तुम भी न अजीब हो जी? एक ही बात को बार-बार रिपीट करते हो। मैंने कह दिया तो कह दिया।
इससे क्या? केवल कह देने मात्र से कुछ हो जाता?
क्यों नहीं? दुनियां के लगभग काम कह देने से होता है।
जी नहीं, गलत है। कहने से कुछ नहीं होता प्यारे, करने से होता है।
भारत का संविधान लिखित है, लिखित। समझे।
इसमें समझने की क्या बात है? हर चीज संविधान से नहीं चलता, या यूँ समझो संविधान इसके लिए नहीं है।
अरे बेवकूफ, ये तो कानून संहिता है। अधिकार, कर्तव्य का समावेशन है। फिर इसकी तुलना, इसका एक्जाम्पल हर जगह ठीक नहीं।
ओह! मुझको पढ़ाने लगे।
जब स्टूडेंट कमजोर होता, तो अलग से कोचिंग लेनी पड़ती है।
हाँ, और यह भी बोल दो कि फी भी भरनी पड़ती है।
तुम न, मेरा माथा खराब कर दी।
तुम्हारा सही ही कब था?
तुमसे पहले।
इसका मतलब मैंने तुम्हें खराब कर दिया?
हूँ, नहीं तो कौन?
देखो रोजी, हर वक्त तुम मुझे खरी-खोटी कहते रहती हो। यह आदत ठीक नहीं। जब हो गई, तो हो गई। इसे निभाना ही ठीक है।
निभाने का मतलब? तुम कोई मेहरबानी कर रहे हो क्या? ये तो मेरा हक है, हक। और हक जब मांगने से नहीं मिलता तो छीनना कोई जुर्म नहीं।
फिर तुम…
क्या, फिर तुम?
बक-बक करना शुरू कर दी।
यह बक-बक नहीं है, यही सही है। तुम पुरुषों ने इसी तरह हम नारियों का शोषण किया है। हम जुल्म सहते रहे और तुम जुल्म ढाते रहे। जमाना लद गया। अब इस बात को भूल जाओ कि तुम, तुम हो और हम, हम।
देखो रोजी, गाछ के साथ लिपटे रहने में ही छाल की अहमियत होती। उससे अलग रहने पर इसकी कोई कीमत नहीं होती, कोई कद्र नहीं होती।
फिर भी छाल के बिना गाछ …?
बिल्कुल नग्न। सही है, बट उसकी अहमियत अवशेष रह जाती।
दर्शनशात्र पढ़ाने से बेहतर है खुद को ठीक कर लो, वरना…
वरना क्या…?
सलाखों में बंद।
कितनी अजीब हो तुम। हम पुरुष हमेशा तुम जैसी नारियों को अपने हृदय के सलाखों में बंद रखते हैं और तुम…, तुम जैसी लाखों नारियां जरा-जरा-सी बातों से सलाखों में बंद करवाने की सोच रखते हो। इतना ही नहीं बेकसूर पुरुषों को नरक तक पहुंचा देते हो। कहते, उसने अपनी आँखें नीचे कर ली थीं।
फ़ज़ल सोचता जा रहा था कि सचमुच यह दुनिया एक ढकोसला है। यहां पर वास करनेवाले मानव, प्राणी, चाहे वह पुरुष हों अथवा नारी सभी स्वार्थ के मादक वन में विचरण करनेवाले अप्रत्याशित उत्पाद हैं, जीव हैं। मुझको पता था और है भी कि तुम बदल जाओगे, वैसे ही जैसे बदलते आए हैं लोग, समय के साथ-साथ, फिर भी मुझको यकीन है कि तुम मुझ पर भरोसा रखती रोजी और इसका ख्याल मैं ताक़यामत रखूँगा।
एक बात पूछूँ फजल, बुरा तो नहीं मानोगे?
कोशिश करूंगा, बावजूद इसके अगर बहुत बुरी होगी तो भी बर्दाश्त कर लूँगा, बोलो।
तुमने कभी किसी गल के मनोभावों को समझा है?
