हरिद्वार – भागीरथी के तट पर पुण्य कमाने के लिए जाने कितने आते हैं। गंगा की धारा में कितने पाप धोकर जाते हैं, कितने पुण्य कमाकर जाते हैं… यह तो ऊपरवाला ही जाने।
अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर सब टूट पड़े थे पुण्य कमाने। आश्रमों में हो रहे होम से निकलनेवाले सलेटी धुएं इधर-उधर छितरा रहे थे। आश्रमों में श्रद्घालुओं के लिए भंडारा भी अनवरत चल रहा था। आश्रम-प्रबंधक पुण्य भी कमा रहे थे और माया भी। दोपहर होते-होते उम्मीद से ज्यादा भीड़ जुटने लगी। आश्रम के प्रबंधकों की टीम उखडऩे लगी। गंगा नहाने के बाद श्रद्धालुओं से भूखे पेट रहा नहीं जा रहा था। ऊपर से हलवा-पूड़ी-सब्जी की महक उनके स्वाद-तंतुओं को उत्तेजित कर रही थी।
भूख अंधी होती है। उसे दाएं-बाएं, नियम-कानून कुछ नहीं सूझता। ‘पहले आओ, पहले पाओ’। के चक्कर में ऐसी धक्का-मु$क्की मची कि भोजन तो दूर जान के बाले पड़ गए।
भीड़ का भी अनुशासन होता है और भूख का भी, मगर लालच का कोई अनुशासन नहीं होता। मुफ्त का माल खाने से वंचित न रह जाएं इस लालच में अपनी बारी का इंतजार करने का सब्र नहीं बचा था किसी में। हर कोई एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में था। होड़ से होड़ बढ़़ी और कतार का अनुशासन भंग होने लगा।
पहले तो माजरा समझ नहीं आया आश्रम-प्रबंधकों को। जब समझे तो भीड़ बेकाबू हो चुकी थी। स्वयंसेवक लाठियां भांजने लगे। खाली पेट बदन पर लाठियां खाती भीड़ बचने के लिए इधर-उधर हटने लगी और मच गई भगदड़…
आश्रमवालों के होश उड़ गए। सब हाथ झाड़़ कर भाग खड़े हुए।
एक घंटे बाद पूरा नजारा बदला हुआ था। आर पी एफ के जवान लाशों को हटा-हटाकर कतार से रख रहे थे। मुर्दा एक ओर और घायल एक ओर।
…लतियाए – घुंसियाए लोग कराह रहे थे। बचे हुए लोग अपनों को ढूंढ रहे थे।
पूरे देश में समाचार फैल गया। आश्रम में भगदड़…फिर मौतों का अंदाजा लगाया गया…और घायलों का भी।
अस्पताल के मुर्दाघर में लाशें और बिस्तर पर घायल अपने परिजनों का इंतजार कर रहे थे।
आस-पास के राज्यों से श्रद्धालु आए थे। और यहां बेबस पड़े थे। परिवार के लोगों को पहुंचने में समय लग रहा था। दुर्घटना को चौबीस घंटे हो चुके थे। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकारी मशीनरी अलर्ट हो चुकी थी। मुख्यमंत्री ने मरनेवालों के परिजनों को २ लाख रुपए देने का ऐलान आनन-फानन में कर दिया। आश्रमवालों ने नैतिकता के चलते मरनेवालों को २ लाख देने की घोषणा कर दी। उधर मरनेवालों के गृहराज्यों ने भी अपने लोगों को १ लाख मुआवजा देने की वाहवाही बटोरी। घायलों के हिस्से में भी कुल एक लाख की रकम आनी थी।
बुरी खबर सुनकर गोवर्धन प्रसाद अपनी पत्नी पार्वती के साथ गांव से निकला हरिद्वार जाने को। उसका बड़़ा बेटा नरेंद्र अपनी बीवी और बच्ची के साथ हरिद्वार गया था। गांव के चार परिवार और भी साथ थे। उन्हीं में से किसी ने खबर भिजवाई थी – ‘काका जितनी जल्दी हो सके, आ जाओ, बाकी यहीं आके तुमको बताएंगे।’
अनहोनी की आशंका में गोवर्धन प्रसाद के साथ उसकी पत्नी भी साथ हो ली। जैसे-तैसे दोनों बूढ़़े-बूढ़़ी १२ घंटों में हरिद्वार पहुंचे। रास्ते में और लोग भी मिल गए थे। किसी का भाई, दामाद, मां-बाप इस भगदड़़ में फंस गए थे। दुख ऐसा धागा है जो अजनबियों को भी एक रिश्ते में बांध देता है। रास्ते में लोग एक-दूसरे की मदद करते हुए घटना स्थल पर पहुंचे। सरकारी कर्मचारी भी काफी सहृदयता का परिचय दे रहे थे।
