे। फिर जो हमारा रोना शुरू हुआ कि पूछिए मत। ताहिरा ने तो दो दिन तक फाका किया। अब्बू हमें आईस्क्रीम खिलाते तो कभी लड्डू मगर जब हम बिलकुल टूट गए तब खाना हलक से नीचे उतरा। ताहिरा को बुखार भी आ गया। हफ्ते बाद थोड़ा सम्भले तो एक दिन धोखे से हमें छोड़कर अब्बू वापिस इंग्लैंड चले गए। ———
कितने दिन रोते। वक़्त को खुदा कहा जाता है। हमें बस एक तसल्ली थी कि अब्बू वापिस आ जायेंगे हमें लेने। नहीं आये ! हम खिड़की के सरिये पकड़कर दिन दिन भर बाहर रस्ते को निहारते कि शायद कहीं नज़र आ जाएंगे। हमने एक खेल बना लिया था। बारी बारी से हम आती जाती सवारियों से कहते लाल मोटर जाना ,अब्बु को लेकर आना। तांगेवाले जाना अब्बु को लेकर आना। जब कोई आता हम चुप हो जाते थे यह हमारा राज़ था। हमने दुआ करना सीख लिया कि शायद खुदा हमारी दुआ क़ुबूल कर लेगा। ममा की विश फेयरी भी नहीं पहुंची हमें हमारे घर ले जाने के लिए। मैं रात रात भर जगी रहती और खिड़की के बाहर ताकती। एक बार ताहिरा ने देखा तो कहा सो जा आयशा खिड़की पर सरिये लगे हैं। वह अंदर कैसे आएगी उसके पंख टूट जायेंगे। घर की नौकरानी हमीदा दिन रात आते जाते गालियां बकती। कहती अल्लाह गारत करे ऐसे माँ बाप को। अरे माँ फिरंगी थी पर बाप तो असल था। हमारे मन में माँ ज़्यादा अहम थी। ममा नक़ली कैसे हो सकती थीं ? पर कौन सुनता था।”
आयशा के आंसू बह रहे थे। सैफ़ी ने पानी पिलाया और कहा , ” सौरी आएशा मगर बस इतना बता दो कि क्या तुम्हारी ममा कभी लेने आईं तुम्हें ?”
” आईं थीं। तीन बरस लगे थे उन्हें हमें ढूंढने में। और सरकारी इमदाद लेने में। मगर तीन बरस में हम कुछ के कुछ. हो गए थे। हमारा नया घर था इस्लामाबाद में। वह आईं तो हम उन्हें पहचान भी न पाये। उनहोंने हमें गले से लगा लिया और फूट फूट कर रोने लगीं। ताहिरा और मैं भी रोने लगे। माँ लफ्ज़ ही हमारे दिलों में एक फांस था। मगर अब्बू वकील थे सब कानूनी दाँव पेंच जानते थे। उनका पाकिस्तान में बहुत रसूख था। बस एक बार के बाद उन सब ने हमें ममा से मिलने ही नहीं दिया। हम सवाल करते तो फुफु और अब्बु ऐसी कहानी गढ़ते कि हमें अपनी माँ गुनहगार समझ आने लगी।
फुफु ने मम को मीठी मीठी छुरी से मारा। पूछा क्या घरबार है तुम्हारे पास ? मम की एक मामूली सी सेल्स गर्ल की नौकरी। ना घर ना घाट। उनके माँ बाप ने उन्हें पहले ही नकार रखा था। एम्बेसी के अफसर के सामने उन्होंने कबूला कि अगर बच्चे उन्हें मिल जायेंगे तो कौंसिल उन्हें घर भी दे देगी। फुफु के वकील ने कहा कि वह कौंसिल से मुफ्त घर हासिल करने के लिए बच्चों को ले जाना चाहती थीं। ममा ने बहुत ज़ोर लगाया और उन्हें समझाया कि ऐसा नहीं है। उनके वकील ने दलील रखी कि माँ बेटियों की परवरिश के लिए बहुत जरूरी होती है इसलिए उनको माँ को ही सौंप देना चाहिए। कल को अगर लड़कियों का बाप शादी कर ले तो इनको कौन मंज़ूर करेगा। मगर इस बात पर फुफु अड़ गईं। कहा की उन्हें अपने खून की औलाद को ममा की तरह बदचलन नहीं बनाना। उस माहौल में सबकी सोंच एक सी थी। ममा अकेली पड़ गईं .
दरअसल उनकी गलती यह हुई कि जब घर छोड़ा था तो हमे भी संग ले जातीं। तब उनका कोइ रिश्ता नहीं था किसी से। ममा सिर्फ अपने लिए नई ज़िंदगी ढूंढने निकल पडी थीं। उस वक्त इंग्लैंड की कौंसिल उन्हें सहारा देती। फैसला उनके हक़ में रहता। मगर यूं दो मासूम बच्चियों को अकेले घर में छोड़कर कहीं चले जाना निहायत बेवकूफी थी। इंग्लैंड में भी यह गुनाह माना गया है । कोर्ट ने इसे जवानी का जोश और उन्हें बदचलन कहा। वह रोती धोती वापिस चली गईं। हम दोनों से भी पूछा गया था कि किसके साथ रहोगी। इतना तो हम समझते थे कि बिना घर के किसी अनजान आदमी के यहाँ कहाँ जाते। हम पूरी तरह उस जीवन में रम चुके थे। हमारा घर था , यूनिफार्म वाला स्कूल था सहेलियां थीं ,मदरसा था। हम फुफु को प्यार करते थे। इंग्लैंड की बस एक धुंधली सी याद थी। ”