मैं नहीं समझ सका।
आई मिन, कभी यह जानना चाहा है कि शादी के पहले और शादी के बाद गल में क्या बदलाव होती है?
जी, कुछ-कुछ पता है।
क्या-क्या?
यही कि शादी के पहले गल काफी चंचला होती है, प्रेम की भूखी होती है, और शादी के बाद एक पत्नी के रूप में एक आदर्श नारी बन जाती है।
बस, और कुछ?
नहीं।
फ़ज़ल की आँखें अब कल्पना से दूर एक हकीकत की प्राकृतिक पहाड़ी पर थी, जहाँ बड़े-बड़े पेड़ों के साथ-साथ छोटी-छोटी टहनियों वाली कांटेदार झाड़ियां भी थीं, जिस पर चरती हुई गायों के संग बकरियाँ भी थीं।
पहाड़ी के किनारे का दृश्य काफी सुंदर और मनमोहक था। बगल ही छोटी नदी बहती, जो यदा-कदा बरसात के मौसम में बाढ़ का रूप ले लेती थी। फ़ज़ल अपने बचपन को याद कर कुछ पल के लिए खुद को उसी उम्र में, उसी जगह पहुँच अपने को महसूस करता। गर्मी के समय दौड़ते हुए, आंधी के साथ और फिर वर्षा के वक्त खेतों की ओर भागते क्षण को स्मृत कर एक अलग दुनिया में खो जाता। उस मनोरम और अविस्मरणीय क्षण को फिर अपनी बाहु-पाशों में समेट लेना चाहता, जबकि रोजी उनके जीवन में एक मधुर मुस्कान की बयार लेकर आई थी। फ़ज़ल अब मुहब्बत की सलाखों में बंद था, बिल्कुल बेपरवाह। क्योंकि उसे पता था कि भारतीय पत्नी शादी के बाद पूर्णतः अपने पति की होती है। पति ही परमेश्वर, पति ही सब कुछ। हत्ता यह कि पति को खिलाये बगैर खुद खाना भी नहीं खाती। अद्भुत पतिव्रता है। इसी सोच के साथ उसने रोजी से कहा– अच्छा रोजी, अगर तुमको पति और पिता का ऑप्शन मिले चुनने के लिए तो, तुम किसे चुनोगी?
सच कहूँ या झूठ?
उम्मीद तो सच की है।
जी, पहले पिता को ।
फिर?
फिर अपने पुत्र को।
और?
फिर… सोचकर
क्यों? पति को नहीं?
उहुँ।
मतलब?
कुछ नहीं।
नहीं रोजी, तुम कुछ छुपा रही हो।
नहीं, कुछ नहीं छुपा रही हूँ।
तो… तुम्हारी नजर में पति की कोई अहमियत नहीं?
नहीं, ऐसा भी नहीं। अहमियत है, बट…
कोई बात नहीं, आज मुझे समझ में आया कि आज के पतिदेव इतने कमजोर क्यों हैं?
हद हो यार, कब पति कमजोर नहीं रहा है। हर पति अपनी पत्नी के पास कमजोर होता है।
क्यों?
क्योंकि पति महाराज हर सुबह-शाम पत्नी जी के चारों ओर गणेश भगवान की तरह पूजा करते हैं और हाँ, तुमको मालूम है न पहले स्कूलों में एक प्रार्थना होती थी– “त्वमेव माता च पिता त्वमेव… त्वमेव सर्वं मम देव् देव।”
आज कहाँ चला गया?
आज यह प्रार्थना पति जी ने ले लिया और अब यही सुबह शाम हो रहा है।
लेकिन… तुम…
जी, यही न कहोगे कि पत्नी होकर आई मिन, एक लेडी होकर उसकी…
यस, ऐसा ही मैं सोच रहा हूँ।
देखो श्रीमान्, यही तो एक बात है। हम पत्नियों के पास इतने बड़े-बड़े नुस्खे हैं कि हम कभी भी किसी को अपने सलाखों में बंद कर सकते हैं।
जैसे… कौन-कौन से?
