उत्पीड़न का ग्रास सदा श्रमिक वर्ग बनता है और बाहर खदेड़ दिया जाता है । परंतु मेहनत करनेवाला कहीं भी, कैसे भी उद्यम करके पेट भर सकता है। भारत में संसाधनों का अभाव कभी भी नहीं रहा परंतु अराजकता देश का राजरोग है। बहुत कम राजा कार्यकुशल राजनेता हुए हैं हमारे इतिहास में। इसी कारण समय समय पर सोने की चिड़िया के पंख नोचे गए। जन्माधिकार से अधिष्ठित राजा कायर साबित हुए। प्राकृतिक संकटों में जनता का साथ न दे सके। अतः भारत के लिखित व अलिखित इतिहास पर ,जहां तक दृष्टि डालिये, स्वदेश से पलायन का अनवरत सिलसिला नज़र आएगा।
लोकगीतों का ” पिया परदेसी ” हो या धार्मिक प्रथा करवाचौथ की बीरो का व्यापारी पति या आधुनिक काल में ” मूलचंद खैरातीलाल अस्पताल शृंखला ” का संस्थापक मूलचंद ‘ सौदागर ‘ —- भारत से बाहर आजीविका कमाने जानेवाले ,हमारे समाज का आवश्यक अंग रहे हैं। इनमे से हजारों बाहर ही बस गए। संभवतः वापसी का रास्ता खतरनाक था। संभवतः ,वर्षों के प्रवास के बाद वह स्वजनों के दिलोदिमाग से उतर गए। केवल उनके कमाए धन की लालसा बची रही। इन प्रवासियों का इतिहास तीन से पांच हज़ार या उससे भी अधिक पुराना है।
पश्चिमी देशों में एक विशाल जन समूह ” जिप्सी ” के नाम से प्रसिद्ध है। यह ” रोमानी ”या ” सिंती ” भी कहे जाते हैं। इनका रंग गेहुँआ और बाल काले होते हैं। अतः इनको ” काले ” भी बुलाया जाता रहा है। यह यूरोप के प्रायः सभी देशों में आवास करते हैं और उनकी अपनी भाषा के अनुसार अलग अलग नामो से जाने जाते हैं। कहीं ’ गिटान ‘ तो कहीं ’ अतसिंगांनी ‘ , कहीं ’ बुरुशो ‘ तो कहीं ‘ मानुष ‘ .
यह घूमंतू प्रकृति के समुदाय हैं। इनकी अपनी एक विशिष्ट भाषा है। इनके आचार विचार एक ही परम्परा से बंधे हुए हैं। इसलिए अधिकाँश अपने ही कबीले में विवाह आदि करते हैं। यूरोप में इनका आगमन ग्यारहवीं शताब्दी में माना जाता है। यहां यह ईजिप्ट देश से आये थे अतः इन्हें ईजिप्शियन समझ लिया गया और अपभ्रंश में इनका नाम जिप्सी पड़ गया। परंतु कालांतर में इनका नाम रोमानी प्रसिद्ध हुआ। इसका कारण यह था कि अन्य सभी नाम निम्नता सूचक उपाधियाँ थे। केवल रोमानी शब्द इनकी अपनी भाषा से साम्य रखता है अतः मानवाधिकार संस्थाओं ने इन्हें ” रोमानी समुदाय ” की सर्वमान्य संज्ञा दी है।
४२० ई ० में केनरीक नामक एक लेखक ने इन्हें ” ज़ॉट ” नाम से पुकारा है। यह अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ है नाचने गाने वाले या बाज़ीगर आदि जो जनता का मनोरंजन करते हैं। मध्य एशिया में इनको ‘ डोम ‘ कहा जाता रहा है। आज भी भारत के पंजाब ,हरियाणा , व राजस्थान में डोम और डोमनियाँ , शादी ब्याह के अवसर पर गाने बजाने व हंसाने आ धमकते हैं। भारत में आज भी इन्हें मिरासी या अछूत माना जाता है। अंग्रेजी का ‘ जिप्सी ‘ या ’ टिंकर ‘शब्द भी इसी आशय को व्यक्त करता है और निम्नता सूचक है। रोमानी शब्द कदाचित प्राचीन संस्कृत में ‘ रोम ‘ से बना है जिसका अर्थ संभवतः पुरुष या पति रहा होगा। आजकल हम रमण और रमणी शब्दों से परिचित हैं। इटली में इन्हें ’ सिंती ‘ कहा जाता था /है जो सिंधी शब्द का अपरूप है।
