नमिता घर में किचन में काम कर रही थी कि फोन घनघना उठा। उसने गाउन से हाथ पोंछते हुए फोन उठाया। नमिता के भाई का फोन था।
‘बोलो उमेश, क्या बात है?’
फोन पर उमेश की आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। उसकी आवाज़ में भरे रुआंसेपन को साफ महसूस कर रही थी। बोला, ‘दीदी, आप जल्दी से घर आ जाओ। मां की तबियत अचानक बहुत खराब हो गई है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं।‘ नमिता ने उसको धीरज बंधाते हुए कहा, ‘मेरे रहते तुम परेशान क्यों होते हो? घबराओ मत। घर मैं दो घंटे में पहुंचती हूं।‘ यह कहकर नमिता ने फोन रख दिया। सच कहा जाये तो उमेश की आवाज़ सुनकर नमिता भी अन्दर से हिल गई थी। वैसे तो मां की तबियत एक साल से बीच-बीच में खराब होती थी पर उमेश ने इस तरह कभी फोन नहीं किया था। लोकल होने का यह अजब नुक़सान था कि वह मां से मिलने नियमित रूप से जा ही नहीं पाती थी। फोन पर हाल-चाल पूछ लेती थी। आज उमेश के फोन ने नमिता को विचलित कर दिया था। वह अपने आपसे ही बुड़बुड़ाने लगी, ‘यह शादीशुदा जि़न्दगी भी कभी-कभी अखरने लगती है1 जिन मां-बाप ने उसे बड़ा करने में अपनी जि़न्दगी होम दी, उन्हीं के आड़े वक्त़ में नही जा पाती। अपनी नौकरी, छोटे बच्चे….उफ! कई बार समझ में नहीं आता कि अपने जीवन में किसे प्राथमिकता दूं।‘ नमिता ने जल्दी-जल्दी खाना बनाया और हॉटकेस में रखा। एक छोटे हॉटकेस में अपने मां, पिता और भाई के लिये खाना रखा। सोचा कि पता नहीं वहां क्या हाल हो,वहां बनाने से अच्छा है कि यहीं से ले लिया जाये। उसे याद आया कि विनोद को तो बताया ही नहीं। सो उसने विनोद को फोन किया, ‘विनोद, मैं जरा मां के पास जा रही हूं। उनकी तबियत अचानक खराब हो गई है। देखती हूं क्या बात है।‘ विनोद ने कहा, ‘ठीक है। ख़ुद को परेशान मत करो, जाकर देखो, क्या बात है।‘ नमिता ने कपड़े बदले, पर्स में कुछ रुपये रखे और एक बार और देखकर तसल्ली की। वॉचमैन को घर की चाभी दी और और ऑटो पकड़कर स्टेशन की ओर चल दी। वह रास्ते में सोचती जा रही थी कि अच्छा है वह नौकरी करती है सो समय पड़ने पर अपनी सहायता ख़ुद कर लेती है। नहीं तो हर समय विनोद से पैसे मांगने पड़ें। उसे पैसे मांगना किसी ज़लालत से कम नहीं लगता। कोई मना कर दे तो? जब ऑटोवाले ने कहा तो उसकी तंद्रा भंग हुई कि स्टेशन आ गया और उसे पता ही नहीं चला। उसने ऑटोवाले को रुपये दिये और टिकट विंडो से टिकट लेकर प्लेटफॉर्म की ओर चल दी। क़रीब 9.50 की ट्रेन थी।
क़रीब पौने ग्यारह बजे अपने घर पहुंची। उसने ख़ुद को सहज किया और दो बार घंटी बजाई। पिताजी ने दरवाज़ा खोला और नमिता को देखते ही पिताजी की आंखें डबडबा आईं। नमिता ने पूछा, ‘बाबा, क्या हुआ मां को? उमेश कहां हैं? तुम्हारी आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते।‘ थोड़ी डबडबाई चुप्पी के बाद पिताजी ने धोती के छोर से अपनी आंखें पोंछी और कहा, ‘तुम्हारी मां को अस्पताल में भर्ती कराया है। दमा का सीवियर अटैक पड़ा है। उमेश अभी वहीं है उसके पास।‘ कमरे में चुप्पी छाई रही। अचानक नमिता को ख्य़ाल आया, ‘आपने सुबह से कुछ खाया या नहीं?’ जवाब में पिता की नम आंखों से आंसू बह निकले। नमिता ने कुछ न कहते हुए पिताजी को थाली परोसी और कहा, ‘मरीज़ को संभालने के लिये हमें ख़ुद को स्वस्थ रखना होगा। सो तुम खाना खाकर आराम करो। चिंता की कोई बात नहीं है। मैं आ गई हूं, सब संभाल लूंगी।‘ पिताजी ने भरे गले से कहा, ‘तुम्हारी मां की जो हालत मैंने देखी है, उसे देखकर मेरे मुंह में खाना कैसे जा सकता है।‘ नमिता ने कहा,’ मानती हूं पर कुछ तो अपने पेट में डालना होगा। अरे हां, मां को किस अस्पताल में भर्ती किया है?’ पिताजी ने अस्पताल का नाम बताया और नमिता अस्पताल के लिये रवाना हो गई। नमिता को हर हाल में ख़ुद पर नियंत्रण रखना था। वह गायत्री मंत्र का जाप करते हुए अस्पताल पहुंची। अस्पताल के दरवाज़े पर उमेश मिल गया। नमिता को देखते ही उसकी आंखों में पानी भर आया। नमिता ने हल्की सी झिड़की दी और कहा, ‘तुम लोग ऐसा करोगे तो कैसे चलेगा? रोना समस्याओं का हल नहीं है।‘ लेकिन सभीकी आंखों में पानी देखकर उसे लगा कि मां की तबियत सच में ज्य़ादा खराब है नहीं तो उमेश और पिताजी की आंखों में पानी नहीं आता। उसने उमेश से मां के कमरे का नंबर पूछा और वह उस ओर चल दी। नमिता ने धीरे से कमरा खोला तो मां की हालत देखकर उसका कलेजा मुंह को आ गया। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। मां को इतना लाचार कभी नहीं देखा था। उसने ख़ुद को जज्ब़ किया और मां के पास पहुंची। उनका कमज़ोर हाथ अपने हाथ में लिया और पूछा, ‘मां, कैसी है तुम्हारी तबियत?’ मां ने अपना कंपकंपाता हाथ नमिता के हाथ पर रखा और बड़े टूटे शब्दों में बोलीं, ‘बेटा, लगता है अब मेरा आख़री समय आ गया है। ज्य़ादा दिन नहीं चलूंगी।‘ नमिता ने कहा, ‘ऐसा क्यों कहती हो मां। हम बच्चों को तुम्हारी बहुत ज़रूरत है। मैं आ गई हूं, दीदी को भी फोन कर देती हूं। सब ठीक हो जायेगा।‘ लेकिन नमिता मां की जो हालत देख रही थी उससे सच्चाई को नकारा भी नहीं जा सकता था। मां के चेहरे पर एक अजीब सी मज़बूरी दिखाई दे रही थी जो नमिता से देखी नहीं गई।
नमिता ने अस्पताल के कमरे का जायज़ा लिया। ठीक-ठाक था। उमेश अपनी सीमित आय में जो व्यवस्था कर सकता था उसने कर दी थी। अचानक उसे याद आया कि मां से तो पूछा ही नहीं कि उन्होंने कुछ खाया है या नहीं। वह मां के पास गई और पूछा, ‘मां, तुमने कुछ खाया या नहीं?’ नमिता ने ग़ौर किया कि मां ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। बस टुकुर-टुकुर उसकी ओर देखे जा रही हैं। उनकी आंखें मानो कह रही थीं, ‘नमिता, मैं आज तुझे जी भरकर देख लेना चाहती हूं। पता नहीं, तू फिर जल्दी मुझे देखने आये या न आये।‘ नमिता ने मां की आंखों की भाषा पढ़ ली थी। उसके पास शब्द नहीं थे कि वह मां से क्या कहे और क्या न कहे। यदि झूठी तसल्ली देती है तो ख़ुद को ख़ुद के शब्द खोखले लगते हैं। उसने मां का मूड बदलने की नियत से पूछा, ‘सुबह से कुछ खाया या नहीं?’ मां ने नलियों की ओर इशारा किया कि इनसे कुछ दिया जा रहा है। उसने पूछा, ‘कोई जूस पियोगी?’ यह सुनकर मां की आंखों में हल्की सी चमक आई और हां में सिर हिला दिया। मां की आंखों की यह चमक नमिता को खुश नहीं बल्कि अन्दर तक थर्रा गई। उसने महसूस किया कि मां के शब्द डूबने लगे हैं और अब वे बोलने के बजाय लगातार शून्य में देखे जा रही हैं। वह आगे की स्थिति के बारे में सोचते ही घबरा गई। वह मां को इस दयनीय हालत में देखकर बहुत ही सकते की अवस्था में थी। मां की हालत उनकी भावी हालत को बयां कर रही थी। नमिता ने सोचा कि अब देर करना ठीक नहीं है। मां की जो भी इच्छा है, उसे पूरा करना होगा। वह तेज़-तेज़ कदमों से बाहर आयी। बाहर उमेश खड़ा था अपने ही विचारों में गुम। वह आनेवाली दुरूह परिस्थितियों से सामना करने के लिये ख़ुद को मानसिक रूप से तैयार कर रहा था। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। नमिता बाज़ार से कुछ फल और जूसर लेकर आई। अस्पताल में आकर उसने फटाफट संतरे का जूस निकाला और गिलास लेकर मां के कमरे की ओर बढ़ गई। मां दरवाज़े की ओर देख रही थीं। शायद नमिता का इंतज़ार कर रही थीं। नमिता ने उनको जूस का गिलास दिखाया और उन्होंने मुंह खोल दिया। नमिता ने मां के मुंह में जूस की धार बनाई और मां ने उस जूस को इतनी तेजी से पिया मानो वे इसीका इंतज़ार कर रही थीं। वह लगातार मां के चेहरे को पढे जा रही थी और नोट कर रही थी कि मां ने बोलना बन्द कर दिया था और जब देखो तब एकटक शून्य में देखती रहती थीं। उसे भी यह भान होता जा रहा था कि मां का अन्तिम समय नज़दीक आता जा रहा है। इसलिये जो भी करना है अभी और इसी समय करना है। मां को वह सब खिला देना है जो उनको पसन्द है। यदि यह भी बन्द कर दिया तो उनकी इच्छा अतृप्त रह जायेगी। सो उसने शाम तक मां को एक-एक घंटे बाद जूस देना शुरू किया और मां ने पिया भी।
शाम छ: बजे डॉक्टर अस्पताल में दौरे पर आये। नमिता उनसे मिलने गई और पूछा, ‘डॉक्टर साहब, मां की तबियत क्या कहती है? मुझे तो बड़ा डर लग रहा है।‘ डॉक्टर ने कहा, ‘आपका डर बिल्कुल सही है। आपकी मां की हालत बहुत ही नाजु़क है। कभी भी कुछ भी हो सकता है। हम और ज्य़ादा ख़तरा मोल नहीं ले सकते। उनके इलाज़ के लिये जिन उपकरणों की ज़रूरत है, वे हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं। बेहतर होगा कि आप इन्हें बड़े अस्पताल में शिफ्ट कर दें।‘ नमिता ने डॉक्टर की आवाज़ की गंभीरता को महसूस किया और उत्तर में सिर्फ़ ओ के ही कह सकी। डॉक्टर के जाने के बाद नमिता उमेश के पास आई और बोली, ‘उमेश हमें मां को बड़े अस्पताल में शिफ्ट करना होगा। यहां इलाज़ संभव नहीं है।‘ उमेश ने अपनी लाचारी बताई, ‘दीदी, बड़े अस्पताल के लिये पैसा भी तो अच्छा चाहिये। मेरी फाइनेंशियल पोजीशन आपको पता है।‘ नमिता उमेश का इशारा समझ गई थी। उसने अपने दिमाग़ी घोड़े दौड़ाने शुरू किये और अचानक उसके दिमाग़ में एक विचार कौंधा। उसने कहा, ‘ अरे उमेश, एक काम करती हूं। मैं सरकारी नौकरी में हूं। मैं मां और बाबा को अपना डिपेण्डेन्ट घोषित कर देती हूं। इन लोगों की आय का कोई जरिया भी नहीं है। सो यह काम आराम से हो जायेगा। जो भी अस्पताल का ख़र्च होगा, उसका अस्सी प्रतिशत मेरा दफ्तर देगा और बीस प्रतिशत अपन चारों भाई-बहन मिलकर कर लेंगे।