ओहो, तुम भी न अजीब हो यार।
अजीब तो हूँ ही, तभी तो तुम्हारा पति हूँ, वरना…
वरना क्या…?
वरना तुम मेरी पत्नी होती।
अरे, यह क्या घनचक्कर है? समझ में नहीं आता।
देखो रोजी, पत्नी का मतलब क्या होता है, तुझे पता है? नहीं न?
तो फिर बता दो न, भाव क्या खा रहे हो?
न जी, भाव न खा रहा हूँ और न दिखा रहा हूँ।
तो… फिर क्या कर रहे हो?
बस करो, बस। सुनो, पत्नी पतन धातु से बना है, जिसका अर्थ है गिरा हुआ। अर्थात् जो गिरे हुए को उठा दे, पत्नी वही है।
लो, तब तो मैं… क्या लगती हूँ तुम्हारी?
धर्मपत्नी।
हद कर दी यार। किसके चक्कर में पड़ गई।
क्यों?
ये धर्मपत्नी फिर क्या है?
अरे… यही तो समझने की है। धार्मिक रीति-रिवाज से जिनकी शादी होती है, ऐसी पत्नी धर्मपत्नी कहलाती है।
फिर आज जो व्हाट्सप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, मैसेंजर और न जाने क्या-क्या से शादियाँ होती हैं, क्या कहलाती हैं?
टाइम पास, पागलपन, बेवकूफी…,
हुँ… अब समझ में आ रहा है। अच्छा एक बात समझाओगे?
क्यों, कोई पहेली है क्या?
न जी, बट है कुछ न कुछ ।
फिर तो शौक से बोलो।
जी, ऐसा है न, अगर कोई पति-पत्नी आपस में लड़ाई करे तो इसमें जीत किसकी होती है?
कमजोर की।
मतलब?
मतलब तो साफ है, जो कमजोर हो, जीत उसी की होगी।
कमजोर का मतलब फिजिकली या फिर…?
अरे यार फिजिकली नहीं, केमिकली।
ये केमिकली क्या है?
हद हो तुम भी, छोटी-छोटी बात भी नहीं समझ सकती।
अरे बाबा, ये केमिकली का अर्थ है– आंसू बहाने में जो माहिर हो।
तब तो ऑब्विओसली पत्नी की ही जीत होगी।
क्यों?
इसलिए कि आँसू तो नारियों का सबसे बड़ा हथियार है। इस हथियार से वह जिसे चाहे कत्ल भी करा सकती है और रिहा भी।
ऐसा भी नहीं है कि आँसू ही सब कुछ है। लेकिन यह एक हथियार है, ऐसा लगता है।
चलो जी, बहुत डायलॉगबाजी हो गई। अब कुछ काम की बात करो।
क्या…? कौन-सी बातें?
अजी, फ़ज़ल गुमान करो कि, तुम लड़का होने पर ज्यादा खुश होओगे या फिर लड़की होने पर?
तुम न… पगली हो पगली। जो मुँह में आता है बक देती हो। अरे आज दोनों में कोई फर्क नहीं है।
कैसे?
जब तीन फीट दो इंच की गल आई.ए.एस. बन सकती है, तो फिर छः फीट की तो बात ही मत पूछो।
तब भी… किसे?
सच कहूँ?
जी, कभी-कभी तो सच बोलने का अवसर मिलता है, तुम पुरुषों को।
मतलब…?
मतलब साफ है, कि तुम पुरुष न अपने को बहुत धूर्त्त समझते हो, लेकिन शायद तुम्हें नहीं मालूम कि पुरुष एम.ए. करने के बाद जो समझ पैदा कर पाते हैं, नारियाँ कुँए से पानी निकालने के समय में ही कर लेती हैं, जब मुश्किल से उसकी उम्र बारह की रहती है।
अच्छा जी, ऐसा है?