पूर्वी यूरोप में ‘ बुरूशो ‘ नाम से बुलाये जाते हैं। यह पामीरी भाषा से प्रसूत शब्द है जो उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान और तज़ाकिस्तान में बोली जाती है। इसका भी अर्थ मनोरंजन करनेवाले है। प्राचीन काल में यह प्रान्त भारत के अंग थे और यहां के निवासी शिव और काली माता के भक्त थे। भाषा के ही आधार पर एक अन्य शोध में इनको काश्मीरी पंडित, सिंधी खत्री , राजस्थानी राजपूत व पंजाबियों के वंश से उपजा सिद्ध किया गया है। रोमानी भाषा भारत और मध्य एशिया में बोली जानेवाली डोमरी भाषा से बहुत मिलती है। इस आधार पर रोमानी लोगों को डोम माना गया है परंतु यह सच नहीं लगता। क्योंकि रोमानी समुदायों की आचार सहिंता के नियम व इतिहास में उद्धरित इनके क्रिया कलाप इन्हें सवर्णो की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं।
बहुत वर्षों तक रोमानी समाज के उद्गम का पता नहीं था। अमेरिका की स्वतंत्रता के बाद यूरोप में आर्थिक विप्लव आया। तब कार्य कुशल मानव संसाधनों की आवश्यकता बढ़ गयी। कदाचित रोमानी व्यक्तियों की मांग भी उद्योगपतियों को होने लगी अतः इन पर कई शोध हुए। १७८२ ई ० में जोहान क्रिस्चियन रॉड्रीगर ने इनकी भाषा का अध्ययन किया और पाया कि वह भारत की पंजाबी भाषा से मिलती है। रॉड्रीगर के बाद अनेक भाषाविद इस क्षेत्र में आये और उनहोंने इन समुदायों का मूलस्थान उत्तरी पश्चिमी भारत निर्धारित किया। भाषा के ही आधार पर एक विद्वान ने इन्हें श्री लंका से जोड़ा है। इनकी भाषा में गिनती ,शरीर के अंग व रोज़ मर्रा के क्रिया कलापों की संज्ञा हिंदी से मिलती है। अन्य अनेक शब्द संस्कृत से प्रसूत हैं। कहा जाता है की भाषाई साम्य की शुरुआत तब हुई जब किसी ने इनको ‘ पानी ‘ शब्द बोलते हुए सुना।
रोमानी भाषा के गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया है कि इनका पलायन ईसा के जन्म के ५०० वर्षों के आस पास — पहले और बाद में — हुआ होगा। कुछ रोचक प्रसंग अन्य देशों के इतिहास में वर्णित भी हैं।
पांचवीं शताब्दी में फारस के शाह बहराम ( ४२१ – ३९ ई ० ) ने अपने राज्य में संगीतज्ञों को भारत से बुलवाया। उसने १००० व्यापारियों को, प्रत्येक को एक गधा , एक बैल व एक बोरी गेहूं देकर कहा कि खेती करो और रहो। मगर वह सभी भूख के कारण यह अनाज और मवेशी मारकर खा गए। राजा ने गुस्से में उन्हें शहर से बाहर निकाल दिया। अतः वह डेरा डालकर वहीँ पड़ रहे। प्रश्रय छिन जाने पर यह लोग आगे बढ़ जाते थे। फारस और ईरान से यह ईजिप्ट की ओर चले गए। तो कुछ कारवाँ उत्तरी अफ्रीका में बस गए। ईजिप्ट से आगे इनका प्रसार कश्यप सागर के आसपास होता हुआ काला सागर और यूरोप तक जा पहुंचा। उधर उत्तरी अफ्रीका से निकलकर यह भूमध्यसागर के टापुओं में जा बसे जैसे इटली और सायप्रस टेनेरिफ आदि। जहां से स्पेन और फिर फ्रांस की राह ली। रूस के यूरोपीय इलाकों में जहां ठण्ड बेहद पड़ती है इनके कारवाँ ख़ुशी ख़ुशी जा बसे। पोलैंड ,बुल्गारिया ,रोमानिया ,सर्बिया ,बोलीविया, क्रोएशिया , बोस्निया और मध्य एशिया के उज़्बेकिस्तान ,अज़रबाइजान आदि में इनकी संख्या बहुत बढ़ी और आज भी यह वहां बड़ी संख्या में निवास करते हैं।
कई राज्यों में इनके गुणगान उपलब्ध हैं। रोमन सम्राट कांस्टेनटाइन ने जिप्सियों की सहायता से अपने खेतों में घुसकर मवेशियों को खा जानेवाले जंगली जानवरों को भगाया था। ८०३ ई ० में ग्रीस का थेऑफेनीज नामक लेखक कहता है कि राजा निकोफोरस ने ‘ अतसिन्गानी ‘ लोगों की सहायता से अपने राज्य में जनता के उपद्रव को शांत कराया था। कहा जाता है कि एक अतसिन्गानी ने अपने जादू के ज्ञान से राजा की सहायता की। जर्मनी की प्रसिद्द लोक कथा ” दी पाइड पाइपर ” इसी प्रसंग का कथा स्वरूप मानी गयी है। इसमें एक भ्रष्ट राज्य के चूहों को एक लंबा चोला पहनने वाले, अनजान नगर से आये बांसुरीवादक ने मंत्रमुग्ध करके नदी में डुबो दिया था। यही लेखक कहता है कि यह समुदाय
