बिना विश्राम के ही लगातार काम करते रहने से काफी थक चुका था मटरु. शाम
होने से पहले ही आज लौट चुका था वह अपनी खोली. अगले दिन के लिये
राशन-पानी की थैली कंधे पर टांगे काम से वापस नहीं लौटता था, फिर खाली
हाथ क्यों आ पहुँचा ? जरुर कोई बात होगी. दिन भर की कमाई कहीं जुआ में तो
नहीं हार गया ? खाने-पीने की लत तो है ही न, हो न हो पियक्कड़ों की टोली
में इसने सारे कमाए पैसे फूँक दिये हों ? रोज तो तेल-साबुन, नून-हल्दी
लेकर ही लौटता, आज इस तरह वापस लौट आने का अर्थ ? मेरा क्या है, लाएगा तो
बनाउँगी, नहीं लाएगा तो बाल-बच्चा नोचेगा उसी को. अन्न के एक-एक दाने के
लिये बच्चे जब तरसेंगे तो ठिकाने आ जाएगा दिमाग खुद-ब-खुद. झुरकी के जेहन
में. कई-कई तरह के सवाल उभर रहे थे, किन्तु कंठ से बाहर ला पाने में खुद
को असहज महसूस कर रही थी वह.
होने से पहले ही आज लौट चुका था वह अपनी खोली. अगले दिन के लिये
राशन-पानी की थैली कंधे पर टांगे काम से वापस नहीं लौटता था, फिर खाली
हाथ क्यों आ पहुँचा ? जरुर कोई बात होगी. दिन भर की कमाई कहीं जुआ में तो
नहीं हार गया ? खाने-पीने की लत तो है ही न, हो न हो पियक्कड़ों की टोली
में इसने सारे कमाए पैसे फूँक दिये हों ? रोज तो तेल-साबुन, नून-हल्दी
लेकर ही लौटता, आज इस तरह वापस लौट आने का अर्थ ? मेरा क्या है, लाएगा तो
बनाउँगी, नहीं लाएगा तो बाल-बच्चा नोचेगा उसी को. अन्न के एक-एक दाने के
लिये बच्चे जब तरसेंगे तो ठिकाने आ जाएगा दिमाग खुद-ब-खुद. झुरकी के जेहन
में. कई-कई तरह के सवाल उभर रहे थे, किन्तु कंठ से बाहर ला पाने में खुद
को असहज महसूस कर रही थी वह.
मटरु को अपने बच्चों से काफी
लगाव था. जब भी लौटता उसके हाथों में लेमचूस और फोफी अवश्य होता. आशा भरी
निगाहों से बच्चे प्रतिदिन उसके लौटने का इंतजार करते. बच्चे भी मायूस थे
आज. मटरु के उतारे कपड़े के पॉकेटों में झाँकते-झाँकते वे थक गए लैमचूस और
फोफी. जहाँ-जहाँ भी हाथ डालते, उन्हें निराशा ही मिलती. बच्चे कभी माँ को
देखते तो कभी पिता को. इन सब बातों से बेपरवाह था मटरु. बच्चों की उसे
तनिक भी चिन्ता नहीं थी. घर वापस क्या लौटा, निढाल होकर बिस्तर पर ही गिर
पड़ा. मानो थकान भरी लम्बी यात्रा से लौट रहा हो. बच्चों को बहला-फुसलाकर
किसी तरह झुरकी उन्हें सुला पाने में कामयाब हुई. गीदड़-बुतरु इसी आशा में
गहरी नींद सो गए कि अगले दिन मटरु उनकी आशाओं पर पानी नहीं फेरेगा. पति
के समीप बैठी झुरकी देर रात तक तेल-मालिस करती रही उसकी. थक-हार कर वह भी
अचानक कब सो गई उसे पता नहीं रहा. चिड़ियों की चहचहाहट के साथ ही जब वह
जगी तो प्रतिदिन की तरह झाड़ू, बर्तन में लग गई. बच्चे भी उठ गए, पर मटरु
बिस्तर पर ही पड़ा रहा. देर तक मटरु के न उठने से परेशान झुरकी दिल अन्दर
ही अन्दर बैठा जा रहा था.