‘ उमेश के चेहरे पर चिंता के बादल कुछ कम हुए। उसे पता है कि घर पर जब भी कोई मुसीबत आती है नमिता आगे बढ़कर सारी जि़म्मेदारी अपने उपर ले लेती है और फिर अपने विवेक से निर्णय लेते हुए काम को अंजाम देती है। आज भी वही हुआ है। नमिता ने उमेश से कहा, ‘अब मैं घर चलती हूं। सुबह दफ्तर जाकर एप्लीकेशन दे देती हूं। दो बजे तक आ जाउंगी। फिर मां को शिफ्ट कर देंगे। तब तक तुम पता कर लो कि कौन सा अस्पताल अच्छा है। पैसे की चिंता मत करना। दूसरे, दीदी को फोन कर दूंगी। वह आ जायेगी तो वह अस्पताल और मां का काम संभाल लेगी और मैं पैसे का इंतज़ाम करती हूं। यह समय हाथ पर हाथ रखकर बैठने का नहीं है बल्कि निर्णय लेकर काम करने का है’। जाने से पहले मां से मिलने गई तो वे सो रही थीं। अपनी तसल्ली के लिये नमिता ने नज़दीक जाकर देखा कि मां का सीना उपर-नीचे हो रहा है या नहीं। वे सांस ले रही थीं और नमिता फिर से स्टेशन के लिये रवाना हो गई।
रात को विनोद काम से घर आये और आते ही पूछा, ‘मां की तबियत कैसी है? डॉक्टर क्या कहते हैं?’ नमिता ने तटस्थ शब्दों में कहा, ‘मां सीरियस हैं। उन्हें दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने के लिये कहा है और साथ ही उनको कुछ ही दिनों का मेहमान बताया है। मैं तो हकबका गई हूं। समझ ही नहीं आ रहा कि क्या करूं और क्या न करूं।‘ विनोद बोले, ‘न हो तो तुम तीन-चार दिन वहां रह लो। मां को अच्छा लगेगा।‘ ‘नहीं विनोद, मेरा रहना संभव नहीं होगा। मुझे यहां पैसे का इंतज़ाम करना होगा। दीदी को फोन कर दिया है। वह गाड़ी में बैठ चुकी है। रात तक मां के पास पहुंच जायेगी।‘ विनोद ने थोड़ा अटकते हुए कहा, ‘तुम पैसे का कैसे और कहां से इंतज़ाम करोगी? बड़े अस्पताल के बड़े ख़र्च और फिर अस्पताल में कितने दिन रखना होगा, यह भी तो देखना होगा।‘ नमिता ने विनोद को टेढ़ी नज़र से देखा और फिर कहा, ‘देखो विनोद, जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान होता है1 मैं अपने माता-पिता को ऑफिशियली अपना डिपेण्डेन्ट घोषित कर रही हूं। कल सुबह पहला काम यही करना है।‘ इस बात का विनोद के पास कोई उत्तर नहीं था। दूसरे दिन नमिता ने ऑफिस जाकर अपने माता-पिता को अपना आश्रित घोषित करने की अर्जी दे दी और साथ ही मैनेजमेंट से बात भी कर ली कि वह किन परिस्थितियों में यह अर्जी दे रही है। चूंकि इसके पहले नमिता ने कभी मेडिकल क्लेम नहीं किया था और न अपने आश्रितों को घोषित किया था सो यह काम आसानी से हो गया। इसके बाद वह अस्पताल गई और डॉक्टर से अनुमानित खर्च का पत्र ले आयी। वहां से वह घर आयी और सुबह नौ बजे ऑफिस पहुंचकर डॉक्टर का पत्र प्रेषित किया और सभीके हस्ताक्षर लेकर पचास हजार का चेक अस्पताल के नाम लेकर वह अस्पताल गई और जमा कर दिया। अस्पताल में डॉक्टरों ने आश्वासन दिया कि वे इलाज में अपनी ओर से कोई कसर नहीं उठा रखेंगे। उन्हें पता था कि सरकारी कार्यालय का चेक है सो पैसे की दिक्कत नहीं होगी।
नमिता पर तिहरी जि़म्मेदारी आ गई थी। छोटे बेटे के नौंवी कक्षा के फाइनल पेपर, नमिता की अपनी नौकरी, अस्पताल के चक्कर, शाम को घर आकर घर की जि़म्मेदारी। वह अस्त, व्यस्त और त्रस्त हो गई थी इन दो दिनों में। मानसिक और शारीरिक रूप से थकती जा रही थी और उस पर यह टेंशन कि इतनी मेहनत और ख़र्च के बाद भी यदि मां न बची तो? इसके आगे सोच ही नहीं पाती थी। चार दिन हो गये थे यह भाग-दौड़ करते करते। अब तो नमिता ने सात दिन की छुट्टी ले ली थी। ताकि सारे काम ठीक से कर सके। इन्हीं दिनों नमिता के मित्र विशु ग्वालियर से आये। उन्हें नमिता ने कुछ नहीं बताया था। वे नमिता को चिंतित और चुप देखकर बोले, ‘ क्या हुआ नमिता? आपकी परेशानी का सबब जान सकता हूं? आप अभी तक हंसी नहीं और न ही पानी लाकर दिया और न ही चाय के लिये पूछा। ऐसा तो गत 13 वर्षों में हुआ ही नहीं। ज़रूर कुछ गंभीर मसला है।