हस्तरेखा पढ़नेवाले , भविष्यवक्ता ,ज्योतिषी , जादूगर ,कठपुतलियाँ चलानेवाले , पेट बोली बोलनेवालों ( ventriloquist ) का जमावड़ा था।
कहा जाता है कि नौवीं शताब्दी में संत अथासेनिया ने अतसिन्गानी समुदाय को अकाल के समय भोजन प्राप्त कराया था। अन्य देशों के इतिहासकार भी इनका उल्लेख करते है व अपने देश में इनकी उपस्थिति दर्ज करते हैं। इस प्रकार इनका उल्लेख हमें रोमानिया में १००० ई० , क्रीट में सं १३२२ ई ० , कोरफू में सं १३६० ई ० , बाल्कन और बोहेमिया में १४०० ई ० में मिलता है। पंद्रहवीं शताब्दी तक यह लोग फ्रांस , जर्मनी , स्पेन , इटली , और पुर्तगाल तक फ़ैल गए थे। १६वीं शती में यह रूस पहुंचे। वहां से डेनमार्क। स्वीडन व स्कॉटलैंड में इनके होने के प्रमाण मिलते हैं। पर अभी हाल में इंग्लैंड के उत्तर पूर्व में नौरिच में हुई खुदाई में जो कंकाल मिले हैं उनसे पता चलता है कि यह लोग ११वीं शताब्दी में इंग्लैंड आ गए थे। कदाचित वाइकिंग इन्हें अपना दास बनाकर लाये होंगे।इंग्लैंड में वाइकिंग नावों में चढ़कर आये थे और नाविक युद्ध में उन्होंने यहां की जनजातियों को हराया था। नौका खेने के लिए दासों की आवश्यकता पड़ती थी। स्पेन में इनकी संख्या बहुत है। मध्यकाल में इस्लाम के यूरोप में आगमन के कारण यह लोग बड़ी संख्या में स्पेन और पुर्तगाल में बस गए। इन्हें गिटान या काले कहा जाता है। अलबत्ता फ्रांस में इनका नाम ‘ मानुष ‘ है जो संस्कृत का शब्द है।
१३७८ ई ० में ग्रीस , १४१६ में जर्मनी , १४१८ ई ० में रोमन साम्राज्य और १४२७ ई ० में फ्रांस ने इनके लिए विशेष अधिनियम बनाये। व कुछ विशेष सुविधाएँ भी दीं। सोलहवीं शताब्दी में नाविक अन्वेषण हुए। अमेरिका की खोज हुई। उसको बसाने के लिए ,गन्ना उगाने के लिए दासों की जरूरत पडी तब इनको स्पेन ,पुर्तगाल और डेनमार्क ने अमेरिका भेजा। यहां यह आज भी बसे हुए हैं। विशेषकर लैटिन अमेरिका और मेक्सिको में।
पूरे विश्व में इनकी कुल जनसंख्या ११ -१२ मिलियन अनुमानित है। इसमे से केवल अमेरिका में १ मिलियन रहते हैं। तुरकी में सबसे अधिक संख्या है – — २.७ मिलियन।
यह स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं और इनका डेरा ही इनका देश होता है ,परंतु फिर भी इन लोगों ने अपने आश्रयदाता देशों के लिए समय समय पर अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। प्रथम और द्वितीय दोनों युद्धों में भारी संख्या में यह लड़ते हुए मारे गए।
द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर ने ५ लाख जिप्सियों को पोलैंड और इटली में गैस चैम्बर में डालकर यहूदियों की तरह मार डाला।
१९९० ई ० तक आते आते रोमानी समाज में आधुनिक शिक्षा का असर दीख पड़ने लगा। डीएनए परिक्षण किये गए जिनसे यह निष्कर्ष निकला कि इनके जातिसूत्र दक्षिणी एशिया ,अर्थात भारत के थे। विशेषकर पैतृक जातिसूत्र ऐसे थे जो भारत से बाहर नहीं पाए जाते। मातृक वंश के जातिसूत्र केवल ३० % भारतीय मूल के थे। मातृक जातिसूत्रों की विविधता स्वाभाविक है क्योंकि यह कबीले घर छोड़ते समय बहुत कम स्त्रियों को संग ले जाते थे। अन्यत्र बस जाने पर या बस जाने के लिए यह वहीँ की स्त्रियों से विवाह कर लेते थे। इसी कारण निवासीय देशों के अनुसार इनका रंग रूप भी बदल गया। यूरोपीय ठंडी जलवायु के असर से यूं भी इनका रंग खुलता गेहुआँ हो गया है। आधुनिक काल में रोमानी समूहों में यूरोपीय गोरे रंग से लगाकर अफ्रीकन काले रंग के लोग मिलते हैं। यह विश्व के ३० से अधिक देशों में निवास करते है।