लगाव था. जब भी लौटता उसके हाथों में लेमचूस और फोफी अवश्य होता. आशा भरी
निगाहों से बच्चे प्रतिदिन उसके लौटने का इंतजार करते. बच्चे भी मायूस थे
आज. मटरु के उतारे कपड़े के पॉकेटों में झाँकते-झाँकते वे थक गए लैमचूस और
फोफी. जहाँ-जहाँ भी हाथ डालते, उन्हें निराशा ही मिलती. बच्चे कभी माँ को
देखते तो कभी पिता को. इन सब बातों से बेपरवाह था मटरु. बच्चों की उसे
तनिक भी चिन्ता नहीं थी. घर वापस क्या लौटा, निढाल होकर बिस्तर पर ही गिर
पड़ा. मानो थकान भरी लम्बी यात्रा से लौट रहा हो. बच्चों को बहला-फुसलाकर
किसी तरह झुरकी उन्हें सुला पाने में कामयाब हुई. गीदड़-बुतरु इसी आशा में
गहरी नींद सो गए कि अगले दिन मटरु उनकी आशाओं पर पानी नहीं फेरेगा. पति
के समीप बैठी झुरकी देर रात तक तेल-मालिस करती रही उसकी. थक-हार कर वह भी
अचानक कब सो गई उसे पता नहीं रहा. चिड़ियों की चहचहाहट के साथ ही जब वह
जगी तो प्रतिदिन की तरह झाड़ू, बर्तन में लग गई. बच्चे भी उठ गए, पर मटरु
बिस्तर पर ही पड़ा रहा. देर तक मटरु के न उठने से परेशान झुरकी दिल अन्दर
ही अन्दर बैठा जा रहा था.
बच्चे आज भी शायद भूखे ही रहेंगे
? एकाध पैला चावल की बात हो तो इधर-उधर से जुगाड़ कर भी ले, निकट्ठू की
तरह पड़ा रहा तो कब तक चलेगा घर ? दोनों टाईम का उधार कौन देगा ? पहले से
ही कर्जा क्या कम है कपार पर ? लुकाठी लिये रोज-रोज नत्थू मोदी दम फुला
चुका है टोक-टोक कर. भोरे-भिनसारे उसका चेहरा जो देखे, दिन-दिन भर अन्न
का एक दाना नसीब नहीं हो. पहले तो जितना चाहो उधार दे देता था, मूल से
ज्यादा तो अब तक वह सूद वसूल चुका है. जो भी बचा-खुचा जेवर-गहना था उसे
भी खा गया मुँहझौंसा. बार-बार खुद को कोस रही थी नत्थू मोदी को वह.
किस्मत फूटी थी जो इस दुआर में चली आयी. दिल के अन्दर मचा अन्तर्द्वंद के
बीच मटरु को उठाने की लाख कोशिशें वह करती रही, किन्तु क्या मजाल कि वह
टस से मस हो. किसी बड़ी अनहोनी की आशंका से झुरकी का कलेजा धड़कनें लगा.
मटरु इधर पूरी तरह ठंडा पड़ चुका था. बार-बार उठाने के बाद भी जब वह नहीं
उठा तो झुरकी भोंकार मार-मार कर रोने लगी. हे चुटोनाथ बाबा अब आप ही सब
आस हैं. मेरा मटरु ठीक हो जाए बाबा, मांग-झांग कर भी शनिचर को कबूतर
चढ़ाऐंगे. मेरा मटरु मर गया तो बाल-बच्चा को कौन देखेगा ? कैसे चलेगा जीवन
हम गरीबों का चुटोनाथ ? दोनों गीदड़-बुतरु पर रहम करना चुटो देवता !
? एकाध पैला चावल की बात हो तो इधर-उधर से जुगाड़ कर भी ले, निकट्ठू की
तरह पड़ा रहा तो कब तक चलेगा घर ? दोनों टाईम का उधार कौन देगा ? पहले से
ही कर्जा क्या कम है कपार पर ? लुकाठी लिये रोज-रोज नत्थू मोदी दम फुला
चुका है टोक-टोक कर. भोरे-भिनसारे उसका चेहरा जो देखे, दिन-दिन भर अन्न
का एक दाना नसीब नहीं हो. पहले तो जितना चाहो उधार दे देता था, मूल से
ज्यादा तो अब तक वह सूद वसूल चुका है. जो भी बचा-खुचा जेवर-गहना था उसे
भी खा गया मुँहझौंसा. बार-बार खुद को कोस रही थी नत्थू मोदी को वह.
किस्मत फूटी थी जो इस दुआर में चली आयी. दिल के अन्दर मचा अन्तर्द्वंद के
बीच मटरु को उठाने की लाख कोशिशें वह करती रही, किन्तु क्या मजाल कि वह
टस से मस हो. किसी बड़ी अनहोनी की आशंका से झुरकी का कलेजा धड़कनें लगा.
मटरु इधर पूरी तरह ठंडा पड़ चुका था. बार-बार उठाने के बाद भी जब वह नहीं
उठा तो झुरकी भोंकार मार-मार कर रोने लगी. हे चुटोनाथ बाबा अब आप ही सब
आस हैं. मेरा मटरु ठीक हो जाए बाबा, मांग-झांग कर भी शनिचर को कबूतर
चढ़ाऐंगे. मेरा मटरु मर गया तो बाल-बच्चा को कौन देखेगा ? कैसे चलेगा जीवन
हम गरीबों का चुटोनाथ ? दोनों गीदड़-बुतरु पर रहम करना चुटो देवता !
मटरुआ की मौगी चिल्ला क्यों रही
है ? अचानक क्या हो गया ? सनसनाते हुए कुछ लोग उसके दुआर तक पहुँच गए.