” माना तुम्हारी फुफु बहुत अच्छी थीं मगर जिन लड़कों से दस साल भाई का रिश्ता निभाया उनसे शादी कैसे कर ली ?अब देखो क्या नतीजा हुआ। ” ” भला बुरा समझने की उम्र ही कहाँ थी। ममा को बदचलन सुनकर हम फुफु की नसीहतों का ही दामन पकडे हुए थे। अल्लाह का खौफ हमे घोट घोट कर पिलाया गया था। अगर ना भी करते तो हमारी सुनता कौन ? बाहर का कोइ रिश्ता ? हमे कौन कबूल करता? माँ जिसकी दागदार हो वह जनम से गुनहगार मान लिया जाता है। एक बार की बात है फुफु के ससुराल में कोई जश्न था। शफ़ीक़ की चाची हमसे हमदर्दी जताने लगीं।फुफु पे रखकर बोलीं अय अपने मतलब के लिए पराई कोख को हराम कर रही हैं। पैसे जो मिल रहे हैं। बच्चियों को माँ से जुदा करके कौन सा मुंह दिखाएगी खुदा को क़यामत के दिन। फुफु ने उससे कहा चलो मैं तो बुरी हूँ। तुम अच्छी हो तो अपने चुन्नू से ले लो बड़ी को. . चाची मुंह बनाकर चुप मार गईं। बाद में चुन्नू ने ताहिरा पर छींटाकशी की और उसे कहा कि भूरे बालों में वह कंजड़ी लगती है।उसे बालों को काला रंग लेना चाहिए। बस उस दिन रफ़ीक भाई ने अपने कजिन को खूब पीटा और हम दोनों को किसी भी शादी ब्याह में जाने से मना कर दिया। रफ़ीक बहुत समझदार हैं और दिल के भी अच्छे हैं। अब्बू ? उन्हें मतलब ही क्या था ? नज़र से दूर तो दिल से भी दूर। फुफु उन्हें बराबर लाहौर आकर दूसरी शादी के लिए मनातीं मगर वह सिर्फ हमारे लिए पैसे भेज देते।
आएशा के आंसू लगातार बह रहे थे। रफ़ीक़ और शफ़ीक़ क़द काठी से स्वस्थ मर्द थे। बड़ी बहन ताहिरा का आदमी बस ड्राईवर बन गया था उनके चार बच्चे थे। पहला क्लेफ्ट लिप पैदा हुआ था। दूसरा कम सुनता था बाकि दो कमजोर सेहत और दमा आदि के शिकार थे। सरकारी भत्तों के सहारे यह दो परिवार अपनी गृहस्थी चला रहे थे।
अगले दिन शुक्रवार था। आएशा को आधे दिन काम करना था। लंच की घंटी बजते ही वह क्लोकरूम में जाकर हुलिया बदल आई। लाल जॉर्जेट की टॉप और काली जींस। कमर तक लम्बे बाल खुले छोड़ दिए थे और एक तरफ जड़ाऊ क्लिप लगाया था। कानो में नए फैशन के लम्बे बुँदे और लाल लिपस्टिक लगा कर आएशा हॉलीवुड की नायिका लग रही थी। नैन नक्श के साथ उसे फिगर भी कटावदार अपनी पतली लम्बी माँ से मिला था। सैफ़ी ताकती रह गयी। आएशा लजाकर बोली कि वह माँ से मिलने जा रही है। इस हफ्ते उनका जन्मदिन था। बहन ताहिरा भी संग जा रही थी।
” इस लिबास में ? मैं समझती थी कि तुम पर मज़हबी पाबंदी है ? ”
” है बाजी मगर फुफु को कौन बता रहा है ? हमारे शौहर जरा भी माइंड नहीं करते। दो घंटे संग बिताकर हम अपने बच्चों के घर आने से पहले लौट आयेंगे। टैक्सी कर ली है। ताहिरा ने केक बनाया है। हमने एक ड्रेस उनके लिए खरीदी है। फूल और चोकोलेट भी लिये है। ”
” कहीं दूर रहती हैं ?”
” नहीं बस पाँच सात मील पर। ”
” और उनका वो बिल्डर बॉयफ्रेंड ? ”
” बहुत अच्छे हैं बाजी ! दो बच्चे है उनसे पंद्रह और बारह। दोनों लड़के हैं। शादी तो नहीं की मगर खूब साथ निभाया हर ऊँच नीच में। हमारे बच्चों को भी चाहते हैं। हमसे प्यार से पेश आते हैं। ममा खुश हैं उनके साथ। ”
” अच्छा आपके अब्बू क्या कहेंगे ?”