विभिन्न परिस्थितियों के कारण या ,जोर जबरदस्ती के चलते ,या स्वेच्छा से यह अपने प्रश्रय देनेवाले राष्ट्रों व संस्कृतियों का धर्म अपनाने पर मजबूर हो गए अतः इनमे सभी तरह के धर्मावलंबी मिलते हैं। विशेषतः मुसलमान। मध्यकाल में यूरोप में स्पेन आदि में इस्लाम का प्रसार हुआ और ओटोमन साम्राज्य की स्थापना हुई। उस काल में अनेक धर्म परिवर्तन हुए। इसी प्रकार ईसाई धर्म में भी कई बदलाव आये और इनको उसे अपनाना पड़ा। अपने सुदूर भूतकाल में यह शिव और काली के भक्त थे। ईसाई धर्म में उसका रूपांतर संत साराह और संत ऐनी या मातृ शक्ति की सर्वप्रिय देवी जीसस की माँ मेरी बन गईं। मातृ शक्ति की यह आज भी बहुत इज़्ज़त करते हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक अनुष्ठान भी नहीं बदले हैं। दीपक जलाना ,सुगंधि अर्पण करना , आदि हिन्दू क्रियाएं हैं। पूजा में फूलों का महत्त्व ,गायन का महत्त्व , भगवान् का गुणगान , प्रार्थना आदि अन्य धर्मो में हिन्दू पूजा विधि की देन हैं। जिन्हें इन्हीं खानाबदोंशों ने फैलाया है। रोमानिया से आया एक मिस्त्री ,इलिया बताता है कि उसके देश में ओल्ड क्रिस्चियन चर्च के मत में जीसस की मूर्ति एक वेदी पर स्थापित है और सभी भक्त तीन बार उसकी परिक्रमा करते हैं। फिर सामने आकर साष्टांग प्रणाम करते हैं जो कि हिन्दू क्रिया कलाप है। वह यद्यपि अपने को जिप्सी नहीं कहता परंतु हिन्दू धर्म के प्रभाव को समझता है। खान पान में भी उसके अनेक व्यंजन भारत से मिलते हैं। और उसकी भाषा के शब्द भी।
एक अन्य वैज्ञानिक ने अपनी शोध में पाया कि समस्त विश्व के रोमानी कबीलों के १/३ पुरुष एक ही वंश वृक्ष से उत्पन्न हुए हैं कदाचित ३० या चालीस पीढ़ी पहले। यद्यपि इनकी स्थिति एक दूसरे से भिन्न हो रही , विवाह आदि भिन्न जातियों में हुए , बोलियां भी अपने अपने देशों की पकड़ ली मगर ५०% से ६० % लोग अभी भी अपनी भाषा में संवाद करते हैं जो डोगरी भाषा से मिलती है जो पंजाब व जम्मू काश्मीर में बोली जाती है।
इन समूहों के निर्वासन के कारण ज्ञात नहीं थे। केवल अटकल के आधार पर प्राकृतिक विपदाओं को उत्तरदायी माना जाता है। परंतु अभी हाल में अफगानिस्तान के उत्तर में ” मेस आयनाक ” नामक स्थान की खुदाई हुई है जिसमे एक उन्नत हिन्दू / बौद्ध नगर के अवशेष निकले हैं। यह नगर एक सुप्त तांबे की खदान पर स्थित है। माना जाता है कि यहां तांबे और सोने का उत्खनन विशाल मात्रा में किया जाता था। परंतु तांबे की ढलाई में कच्चा कोयला बनाने के लिए हिमालय के जंगलों को बेदर्दी से काटा गया जिससे पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा। पर्वतों की ढलानों के नंगे हो जाने से भू स्खलन बहुत होते हैं और जंगलों में गर्मी बढ़ जाती है जिससे बड़वानल का प्रकोप होता है। नदियाँ सूख गईं। खेती नष्ट हो गयी। कदाचित यह नगर ५वीं और छठी शताब्दी में अकाल ग्रस्त हो गया। रोमानी लोगों का भी यही मूलस्थान माना गया है। या इसके आस पास। उनके पलायन का काल भी यही सिद्ध हुआ है। अतः हम तथ्यों को स्वयं जोड़ सकते हैं।