यहाँ तो मामला कुछ और ही था. मटरु को गोद में थामे झुरकी का रो-रो कर
बुरा हाल था. झुरकी की कलाई की चुड़िया भी खिसक रही थी एक-एक कर. यह सब
कैसे और कब हो गया ? कल तक तो मटरुआ ठीक ही था, अचानक क्या हो गया इसे ?
गहरी संवेदना प्रकट करते हुए यमुना का कह रहे थे। कैसे कहीं बाबू का हो
गवा ? हमार दूल्हा तो गौ था गौ. पीता-खाता जरुर था, लेकिन उसकी भी एक हद
थी. कल शाम की ही बात है, काम से वापस लौटने के बाद बिस्तर ऐसे पकड़ा कि
फिर उठ ही नहीं सका. ई पहाड़ सी जिनगी अब हम सब कैसे बिताईब बाबू
साहब….? हमार सेनूर उजड़ गईल !
है ? अचानक क्या हो गया ? सनसनाते हुए कुछ लोग उसके दुआर तक पहुँच गए.
यहाँ तो मामला कुछ और ही था. मटरु को गोद में थामे झुरकी का रो-रो कर
बुरा हाल था. झुरकी की कलाई की चुड़िया भी खिसक रही थी एक-एक कर. यह सब
कैसे और कब हो गया ? कल तक तो मटरुआ ठीक ही था, अचानक क्या हो गया इसे ?
गहरी संवेदना प्रकट करते हुए यमुना का कह रहे थे। कैसे कहीं बाबू का हो
गवा ? हमार दूल्हा तो गौ था गौ. पीता-खाता जरुर था, लेकिन उसकी भी एक हद
थी. कल शाम की ही बात है, काम से वापस लौटने के बाद बिस्तर ऐसे पकड़ा कि
फिर उठ ही नहीं सका. ई पहाड़ सी जिनगी अब हम सब कैसे बिताईब बाबू
साहब….? हमार सेनूर उजड़ गईल !
महुआ दारु तो पीता ही न था
यमुना दा, साले का कलेजा सड़ गया होगा. कान में फुसफुसाकर यमुना दा के
अफसोस का जबाव देते हुए फगुनी कह उठा. ठीके बोले फगुनी बा, टांड़ पर कलहो
देखे थे इसको. सौंतारी के दो-तीन आदमी के साथ बैठा गांजा टान रहा था.
जैसे ही हम पर निगाह पड़ी, वह पीठ आड़ कर बैठ गया. हमको तभी लग गया था कि
बहुत दिन तक यह जिन्दा रहने वाला नहीं. यमुना दा और फगुनी के बीच हो रही
बाचतीच के बीच अचानक टपक पड़ा मंगरु. जो भी हो, बेचारा था बड़ा भला आदमी.
एक हांक में ही दौड़ पड़ता हाथ जोड़े. काम चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो,
बिना पूरा किये दम नहीं लेता था. मटरु की मौत पर अपनी सारी संवेदना
उढ़ेलते हुए यमुना दा कहे जा रहे थे. सो तो ठीके बात है, लेकिन क्या
कीजियेगा उपर वाले पर किसी का जोर चला है क्या ?
मरने का समय निर्धारित तो है
नहीं कि ढोल पिट-पिट कर सबके सामने आदमी मरे. अपनी उम्र के हिसाब से
यमुदा दा के प्रश्नों का जबाव दे रहा फगुनी मटरु की मौत पर चुटकी लेने से
बाज नहीं आ रहा था. वर्षों पहले फगुनी की तीखी नोंकझोंक हुई थी उससे. तभी
से दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला बंद था. मोट पाँच सौ रुपये के ठेके
में फगुनी हजार का काम करवा चुका था मटरु से. बाकी पैसे मांगने क्या गया,
चोर-चुहाड़ कह कर दरवाजे से े भगा दिया गया उसे. तभी से दोनों के बीच की
कटुता बढ़ गई थी. मटरु की मौत क्या हुई, अदर ही अंदर फूले नहीं समा रहा था
वह. झुरकी को एको तनि सुहाता नहीं था फगुनी, लेकिन यहाँ टोक भी नहीं सकती
थी वह. मटरु की मौत हर एक के लिये पहेली के समान थी. कोई नशीले पदार्थों
के सेवन से उसकी मौत मान रहा था तो कोई जहरीली चीजों के काटने से.
यमुना दा, साले का कलेजा सड़ गया होगा. कान में फुसफुसाकर यमुना दा के
अफसोस का जबाव देते हुए फगुनी कह उठा. ठीके बोले फगुनी बा, टांड़ पर कलहो
देखे थे इसको. सौंतारी के दो-तीन आदमी के साथ बैठा गांजा टान रहा था.
