बदरा बरसे, बिजुरी चमके
उमड़-घुमड़कर आया सावन।
तृण-तृण पर नवजीवन छाया
कोटि-कोटि हर्षाया सावन।
हर्षाता घोर घन – गर्जन
मन-भाता मोरों का नर्त्तन।
धरती की ज्यों प्यास बुझाने
हहर – हहर हहराया सावन।
बागों में कोयल की तानें
दिल धड़के,जियरा नहीं माने।
पातों से झड़ती रस – बूँदें
रोम-रोम तरसाया सावन।
भाई-बहन के अमर प्रेम की
दिग-दिगन्त गाथा सब गाते।
रेशम के धागों में गुंथकर
स्नेह-सुधा बरसाया सावन।
यादों की मीठी-सी झपकी
अलसाई नींदों में ठिठकी।
भावों से जब तन-मन भींगे
मदिर-मदिर मुसकाया सावन।
- विजयानंद विजय
शिक्षा - एम.एस-सी; एम.एड्.
संप्रति - अध्यापन ( राजकीय सेवा )
निवास - आरा (भोजपुर) , बिहार
उपलब्धियाँ - विभिन्न राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, लघुकथा,कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित।
अभिरुचि - स्वतंत्र लेखन।