भाषा और समाज

भाषा भाष धातु से बनी है जिसका अर्थ “बोलना” होता है| कोई व्यक्ति क्यों बोलता है? अपनी अनिवार्य आवशयकता की पूर्ति के लिए वह बोलता है| व्यक्ति स्वलाप नहीं करता है|स्वलाप करने से उसकी आवशयकता की पूर्ति नहीं होगी और वह पागल भी समझा जाएगा| अतः वक्ता के सामने कोई श्रोता का होना आवश्यक है| इस प्रकार वक्ता और श्रोता का अनिवार्य सम्बन्ध स्थापित होता है| इसी वक्ता और श्रोता के सम्बन्ध से परिवार और समाज का निर्माण होता है|

 

वक्ता और श्रोता में अनुकूल योग्यता और क्षमता का होना आवश्यक है| वक्ता कभी अनाव्यशक   नहीं बोलता है| जब उसे बोलने की उत्प्रेरणा होती है, तब वह बोलता है| व्यक्ति का  उसकी उत्प्रेरणा की प्रतिक्रिया है| अर्थात व्यक्ति की उत्प्रेरणा —à प्रतिक्रिया ही बोलना है, भाषायिक अभिव्यक्ति है| इसे सुनकर श्रोता भी उत्प्रेरित हो जाता है और अनुकूल प्रतिक्रिया करता है| वक्ता की अभिव्यक्ति को सुनने के बाद भी श्रोता द्वारा कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उसका अर्थ यह है की वक्ता ने श्रोता की योग्यता और क्षमता के जाने बिना अपनी बात उसके सामने रख दी| जैसे एक प्यासा व्यक्ति किसी श्रोता से पीने के लिए एक गिलास पानी माँगे तो श्रोता उसे सुनकर उत्प्रेरित हो जाता है और प्रतिक्रिया स्वरुप एक गिलास पानी उस व्यक्ति को दे देता है| यदि श्रोता सुनकर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है, चुपचाप बैठा रह जाता है तो माना जाएगा की उस श्रोता में श्रोता होने की अनुकूल योग्यता और क्षमता नहीं थी| अतः इसमें श्रोता से कोई भूल नहीं हुई| इस भाषा व्यवहार में वक्ता द्वारा भूल हुई कि वह अनुकूल योग्यता और क्षमता वाले श्रोता का चयन नहीं कर सका| सामाजिक भाषा-व्यवहार में वक्ता को अपने वार्तालाप, संभाषण, भाषणों आदि में इसका ध्यान रखना पड़ता है कि उसका श्रोता किस योग्यता और क्षमता वाला है| इस तथ्य को इस आरेख द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है

वक्ता ( उत्प्रेरणा à प्रतिक्रिया ) à श्रोता ( उत्प्रेरणा à प्रतिक्रिया ) = भाषा  व्यवहार

अतः स्पष्ट है कि समाज में इस भाषा  व्यवहार के लिए वक्ता और श्रोता के मध्य अनुकूल योग्यता और क्षमता का होना अनिवार्य हैं| वक्ता कुछ बोले और श्रोता उसे कुछ  और ही समझ ले तो बहुत गड़बड़ी और हानि होने की सम्भावना है|

 

वक्ता हमेशा श्रोता की योग्यता, क्षमता, रूचि, उम्र, सामाजिकता, संस्कृति आदि को ध्यान में रखते हुए बोलता है| वक्ता सब से पीने का पानी नहीं मांग सकता और न वह सबसे अपनी प्यार की बातें करेगा| इस तथ्य को ध्यान में न रखते हुए यदि श्रोता अपनी बात समाज  के समक्ष रखता है  तो समाज उसे केवल तिरस्कृत  ही नहीं करता, कभी कभी उसे दंड भी देता है|

भाषा एक सामाजिक व्यवस्था है| समाज ही भाषा के व्यवहार, भाषा के रूप. तथा उसकी उचारानिक  , व्याकरणिक तथा अर्थगत एवं लिपिगत संरचनाओं  का नियम – निर्धारण करता है| भाषा सम्बन्धी इन नियमो का पालन करना उस समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य होता है| समाज जितना बड़ा होता है, उसकी भाषिक क्षमता भी प्रायः उतनी ही व्यापक हुआ करती है| हिंदी समाज आज विश्व के विभिन्न मुल्को में अपना विस्तार ले रहा है| विभिन्न मुल्को की भाषाओ के मेल जोल से हिंदी और भी समृद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं है|

भारतीय समाज हमेशा से ‘विश्व – बंधुत्व’ की भावना से प्रेरित रहा है| प्राचीन काल से ही भारतीय वांग्मय में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की ध्वनी गूंजती रही है| आज हिंदी अन्तराष्ट्रीय समाज में अपना विस्तार ले रही है| हिंदी में विश्व की सामाजिक संस्कृति को अभिव्यक्त करने की क्षमता है| आइए, हम सब मिलकर गंगा, यमुना के स्वरों की भांति थेम्स, वोल्गा और हुवांगो के कल-कल नाद को हिंदी के स्वन - स्वनिमो  से गुंजायमान कर दें|

 

-डॉ राम कृपाल कुमार

शिक्षा- एम. ए. – दर्शनशास्त्र एवं हिंदी, पीएच.डी- भाषा विज्ञान

पूर्व प्राचार्य – मिजोरम हिंदी शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, आइजोल,(भारत)

पूर्व रीडर – केंद्रीय हिंदी संस्थान,आगर। (मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार)

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