जैसे ही हम पर निगाह पड़ी, वह पीठ आड़ कर बैठ गया. हमको तभी लग गया था कि
बहुत दिन तक यह जिन्दा रहने वाला नहीं. यमुना दा और फगुनी के बीच हो रही
बाचतीच के बीच अचानक टपक पड़ा मंगरु. जो भी हो, बेचारा था बड़ा भला आदमी.
एक हांक में ही दौड़ पड़ता हाथ जोड़े. काम चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो,
बिना पूरा किये दम नहीं लेता था. मटरु की मौत पर अपनी सारी संवेदना
उढ़ेलते हुए यमुना दा कहे जा रहे थे. सो तो ठीके बात है, लेकिन क्या
कीजियेगा उपर वाले पर किसी का जोर चला है क्या ?
मरने का समय निर्धारित तो है
नहीं कि ढोल पिट-पिट कर सबके सामने आदमी मरे. अपनी उम्र के हिसाब से
यमुदा दा के प्रश्नों का जबाव दे रहा फगुनी मटरु की मौत पर चुटकी लेने से
बाज नहीं आ रहा था. वर्षों पहले फगुनी की तीखी नोंकझोंक हुई थी उससे. तभी
से दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला बंद था. मोट पाँच सौ रुपये के ठेके
में फगुनी हजार का काम करवा चुका था मटरु से. बाकी पैसे मांगने क्या गया,
चोर-चुहाड़ कह कर दरवाजे से े भगा दिया गया उसे. तभी से दोनों के बीच की
कटुता बढ़ गई थी. मटरु की मौत क्या हुई, अदर ही अंदर फूले नहीं समा रहा था
वह. झुरकी को एको तनि सुहाता नहीं था फगुनी, लेकिन यहाँ टोक भी नहीं सकती
थी वह. मटरु की मौत हर एक के लिये पहेली के समान थी. कोई नशीले पदार्थों
के सेवन से उसकी मौत मान रहा था तो कोई जहरीली चीजों के काटने से.
थैलेसेमिया की बीमारी से पीड़ित
सलखी पिछले डेढ़-दो हफते से हॉस्पीटल के बेड पर आखिरी सांसें गिन रही थी.
पेट में बच्चा और शरीर में खून नहीं, ऐसे में हड्डियाँ उसके शरीर का
उपहास उड़ा रही थीं. उसके बचने की उम्मीदें लोग लगभग छोड़ ही चुके थे. खून
की सख्त आवश्यकता थी उसे, वह भी एक-दो बोतल की नहीं, कई-कई बोतल चाहिए
था. जल्द ही खून नहीं मिला तो…..? एक पैर कटा बदरी विवश था. न तो पैसे
थे और न ही समांग. चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा था वह. कई-कई दिनों से
आधे पेट पर दम साधे बच्चों के भावी जीवन की िंचता अलग से. उपर वाला भी
निष्ठूर हो चुका था. बदरी कभी अपनी सलखी को देखता तो कभी अपने कटे पैर
को. वाह रे उपरवाले ….? ऐसे ही दिन दिखाने थे तो फिर जनम, शादी-बियाह
और बच्चे देने का नाटक ही क्यों…? किस-किस जन्म के पाप का हिसाब ले रहा
प्रभू तू ….? क्या तेरी संवेदना इंसानों से भी गिर चुकी है…? लोग ठीक
ही कहते हैं पत्थर भी कभी सुनता है भला ? सलखी के चेहरे पर हाथ फेरता बीस
वर्ष पीछे की जिन्दगी में उतर चुका था बदरी.
सलखी पिछले डेढ़-दो हफते से हॉस्पीटल के बेड पर आखिरी सांसें गिन रही थी.
पेट में बच्चा और शरीर में खून नहीं, ऐसे में हड्डियाँ उसके शरीर का
उपहास उड़ा रही थीं. उसके बचने की उम्मीदें लोग लगभग छोड़ ही चुके थे. खून
की सख्त आवश्यकता थी उसे, वह भी एक-दो बोतल की नहीं, कई-कई बोतल चाहिए
था. जल्द ही खून नहीं मिला तो…..? एक पैर कटा बदरी विवश था. न तो पैसे
थे और न ही समांग. चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा था वह. कई-कई दिनों से
आधे पेट पर दम साधे बच्चों के भावी जीवन की िंचता अलग से. उपर वाला भी
निष्ठूर हो चुका था. बदरी कभी अपनी सलखी को देखता तो कभी अपने कटे पैर
को. वाह रे उपरवाले ….? ऐसे ही दिन दिखाने थे तो फिर जनम, शादी-बियाह
और बच्चे देने का नाटक ही क्यों…? किस-किस जन्म के पाप का हिसाब ले रहा
प्रभू तू ….? क्या तेरी संवेदना इंसानों से भी गिर चुकी है…? लोग ठीक
ही कहते हैं पत्थर भी कभी सुनता है भला ? सलखी के चेहरे पर हाथ फेरता बीस
वर्ष पीछे की जिन्दगी में उतर चुका था बदरी.
