मैं नहीं दे सकती उनका साथ

 

तीनों मेरी बगल में बैठते हैं,
कभी यह तो कभी वह,
पर रोज़ बैठते हैं,
कभी कोशिश करते हैं,
कभी बेशर्मी से जमा देते हैं तशरीफ,
जैसे कोई तार जुड़ा है अभेदी…
तीनों के बीच…

हजार कोशिशों के बावजूद,
जब मेरे जिस्म के किसी हिस्से का…
नहीं पाते स्पर्श,
तो अपनी निरी बुद्धि पर…
उन्हें सुखद आश्चर्य होता है,
चेहरे पर मन की गालियाँ लिखी होती हैं,
भावों में घृणा और तिरस्कार मिली होती है..

कि मेरा जस का तस घर वापस आ जाना,
एक फतेह से कम नहीं होता.

आप इन्हें
कैशोर्य, प्रौढ़ और वृद्ध कह सकते हैं…
तीनों मेरी मंजूरी के बगैर
मुझसे गुज़रना चाहते हैं-
एक मुकम्मल होने के लिए…
एक स्वयं को मांझने के लिए…
और आखिर अपने पछतावे को घुलाने के लिए.

मेरी लाख कोशिशों के बावजूद-
मैं नहीं दे सकती उनका साथ,
क्योंकि जिनका गला खखार से भरा होगा
वे, यही तीन होंगे.

-डॉ अनुज कुमार


हिंदी ऑफिसर 
नागालैंड विश्वविद्यालय

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