नीचे के तल्ले में रहने वाले पड़ोसी के यहाँ अचानक चीख सुनकर मेलाराम बरामदे की ओर लपके और तेजी से सीढ़ियाँ उतरने लगे।
“अरे, क्या हुआ?” सुबह दूध लेने उतरे थे उस वक्त तो सब ठीक-ठाक था!
पड़ोसी का क्लीन-शेव्ड चेहरा आँखों में तैर आया। घर में भी सूट-बूट पहनकर, यहाँ तक कि आँखों पर काला चश्मा और सिर पर हैट घर के भीतर भी लगाए रहते हैं।
एक बार तो सुबह दूध लाने के लिए जाते हुए पूछ लिया था, “क्यों, रात में सोते समय भी हैट और चश्मा लगाकर सोते हैं?”
“हा हा हा हा…! अपना तो ऐसा ही है दोस्त।” कहकर बात को हल्के से उड़ा देना, मिज़ाज़ से हद दर्जे का हल्का आदमी।
यहाँ तक कि चन्नू हलवाई और किशोरी किराने वाले की तराजू पर डंडी मारने को भी देखकर नाराज नहीं होना,
“सबको अपने हिसाब से काम करने व जीने का हक बनता है।” कहते हुए उस दिन उसका गला भर्रा उठने पर खटक गया था मुझे, लेकिन काले चश्मे के पार नजरों को तौलना उस दिन नामुमकिन था। पड़ोसी से बरसों का याराना महसूस होता है।
पड़ोसी के दरवाजे पर भीड़ जमा हो चुकी थी। भीड़ को चीर कर अंदर हॉल में प्रवेश किया तो बीच में एक अपरिचित शव देख चौंका। शव का सिर गंजा था। धँसी हुई आँखें, चारो तरफ गले हुए माँस, नुच-से गए थे मानों किसी जानवर ने कुतर खाया हो। कलाईयों की नसें काली रस्सियों के समान दिखाई दे रही थी। पैर में पके हुए घाव, बहते मवाद, अजीब-सा धिनौना आदमी। घिन-सी उठी। शायद कोई लम्बी, गम्भीर बीमारी से जूझ रहा होगा और आज जाकर गति को प्राप्त किया है। हृदय में भय का बवंडर उठता लगा।
“ईश्वर ऐसी मौत किसी को न दे।” मुँह से इतना ही निकला।
इधर-उधर फिर से पड़ोसी को ढूँढने के आशय से नजरें घुमाकर देखा। पड़ोसन उस आदमी के करीब बैठ कर आधे मुँह घुँघट किए रो रही थी।
किससे पूछे कि मृतक इस घर का कौन लगता है, बेशक अपनों में से ही होगा लेकिन ऐसे समय में पड़ोसी कहाँ है? शायद वह कफन-पंडित वगैरह के इंतजाम में गया होगा लेकिन ऐसी भी क्या बात हुई कि ऐसे गमी में पड़ोसी होने के नाते उसको एक आवाज भी नहीं दी उसने।
सदा दूसरों के लिए तत्पर रहने वाला, अपने वक्त-समय पड़ने पर किसी से मदद न लेना….। सोचकर मन छिल गया।
स्वाभिमानी होगा। यह कदापि गलत बात नहीं होकर भी उसके लिए गलत बात थी। उसके अँदर धीरे-धीरे नाराजगी उत्पन्न हो रही थी। तभी एक आदमी जिसे पहले कभी नहीं देखा था, जो उठावने के सारे इंतजाम में लगा हुआ था। शायद कोई सगा वाला हो, अनुमान लगाया और उससे पड़ोसी के बारे में पूछा कि “वे कहाँ है?”
सुनते ही उसने जोर-जोर से हिचकियाँ लेना शुरू कर दिया और भैया-भैया कहकर शव पर पछाड़ खाने लगा। वह स्तब्ध था। पाँच साल पहले दोनों ने यहाँ मकान खरीदा था। इतने दिनों से वे एक-दूसरे को जानते थे, अब लग रहा था कि शायद नहीं जानते थे। अपने अजनबीपने से सिटपिटा गया। वह चुप होकर किनारे खड़ा हो गया।
तभी बाहर एक बड़ी गाड़ी रुकने की आवाज आयी। कुछ महिलाएँ रोती हुई पड़ोसी के नाम पर पछाड़ खाने लगी, “भैया हमें छोड़ चले गए।”
उसका हृदय काँप उठा। सामने जो व्यक्ति शव बनकर रखा हुआ था उसमें अपना पड़ोसी ढूँढने लगा।
- कान्ता रॉय
जन्म दिनांक- २० जूलाई,
शिक्षा- बी. ए.
लेखन की विधाएँ-लघुकथा, कहानी, गीत-गज़ल-कविता और आलोचना
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (वेवसाईट विभाग की जिम्मेदारी)
प्रधान सम्पादक: लघुकथा टाइम्स
संस्थापक : अपना प्रकाशन
घाट पर ठहराव कहाँ (एकल लघुकथा संग्रह),
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2. लघुकथा कार्यशाला करवाया : हिन्दी लेखिका संघ मध्यप्रदेश भोपाल में 2016 में
3. दून फिल्म फेस्टिवल कहानी सत्र में अतिथि वक्ता के तौर पर सहभगिता।
साहित्य शिरोमणि सम्मान, भोपाल।
इमिनेंट राईटर एंड सोशल एक्टिविस्ट, दिल्ली।
श्रीमती धनवती देवी पूरनचन्द्र स्मृति सम्मान,भोपाल।
लघुकथा-सम्मान (अखिल भारतीय प्रगतिशील मंच,पटना)
तथागत सृजन सम्मान, सिद्धार्थ नगर, उ.प्र.
वागवाधीश सम्मान, अशोक नगर,गुना।
गणेश शंकर पत्रकारिता सम्मान.भोपाल।
शब्द-शक्ति सम्मान,भोपाल।
श्रीमती महादेवी कौशिक सम्मान (पथ का चुनाव, एकल लघुकथा संग्रह) प्रथम पुरस्कार सिरसा,
राष्ट्रीय गौरव सम्मान चित्तौरगढ़,
श्री आशीष चन्द्र शुल्क (हिंदी मित्र) सम्मान, गहमर, तेजस्विनी सम्मान,गहमर.
‘लघुकथा के परिंदे’ मंच की संचालिका।