भारत से जुड़ा अफ़ग़ानिस्तान हिन्दू /बौद्ध क्षेत्र था जहां अशोक ने अनेक स्तूप बनवाये थे। ७वीं शताब्दी में यहां इस्लाम धर्म ने प्रवेश किया। आगंतुक शक्तियों के समक्ष बहुत से हिन्दू टिक न सके। यदि उनहोंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो उन्हें देश छोड़ना पड़ा। संभवतः इसलिए भी यह इस प्रान्त से पलायन कर गए। दूसरा बड़ा कारण महमूद गज़नी का आक्रमण था। सन १००२ ई ० में उसने भारत की उत्तरी पश्चिमी सीमा से घुसपैठ की और उसके बाद सत्रह बार आक्रमण किया। पंजाब व सिंध के हारे हुए हिन्दू राजाओं के सैनिक निष्कासित कर दिए गए। वही लोग शायद आज रोमानी समूहों में विचरण कर रहे हैं आजीविका की तलाश में।
आधुनिक काल में अमेरिका ,इंग्लैंड ,स्कॉटलैंड, जर्मनी एवं फ्रांस आदि सभी समृद्ध देशों ने इनके उद्धार पर ध्यान दिया है। इनको मुफ्त शिक्षा व अनिवार्य शिक्षा की विस्तृत योजनाओं से जोड़ा है। इसका कारण है कि विश्व की संस्कृति को इन्होंने अपूर्व, असीमित योगदान दिया है। जैसे जैसे यातायात ने विश्व को जोड़ा है वैसे वैसे कला कौशल के मूल स्रोतों का पता चला है जिसमे भारत प्रमुख है।
रोमानी समाज ने अपनी मूलभूत परंपराएं व संस्कार सुरक्षित रखे हैं। इनमे जो एक आत्मिक अस्तित्ववाद है उसे यह ” रोमानीपे ” कहते हैं। इसका तात्पर्य है —- तहे दिल से रोमानी सिद्धांतों को मानना। रोमानी जीवन शैली का पालन करना। यह एक पुरुष प्रधान संस्कृति है। यह लोग अपने पूर्वजों का आदर करते हैं। घर के बड़े व्यक्ति की आज्ञा का पालन करना सबका धर्म है। यदि कोई बड़ा व्यक्ति गुज़र जाता है तो यह अपने कबीले का सरदार चुन लेते हैं फिर उसको पद प्रतिष्ठा देते हैं।
अक्सर गली कूचों में कोई अधेड़ स्त्री लंबी फ्रॉक पहने और झालर वाली हैट लगाए फूल बेचती हुई मिलेगी। इसके फूलों को स्वीकार करके कुछ दक्षिणा देने से सौभाग्य की वृद्धि होती है ,ऐसी मान्यता है। घरों में स्त्रियों पर नियंत्रण रखने व उन्हें आवश्यक सलाह देने के लिए यह कबीले की किसी बड़ी बूढी का चयन कर लेते हैं। इसे ” फूरी दाई ” कहा जाता है। अधिकतर यह स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान रखती है और स्त्रियों और बालकों के आचार व्यवहार का ध्यान रखती है। इसका समाज में बहुत आदर होता है।
परिवार एक संग रहते हैं। एक ही परिवार में तीन पीढियां संग रहती हैं। छोटे लोग बूढ़ों की देख भाल करते हैं। बूढ़ियाँ बच्चो को कहानियां सुनाती हैं। शरीक परिवार पास पास रहते हैं और डेरा डालते हैं। इसलिए इनमे मेरा तेरा की भावना ,आपसी स्पर्धा ,जलनखोरी आदि बहुत कम दिखती है। मिल बाँट कर थोड़े में गुजारा कर लेते हैं। कोई बिना उद्यम के नहीं बैठता।
शुद्ध और अशुद्ध का विचार बहुत रखा जाता है। मृत्यु अशुद्ध है। मृतक के पूरे परिवार को छूत लगती है। यह एक हिन्दू प्रथा है जिसे पातक कहा जता है। जिप्सी लोग दाह और दफ़न दोनों में विशवास रखते हैं। प्राचीन काल में हिंदुओं में भी दोनों मान्य थे। अभी भी अनेक हिन्दू समुदायों में दफ़न की प्रथा कायम है। जानवर अशुद्ध हैं जैसे बिल्ली कुत्ता आदि और उनको घर के अंदर नहीं लाना चाहिए।इसलिए क्योंकि वह अपना पीछा चाटकर साफ़ करते हैं। बैल या घोड़ा ऐसा नहीं करते अतः उनका सम्मान है। शौच आदि की भी छूत मानी जाती है .अतः मानव शरीर के निचले अंगों को अशुद्ध मानते हैं। निचले वस्त्र भी अलग से धोते हैं। स्त्रियों के मासिक धर्म की छूत मानी जाती है। शारीरिक स्राव अस्पृश्य हैं। सौरी होने पर पूरे ४० दिनों की छूत लग जाती है। बच्चा घर पर नहीं जनवाया जाता। उसके लिए अलग कक्ष होता है। पश्चिमी शोधकर्ताओं ने इसी आधार पर यह अनुमान लगाया था कि यह लोग हिन्दू रहे होंगे।