‘ नमिता ने प्रत्युत्तर में अपनी आंसूभरी आंखें उठाईं। नमिता का यही एक मित्र है जिससे वह अपना दुख-दर्द शेयर करती है। जो समय की नज़ाकत को समझते हैं और उसी हिसाब से राय भी देते हैं। विशु के साथ नमिता बहुत सहज महसूस करती है। उसे पता है कि वे कभी उसकी मज़बूरी का मज़ाक नहीं उड़ाते हैं और न ही एहसान जताते हैं। उनके इस व्यवहार से नमिता बहुत प्रभावित है। विशु से एक साधारण सा परिचय कब घनिष्ठ और परिपक्व मित्रता में बदल गया, उसे पता ही नहीं चला। विशु के सहज स्नेह ने नमिता को अहसास दिला दिया है कि जि़न्दगी में एक दोस्त ज़रूरी होता है और उसकी अपनी अहमियत होती है1 उसने कहा, ‘क्या बताउं विशु, परेशानियों का अन्त ही नहीं है। मेरी मां काफी सीरियस हैं और अब तो चलाचली का मामला लगता है। इधर छोटू के फाइनल पेपर हैं। जि़न्दगी की भंवर में फंसी गोल-गोल घूम रही हूं। विशु ने सधे शब्दों में कहा, ‘आप परेशान मत होईये। आप अपनी मां का खयाल रखिये। मैं एक सप्ताह के लिये आया हूं। मैं छोटू की पढ़ाई का और लंच- डिनर का भी ध्यान रख लूंगा। ज़रूरत हुई तो अपनी छुट्टियां दो-एक दिन और बढ़ा लूंगा। मैंने अपनों की मौत को बहुत नज़दीक से देखा है। मैं समझ सकता हूं आपका दर्द और आपकी मनोदशा।‘ नमिता ने कृतज्ञताभरी नज़रों से विशु को देखा। कितनी सहजता से उन्होंने नमिता की जि़म्मेदारी शेयर कर ली थी। दूसरे दिन जब नमिता अस्पताल के लिये निकल रही थी तो विशु ने उसे दस हज़ार रूपये दिये। नमिता ने मना किया तो बोले, ‘रख लीजिये, कभी भी ज़रूरत पड़ सकती है लेकिन एक बात कह देता हूं कि ये रूपये वापिस करके मुझे अपमानित मत कीजियेगा। आपकी मां मेरी भी मां लगती हैं।‘ नमिता उस दुख में भी हल्के से मुस्कराये बिना नहीं रह सकी।
नमिता जब अस्पताल पहुंची तो पता चला कि मां कोमा में है और उनको इंसेटिव यूनिट केयर में रखा गया है। घर के सारे सदस्यों को जैसे सांप सूंघ गया। सभीके मन में आशंका के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। सभीने अपने को अपने में बंद कर लिया था। कोई किसीसे नहीं बोल रहा था। बोलने के लिये कुछ बाकी ही नहीं रह गया था। ऐसे में नमिता को ही अपना जी कड़ा करके आगे आना पड़ा। जब आई सी यू में डॉक्टर दौरा करने आये तो नमिता ने कहा, ‘डॉक्टर डिसूजा, मेरी मां कोमा में हैं। आप क्या कहते हैं? मुझे तो इस विषय में कोई जानकारी नहीं है।‘ डॉक्टर ने कहा, ‘देखिये मैडम, हम तो पूरी कोशिश कर रहे हैं आगे की आगे देखेंगे।‘ नमिता कर ही क्या सकती थी सिवाय चुप रहने के। वह रह-रहकर मां का चेहरा देख रही थी कि शायद वे आंखें खोलें, उसे पहचानें पर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था। नमिता ने मां का माथा, हाथ, पैर और पेट छूकर देखे तो वे बर्फ़ से ठंडे थे। नमिता को कुछ शक़ सा हुआ। वह काउंटर पर गई। नर्स ने पूछा, क्या हुआ मैडम? कुछ प्रॉब्लम है?’ नमिता ने कहा, ‘ बेड नंबर 20 के मरीज़ के डॉक्टर से बात करना है।‘ सीनियर नर्स बोली, ‘वह डॉक्टर तो शाम को सात बजे आयेंगे। हां, उस मरीज के खाते में पैसा ख़त्म हो गया है।‘ नमिता ने कहा, ‘पचास हज़ार चार दिन में खत्म हो गये और मां की हालत बद से बदतर होती जा रही है। कितना अमाउन्ट डालना होगा?’ नर्स ने बड़े तटस्थ भाव से कहा, बीस-तीस हज़ार तो डाल दीजिये।‘ आई सी यू का रेट जास्ती है न।‘ नमिता ने घड़ी देखी। सवा तीन बज गये थे। वह उसी समय अस्पताल से ऑफिस के लिये निकल गई। साढ़े चार बजे ऑफिस पहुंची। उसने जल्दी से अपने प्रोविडेन्ट फण्ड से एडवान्स निकालने के लिये फॉर्म भरा और सबसे हाथों-हाथ हस्ताक्षर लेकर अस्पताल के नाम चेक लिया और फिर अस्पताल के लिये निकल पड़ी। अपने ऑफिस के लोगों के साथ किये गये अच्छे व्यवहार का आज उसे परिणाम मिल रहा था। सभी उसके साथ खड़े थे। मैनेजमेंट से लेकर चपरासी तक उसकी हर संभव सहायता कर रहे थे। वह सात बजे अस्पताल पहुंची और काउंटर पर चेक जमा किया।
उसी समय उसने देखा कि डॉक्टर डिसूजा आई सी यू की ओर जा रहे थे। वह जल्दी से उनके पीछे हो ली। उसने डॉक्टर को विश किया और पूछा, ‘ मेरी मां की तबियत में कोई सुधार नहीं दिख रहा मुझे। हाथ-पैर ठंडे पड़े हैं। मुझे साफ-साफ बताईये कि मां की क्या पोजीशन है।‘ डॉक्टर ने कहा, ‘देखिये, अभी हम कुछ नहीं कह सकते। मरीज़ का दिल धड़क रहा है। लेकिन शरीर के कुछ पार्ट्स ने काम करना बन्द कर दिया है।‘ नमिता ने कहा, ‘मसलन कुछ नाम बतायेंगे?’ डॉक्टर ने कहा, ‘फेफड़ों में हवा ठीक से नहीं जा रही। बलग़म भरा है। उसको बार-बार निकाल रहे हैं। नली से जो लिक्विड पेट में भेज रहे हैं, वह उनको डाइजेस्ट नहीं हो रहा। लगता है पेट में ट्यूमर हो गया है।‘ अब नमिता को शक़ हो गया कि कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ है। डॉक्टर कुछ का कुछ बोल रहे हैं। उसने इस दुखियारे माहौल में भी तल्ख़ स्वर में कहा, ‘देखिये डॉक्टर, आप मुझे साफ साफ बता दीजिये। नहीं तो मैं अपने ऑफिस के डॉक्टर को बुलाती हूं और आपको उनको सब कुछ बताना होगा।‘ अब डॉक्टर थोड़ा सकपकाये और बोले, ‘मैडम सच कहूं तो आपकी मां एक-दो दिन की ही मेहमान हैं। पर जब तक उनका दिल धड़क रहा हम ऑफिशियली डेड डिक्लेयर नहीं कर सकते।‘ नमिता का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उसने लगभग चिल्लाकर कहा, ‘क्या मैं लाश के इलाज़ के पैसे दे रही हूं? आप लोगों को पैसे की पड़ी है। इंसानियत जैसी कोई चीज़ बची है आप लोगों में? यह बात आप लोग मुझे पहले भी कह सकते थे।‘ डॉक्टर ने कहा, ‘देखिये, गुस्सा होने से काम नहीं चलेगा। आप बताईये, आगे क्या करना है।‘ डॉक्टर के इस बदले रूप से नमिता भौचक रह गई। वे कोई जि़म्मेदारी लेने के लिये तैयार नहीं थे। सब-कुछ नमिता पर छोड़ दिया था। नमिता बाहर आई। उसने अपने भाई-बहनों को बुलाया, ‘दीदी, अब तो डॉक्टरों ने टका-सा जवाब दे दिया है। क्या करना चाहिये? सांस भी तो मशीनों के सहारे चल रही है। ग्लूकोज़ चढ़ा रहे हैं वह भी पच नहीं रहा। सारा बिस्तर गीला पड़ा है। मां का शरीर फूल गया है और हाथ-पैर ठंडे पड़े हैं। ये लोग आई सी यू का डेली 10,000 रूपये चार्ज कर रहे हैं। मां तो जि़न्दा दिख नहीं रहीं। एक ही पोज़ में लेटी हैं। मैं कल से नोट कर रही हूं। वे न हिल रही हैं और न डुल रही हैं। निर्णय हमें ही लेना है नहीं तो वे मशीनों पर उनको आर्टिफिशियली जि़न्दा रखेंगे और हमसे पैसा लेते रहेंगे। यह तो उनका प्रोफेशन है।