जी, सौ फीसदी सच।
देखो, अगर पुरुष यह सोचते कि गल बेवकूफ होती है, तो समझो उनकी बुद्धि अभी तक सलाखों में बंद है। अभी पेरॉल भी मिलनेवाला नहीं है।
क्यूँ जी… इतनी कड़क, लाल मिर्ची की तरह क्यों बोलती हो?
क्योंकि हरी मिर्च में भी केमिकल मिलने लगा।
कैसे…?
जरा सुसुम पानी में डालकर देख लेना।
ई तो साइंस जो न करा ले।
जो नहीं, लगभग सब कुछ। अरे तुमने सुना नहीं अभी तो ऐसा चिप तैयार हो गया है कि शरीर के किसी भी भाग में रखकर नेट ओपन किया जा सकता। चाहे वह भाग नाक, कान या फिर आँख ही क्यों न हो।
ओह, इसलिए इस बार के मेडिकल एक्जाम में टॉर्च दिया गया था न?
जी।
अभी तो इतना पतला चीप हो गया है कि जीभ में भी चिपकाया जा सकता है और हवा के सम्पर्क आते ही वह खुद-ब-खुद एक्टिवेट हो जाता है।
अजी, हम दोनों न बयानबाजी… आई मीन, डिबेट करते बहुत दूर निकल गए। अब थोड़ा ट्रैक चेंज करना चाहिए।
फिर, मैंने कब मना किया?
जी, ऐसा है न, मन की बात थी, तो शेयर किया। पता है न मन की बात को शेयर करने पर मन हल्का हो जाता है। लेकिन…?
क्या?
जो पढ़ता या सुनता है, उसके लिए तो सिर दर्द हो जाता है न?
देखो जी, अगर कोई गड्ढा भरोगे, तो कहीं तो गड्ढा होगा न? बिना कहीं गड्ढा किये किसी गड्ढे को नहीं भरा जा सकता।
हूँ… बट, जरूरी यह होती है कि कहाँ गड्ढा करना जरूरी है और कहाँ गड्ढा भरना।
बस करो।
यकायक फ़ज़ल की आँखें भर आईं। चेहरे पर एक पतली महीन किरण दौड़ गई। यह स्मरण भी क्या होता है, जो कभी डिलीट नहीं होता। यह मष्तिष्क के किसी कोने में ही रह जाता है। इंसान चाहे कितना ही डेवलप्ड अपने आप को समझ ले, बट इस मेमोरी कार्ड को स्कैन नहीं कर सकता। पता नहीं यह चिप कितना बड़ा है, कितना अद्भुत है? और तो और कितने तरह का है, जिसके अंदर फोटो, वीडियो,ऑडियो… सब कुछ सुरक्षित रहता है। क्या मालूम, किसी ने इस पर खोज नहीं की।
फ़ज़ल अपने आप को अब भी सलाखों में बंद महसूस करता है, जब अतीत की दुनियां में खो जाता।
वह याद करता उस दिन को, जब उसकी पहली मुलाकात इन्तेहाँ से हुई थी। बिल्कुल सफेद लिवास में थी वह। काफी सुंदर… एक परी-सी लग रही थी। साथ में उसकी माँ भी थी। माँ के अख़लाक़ से वह काफी प्रभावित हुआ था। उसकी माँ दूर से रिश्तेदार लगती थी उसकी। देखते ही पहचान गई और कहने लगी– “बेटा, यह मेरी इन्तेहाँ है। पार्ट वन का एग्जाम लिख रही है। और हाँ, बेटा, देखो यह फ़ज़ल है जिसके बारे में अक्सर घर पर चर्चा करती थी।”
पता है, बेटा। मुझको तुम दोनों की जोड़ी बहुत पसंद है। कहते हैं न जोड़ी अल्लाह के यहाँ से बनकर आती है, और वह भी एकदम सही। जब इन्तेहाँ छोटी थी, तब से ही तुम्हारी माँ ने कहा था कि वह इन्तेहाँ को पसंद करती है। मुझको भी तुम पसन्द हो, क्यों बिटिया ठीक है न?