विवाह से पूर्व स्त्रियों का कुमारी होना अनिवार्य है। इसलिए बहुत छोटी उम्र में शादियां तय कर दी जाती हैं। शादियां अपने समाज में ही तय होती हैं। जो रोमानी समाज के नहीं होते उनको यह पसंद नहीं करते। अक्सर पुरुष समाज से बाहर शादी कर लेते हैं पर उनकी स्त्रियों को रोमानी तरीके निभाने पड़ते है। बाल विवाह का प्रचलन भी पाया जता था परंतु आधुनिक समाज में शिक्षा के प्रभाव से यह समाप्तप्राय है। अब यह लोग क़ानून के विरुद्ध नहीं जा सकते। कई समूह दुल्हन का दाम भरते हैं। जबकि अनेक दहेज़ लेते थे। जिप्सी वेडिंग यानि शादी बेहद धूमधाम से मनाई जाती है। हिन्दू रिवाज़ भी यही रहा है। कहा भी जाता है ” ब्याह में बनिया बावला ” मगर अब दहेज़ आदि ख़त्म हो रहा है। बेटे बहु को सास ससुर की सेवा करना अनिवार्य है।
इनकी कहानियों का खजाना अकूत है। दरअसल कहानी सुनाने की प्रथा को भारत की देन माना गया है। इन्हीं रोमानी लोगों ने पंचतंत्र और जातक की कथाओं को यूरोप में फैलाया। ईसप की कथाएं नामक पुस्तक में भी यह सम्मिलित की गईं। अरब की प्रसिद्ध पुस्तक ‘ द अरेबियन नाइट्स ‘ में १००१ कहानियां हैं जिनमे से अनेक भारत में जन्मी। सबसे प्रसिद्ध हैं अलादीन का चिराग और अलीबाबा चालीस चोर। किस्सा तोता मैना व अनेकों पौराणिक कहानियां किसी न किसी वेश में हमें यूरोप के शिक्षालयों में मिल जाती हैं। कहानी सुनाने व नाटिकाएं दिखाने का कार्य सदियों से यह जिप्सी करते आये हैं।
आधुनिक युग में जर्मनी की एक प्रसिद्द कहानी ” दी पाइड पाईपर ” ऐसे ही जिप्सी की कहानी है जो अपने जादू के बल पर शहर से चूहों को भगा देता है। उसने केवल बांसुरी बजाई और सभी चूहे उसके साथ समुद्र में कूद गए।
अब चूंकि अन्य तरह के मनोरंजन उपलब्ध हैं ,इनका चलन कम हो गया है मगर भाषा विज्ञान के अनुसार बालकों में भाषा व् कल्पना के विस्तार के लिए कहानियां सुनाना अति आवश्यक है। अतः ऎसी संस्थाएं बनाई गयी हैं जो स्कूलों में जाकर सभा में कहानियां सुनाती है। ऐसी एक संस्था का नाम है ” दी बनयान ट्री ” . यह नाम भारत के बरगद के नाम पर रखा गया है। क्योंकि गाँवों में बूढ़े बरगद के नीचे चौपाल में मजमा लगाकर तमाशाई अपने करतब दिखाते थे।
तरह तरह के करतब दिखाना रोमानी लोगों का पेशा था। इंद्रजाल विद्या , बाज़ीगरी , हाथ की सफाई , रस्सी चढ़ाना , रस्सी पर चलना ,नट का तमाशा , गली कूचों में सांप का खेल आदि दिखाना इन लोगो की मध्य एशिया और यूरोप को देन है। एक अंग्रेज स्त्री जब भारत में संस्कृत पढ़ने आई तब उसको मेनेजर का अर्थ बताया गया सूत्रधार। यह भी बताया कि सूत्रधार यानि जो डोरी खींचता है। वह उछल पडी। कारण यह कि उसे कठपुतलियों का शौक था। उसने वहीँ कहा कि कठपुतली विद्या भारत में जन्मी। आजकल यदि आप किसी भी मेले या तमाशे में जाएँ यूरोप में तो एक तमाशा सब देखते हैं। वह है ” पञ्च एंड जूडी शो ” . इसमे दो कठपुतलियां ,पति और पत्नी ,झगड़ते दीखते हैं। यह पति पत्नी के शाश्वत