आश्रम में जाकर गोवर्धन को पता चला कि उसे किस अस्पताल जाना है। गोवर्धन पूछता ही रहा मगर कोई बता नहीं पाया कि उसके बहू-बेटे का क्या हुआ? बस एक ही जवाब ‘अस्पताल जाके पता चलेगा।’
बेचारा गोवर्धन कभी इतने बड़़े शहर में आया ही नहीं था। गांव में ही खेती-मजूरी करके अपनी गिरहस्थी चला रहा था। सहमा-सहमा अस्पताल पहुंचा। यहां भी स्वयंसेवक लोगों की मदद कर रहे थे। आश्रम से मिली पर्ची एक स्वयंसेवक को थमाई। वह दोनों को मुर्दाघर में ले आया। पर्ची से नंबर मिलाकर एक स्ट्रेचर के पास रुक गया। बड़़ी ऊहा-पोह के बाद गोवर्धन ने लाश पर से चादर हटाई। देखा तो उसका बेटा नरेंद्र था।
मां से देखा नहीं गया वह चीख उठी – ‘हाय, हमार बचवा’ धड़़ाम से फर्श पर गिर पड़़ी। बूढ़़ा गोवर्धन किसे संभाले – खुद को, बीवी को या अपने बड़़े बेटे की लाश को।
मातम के कितने पल बीत गए। रोते-रोते जब शरीर थक गया तो होश आया बहू और बच्ची का। ढूंढने पर वह स्वयंसेवक पास में ही मिल गया।
बूढ़़े-बुढि़य़ा को लेकर वह घायलों के वॉर्ड की तरफ बढ़़ गया। लेडीज वॉर्ड में उनको अपनी बहू मिल गई। बुरी तरह घायल। खून और ग्लूकोज उसे चढ़़ाया जा रहा था। ऑक्सीजन मास्क भी लगा था। पास वाले बेड पर उसकी चार साल की बेटी भी अधमरी पड़़ी थी।
बहू को देखते ही सास बुक्का फाड़क़र रो पड़़ी – ‘हाय, दुलहनिया…इ का हो गया…हमार बचवा तो गवा…’ सास का विलाप देखकर बहू तपड़़ उठी। सीने में हूक उठी और वह बेहोश हो गई।
तभी एक नर्स आई दौड़़ी हुई। सास को कसके डांट पिलाई – ‘ऐसे रोएगी तो बहू भी मर जाएगी। थोड़़ी हिम्मत दिखाओ मांजी। भला होगा तुम्हारा…’ नर्स ने दोनों बूढ़़े-बूढ़़ी को वार्ड से बाहर भेज दिया।
दोनों बाहर आकर बरामदे में सिर पकड़क़र बैठ गए। मुसीबतों का पहाड़़ टूट पड़़ा था। दुख की इस विकट घड़़ी में इस अनजान शहर में कोई संभालने वाला भी नहीं था। जाने की उमर उनकी थी और जवान-जहान बेटा चला गया। अब क्या होगा? घर में बिन ब्याही जवान बेटी बैठी है, छोटा बेटा नौकरी के पीछे चप्पल घिस रहा है। पहाड़़-सा बुढ़़ापा कैसे कटेगा? हाय, अब क्या होगा?’ जाने कितनी आशंकाएं बूढ़़े के दिमाग में घुमड़ऩे लगे।
बुढि़य़ा अलग राग अलाप रही थी -‘अरे निरमोहिया, कइसे चला गया तू, हमारी दया भी नहीं आई तुझे… घर से चला था गंगा नहाने…अब हमें कौन तीरथ कराएगा…हाय मेरा बचवा, कहां से लाऊं तुझे…’
एक यही दोनों क्या, पूरे अस्पताल में ऐसा ही रोना मचा था। जब भी कोई परिजन पहुंचता, अपनों की लाश देखता तो विलाप का शोर छाती को फाड़ऩे लगता।
‘काका, चाय पीलो…’ आवाज सुनकर गोवर्धन ने ऊपर देखा। वही स्वयंसेवक दो गिलास चाय लेकर हाजिर था। सचमुच चाय की तलब उठ आई। कितना ही बड़़ा दुख क्यों न हो, शरीर की जरूरत कभी मिटती नहीं। रोते-रोते कमजोरी छा गई थी दोनों पर। चाय पीकर उन्हें तसल्ली हुई।
…कुछ देर बाद स्वयंसेवक दोनों को सलाह दे रहा था – ‘काका घर से किसी और को भी बुला लो। कोई पढ़़ा-लिखा और समझदार हो तो अच्छा रहेगा। लिखा-पढ़़ी का काम है। तुमसे नहीं होने का…घर पे और कौन है?’