‘ दीदी यह मानने को तैयार नहीं थी। उसे लग रहा था कि कहीं नमिता पर फाइनंशियली अधिक जि़म्मेदारी तो नहीं आ गई जिससे वह पीछे हट रही है। दीदी ने कहा, ‘देख नमिता, पैसे की चिंता मत कर। मैं अपने सारे ज़ेवर बेच देती हूं। दो-एक दिन और देखते हैं शायद मां आंखें खोल दें।‘ नमिता ने कहा, ‘कैसी बातें करती हो दीदी, बात पैसे की नहीं है। वह तो मैं अरेंज कर लूंगी। बात सच को स्वीकार करने की है।‘ उमेश अचानक नर्वस हो गया। उसकी आंखें भर आईं। सिर पकड़कर बैठ गया। उसे चक्कर आ गया था। नमिता भागकर गई और उसे पानी दिया और वहीं बेंच पर लिटा दिया।
अब नमिता को ही सारे निर्णय लेने थे। उसने अपने दिल पर पत्थर रखा और काउंटर पर गई। डॉक्टर डिसूजा मरीज़ों के चार्ट देख रहे थे। ‘डॉक्टर डिसूजा, हम सबकी राय है कि मां के शरीर से मशीनें हटा दी जायें और सिर्फ़ ऑक्सीजन चालू रखी जाये और जनरल वॉर्ड में शिफ्ट कर दिया जाये।‘ डॉक्टर इस बात को भांप गये थे कि इन लोगों को अब और ज्य़ादा मुग़ालते में नहीं रखा जा सकता। कहीं अपने डॉक्टर को बुला लिया तो नई समस्या खड़ी हो सकती है। वे कुछ नहीं बोले। उन्होंने सीनियर नर्स को धीमे शब्दों में कुछ हिदायतें दीं और वहां से चले गये। दस मिनट बाद नमिता ने देखा कि चार-पांच नन्स बेड नंबर बीस के पास गईं और पलंग के चारों तरफ खड़ी होकर प्रार्थना करने लगीं। नमिता पथराई आंखों से सब देख रही थी। कुछ ही मिनटों में क्या से क्या हो गया था। वह यह सब देख नहीं पा रही थी। उसने छोटू से पिताजी को लेकर आने के लिये कहा। पिताजी के बारे में तो वह भूल ही गई थी। छोटू इस हालत में कहीं नहीं जाना चाहता था। सो पड़ोस में फोन किया और पिताजी को लेकर अस्पताल पहुंचने के लिये कहा। बीस मिनट में पिताजी वहां आ गये। उनको मां के पास ले गये। वे मां को कुछ देर तक देखते रहे और अचानक बोले, ‘होइहै वही जो राम रचि राखा।‘ और पलटकर दीदी के पास आये और बोले, ‘मुझे ऑटो ले दो। घर जाना है। तुम्हारी मां सुबह तक घर आ जायेंगी। वहां बात करूंगा।‘ नमिता को लगा कि पिताजी कहीं विक्षिप्त अवस्था में न आ जायें। कुछ बोलेंगे नहीं पर घुट-घुटकर ख़ुद को खत्म कर लेंगे। सो पड़ोसी के साथ ही उनको घर वापिस भेज दिया। नमिता ने विनोद को फोन किया कि वे तुरन्त अस्पताल आ जायें। विशु को फोन किया कि वे नमिता का इंतज़ार न करें। उसे घर आते- आते रात के ग्यारह बज जायेंगे। विनोद सीधे अस्पताल पहुंचे और नमिता घर के लिये निकल पड़ी। वह थके-थके क़दमों से घर आई। वह अन्दर से टूट-सी गई थी। सब कुछ ख़त्म हो गया था। बस इस कड़वे सच को स्वीकार करना था। छोटू और विशु ने मिलकर शर्बत बनाया और नमिता को पीने के लिये दिया। इस समय विशु और बेटा छोटू हमदर्द बनकर उसके पास थे जो बिना कुछ बोले उसके दर्द को बांट रहे थे।
