विज्ञान बालकहानी – विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी

ओम सह नावक्तुएसह नौ भुनक्तु
विद्यालय में भोजन अवकाष समाप्त हुए अभी कुछ ही मिनट हुए थे। विज्ञान के अध्यापक गजाधर शास्त्री कक्षा कक्ष में पहुँच गए। धोतीकुर्ता पहने, भाल पर चन्दन का त्रिपुण्ड धारण किए शास्त्री जी को देखने मात्र से कोई उन्हें विज्ञान षिक्षक के रूप में स्वीकार ही नहीं करता था। कई लोग तो उनके मुँह पर ही कह देते कि विज्ञान का शिक्षक ओर यह वेष-भूषा? वे मुस्कारा कर प्रति प्रश्न करते कि विषय  का वेषभूषा से क्या लेना देना? भारत में विज्ञान की परम्परा बहुत प्राचीनकाल से रही है। क्या आर्यभट्ट तथा वराह महिर भी पेन्ट- शर्ट पहनते थे?
विद्यालय के छात्र उनकी वेषभूषा को स्वीकार चुके थे। शास्त्री जी विद्यार्थियों के बीच एक लोकप्रिय विज्ञान शिक्षक के रूप में स्थापित हो चुके थे। कठिन समझे जाने वाले विज्ञान विषय को शास्त्री जी ने एक रोचक विषय बना दिया था। उनका कहना था कि सम्पूर्ण सृष्टि विज्ञान के नियमों से ही चलती है, यदि विज्ञान जटिल होता तो सृष्टि ठीक  नहीं चल पाती। विज्ञान के नियम बहुत सरल व स्पष्ट है हम ही उन्हें समझने में भूल करते हैं।
विज्ञान को नया व पुराना या पूर्व पष्चिम जैसे भागों में विभक्त करना शास्त्री जी को पसन्द नहीं था। वे कहा करते है कि विज्ञान तो सनातन है। हमारी समझ धीरे धीरे विकसित होती रही है। बालकेन्द्रित षिक्षा की सोच के कारण शास्त्री जी की कक्षा शिक्षक के अनुसार नहीं चल कर, बच्चों की इच्छा से चला करती थी। बच्चा कोई जिज्ञासा या किसी घटना का उल्लेख कर देता तो शास्त्री उसके पीछे के विज्ञान को स्पष्ट करने में लग जाते। उस दिन भी ऐसा ही हुआ।
एक दिन पूर्व कक्षा में मानव में पोषण विषय पर चर्चा हुई थी। उसी विषय के पाठ को पढ़ कर आने का तय हुआ था अतः शास्त्री ने उसी सूत्र को पकड़ बात आगे बढ़ाने की दृष्टि से प्रश्न किया ‘‘मानव में पोषण वाले पाठ के सभी बिन्दु आपकी समझ में आगए होंगे?’’
‘‘ किताब में दिए बिन्दु तो समझ में आगए मगर जो दिखाई देता है वह समझ नहीं आया?’’ रवी ने कहा।
‘‘ तो भाईयों सुना तुमने रवी क्या कह रहा है?’’ शास्त्री ने वार्तालाप में कक्षा के सभी बच्चों को सम्मिलित करने की दृष्टि से रवी के प्रश्न को कक्षा की ओर बढ़ा दिया।
‘‘ रवी को तो ऐसे ही प्रश्न करने की आदत हो गई । लगता है यह पोषणवाला पाठ पढ़ कर नहीं आया इस कारण प्रश्न कर विषय को बदलना चाह रहा है। आप एक दो प्रश्न पूछिए तो इसकी पोल खुल जाएगी।’’ इरा ने कहा।
‘‘ रवी का तो पता नहीं मगर लगता है इरा आज अच्छी तैयारी के साथ आई है। अब रवी ने प्रश्न किया है तो उसका जबाव तो ढ़ूढ़ना ही होगा। रवी मुझे तो तुम्हारी बात समझ आगई हैं मगर मैं चाहूगां कि तुम अपने प्रश्न को जरा साफ शब्दों में बयान कर दो। कक्षा के अन्य लोगों को बात समझने में मदद मिलेगी’’ शास्त्री ने रवी से कहा।
‘‘ जी मेरा कहना है कि हम भोजन करने से पूर्व प्रतिदिन भोजन मंत्र बोलते हैं। मैंने इस पाठ को बहुत अच्छी तरह पढ़ा मगर इसमें भोजन मंत्र के विषय में कुछ नहीं कहा गया है। क्या पोषण की दृष्टि से इसका कोई महत्व है? ’’ रवी ने अपनी बात स्पष्ट की।
‘‘मैंने ठीक कहा था कि रवी समय बेकार कर रहा है। अब धार्मिक बात को विज्ञान के कालांष में करने की क्या तुक है?’’ इरा ने कहा। इरा की बात पर कक्षा में हंसी की हल्की लहर तैर गई। यह समझ नहीं आया कि कौन रवी पर हंसा था और कौन इरा पर। शास्त्री जी शान्तभाव से सबको निहारते रहे। उन्हें उस मुद्रा में देख कक्षा समझ गई की बात गम्भीर है। कक्षा में सन्नाटा छा गया।
‘‘ धर्म व विज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। प्रकृति की घटनाओं को देखकर अनेक प्रश्न मानव के मन में उठते रहे हैं। मानव ने उनको जानने का निरन्तर प्रयास करता रहा है। जिन प्रष्नोे का जबाव मिल गया वह विज्ञान है।’’ रवी की बात आगे बढ़ाने से पूर्व शास्त्री जी ने इरा की शंका का समाधान करना जरूरी समझते हुए उन्होनें रवी से प्रश्न कि ’’तुमने पाठ तो पढ़ा ही होगा? बताओं पोषण से हमारा क्या अर्थ है?’’
‘‘ ऊर्जा की पूर्ती, वृद्धि, टूट-फूट की मरम्मत हेतु हमारे शरीर को प्रतिदिन कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज-लवण, विटामिन, जल आदि पदार्थों की आवष्यकता होती है। हम विभिन्न प्रकार वनस्पति एवं जन्तु जन्य पदार्थो को खाकर इनकी पूर्ती करते है यही पोषण है।’’ रवी ने कहा
‘‘ इरा क्या तुम रवी के जबाव से सन्तुष्ट हो?’’ इरा को बताने का अवसर देने की दृष्टि से शास्त्री जी ने प्रश्न किया।
‘‘ जी नहीं, रवी का उत्तर आंशिक रूप से ही सही है। पेट में भोजन का पहुँचना ही पोषण नहीं है। भोजन पेट में जाने के बाद उसका पाचन होता है। पाचन के बाद पचे हुए भाग का अवषोषण होता है। अवषोषण के बाद अवषोषित अंषों का स्वांगीकरण कर उससे शरीर की आवष्याताओं की पूर्ती की जाती है’’ इरा ने बताया।
‘‘ बहुत अच्छा। अब सोनल तुम बताओं की शरीर के किस भाग को भूख लगती है?’’ खाने की शौकीन छात्रा से प्रश्न किया।
‘‘ जी भूख तो पेट को ही लगती है तभी तो पेट में चूहे दौड़ने की कहावत बनी है।’’ सोनल ने कहा
‘‘ यहीं हम भूल करते हैं। कभी कभी पेट खाली होने पर भी खाने का मन नहीं करता। बहुत  स्वादिष्ट लगने वाली वस्तु को देखने की भी इच्छा नहीं होती। क्या कारण है कि पेट के चूहे भूखे होते हुए भी दौड़ते नहीं?।’’ शास्त्री जी ने प्रश्न किया। जबाव किसी के पास नहीं था। कक्षा के सभी विद्यार्थी शास़्त्री को एकटक निहार रहे थे।
‘‘ इसका कारण है कि भूख पेट में नहीं, मस्तिष्क में लगती है। मस्तिष्क ही भोजन को पचाता व उसका स्वांगीकरण भी करता है। भोजन को पेट में भर लेना ही पोषण नहीं है। अभी कुछ समय पूर्व विदेष में  एक प्रयोग किया गया। प्रयोग में सम्मिलित होने के लिए सहमत व्यक्तियों को दो भागों में बांटा गया। दोनों भागों के लोगों को कुछ दिन तक एक जैसा पेय पदार्थ पीने को दिया गया। एक सूमह को पेय देने से पूर्व यह बताया जाता कि पेय पदार्थ में बहुत से पोष्टिक पदार्थ एवं पर्याप्त कैलोरी उपस्थित है। बहुत समय तक उन्हें भूख नहीं लगेगी। दूसरे समूह को वहीं पेय देते समय बताया गया कि पेय भूखवर्धक है। पेय पीने पर उन्हें खुल कर भूख लगेगी। क्या अनुमान लगा सकते हो कि प्रयोग के क्या परिणाम रहे होंगें’’ शास्त्री ने कक्षा से जानना चाहा।
‘‘ भूख पेट में नहीं मस्तिष्क में लगती है’’ हबीब जल्दी से बोला।
‘‘ सही कहा तुमने। यदि भूख पेट में लगती तो दोनों समूह पर एक सा असर होना चाहिए था क्योंकि दोनों समूहों के लोगों के पेट में एक ही पेय गया था। वैज्ञानिकों ने पाया कि जिन्हें पेय भूखवर्धक बताया गया था उन्हें जल्दी ही भूख सताने लगी तथा जिन्हें पेय पोष्टिक बताया गया था उन्हें बहुत समय तक भूख नहीं लगी……………।’’ शास्त्री समझा रहे थे।
‘‘ समझ आगया जी। भोजन करने से पूर्व मस्तिष्क को भोजन के प्रति तैयार करने के लिए ही भोजन मंत्र बोला जाता है’’ रवी बोला।
‘‘ ओम सह नावक्तु। सह नौ भुनक्तु…………..।’’ शास्त्री जी ने मंत्र प्रारभ्म किया तो कक्षा में समवेत स्वरों मंत्र गूँजने लगा।

- विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी

जन्मतिथि           २९ मार्च

शैक्षिक योग्यता       एमएससी (वनस्पति शास्त्र) राजस्थान विश्वविद्यालय   जयपुर बी.एड. राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर
 
पता                 तिलकनगर पाली राजस्थान
अनुभव               माध्यमिक व उच्च माध्यमिक कक्षाओं को विज्ञान ३० वर्ष,

लेखन                १९७१  से निरन्तर विज्ञान, शिक्षा व बाल साहित्य का लेखन। लगभग १००० के लगभग रचनाएँ राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय ख्याति प्राप्त पत्रिकाओं जैसे नन्दन.देवपुत्र,  बालभारती, सुमन सौरभ. बालवाणी. बाल वाटिका, बालहंस, बच्चों का देश बाल भास्कर, विज्ञान प्रगति काक राजस्थान पत्रिकाशिविरा, सरिता, मुक्ता, नवनीत ,कादम्बिनी, इतवारी पत्रिका,  विज्ञान कथा, विज्ञान गंगा, बालप्रहरी, सरस्वती सुमन , दैनिक  नवज्योति, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान,  स्पंदन, शिक्षक दिवस  प्रकाशन, शैक्षिक मंथन.साहित्य अमृत. नया कारवां, आदि  में प्रकाशित

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