कुस्तोर के कोयला खदान में एक
मजदूर ही तो था वह. लेकिन ठाठ किसी से कम नहीं. लोग उसकी ईमानदारी के
कायल थे. जो भी काम करता, दुगुने उत्साह के साथ करता. साफ-सुथरी सोंच व
नियत अच्छी, परिणामस्वरुप ओवर टाईम ड्यूटी की पूरी आजादी थी उसे. पैसा भी
अच्छा-खासा कमाने लगा. एक दिन पिताजी का पत्र आया. जोगीडीह में ब्याह के
लिये लड़की देख ली गई है. घर-खानदान भी ठीक-ठाक ही है. शीघ्र लौट आने को
कहा गया था. आज्ञाकारी बालक की तरह कुछ दिनों के लिये बदरी लौट आया गाँव.
पहली नजर में ही सलखी उसे भा गई थी. शादी हुई. बारात वापस लौट ही रही थी
कि तभी एक घटना घटी. बीच रास्ते में बदरी की गाड़ी अचानक उलट गई, सलखी तो
बच गई किन्तु बदरी अपना एक पैर गवां बैठा. किस्मत भी कई-कई तरह से रुलाती
है इंसानों को. जिस उम्र में सपनों के उड़ान भरे जाते हैं, उस उम्र में
अपंग पति की देखभाल की एक बड़ी जिम्मेवारी सलखी के कंधों पर आन पड़ी थी.
दिन-रात बदरी की सेवा ही उसकी नियति बन चुकी थी. दूसरी शादी के लाख दबाव
के बावजूद इस हाल में बदरी को छोड़ कर चले जाना उसे गंवारा नहीं था. शादी
सिर्फ दिखावा नहीं था, जन्म-जन्मांतर तक साथ निभाने का यह एक अमिट बंधन
था उसके लिए. अपनी किस्मत समझ खुशी-खुशी वह इसे निभाए जा रही थी. इस तरह
एक-दो नहीं कई-कई वर्ष गुजर गए. इतने वर्षों में एक जोड़ी कानबाली तक के
लिये बदरी को कभी परेशान किया हो, उसे याद नहीं. जीवन और मौत के बीच जूझ
रही सलखी के लिये कुछ करने का वक्त आया भी तो वह उसे पूरा कर पाने में
असफल है. कितनी बड़ी लाचारी थी, बदरी ही समझ सकता था. अन्दर ही अन्दर आँसू
का घूँट पीता बदरी निरीह प्राणी की तरह सिर्फ सोंच ही सकता था.
मजदूर ही तो था वह. लेकिन ठाठ किसी से कम नहीं. लोग उसकी ईमानदारी के
कायल थे. जो भी काम करता, दुगुने उत्साह के साथ करता. साफ-सुथरी सोंच व
नियत अच्छी, परिणामस्वरुप ओवर टाईम ड्यूटी की पूरी आजादी थी उसे. पैसा भी
अच्छा-खासा कमाने लगा. एक दिन पिताजी का पत्र आया. जोगीडीह में ब्याह के
लिये लड़की देख ली गई है. घर-खानदान भी ठीक-ठाक ही है. शीघ्र लौट आने को
कहा गया था. आज्ञाकारी बालक की तरह कुछ दिनों के लिये बदरी लौट आया गाँव.
पहली नजर में ही सलखी उसे भा गई थी. शादी हुई. बारात वापस लौट ही रही थी
कि तभी एक घटना घटी. बीच रास्ते में बदरी की गाड़ी अचानक उलट गई, सलखी तो
बच गई किन्तु बदरी अपना एक पैर गवां बैठा. किस्मत भी कई-कई तरह से रुलाती
है इंसानों को. जिस उम्र में सपनों के उड़ान भरे जाते हैं, उस उम्र में
अपंग पति की देखभाल की एक बड़ी जिम्मेवारी सलखी के कंधों पर आन पड़ी थी.
दिन-रात बदरी की सेवा ही उसकी नियति बन चुकी थी. दूसरी शादी के लाख दबाव
के बावजूद इस हाल में बदरी को छोड़ कर चले जाना उसे गंवारा नहीं था. शादी
सिर्फ दिखावा नहीं था, जन्म-जन्मांतर तक साथ निभाने का यह एक अमिट बंधन
था उसके लिए. अपनी किस्मत समझ खुशी-खुशी वह इसे निभाए जा रही थी. इस तरह
एक-दो नहीं कई-कई वर्ष गुजर गए. इतने वर्षों में एक जोड़ी कानबाली तक के
लिये बदरी को कभी परेशान किया हो, उसे याद नहीं. जीवन और मौत के बीच जूझ
रही सलखी के लिये कुछ करने का वक्त आया भी तो वह उसे पूरा कर पाने में
असफल है. कितनी बड़ी लाचारी थी, बदरी ही समझ सकता था. अन्दर ही अन्दर आँसू
का घूँट पीता बदरी निरीह प्राणी की तरह सिर्फ सोंच ही सकता था.
