व्हेरी गुड

 

दफ्तर से लौटते समय आज उसका मूड बहुत खराब था हो भी क्यों न ,
छोटी सी गलती पर बॉस ने उसे बहुत फटकारा था, वह भी सहकर्मियों और मातहतों के सामने ! दफ्तर से निकलते वक्त वो सारे सहकर्मी बड़े विचित्र भाव से उसे देख रहे थे ।
पता नहीं, उनके मन में उसके प्रति सहानुभूति थी या कुछ और! शाम को मोबाइल फ़ोन भी कई बार बजा था पर उसने उसे बंद ही कर दिया था, एक भी कॉल अटेंड किये बिना ! वापसी में रोज़ के मिलने वालों से भी उसने मरे मन के दुआ सलाम की थी , जाने क्यों उसे था की ये राजू पान वाला, ये रफीक ऑटोमोबाइल वाला और दूबे जी पड़ोस वाले उसे मज़ाक की नज़रों से देख रहें हैं ….
घर आकर जूते मोज़े बड़ी बेदर्दी से एक तरफ फेंककर खिन्न भाव से वह सोफे पर बैठा ही था कि सात वर्षीय बेटा, चिंटू उसके सामे आकर खड़ा हो गया और अपनी कापी उसे दिखाने लगा, “पापा पापा, ये देखो, टीचर ने मुझे चार जगह “व्हेरी गुड” दिया । ”

उसके मन में तो आया कि दे एक जोरदार थप्पड़ इस पिल्ले को और फाड़कर फेंक दे उसकी कॉपी , पर जाने कैसे उसने अपने मन पर काबू पाया । पसीना पोंछते हुए , बड़ी कठिनाई से चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बच्चे को गोद में बैठाकर उसकी कॉपी का निरीक्षण करने लगा , “हरामखोर, तुम्हारा इन्क्रीमेंट बंद कर दूंगा , तुम्हें सस्पेंड कर दूंगा, तुम्हारी नौकरी खा जाऊंगा ” कानों में अभी भी गूंज रहे थे बॉस के ये कठोर शब्द, लेकिन बच्चे की कॉपी पलटते पलटते उसके मुह से निकल रहा था ” व्हेरी गुड, व्हेरी गुड, व्हेरी गुड।”

 

- संतोष सुपेकर

संक्षिप्त परिचय : 

मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में जन्मे संतोष सुपेकर की मातृभाषा मराठी है लेकिन लेखन वे हिन्दी में करते हैं। उनके पिताश्री मोरेश्वरजी सुपेकर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जिमनास्टिक-कोच हैं। एम कॉम तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त संतोष सुपेकर पश्चिम रेलवे में ‘लोको पायलट’ के पद पर कार्यरत हैं।

उनकी साहित्य सेवा को देखते हुए अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उनको सम्मानित एवं पुरस्कृत किया है।

कविता, लघुकथा एवं व्यंग्य उनकी प्रिय विधाएँ हैं।

‘साथ चलते हुए’(2004) तथा ‘हाशिए का आदमी’(2007) के बाद ‘बंद आँखों का समाज’ उनका तीसरा लघुकथा-संकलन है

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