नोक झोंक पर रचित सामयिक प्रसंग होते हैं जिनको हर कोई चाव से देखता है और हँसता है। बच्चे हों या बूढ़े सब इस रंग बिरंगे स्टाल के सामने भीड़ लगा लेते हैं। यह विशेष मनोरंजन जिप्सी परम्परा का नमूना है और यूरोप की हर भाषा में खेला जाता है। यह प्रथा और मध्यकाल के यूरोप में ” मोरालिटी प्ले ” की प्रथा जिसमे धार्मिक प्रसंगों के माध्यम से जनता को शुद्ध आचरण की शिक्षा दी जाती थी ,भारत की देन हैं जिसे जिप्सी बाहर लेकर गए। कौन कहता है कि शेक्सपियर ” ” ” नाटक का जनक ” था ? सोंचिये नाटक का पितामह कौन था। क्या ताज्जुब कि मिहिर भोज के नाटकों की पांडुलिपि मकराना के रेगिस्तान में दबी हुई मिली बीसवीं सदी में।
सूत्र संस्कृत का शब्द है। इसी आधार पर यह तय हुआ कि ” सूत्र फेनी ”भारत में बनी। यानि फेन से बना हुआ सूत्र जिसे अंग्रेजी में स्पघेटी कहा जाता है। अब तो इसके अनेक प्रकार हैं। यह लोग जहां भी गए वहां के व्यंजन बनाना सीख गए। इन्हीं वनजारों की अवाही जवाही के कारण हमारे देश में पाक कला की वृद्धि हुई। व हमारी पाक कला बाहरी मुल्कों में गयी।
इसके अलावा कढ़ाई ,सिलाई व कताई की कला भारत से गयी। एम्ब्रोइडरी यानि कढ़ाई के इतिहास में लिखा है कि क्रॉस स्टिच भारत की ईज़ाद थी एवं ट्री ऑफ़ लाइफ का नमूना जिसमे फूल फल पंछी आदि दर्शाये जाते हैं भारतीय सभ्यता से लिया गया। इसी तरह कपड़ा बनाने का हाथ करघा ,कपास उगाना ,सूत कातना आदि भारतीय कलाएं थीं जो विश्व में फैल गईं। इनको दरजी का काम आता था। मगर पारिश्रमिक अधिक नहीं मिलता था जिस कारण यह कतरनों का सदुपयोग कर लेते थे। फटे हुए पर पैबंद लगाकर काम चला लेते थे। आज भी बनजारिने रंगारंगी वस्त्र कतरनों से बनाती हैं। पैचवर्क का यही उद्गम है। हमारा सर्कस का विदूषक हमेशा पैबंद वाला पैजामा पहने दीख पडेगा। हम इसे पश्चिमी जोकर के नाम से जानते हैं।
आज के अमूल्य फैशन में पैचवर्क की रजाइयां ,स्कर्टें ,पत्ती का काम आदि अनेक उदाहरण मिलेंगे जिनका मूल जिप्सी समाज है।
यह हुनरमंद श्रमिक थे। जूते बनाना , कपडे बुनना , दरजी , ठठेरे , गहने गढ़नेवाले , हीरे की कटाई करनेवाले ,जवाहिरात के पारखी , जड़िये , राज मजदूर। लकड़ी के कलाकार आदि सब तरह के हुनर इनको आते थे। यह मोती और नगों का व्यापार करते थे। इसी कारण भारत की सम्पदा की प्रसिद्धि अनेक लुटेरों को खींचकर लाई।
यह दवाएं बेचते थे। अनेक उदहारण मिलते हैं इनकी वैद्यिकी के। भारतीय गणित और ज्यामिति को बाहर ले जानेवाले यही लोग थे। इसके अलावा विश्व में शक्कर के इतिहास में इनका अतुलनीय योगदान है। आधुनिक काल में अंग्रेजों ने भारतीय मजदूर व किसान बाहर के देशों में ले जाकर गन्ने की खेती करवाई। निश्चय ही प्राचीन काल में अरब और मेसोपोटामिया में इन्हीं भारतीय वनजारों ने गन्ने की खेती की। शक्कर के इतिहास में स्पष्ट लिखा है कि मध्य एशिया में गन्ने की खेती छठी शताब्दी के बाद शुरू हुई। जो भारत से आई। शक्कर के विविध प्रयोग उस समय की दुनिया को दिए जो कालांतर में यूरोप तक फैले। तब उपनिवेशवाद का सिलसिला नहीं शुरू हुआ था।मगर दासता इतिहास में इन गैप्सियों का नाम प्रमुख है। यद्यपि उस काल के दासों के साथ इतना क्रूर व्यवहार नहीं होता था जितना पंद्रहवीं शताब्दी के बाद नाविक काल में किया गया। इसका कारण विभिन्न देशों की आपसी स्पर्धा थी। यदि इनका सम्पूर्ण इतिहास लिपिबद्ध करने की कोशिश रही होती तो आज हम भूले भटके साक्ष्यों के सहारे अटकलें न लगा रहे होते।
