मजबूर आकलन

जेल से बहार रोड के चौराहे पर कोई सभा चल रही है, जिसकी जोरदार आवाज़ें अंदर छीतू के कानों तक पहुंच रही है। भोलाभाला मासूम सा खेतिहर मजदूर छीतू ! कई दिन हो गए हैं उसे जेल में ! उसे तो अब तक विश्वास ही नहीं हो रहा है कि बिल्ली के बच्चों को पालना भी गुनाह हो सकता है। यह गुनाह, यही आपराध तो बताया गया था उसे। दो, बिन माँ के अत्यंत छोटे बिल्ली के बच्चे जिन्हें भूखा मरता देख वह घर ले आया था और उन्हें पालने पोसने लगा था, बच्चों का भी उनसे दिल मिल गया था। तभी किसी ने ये हवा फैला दी थी कि ये बच्चे तो चीते के हैं। बस फिर क्या था पुलिस पकड़ कर ले गयी उसे। कुछ दिनों बाद वन विभाग द्वारा ये निर्णय तो दे दिया गया था कि छीतू द्वारा पाले गए बच्चे बिल्ली के ही हैं, पर छीतू को लेकर अब तक अनिर्णय की स्थिति बनी हुई थी। साधनहीन, धनहीन, शक्तिहीन छीतू का मामला कहीं प्रकाश में भी नहीं आ सका था।
जेल के बहार सभा समाप्त हो चुकी थी। नारे लग रहे थे – समाज अपराधों से मुक्त हो, चोर लुटेरों,डाकुओ को जेल हो. बलात्कारियों, आतंकवादियों को फाँसी हो….. फाँसी हो….. सुनकर छीतू सोच के नए मोड़ पर आ गया था कि वह अपने आपको क्या माने? चोर, लूटेरा, आतंकवादी या बलात्कारी?

 

- संतोष सुपेकर

संक्षिप्त परिचय : 

मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में जन्मे संतोष सुपेकर की मातृभाषा मराठी है लेकिन लेखन वे हिन्दी में करते हैं। उनके पिताश्री मोरेश्वरजी सुपेकर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जिमनास्टिक-कोच हैं। एम कॉम तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त संतोष सुपेकर पश्चिम रेलवे में ‘लोको पायलट’ के पद पर कार्यरत हैं।

उनकी साहित्य सेवा को देखते हुए अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उनको सम्मानित एवं पुरस्कृत किया है।

कविता, लघुकथा एवं व्यंग्य उनकी प्रिय विधाएँ हैं।

‘साथ चलते हुए’(2004) तथा ‘हाशिए का आदमी’(2007) के बाद ‘बंद आँखों का समाज’ उनका तीसरा लघुकथा-संकलन है

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