संस्कारों का महत्व

बाल-मनोविज्ञान को समझना भी एक बडी तपस्या  है.-बचपन में लडना-झगडना-उधम मचाना चलता ही रहता है. मुझे अपने बचपन की हर छोटी-बडी घटनाएं याद है.

बचपन की भूल-भुलैया आज भी चमत्कृत करती है.यदि आज के बच्चे से उसके बचपन को लेकर बत करें तो वह उसे कैदखाना ही बतलाएगा. आज के बच्चों को लगता है के कब बचपना खत्म हो और वे बडे बन जाएं. बच्चे ऐसा क्यों सोचते हैं? कभी आपने इस विषय की गंभीरता से विचार नहीं किया होगा. जानते हैं, ऐसा क्यों होता है? हम बचपन पर अनुशासन लादते जा रहे हैं. बात-बात में कहते हैं, तुम्हें ये करना चाहिए..वह करना चाहिए.ये नहीं करना चाहिए. इस टोकाटॊकी में बचपना मुरझा जाता है. बच्चे आखिर चाहते क्या हैं,? यह कोई नहीं पूछता. दरअसल बच्चों के बाल-मन को समझना एक विज्ञान है और दूसरी भाषा में कहा जाए तो यह किसी तपस्या से कम नहीं है.

श्रीराम बचपन में गुमसुम रहते थे. गंभीर तो वे थे ही. राजा दशरथ को लगने लगा कि राम राजकुमार हैं और उनके भीतर बालपन में ही वैराग्य भाव जाग आया है, यह ठीक नहीं है. दशरथ ने बाल राम को गुरु वशिष्ठजी के पास भेजा. उन्होंने  बाल मनोविज्ञान को समझते हुए ज्ञान दिया. उसे योग –विशिष्ठ  नाम से जाना जाता है.

श्रीकृष्णजी ने जब इंद्र की पूजा का विरोध किया, तब सभी ने उसे बालहठ समझा, लेकिन माँ यशोदा ने उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया और वे श्रीकृषण के पक्ष में जा खडी हुई. वे जानती थीं कि बच्चों का मनोबल कभी-कभी सत्य के अत्यधिक निकट पहुँच जाता है. बचपन ईसा मसीह का हो, या मोहम्मद का, या ध्रुव का,इनके पालक यह समझ गए थे कि जीवन हमेशा विरोधाभास से ही उजागर होता है. जैसे बच्चे को ब्लैकबोर्ड पर सफ़ेद चाक से लिखकर पढाया जाता है, ये पूरे जीवन का प्रतीक है. काला है तो सफ़ेद दिखेगा ही. ऐसे ही आत्मा प्रकट होगी. शुन्य से ही संगीत आएगा. अंधेरे से ही प्रकाश का आना होता है. जितनी घनी अंधेरी रात होगी, सुबह उतनी ही उजली होगी. इस तरह बचपन से ही पूरी जिन्दगी की तैयारी निकल कर आएगी.

समय के सदुपयोग की मह्त्ता समझें         

समय की बर्बादी का अर्थ है, अपने जीवन कॊ बरबाद करना. जीवन के जो क्षण मनुष्य यों ही आलस्य अथवा उन्माद में खो देता है ,वे फ़िर वापिस लौटकर कभी नहीं आते. जीवन के प्याले से क्षणॊं की जितनी बुंदे गिर जाती है, प्याला उतना ही खाली हो जाता है. प्याले की यह रिक्तता फ़िर किसी भी प्रकार से भरी नहीं जा सकती. मनुष्य जीवन के जितने क्षणॊं कॊ बरबाद कर देता है, उतने क्षणॊं में वह जितना काम कर सकता था, उसकी कभी  वह किसी भी प्रकार से भरपाई नहीं कर सकता.