इन्तेहाँ ने सिर झुकाकर कुबूल कर ली थी। फिर देखते ही देखते इन्तेहाँ की चर्चा मेरे भी घर होती रही। घर के सारे जन कहते कि इन्तेहाँ बहुत ही सुंदर और सिरत वाली है। इस कदर एक दिन उसकी माँ ने मुझको शबेबरात के मौके पर दावत दी। मन तो जाने का नहीं बना, बट, मेरी माँ ने मुझको जाने को मजबूर कर दिया। जाकर देखा, इन्तेहाँ की माँ कलाम पाक तेलावत कर रही थी। ऐसे भी वह काफी नेक और परहेज़गार औरत थी। शायद ही कोई दिन होगा जो वह बिना तेलावत के रहती थी। नमाज तो उनकी रगों में था मानो। मुझे उनकी यह अदा और आदत बहुत अच्छी लगती।
कहते हैं कि तकदीर भी कोई चीज होती है और इसकी लिखी कभी नहीं मिटती। मुझको भी यकीन होने लगा था। दिन गुजरते चले गए। धीरे-धीरे उम्र भी बढ़ती जाने लगी। दोनों के परिवारों में एक-दूसरे की शादी की तस्करा होने लगी। इन्तेहाँ की तरफ से शादी का पैगाम आया। घर वालों ने हामी भर दी, लेकिन कुछ दिनों बाद मेरे घरवालों ने रिश्ता करने से साफ इनकार कर दिया। माँ कहने लगी– “उसके खानदान में वंशरोग है, और यह रोग मेरे भी खानदान में आ जायेगा। फिर लड़की भी उतनी सुंदर नहीं है। उसके पिताजी काफी घमंडी हैं। उसके नाना ने एक दिन मेरे बाबूजी को खरी-खोटी सुनाई थी।”
पता यह चला कि घर के सारे लोग अनॉएड हो चुके थे। मुझे बहुत बुरा लग रहा था। कारण, मुझे किसी की वादाखिलाफी अच्छी नहीं लगती। फिर कहीं न कहीं मैं भी भावनात्मक रूप से इन्तेहाँ को चाहने लगा था।
एक रोज की बात है। मेरी मुलाकात इन्तेहाँ की माँ से स्टैंड पर हो गई। उसके साथ उसका भाई और इन्तेहाँ भी थी। इन्तेहाँ की आँखें झुकी हुई थी। काफी उदास लग रही थी वह। मुझको अपने-आप में अपराधी-सा महसूस हो रहा था। दोपहर का वक्त था और दिन भी गर्मी का था। सूरज मानो आग उगल रहा हो, ऐसा लग रहा था।
उसकी माँ ने मुझसे कहा– “बेटा, सुना है तुम्हारे घरवाले शादी नहीं करना चाहते? आखिर क्यों?
शायद किसी ने कान भर दी है।
पर, कोई तो वजह होगी?
नहीं…
तो फिर…? क्या कारण है?
हमने तो कब से मन में बैठा लिया है कि मेरी इन्तेहाँ का रिश्ता वहीं होगा और इन्तेहाँ भी तुम्हें दिल से चाहने लगी है।
हुँ, लेकिन…
लेकिन क्या?