कई दिनों से काम पर वापस सलखी
के नहीं लौटने से मटरु इधर काफी परेशान था. जहाँ भी काम मिलता दोनां एक
साथ करते. सलखी साथ होती तो देश-दुनिया की गप्पें हाँकते उनके काम कब
खत्म हो जाते दोनों में से किसी को पता नहीं होता. पेट में बच्चा रहते
हुए भी बेचारी खटने से देह नहीं चुराती थी. जरुर कोई बड़ी मुसीबत में होगी
? वह चिन्तित रहने लगा. एक वही तो थी जिसे दुनियादारी की बातों से अवगत
कराया करता था वह. सलखी के मिजाज जानने की उत्सुकता में खोजते-खोजते एक
दिन वह हॉस्पीटल तक जा पहुँचा. सलखी को इस हाल में देखकर उससे रहा नहीं
गया. अपनी कमाई से कुछ पैसे बचाकर सलखी की मदद करता रहा वह, पर खून कहाँ
से लाए ? कौन देगा खून सलखी को ? गरीबों के लिये किसके दिल में दया होगी
? जो भी हो, सलखी को मरने नहीं देगा. जहाँ तक संभव था उसने खून दिया.
संयोग कहिये या फिर पत्थर दिल उपर वाले की कृपा, धीरे-धीरे सलखी के चेहरे
पर मुस्कान लौटने लगी और फिर एक दिन उसने एक नन्हें से बच्चे को जन्म भी
दिया. जच्चा-बच्चा दोनों अब स्वस्थ थे. जरुरत से ज्यादा खून देने से इधर
मटरु की हालत नाजुक होने लगी. भीतर ही भीतर वह कमजोर होता जा रहा था.
झुरकी को इन सब बातों का कोई पता नहीं था. उसे पता होता तो शायद मटरु खून
देने की स्थिति में न होता. एक दिन ऐसा हुआ कि बीबी, बाल-बच्चे को टूअर
छोड़ मटरु खुद ही विदा हो लिया धरती से.
के नहीं लौटने से मटरु इधर काफी परेशान था. जहाँ भी काम मिलता दोनां एक
साथ करते. सलखी साथ होती तो देश-दुनिया की गप्पें हाँकते उनके काम कब
खत्म हो जाते दोनों में से किसी को पता नहीं होता. पेट में बच्चा रहते
हुए भी बेचारी खटने से देह नहीं चुराती थी. जरुर कोई बड़ी मुसीबत में होगी
? वह चिन्तित रहने लगा. एक वही तो थी जिसे दुनियादारी की बातों से अवगत
कराया करता था वह. सलखी के मिजाज जानने की उत्सुकता में खोजते-खोजते एक
दिन वह हॉस्पीटल तक जा पहुँचा. सलखी को इस हाल में देखकर उससे रहा नहीं
गया. अपनी कमाई से कुछ पैसे बचाकर सलखी की मदद करता रहा वह, पर खून कहाँ
से लाए ? कौन देगा खून सलखी को ? गरीबों के लिये किसके दिल में दया होगी
? जो भी हो, सलखी को मरने नहीं देगा. जहाँ तक संभव था उसने खून दिया.
संयोग कहिये या फिर पत्थर दिल उपर वाले की कृपा, धीरे-धीरे सलखी के चेहरे
पर मुस्कान लौटने लगी और फिर एक दिन उसने एक नन्हें से बच्चे को जन्म भी
दिया. जच्चा-बच्चा दोनों अब स्वस्थ थे. जरुरत से ज्यादा खून देने से इधर
मटरु की हालत नाजुक होने लगी. भीतर ही भीतर वह कमजोर होता जा रहा था.
झुरकी को इन सब बातों का कोई पता नहीं था. उसे पता होता तो शायद मटरु खून
देने की स्थिति में न होता. एक दिन ऐसा हुआ कि बीबी, बाल-बच्चे को टूअर
छोड़ मटरु खुद ही विदा हो लिया धरती से.
मटरु की मौत की खबर सुनकर सलखी
के पैरों की जमीन खिसक गई थी. जिसका खून उसकी रक्त धमनियों में दौड़ रहा
था, देवता रुपी वह इंसान उससे अब कोसों दूर हो चुका था. किसके साथ
बाँटेगी वह अपना सुख-दुख ? किसे फूर्सत क़ि दूसरों के दिलों को टटोले ?
बिना किसी पुरुष साथी के कहाँ-कहाँ भटकेगी वह ? कहाँ-कहाँ जाएगी काम करने
? क्या गारंटी है कि बत्तीस दाँत के बीच एक जीभ की इज्जत तार-तार न हो ?
