‘सच’ और ‘सही’

 

तमाम कोशिशों के बाद,
फिर से,
वही सच सामने आया,
जो सही नहीं है,
जिसे चाहती थी बदलना,
क्योंकि मैं,
मानती रही हूँ,
कि,
सच और सही,
एक हों सदा,
यह जरूरी नहीं।
आज भी,
कायम तो है ही,
मेरा यकीं,
पर थका पाती हूँ,
खुद को,
सच की विरूपताओं से,
लड़ते लड़ते,
अपनों ने दिया साथ,
समय के सच का,
औ मेरी पक्षधरता,
रही सही के संग।
सो,छूट चला है,
आज,हर साथ,
टूटती हूँ यक़ीनन,
फिर भी,
जाने कहाँ से,
पाती हूँ विश्वास…
औ कहती हूँ खुद से,
जूझना ही तै है!!!

 

- स्वाती ठाकुर

शोध छात्रा ,
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,
दिल्ली , भारत

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