बाजी उन्हें क्या पडी है अब हमारी ? उनसे हमने सारे रिश्ते तोड़ दिए हैं। बच्चों को भी नहीं पूछा कभी। ”
” कमाल है। ऐसा क्यों ? ”
” बस उनहोंने हरकत ही ऐसी की। हमे बिरादरी में मुँह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा। ”
” तुम्हारा मतलब फुफु से भी टूट गयी ?”
” हाँ बाजी। ”
” मगर ऐसा क्या गुनाह किया ?”
” गुनाह ? कुफ्र कहिये बाजी ! जनाब के दिमाग में पैसे का भूत घुस गया है। जाकर एक अहमदियन से शादी कर ली। खानदान का नाम ही डुबो दिया। उनसे अब कोइ नहीं बोलता। ”
आएशा चली गयी।
सैफी के दिल में एक सुकून था कि बेटी अपनी माँ से मिलेगी। मगर फांस की तरह चुभता एक सवाल भी लाजवाब लटकता रहा। उसे परेशान करता रहा।
कौन था वह गुनहगार जिसने उनके खिले बचपन को रौंद दिया ?
क्या उसकी माँ ?—– एक अल्हड़ ,अनुभवहीन ,मस्त रूपगर्विता ,जो एक चालाक वकील के साथ महज़ यौन संबंधों को प्रेम मान बैठी ?
या वह हृदयहीन बाप जिसने इंग्लैंड का वीसा हासिल करने के लिए अपने से पंद्रह साल छोटी एक मासूम लड़की को
प्रेमजाल में फँसाया ,जिससे न उसका दिल मिलता था ना भाषा ना मज़हब ?
या वह अनपढ़ ,मौकापरस्त फुफू ,जिसने अपने बेटों का मुस्तकबिल बनाने के लिए उन्हें इस्तेमाल किया और जब उनकी माँ उन्हें लेने आई तो उसे ज़लील करके निकाल दियाऔर वह रोती बिलखती खाली हाथ वापिस चली गयी ? अब
जब बेटे बस गए तो नाशुक्री ने भाई को भी फटी कमीज की तरह तज दिया।
बेचारी आयशा और ताहिरा ! ख़ुदा उनके बच्चों को अच्छी क़िस्मत बख्शे और उनको खुश रखे।

 

- कादंबरी मेहरा


प्रकाशित कृतियाँ: कुछ जग की …. (कहानी संग्रह ) स्टार पब्लिकेशन दिल्ली

                          पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) सामयिक पब्लिकेशन दिल्ली

                          रंगों के उस पार (कहानी संग्रह ) मनसा प्रकाशन लखनऊ

सम्मान: भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान २००९ हिंदी संस्थान लखनऊ

             पद्मानंद साहित्य सम्मान २०१० कथा यूं के

             एक्सेल्नेट सम्मान कानपूर २००५

             अखिल भारत वैचारिक क्रांति मंच २०११ लखनऊ

             ” पथ के फूल ” म० सायाजी युनिवेर्सिटी वड़ोदरा गुजरात द्वारा एम् ० ए० हिंदी के पाठ्यक्रम में निर्धारित

संपर्क: लन्दन, यु के

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