मटरु ही था, बेफिक्र हो जिसकी बदौलत सान से किया करती थी वह मजूरी का
काम. बुरी नजर वाले सामने मटरु को देखकर सलखी से सटते तक नहीं थे. साये
की तरह हमेशा साथ होता था मटरु उसके. मटरु की मौत सिर्फ सलखी के जीवन की
असहनीय कहानी नहीं थी, झुरकी से ज्यादा किसी का दिल छलनी हुआ था तो वह थी
सलखी. किस्मत चाहे कितना भी रौद्ररुप क्यों न ले ले, जब तक जिन्दा रहेगी
मटरु के बच्चों को भूखों मरने नहीं देगी. उसके बच्चे ठीक उसी तरह
पले-बढ़ेंगे जैसे खुद के बच्चों को वह पाल-पोस रही है. साड़ी के पल्लु से
झुरकी के आँखों से टप-टप बह रहे आँसुओं को पोंछती हुई सलखी बोल उठी, वह
इंसान नहीं देवता था देवता. ’’भौजी’’, अकेली मत समझना, छोटी बहन बन हरपल
साये की तरह रहूँगी तुम्हारे साथ. मटरु तो अब लौट नहीं सकता. तुम्हारी
खुशी समझो अब मेरी खुशी है. तुम्हारा सुख-दुख अब मेरा सुख-दुख है. सर पर
सहारे का हाथ पाकर झुरकी हल्का महसूस कर रही थी खुद को. सलखी की इंसानियत
पर बदरी गर्व कर रहा था.
के पैरों की जमीन खिसक गई थी. जिसका खून उसकी रक्त धमनियों में दौड़ रहा
था, देवता रुपी वह इंसान उससे अब कोसों दूर हो चुका था. किसके साथ
बाँटेगी वह अपना सुख-दुख ? किसे फूर्सत क़ि दूसरों के दिलों को टटोले ?
बिना किसी पुरुष साथी के कहाँ-कहाँ भटकेगी वह ? कहाँ-कहाँ जाएगी काम करने
? क्या गारंटी है कि बत्तीस दाँत के बीच एक जीभ की इज्जत तार-तार न हो ?
मटरु ही था, बेफिक्र हो जिसकी बदौलत सान से किया करती थी वह मजूरी का
काम. बुरी नजर वाले सामने मटरु को देखकर सलखी से सटते तक नहीं थे. साये
की तरह हमेशा साथ होता था मटरु उसके. मटरु की मौत सिर्फ सलखी के जीवन की
असहनीय कहानी नहीं थी, झुरकी से ज्यादा किसी का दिल छलनी हुआ था तो वह थी
सलखी. किस्मत चाहे कितना भी रौद्ररुप क्यों न ले ले, जब तक जिन्दा रहेगी
मटरु के बच्चों को भूखों मरने नहीं देगी. उसके बच्चे ठीक उसी तरह
पले-बढ़ेंगे जैसे खुद के बच्चों को वह पाल-पोस रही है. साड़ी के पल्लु से
झुरकी के आँखों से टप-टप बह रहे आँसुओं को पोंछती हुई सलखी बोल उठी, वह
इंसान नहीं देवता था देवता. ’’भौजी’’, अकेली मत समझना, छोटी बहन बन हरपल
साये की तरह रहूँगी तुम्हारे साथ. मटरु तो अब लौट नहीं सकता. तुम्हारी
खुशी समझो अब मेरी खुशी है. तुम्हारा सुख-दुख अब मेरा सुख-दुख है. सर पर
सहारे का हाथ पाकर झुरकी हल्का महसूस कर रही थी खुद को. सलखी की इंसानियत
पर बदरी गर्व कर रहा था.
- अमरेन्द्र सुमन
‘‘मणि बिला’’, केवट पाड़ा (मोरटंगा रोड), दुमका, झारखण्ड
जनमुद्दों / जन समस्याओं पर तकरीबन ढाई दशक से मुख्य धारा मीडिया की पत्रकारिता, हिन्दी साहित्य की विभिन्न विद्याओं में गम्भीर लेखन व स्वतंत्र पत्रकारिता।
जनमुद्दों / जन समस्याओं पर तकरीबन ढाई दशक से मुख्य धारा मीडिया की पत्रकारिता, हिन्दी साहित्य की विभिन्न विद्याओं में गम्भीर लेखन व स्वतंत्र पत्रकारिता।
जन्म : 15 जनवरी, (एक मध्यमवर्गीय परिवार में) चकाई, जमुई (बिहार)
शिक्षा : एम0 ए0 (अर्थशास्त्र), एम0 ए0 इन जर्नलिज्म एण्ड मास कम्यूनिकेशन्स, एल0एल0बी0
रूचि : मुख्य धारा मीडिया की पत्रकारिता, साहित्य लेखन व स्वतंत्र पत्रकारिता