उस रात नमिता बहुत बेचैन रही। सुबह किसी तरह उठी। विनोद को फोन किया। उन्होंने बताया, ‘मां को जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया है1 शरीर से सारी नलियां निकाल दी गई हैं। सिर्फ़ ऑक्सीजन चढ़ रही है। धीरे-धीरे ऑक्सीजन का फोर्स भी कम करते जायेंगे और फिर बन्द कर देंगे। तुम सुन रही हो न सब? न हो तो तुम अस्पताल आ जाओ।’ नमिता ने कहा, ‘अभी कुछ देर पहले ही घर आई हूं। सच कहूं तो मां को अपनी आंखों के सामने मरते नहीं देख पाउंगी। तुम उधर ही रहो।‘ यह कहकर नमिता ने फोन काट दिया। नमिता ने आंखों को ठंडे पानी से धोया और आंखें बन्द कर लीं। रात क़रीब एक बजे नमिता ने सपना देखा कि उसके बेडरूम की खिड़की के सामने से एक चिडि़या सी आकृति, जिसके माथे पर बड़े आकार की बिन्दी चमक रही है, अपने दोनों पंख फैलाये उड़ती हुई गुजर गई है और नमिता हड़बड़ाकर उठी, कान के पास फोन बज रहा था। नमिता ने कांपते हाथों से फोन उठाया। दीदी की आवाज़ आई, ‘मां नहीं रहीं , सुबह आठ बजे तक आ जाना’।
- मधु अरोड़ा
- कृतियां:
- · ‘बातें’- तेजेन्द्र शर्मा के साक्षात्कार- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर।
- · ‘एक सच यह भी’- पुरुष-विमर्श की कहानियां- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
- · ‘मन के कोने से’- साक्षात्कार संग्रह, यश प्रकाशन, नई दिल्ली।
- · ‘..और दिन सार्थक हुआ’- कहानी-संग्रह, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।
- · ‘तितलियों को उड़ते देखा है…?’—कविता—संग्रह, शिवना प्रकाशन, सीहोर।
- · मुंबई आधारित उपन्यास प्रकाशनाधीन
- · भारत के पत्रकारों के साक्षात्कार लेने का कार्य चल रहा है, जिसे पुस्तक रूप दिया जायेगा।
- · सन् २००५ में ओहायो, अमेरिका से निकलनेवाली पत्रिका क्षितिज़ द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान से सम्मानित।
- · ‘रिश्तों की भुरभुरी ज़मीन’ कहानी को उत्तम कहानी के तहत कथाबिंब पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार—२०१२
- उपन्यास…उम्मीद अभी बाकी है’ प्रकाशित….2017…… मिररस्टोरी, मुम्बई
- · हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, परिकथा, पाखी, हरिगंधा, कथा समय व लमही, हिमप्रस्थ, इंद्रप्रस्थ, हंस, पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
- · जन संदेश, नवभारत टाइम्स व जनसत्ता, नई दुनियां, जैसे प्रतिष्ठित समाचारपत्रों में समसामयिक लेख प्रकाशित।
- · एस एनडीटी महिला विश्वविद्यालय की हिंदी में एम ए उपाधि हेतु कहानी संग्रह ‘और दिन सार्थक हुआ’ में वर्णित दाम्पत्य जीवन पर अनिता समरजीत चौहान द्वारा प्रस्तुत लघु शोध ग्रंथ…..२०१४ —२०१५
- · उपन्यास…’ज़िंदगी दो चार कदम’ प्रकाशनाधीन
- · अखिल भारतीय स्तर पर वरिष्ठ व समकालीन पत्रकारों के साक्षात्कार का कार्य हाथ में लिया है।
- · आकाशवाणी से प्रसारित और रेडियो पर कई परिचर्चाओं में हिस्सेदारी। हाल ही में विविध भारती, मुंबई में दो कहानियों की रिकॉर्डिंग व प्रसारण। मंचन से भी जुड़ीं। जन संपर्क में रूचि।
- सन् 2015..2016 का महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य पुरस्कार मिला तथा डाक्टर उषा मेहता अवार्ड से सम्मानित किया गया।