‘इससे छोटा एक बेटा है।’ बूढ़़े ने बताया और सुबक-सुबक कर रोने लगा।
‘और हां हमारे दामाद बाबू भी हैं। सरकारी दफ्तर में कलर्क हैं।’ गोवर्धन ने जल्दी-जल्दी बताया।
‘तो ये अच्छा रहा। दोनों को बुला लो और हां उनसे कहना कि राशनकार्ड, पहचानपत्र, फोटो सभी साथ ले आएं, पूरे परिवार का। कागद-पत्र सही-सही और पूरे-पूरे हों तो काम जल्दी हो जाता है।’ स्वयंसेवक ने समझाया।
‘…वो काहे को?’ बूढ़़े ने कुछ सशंकित हो के पूछा। बेचारा फिक्र से मरा जा रहा था कि सबके आने-जाने का किराया भाड़़ा कहां से आएगा? फिर बहू-नातिन के इलाज का खर्चा कैसे भरा जाएगा? बेटे के मौत से बड़़ी ये चिंताएं उसे सताए जा रही थीं।
‘वो सब हम आपको बाद में बताएंगे। एक काम करो काका, गांव में किसी के पास फोन हो तो हम ही आपके बेटे को फोन पर सब कुछ समझा दें।’ स्वयंसेवक ने अपना मोबाइल फोन निकाल लिया नंबर लगाने के लिए।
‘हां, हमारे दामाद के पास है। तुमही उनसे बता दो, सब समझा दो कि कउन-कउन सा कागद पत्तर चाहिएगा।’ बूढ़़े ने चिरौरी करते हुए कहा और एक छोटी-सी मटमैली पॉकेट डायरी उसे थमा दी।
उन दोनों बूढ़़े-बूढ़़ी को यह स्वयंसेवक साक्षात देवता लग रहा था जो इन दीन-दुखियारों को मदद को आ पहुंचा था। नहीं तो, पराए देस में कौन किसी की मदद करता है?
वह स्वयंसेवक फोन पर बात करते-करते वहां से आगे बढ़़ चुका था।
दुख से ध्यान बंटा तो चिंता ने फिर आ घेरा। बुढि़य़ा बिफर उठी। सारी भड़़ास बहू के लिए निकलने लगी – ‘इतनी बदशकुनी औरत है, जब से डोली से उतरी है कौनो अच्छा काम नहीं हुआ। आते ही तुह्मरे माई को खा गई। एक बिटिया बिया के बइठी और जउनो बाकी रहा अपने भतार को ही अब खा गई। हाय, अब कैसे जियब हम, हमार बेटवा खाई गई…’ बुढि़य़ा छाती कूटने लगी।
‘अब विधवा हो के पड़़ी है अस्पताल में। के देखी यहके जिनगी भर…ई काहे ना मर गई, कमरजली…’ अब बुढि़य़ा के मुंह से बददुआएं निकल रही थीं, मौत के मुंह में पड़़ी बहू के लिए।
‘मत रोओ अब, का करोगी रो के, बचवा तो अब लौट के आने से रहा। हमें तो ये चिंता खाए जा रही है कि अस्पताल का खर्चा कहां से लाएं? जाने कितना खर्च बैठेगा दोनों का, बहू और मुन्नी का?’ बूढ़़ा बोले जा रहा था और ऊंगलियों पर हिसाब गिन रहा था।
‘काहे का खर्चा? ये दोनों भी करमजली मर जाएं तो इन्हें भी संग फूंककर गंगा नहाएं… जिंदगी भर कौन खिलाएगा इन दोउन मां-बेटी को?…हमारी उमर क्या अब जांगर करने की रह गई है? बोलो तुमही…’
कैसी निर्दयता भर आई थी बुढि़य़ा के मन में? जीने के साधन कम पड़ऩे लगते हैं तो दिलों से इंसानियत भी घटने लगती है।
बेटा चला गया था तो अब बहू -नातिन का बोझ अपनेपन पर भारी हो गया था।
तभी स्वयंसेवक लौट आया। उसने बताया कि दामाद से बात हो गयी और वह कल तक उनके छोटे बेटे के साथ यहां पहुंच जाएगा । दोनों बड़़ी कृतज्ञता भरी दृष्टि से स्वयंसेवक की बात सुन रहे थे।
वह कह रहा था, ‘आप लोग यहीं बरामदे में सो जाइए। मुझे दूसरे काम भी हैं। मैं कल आके मिलता हूं। ये लो मेरा मोबाइल नंबर। कल जैसे ही आपके दामाद पहुंचते हैं मुझे तुरंत फोन करना। भूलना मत चाचा। हां देखिए, मैं आपको सारा काम करवा दूंगा। सारे पैसे मिल जाएंगे…’
‘…पैसे, कैसे पैसे?’ बूढ़़े को तुरंत कुछ समझ नहीं आया।
‘मुआवजे की रकम…आपका बेटा मरा है न? उसकी भरपाई?’