प्रकाशन: देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, जैसे-साक्ष्य, समझ, मुक्ति पर्व, अक्षर पर्व, समकालीन भारतीय साहित्य, जनपथ, परिकथा, अविराम, हायकु, अनुभूति-अभिव्यक्ति, स्वर्गविभा, सृजनगाथा, रचनाकार, (अन्तरजाल पत्रिकाऐं) सहित अन्य साहित्यिक/राजनीतिक व भारत सरकार की पत्रिकाएँ योजना, सृष्टिचक्र, माइंड, समकालीन तापमान, सोशल ऑडिट न्यू निर्वाण टुडे, इंडियन गार्ड, (सभी मासिक पत्रिकाऐ) व अन्य में प्रमुखता से सैकड़ों आलेख, रचनाएँ प्रकाशित साथ ही साथ कई राष्ट्रीय दैनिक अखबारों व साप्ताहिक समाचार पत्रों-दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, चौथी दुनिया, ,(हिन्दी व उर्दू संस्करण) देशबन्धु, (दिल्ली संस्करण) राष्टीªय सहारा, ,(दिल्ली संस्करण) दि पायनियर , दि हिन्दू, माँर्निंग इंडिया (अंग्रेजी दैनिक पत्र) प्रभात खबर, राँची एक्सप्रेस, झारखण्ड जागरण, बिहार आबजर्वर, सन्मार्ग, सेवन डेज, सम्वाद सूत्र, गणादेश, बिहार आॅबजर्वर, कश्मीर टाइम्स इत्यादि में जनमुद्दों, जन-समस्याओं पर आधारित मुख्य धारा की पत्रकारिता, शोध व स्वतंत्र पत्रकारिता। चरखा (दिल्ली) मंथन (राँची) व जनमत शोध संस्थान (दुमका) सभी फीचर एजेन्यिों से फीचर प्रकाशित। सैकड़ों कविताएँ, कहानियाँ, संस्मरण, रिपोर्टाज, फीचर व शोध आलेखों का राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाआंे में लगातार प्रकाशन।
पुरस्कार एवं सम्मान :शोध पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अन्तराष्ट्रीय प्रेस दिवस (16 नवम्बर, 2009) के अवसर पर जनमत शोध संस्थान, दुमका (झारखण्ड) द्वारा स्व0 नितिश कुमार दास उर्फ ‘‘दानू दा‘‘ स्मृति सम्मान से सम्मानित। 30 नवम्बर 2011 को अखिल भारतीय पहाड़िया आदिम जनजाति उत्थान समिति की महाराष्ट्र राज्य इकाई द्वारा दो दशक से भी अधिक समय से सफल पत्रकारिता के लिये सम्मानित। नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया (न्यू दिल्ली) के तत्वावधान में झारखण्ड के पाकुड़ में आयोजित क्षेत्रीय कवि सम्मेलन में सफल कविता वाचन के लिये सम्मानित। नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में 19 व 20 दिसम्बर (दो दिवसीय) 2012 को अन्तरराष्ट्रीय परिपेक्ष्य में अनुवाद विषय की महत्ता पर आयोजित संगोष्ठी में महत्वपूर्ण भागीदारी तथा सम्मानित। नेपाल की साहित्यिक संस्था नेपाल साहित्य परिषद की ओर से लाईव आफ गॉडेज स्मृति चिन्ह से सम्मानित । सिदो कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया वर्कशॉप में वतौर रिसोर्स पर्सन व्याख्यान। हरियाणा से प्रकाशित अन्तर्जाल पत्रिका अनहद कृति की ओर से अनहद कृतिः वार्षिक हिंदी साहित्यिक उर्जायानः काव्य-उन्मेष-उत्सव विशेष मान्यता सम्मान-2014-15 से सम्मानित। साहित्यिक-सांस्कृतिक व सामाजिक गतिविधियों में उत्कृष्ट योगदान व मीडिया एडवोकेसी से सम्बद्ध अलग-अलग संस्थाओं /संस्थानों की ओर से अलग-अलग मुद्दों से संबंधित विषयों पर मंथन युवा संस्थान, राँची व अन्य क्षेत्रों से कई फेलोशिप प्राप्त। सहभागिता के लिए कई मर्तबा सम्मानित।
कार्यानुभव: मीडिया एडवोकेसी पर कार्य करने वाली अलग-अलग प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में बतौर रिसोर्स पर्सन कार्यो का लम्बा अनुभव। विज्ञान पत्रकारिता से संबंधित मंथन युवा संस्थान, रांची के तत्वावधान में आयोजित कई महत्वपूर्ण कार्यशालाओं में पूर्ण सहभागिता एवं अनुभव प्रमाण पत्र प्राप्त। कई अलग-अलग राजनीतिक व सामाजिक संगठनों के लिए विधि व प्रेस सलाहकार के रूप में कार्यरत।
सम्प्रति: अधिवक्ता सह व्यूरो प्रमुख ‘‘सन्मार्ग‘‘ दैनिक पत्र व ‘‘न्यू निर्वाण टुडे ‘‘ संताल परगना प्रमण्डल ( कार्यक्षेत्र में दुमका, देवघर, गोड्डा, पाकुड़, साहेबगंज व जामताड़ा जिले शामिल ) दुमका, झारखण्ड ।