यही कि मेरे घर में किसी ने सुना दिया है कि आपके खानदान में वंशरोग है और यह रोग छुआछूत का है, जो मेरे भी घर आ जायेगा।
अरे, यह सब किसने कह दिया? ऐसा थोड़े है बेटा, फिर तो मैं भी बंगाल से आयी हूँ। उम्र हो गई, मुझे भी कुछ हो जाना था। यह सब लोगों की चाल है। देखो, तुम अपनी माँ को समझाओ, समझ जाएगी। और हाँ, तुम्हारी पढ़ाई पर जितना खर्च होगा सबका निर्वहन मैं करूँगी, जो कुछ भी चाहिए मैं सब दूँगी। घर-द्वार, कपड़ा-लत्ता, जर-जेवर सब कुछ। सब मैं करूँगी, तुमको एक रुपया भी नहीं खर्च करने दूँगी।
मेरी बेटी पाकीजा है बेटा, पाकीजा। थोड़ा रंग दब जरूर है, लेकिन बहुत ही नेक है। अल्लाह पाक़ तुम दोनों को बहुत खुश रखेगा। मैं हर रात तहज्जुद की नमाज में दोनों की जोड़ी की दुआ करती हूँ। बेटा, अपनी माँ को समझाओ। मुझे पता है कि तुम्हारी माँ समझदार है, वह जरूर समझ जाएगी।
मैं दबे पांव घर आया। माँ को सारी बातें सुनाई। माँ ने तो पहले मुझ पर शक किया, लेकिन बाद में उसे मुझपर यकीन हो गया कि दोनों के बीच किसी तरह का अवैध रिश्ता नहीं है। केवल एक चाहत है। और किसी को जीवन साथी बनाने की चाहत, तमन्ना कोई बुरी बात नहीं, ऐसा मेरी माँ समझती थी।
बहुत गिड़गिड़ाने पर मेरी माँ ने हामी भर दी। बाबूजी भी हाँ कर दिए, यह सोचकर कि इन्तेहाँ एक अच्छे-खासे परिवार से थी और पढ़ी लिखी भी। उनके परिवार वालों को जब यह खबर मिली तो इन्तेहाँ की ख़ुशी का कोई ठिकाना न रहा। उसकी माँ शुक्राना नमाज के लिए सजदे में चली गई। निकाह के बाद इन्तेहाँ में काफी बदलाव आया। पढ़ने के प्रति जिज्ञासा बढ़ती जाने लगी। वह भी आगे की पढ़ाई कर कुछ करना चाहने लगी।
कहते हैं, समय से आगे और भाग्य से ज्यादा शायद किसी को कुछ नहीं मिलता। इन्तेहाँ की माँ अचानक बीमार पड़ जाती है और उसे डॉक्टर के पास ले जाने को कोई नहीं मिलता। इन्तेहाँ साथ हो लेती है और उसे ले जाकर हॉस्पिटल में एडमिट कराया जाता है। गैस-पेन की दवा खाकर वह ठीक हो जाती है। ठीक होने पर बेड पर ही बैठी वह अपनी जिंदगी की दास्ताँ सुना जाती है, जो मेरे दिल को झकझोर देता है। वह कहने लगती है– “बेटा, औरत होना आज के जमाने में गुनाह है, पाप है, सजा है। आज जब तुम और इन्तेहाँ बैठी हो, तो मैं कह रही हूँ, कभी भी तुम दोनों आपस में लड़ाई नहीं करना। कुछ भी हो जाये अपने दहलीज से बाहर नहीं करना। औरत, एक पर्दा, एक देवी, एक चौखट होती है, बेटा। इसके बिना न घर की इज्जत रहती है और न ही दरवाजे की। इसे हमेशा प्यार और विश्वास के सलाखों में बंद रखना।” मुझे याद है, उत्तर काशी की वह घटना, जब इन्तेहाँ के बाबूजी ने मुझे यह कहकर घसीटकर घर से निकाल दिया था कि मेरी तीसरी औलाद मेरी औलाद नहीं है। रात-रात भर चौखट पकड़कर रोयी थी और सामने से जंगली बाघ प्रायः रोज गुजर जाते थे। मैं आँचल छुपा-छुपा आँसुओं से तर हो जाती थी। “यह पुरुष बहुत निकम्मा और शक्की होता है बेटे। खुद लाख बुरा करे, कुछ कह नहीं सकते और बेवजह की वजह बनाकर नारी समाज को शुरू से कलुषित करता रहा है बेटा। मुझको पता है कि तुम दोनों का प्यार बिल्कुल सच्चा है, लेकिन अगर कभी रिश्ते में दरार आ भी जाये, तो अलग नहीं होना…” कहते उसने मेरे माथे की पेशानी को चूम लिया और फिर इन्तेहाँ को खूब पुचकारने लगी।
रफ्ता-रफ्ता दिन बीतता गया और वक्त सलाखों में बंद होता गया। इन्तेहाँ को उसके घरवाले कुछ से कुछ कहकर परेशान करने लगे, यह जानकर कि यह अपने माँ-बाप की एकलौती सन्तान है। किसी तरह इसे आउट कर दिया, तो सारी सम्पति का हकदार हो जायेंगे। इन्तेहाँ ने एक दिन मुझसे कहा–
“जानते हो फ़ज़ल, मुझे इधर कुछ दिनों से बहुत डर लग रहा है। हमेशा यह लगता है कि कहीं तुम्हें कुछ हो न जाये।”
क्यों…?