‘मतलब …कितने पैसे मिलेंगे?’ बूढ़़े ने थूक निगलते हुए पूछा, मानो अपराध से गड़ा जा रहा हो।
‘देखिए। मृतकों को आश्रम की तरफ से २ लाख रुपए, यहां की सरकार से २ लाख रुपए और आपके राज्य से १ लाख रुपए, टोटल मिलाकर हुए ५ लाख रुपए…’
‘अँ…क् क्या…!!’ बूढ़़े की आवाज गले में फंसकर रह गई।
‘…और हां घायलों को ५०-५० हजार मिलेंगे। आपकी बहू और नातिन के मिलाकर एक लाख…’
‘क्या? बहू और नातिन के भी एक लाख !’ बुढि़य़ा की आवाज में खनक और आंखों में पैसे की हवस साफ चमकने लगी।
‘हां, काकी। देखा जाए तो एक मुश्त छह लाख मिल ही जाएंगे। आप लोगों को…’ स्वयंसेवक के गंभीर चेहरे पर भी अब चमक उभरी।
‘…अच्छा तो कैसे मिलेंगे?’ बूढ़़े की जिज्ञासा बढ़़ी,
‘हमार तो खोपडि़य़ा चकचका रही है कछू समझ नहीं आ रहा है…’ नकद-नारायण के आने की आशा से बेटे के जाने का गम कम होने लगा था।
‘ वो मैं आपका काम करवा दूंगा। आप कहां धक्के खाते फिरेंगे? बदले में पूरी रकम के दो टका कमीशन लूंगा।’ स्वयंसेवक ने भलेमानुस का मुखौटा उतार कर फेंक दिया। अब वहां एक दलाल खड़़ा था। लाशों पर व्यापार करने वाला दलाल…
‘तनिक बात बताओ बचवा। हर मरने वाले को ५ लाख रुपए मिल रहे हैं?’ बुढि़य़ा के मन में कुछ उभरा, जो फुदक कर चेहरे पर कुटिल मुस्कान की तरह चिपक गया।
‘…हम का कह रहे हैं कि अगर मान लो कल को ये बहू भी मर जाए…और ऊ मुनिया भी…’
किसी छुतही बीमारी की तरह एक कुटिल मुस्कान बूढ़़े के चेहरे पर कूद गई।
‘…तो का हमें १५ लाख रुपए मिल जाएंगे…’ बुढि़य़ा ने ऊंगलियों पर गिनते हुए एक दम सही हिसाब लगाया।
‘आप तो हिसाब की बहुत पक्की हो काकी। इस तरह आपको टोटल १५ लाख मुआवजा पक्का मिल जाएगा।’ दलाल के होंठ कुटिल मुस्कान से विकृत होने लगे।
‘…तो ठीक है। कल सुबह आके दो टके के हिसाब से ३० हजार रुपए ले जाना…’ बुढि़य़ा ने बड़़ी निश्चिंतता से कहा।
‘नहीं माजी, तब तो हमें पांच लाख चाहिए…’ दलाल तन के बोला।
‘…वो किस बात के?’ बूढ़़ा ऐंठा।
‘अपनी आत्मा को मारने का मुआवजा…
-सुमन सारस्वत
रेडियो, दूरदर्शन और पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते-लिखते पत्रकारिता में डिप्लोमा कर जनसत्ता मुंबई में उपसंपादक की नौकरी की। जब २००२ में जनसत्ता का मुंबई संस्करण बंद हुआ तो स्वेच्छा सेवानिवृत्ति के बाद रचनात्मक लेखन के साथ-साथ हिंदी साप्ताहिक ‘वाग्धारा’ का संपादन एवं प्रबंधन जारी है। इसी दौर में लिखी गई कहानी ‘बालूघड़ी’ पुरस्कृत हुई। परिवार और नौकरी के बीच संघर्ष करती, अपने अस्तित्व को सहेजती आम ी पर केंद्रित लंबी कहानी ‘मादा’ एक आम औरत के खास जजबात को स्वर देने वाली मूलत: विद्रोह की कहानी है। यह कथा ‘आधी दुनिया’ के पीड़ाभोग को रेखांकित ही नहीं करती बल्कि उसे ऐसे मुकाम तक ले जाती है जहां अनिर्णय से जुझती महिलाओं को एकाएक निर्णय लेने की ताकत मिल जाती है। लंबी कहानी ‘मादा’ वर्तमान दौर की बेहद महत्वपूर्ण गाथा है जो विशेष रूप से चर्चित हुई। सुमन सारस्वत की कहानियों में ी विमर्श के साथ-साथ एक औरत के पल-पल बदलते मनोभाव का सूक्ष्म विवेचन मिलता है। एक और कहानी ‘दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत’ भी बेहद पसंद की गई।