जीवन का हर क्षण एक उज्जवल भविष्य की संभावना लेकर आता है     . हर घडी एक महान मॊड का समय हो सकती है. मनुष्य यह निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता कि जिस समय, जिस क्षण और जिस पल को वह यों ही व्यर्थ खो रहा है,वही समय उसके भाग्योदय का समय हो सकता है ! क्या पता जिस क्षण को हम व्यर्थ समझकर बरबाद कर रहे हैं, वही समय हमारे लिए अपनी झोली में सुंदर सौभाग्य की सफ़लता लाया हो. समय की चूक पश्चाताप की हूक बन जाती है. जीवन में कुछ करने की इच्छा रखने वालॊं को चाहिए कि वे अपने किसी भी ऎसे कर्तव्य को भूलकर भी कल पर न टालें..जॊ आज किया जाना चाहिए, आज  ही कर लें. आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिए कल का दिन निर्धारित है. अतः समय के सदुपयोग की महत्ता को गंभीरता से समझें.

               मानव जीवन में संस्कारों का महत्व.

-हिन्दू संस्कृति बहुत ही विलक्षण है. इसके सभी सिध्दातं पूर्णतः वैज्ञानिक है और सभी सिध्दातॊं का एकमात्र उद्देश्य है- मनुष्य का कल्याण करना. मानव का कल्याण सुगमता एवं शीघ्रता से कैसे हो, इसके लिए जितना गंभीर विचार और चिन्तन भारतीय संस्कृति में किया गया है उतना अन्य किसी धर्म या संप्रदाय में नहीं, जन्म से मृत्यु पर्यन्त मानव जिन-जिन वस्तुओं से संपर्क मे आता है और जो-जो क्रियाएँ करता है, उन सबकॊ हमारे देवतुल्य मनीषियों ने बडे ही परिश्रम और बडे ही वैज्ञानिक ढंग से सुनियोजित, मर्यादित एवं सुसंस्कृत किया है, ताकि सभी मनुष्य परम श्रेय की प्राप्ति कर सकें.

मानव जीवन में संस्करों का बडा महत्व है. संस्कार संपन्न संतान ही गृहस्थाश्रम की सफ़लता और समृध्दि का रहस्य है. प्रत्येक गृहस्थ अर्थात माता-पिता का परम कर्तव्य बनता है कि वे अपने बालकों को नौतिक बनायें और कुसंस्कारों से बचाकर बचपन से ही उनमें अच्छे आदर्श तथा संस्कारों का ही बीजारोपण करें.

घर संस्कारों की जन्मस्थलि है. अतः संस्कारित करने का कार्य हमें अपने घर से प्रारम्भ करना होगा. संस्कारों का प्रवाह बडॊं से छॊटॊं की ओर होता है. बच्चे उपदेश से नहीं ,अनुसरण से सीखते हैं. बालक की प्रथम गुरु माता अपने बालक में आदर,स्नेह एवं अनुशासन-जैसे गुणॊं का सिंचन अनायास ही कर देती है परिवाररुपी पाठशाला मे बच्चा अच्छे और बुरे का अन्तर समझाने का प्रयास करता है. जब इस पाठशाला के अध्यापक अर्थात माता-पिता, दादा-दादी संस्कारी होंगे, तभी बच्चों के लिए आदर्श उपस्थित कर सकते है. आजकल माता-पिता दोनों ही व्यस्तता के कारण बच्चों मे धैर्यपूरक सुसंस्कारों के सिंचन जैसा महत्वपूर्ण कार्य उपेक्षित हो रहा है. आज अर्थ की प्रधानता बढ रही है. कदाचित माता-पिता भौतिक सुख-साधन उपलब्ध कराकर बच्चों को सुखी और खुश रखने की परिकल्प्ना करने लगे हैं. इस भ्रांतिमूलक तथ्य को जानना होगा. अच्छा संस्काररुपी धन ही बच्चों के पास छोडने का मानस बनाना होगा एवं इसके लिए माता- पिता स्वय़ं को योग्य एवं सुसंस्कृत बनावें. उनकी विवेकवती बुध्दि को जाग्रत कर आध्यात्म-पथ पर आरुढ होना होगा. आनुवांशिकता और माँ के अतिरिक्त संस्कार का तीसरा स्त्रोत बालक का वह प्राकृतिक तथा सामाजिक परिवेश है, जिसमें वह जन्म लेता है, पलता है और बढता है. प्राकृतिक परिवेश उसके आहार-व्यवहार, शरीर के रंग-रुप का निर्णायक होता है, आदतें बनाता है. .सामाजित परिवेश के अन्तर्गत परिवार ,मुहल्ला,गांव और विध्द्यालय के साथी, सहपाठी, मित्र, पडौसी तथा अध्यापकगण आते हैं. बालक समाज में जैसे आचरण और स्वभाव की संगति मे आता है, वैसे ही संस्कार उसके मन पर बध्दमूल हो जाते हैं प्रत्येक समाज की संगति की एक जीवन-पध्दति होती है, जिसके पीछे उस समाज की परम्परा और इतिहास होते हैं. यह समाज रीति-रिवाज बनाता है, सांस्कृतिक प्रशिक्षण देता है     , स्थायीभाव जगाता है, अन्तश्चेतना तथा पाप-पुण्य की अवधारणा की रचना करता है. उसी क्रम में भारतवर्ष में सोलह संस्कारों की परम्परा है जो मनुष्य और मनुष्य के बीच, मनुष्य और प्रकृति के बीच सम्बन्धसूत्र बुनते है. प्रत्येक धर्म-संस्कृति मे विवाह आदि के विधान के पीछे धार्मिक आस्था जुडी हुई होती है. पवित्र भावों और आस्था का सूत्र अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और पूज्यभाव से प्रेरित होता है. यह सूत्र सामाजिक आचरण का नियमन करता है.