यही लोग हमारे देश में अनेक तरह की फल और सब्जियां लेकर आये व हमारी बाहर ले गए। यह जड़ी बूटियों के विक्रेता थे व ज्योतिष ज्ञान के कारण इनकी बहुत मांग थी। तुलसी का पौधा इन लोगों ने पश्चिमी देशों में लगाया। इटली के गरम समुद्री किनारों में इसने अच्छी तरह जड़ पकड़ ली परन्तु मिटटी और जलवायु के अंतर से इसका स्वरूप भिन्न हो गया। आज हम इस बूटी को बेसिल के नाम से जानते हैं। और युरोपियन व्यंजन इसके बिना अधूरे हैं।
यूरोप के अनेक देशों में इनकी नृत्य शैली प्रचलित हुई। ग्रीक नृत्य गरबे से मिलता है , तुर्की नृत्य भंगड़े से मिलता है। स्पेन का फ्लेमेंको डांस कत्थक का रूपांतर है। ऐसे ही टैप डांसिंग भी कत्थक व भारत नाट्यम से प्रभावित है। संगीत में देश काल के बदलाव अवश्य आते गए हैं परंतु जिप्सी म्यूजिक बेहद मशहूर है। रूस का ” सोलडोवस्की जिप्सी क्वायर ” अपनी सानी नहीं रखता। प्रसिद्द गायक क्वीन एक जिप्सी था।
भारत के राजा अपने दरबार में विदूषक रखते थे। यह प्रथा विदेशों में भी गयी। हँसाना सबसे कठिन कला मानी गयी है। आज तक जोकर ज़िंदा है। हम इसे यूरोप की प्रथा मानते हैं मगर यह भारत में जन्मा था। रंग बिरंगे ऊट पटाँग कपडे पहने यह वही नट है जिसके पैजामे के पैबंद उसके इतिहास की गवाही देते हैं। नट विद्या का आधुनिक रूपांतर सर्कस है और यह सर्कस की जान है। आज यूरोप में और मेक्सिको में कार्निवाल निकलते हैं। अनेक तरह की झांकियां निकाली जाती हैं। क्यों यह जिप्सी प्रधान देशों में अधिक जनप्रिय हैं ? त्रिनिदाद , बरबडोज़ , ब्राज़ील, स्पेन आदि। और अब नए राष्ट्रों ने इसे अपना लिया है जैसे ऑस्ट्रेलिया। मेलबोर्न की परेड देखी। जब जिप्सी डेरा कूच करते थे ,साजो सामान बैलगाड़ियों पर रखकर विभिन्न क्षेत्रों से गुजरते थे तो अपने रास्ते के अवरोधकों की मित्रता जीतने के लिए जनता का मनोरंजन करते चलते थे ताकि कोई उनको तंग न करे। वह अपनी गाड़ियों को खूब सजा सँवार कर उनपर गाते बजाते ,जनता को हंसाते हुए निकलते थे। फूलों के गुच्छे हवा में उछालते थे। बरात वाला दृश्य। पैसे क्यों उछाले जाते हैं ? यही है कर्निवल का उद्गम। सर्कस की परेड या बैंड - बाजा- बरात।
बच्चे आदि पीछे लग जाते थे। तभी से भेड़ चाल को अंग्रेजी में कहते हैं ” ज्वाइन दी बैंड वैगन ” . कदाचित इनका मूल भारत की रथयात्रा है और रामलीला की झांकी।
आज के युग में अनेक सरकारें रोमानी संस्कृति को बचाने में सक्रीय हैं। वह इनको आधुनिक शिक्षा से जोड़ रहे हैं। भेद भाव से बचे रहने के लिया यह लोग अन्य लोगों में शादी ब्याह रचा कर अन्य नागरिकों की तरह रहने लगे हैं। लगभग सभी देशों के साहित्य में इनका उल्लेख होता आया है खासकर शेक्सपियर के नाटकों में। इस समाज ने अपने अपने मेज़बान देशों को अनेक कलाकार संगीतज्ञ और साहित्यिक दिए।
द्वितीय विश्व युद्ध में हुए हिटलर के अनाचार के कारण अनेको जिप्सी परिवार अपने को उजागर नहीं करते हैं। अब पढ़ लिखकर मुख्य धारा में घुल मिल गए है। खासकर अमेरिका में। यह अन्य सबकी तरह अपने नाम के आगे सरनेम लगाते हैं। इनके सरनेम इनके श्रम के अनुसार कुक ,टेलर ,कारपेंटर ,स्मिथ आदि होते हैं।
सं २०१६ ई ० में हुई विश्व जिप्सी कांग्रेस में भारत से यह निवेदन किया गया है की वह इनको भारतीय डायस्पोरा में सम्मिलित करे।