हाँ, फ़ज़ल दुश्मन हम सबको जीने नही देंगे। जब से तुम मेरे परिवार को गाईड कर रहे हो, भाई-गोतिया की आँखों की किरकिरी बन गए हो। क्या पता… कहते मेरी बांहों को पकड़कर वह खूब रोने लगी।
अरी पगली, ऐसा कुछ नहीं होगा। काल्पनिक दुःख यथार्थ दुःख से ज्यादा दुखदायी होता है, शेक्सपियर ने ठीक ही कहा है।
नहीं फ़ज़ल। मेरी आँखें भी इधर कई दिनों से लगातार फड़क रही हैं। प्लीज मेरी जान, तुम अपना ख्याल रखना।
लेकिन, ऐसी क्या बात है? तुम तो कभी ऐसी बातें नहीं करती थी।
जी हाँ, फ़ज़ल समझा करो। तुम मुझसे… अलग हो जाओ।
इन्तेहाँ! तुम… यह क्या कह रही हो?
हाँ, प्लीज तुम…। मैं बहुत मुहब्बत करती हूँ तुमसे। जमीन-आसमां से भी अधिक। मैं तुमसे अलग रह सकती हूँ, बट तुम्हें खोना नहीं चाहती। मेरी बात समझो।
इन्तेहाँ, मैं हद को भी पार कर जाऊँगा, लेकिन तुम बताओ तो सही, बात क्या है? अरे, तुम मेरी प्रेमिका नहीं, मेरी आहिल्या हो, पत्नी ही नहीं, धर्मपत्नी हो, तुम्हें डर किस बात की है?
हाँ प्यारे, तुम मेरी पहली तमन्ना, पहली चाहत, पहली मकसद हो। फ़ज़ल, तुम्हारे नाम के साथ मेरा नाम जुड़ा है, इस दुनिया से लेकर आखरत तक। इसे दुनिया की कोई ताकत अलग नहीं कर सकती। लेकिन…प्लीज, तुम्हारे पांव पड़ती हूँ। मुझे माफ़ कर दो। मुझे बचा लो फ़ज़ल। मेरी जिंदगी को…, मेरी माँ को बचा लो फ़ज़ल।
तुम्हारी माँ को!
हाँ, फ़ज़ल अगर तुम मुझसे अलग नहीं होते हो, तो मेरी माँ को मेरे….
क्या?
नहीं, मेरी जान, नहीं। हरगिज नहीं। दुश्मन तुझे नहीं देख पाएँगे।
अरे, कुछ तो कहो। आखिर ऐसा क्यों कर रही हो?
इन्तेहाँ कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। रह-रहकर मुझे अपनी आँखों की सलाखों में बंद कर लेना चाहती थी। सुध खोई-सी लगती, आखिर उसने एक कागज थमा ही दी।
कागज में लिखे “तलाक़, तलाक़, तलाक” को देखकर मेरी धड़कन ही मानों बन्द हो गई हो, लगने लगा। बार-बार कागज को देखता, अपना सिर पटकता। नीचे देखा तो, इन्तेहाँ की तहरीर थी। लिखा था– मैं पूरे होशो-हवाश में तुमको तलाक दे रही हूँ। …इन्तेहाँ।
अरी, सुन रही हो, रोजी…?