- गोवर्धन यादव        

शिक्षा: स्नातक

*तीन दशक पूर्व कविताऒं के माध्यम से साहित्य-जगत में प्रवेश
*देश की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन
*आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन
*करीब पच्चीस कृतियों पर समीक्षाएं

प्रकाशित कृतियाँ:
* महुआ के वृक्ष ( कहानी संग्रह ) सतलुज प्रकाशन पंचकुला(हरियाणा)
*तीस बरस घाटी (कहानी संग्रह,) वैभव प्रकाशन रायपुर(छ,ग.)
* अपना-अपना आसमान (कहानी संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य.
*एक लघुकथा संग्रह शीघ्र प्रकाश्य.

सम्मान:
*म.प्र.हिन्दी साहित्य सम्मेलन छिंन्दवाडा द्वारा”सारस्वत सम्मान”
*राष्ट्रीय राजभाषापीठ इलाहाबाद द्वारा “भारती रत्न “
*साहित्य समिति मुलताई द्वारा” सारस्वत सम्मान”
*सृजन सम्मान रायपुर(छ.ग.)द्वारा” लघुकथा गौरव सम्मान”
*सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी खण्डवा द्वारा कमल सरोवर दुष्यंतकुमार साहित्य स.
*अखिल भारतीय बालसाहित्य संगोष्टी भीलवाडा(राज.) द्वारा”सृजन सम्मान”
*बालप्रहरी अलमोडा(उत्तरांचल)द्वारा सृजन श्री सम्मान
*साहित्यिक-सांस्कृतिक कला संगम अकादमी परियावां(प्रतापगघ्ह)द्वारा “विद्धावचस्पति स.
*साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा(राज.)द्वारा “हिन्दी भाषा भूषण”सम्मान
*राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा(महाराष्ट्र)द्वारा”विशिष्ठ हिन्दी सेवी सम्मान
*शिव संकल्प साहित्य परिषद नर्मदापुरम होशंगाबाद द्वारा”कथा श्री”सम्मान
*तृतीय अंतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन बैंकाक(थाईलैण्ड) में “सृजन सम्मान.
*पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी शिलांग(मेघाअलय) द्वारा”डा.महाराज जैन कृष्ण स्मृति सम्मान.

विशेष उपलब्धियाँ:-
औद्धोगिक नीति और संवर्धन विभाग के सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबंधित विषयों तथा गृह मंत्रालय,राजभाषा विभाग द्वारा निर्धारित नीति में सलाह देने के लिए वाणिज्य और उद्धोग मंत्रालय,उद्धोग भवन नयी दिल्ली में “सदस्य” नामांकित

(2)केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय( मानव संसाधन विकास मंत्रालय) नयी दिल्ली द्वारा_कहानी संग्रह”महुआ के वृक्ष” तथा “तीस बरस घाटी” की खरीद की गई.

संप्रति: सेवानिवृत पोस्टमास्टर(एच.एस.जी.1* संयोजक राष्ट्र भाषा प्रचार समिति जिला इकाई ,छिन्दवाडा,म.प्र.

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