जी, सब कुछ सुन लिया मैंने।
मुझे माफ़ करना रोजी, मैंने तुम्हें अपने दिल की किताब का एक अध्याय सुना दिया। इंसान हालात का गुलाम होता है, रोजी।
जी,
शायद, तुमको तकलीफ हो गई, न…?
न… नहीं।
फिर, चुप क्यों हो?
हुँ।
देखो, रोजी। तुम नाराज हो गई न?
नहीं…।
फिर…?
जी, बहुत दूर निकल गई… सोचते-सोचते। सोचने लगी, कैसे-कैसे इंसान होते हैं दुनिया में… कोई जीवन को मौत की घाट उतार देते हैं और कोई मौत को ही जिंदगी मान लेते हैं। तुम, सच में बहुत गम के मारे इंसान हो फ़ज़ल। अगर मुझको पहले ही इसकी जानकारी होती तो…
तो… क्या?
कुछ नहीं।
नहीं, कुछ तो है, बोलो।
तो आज मैं एक बार फिर उस बीते हुए लम्हों को सलाखों में बंद कर देती, और तुम्हें कभी कुछ खट्टी बातें नहीं कहती। तुमने बहुत…
क्या????
नहीं, फ़ज़ल। तुम प्लीज, मेरी एक बात मान जाओ।
क्या?
उसकी उस तहरीर को दिखा दो, जिस पर तुम आज भी राब्ता कर रहे हो। और… मुझे एक बार, सिर्फ एक बार उससे मिलने की इजाजत दे दो, ताकि मैं उस तक यह बात पहुँचा सकूँ कि आज भी फ़ज़ल की पहली ख्वाहिश इन्तेहाँ ही है। उस पर किसी का हक नहीं है, और यह भी बता सकूँ कि रोजी ने फ़ज़ल से समझौता किया है, मुहब्बत की है, निकाह किया है, सिर्फ और सिर्फ उसके मस्तिष्क के सलाखों में बंद प्रतिभा को सँजोये रखने के लिए।
नहीं, रोजी तुम ऐसा नहीं करोगी। “जिंदगी एक सलाखों में बंद उस पंछी की तरह होता है, जिसके पंख तो होते हैं, लेकिन उड़ान उसके जिम्मे नहीं होता। एक स्थिरता तो होती है, लेकिन शुकून नहीं होता। एक तड़प, एक बेचैनी तो होती है, लेकिन इसका कोई ईलाज नहीं होता, कोई मरहम नहीं होता…” कहते फ़ज़ल ने दरवाजे को बंद कर लिया था, जहाँ दीवारों से टकराते “सलाखों में बंद…. सलाखों में बंद….” की प्रतिध्वनि गूँज रही थी, एक अन्तरात्मा की स्मृति लिए अनवरत।
डॉ0 मु0 हनीफ़
डॉ (मु)हनीफ साहित्य की कई विधाओं जैसे-कविता,कहानी,लघुकथा,उपन्यास,संस्मरण इत्यादि से गहरा सरोकार रखते हैं।हिंदी,अंग्रेजी,संस्कृत,उर्दू,अरबी,बंग्ला,संथाली पर समान अधिकार रखनेवाले अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक रचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित है।पत्थर के दो दिल(उपन्यास),कुछ भूली बिसरी यादें,और दर्द कहूँ या पीड़ा,कहानी संग्रह अमेज़न पर उपलब्ध है।प्रतिभा सम्मान,राष्ट्र गौरव सम्मान,राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान,बेस्ट एडुकेशनिस्ट अवार्ड, सुपर अचीवर्स अवार्ड, ग्लोबल आइकॉन अवार्ड,शिक्षक सम्मान और अन्य कई अवार्ड सेसम्मानित डॉ हनीफ जनसरोकार और मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी रचनाएँ लिखनेवाले सम्प्रति स प महिला महाविद्यालय में बतौर अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में दुमका,झारखण्ड (भारत) में कार्यरत हैं।