एक लड़का था, उसका नाम शेखर था। उसके पिता नहीं थे। बस केवल माँ थी। उसके कोई भाई-बहन भी नहीं थे। वह अपनी माँ के साथ एक टूटे-फूटे पुराने घर में रहता था। वह बेहद गरीब था। उसकी माँ छोटा-मोटा काम करके किसी तरह गु़ज़ारा करती थी। वह लड़का जिस स्कूल में पढ़ता था वहां के सभी बच्चे खाते-पीते अच्छे घरों के थे।
शेखर के कपड़े, कॉपी-किताबें सभी पुराने यानी सेकंडहैंड होते थे। इसलिए उसकी क्लास के बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते थे। यही नहीं बच्चे तो शेखर को उसकी माँ के कारण भी चिढ़ाते थे क्योंकि उसकी माँ की एक आँख नहीं थी। सब उसे ‘कानी का बच्चा-कानी का बच्चा’ कहकर चिढ़ाते थे। इस बात पर शेखर बहुत चिढ़ता।
वह घर आकर अपना बस्ता फेंककर माँ से लिपट कर रोता। कहता कि अब वह कभी स्कूल नहीं जाएगा। अपनी माँ से शिकायत करता कि वह कानी क्यों है? उसकी एक आँख क्यों नहीं है? शेखर की माँ बस मुस्करा कर रह जाती। मगर शेखर अपनी माँ की आँख में छिपे आंसुओं को नहीं देख पाता। उसे माँ की हंसी और भी चिढ़ाती। वह झुंझलाकर रह जाता।
शेखर दिनों-दिन अजीब होता जा रहा था। वह सबसे गुस्सा रहता। अपने पिता पर कि, वह क्यों उसे छोड़कर चले गए नहीं तो उसे आज यह दिन नहीं देखने पड़ते। भगवान पर भी कि, वह क्यों गरीब है।….और सबसे ज्यादा अपनी माँ पर कि वह क्यों कानी है? उसकी एक आँख क्यों नहीं है?
शेखर को नाराज देखकर माँ कहती- ‘बेटा मन लगाकर खूब पढ़ाई करो। पढ़-लिखकर जब तुम बड़े आदमी बन जाओगे, खूब पैसा कमाओगे तो फिर कोई तुम्हें नहीं चिढ़ाएगा।’
शेखर के मन में माँ की बात घर कर गई। उसने भी सोचा कि जब वह बड़ा हो जाएगा, खूब कमाने लगेगा तो अपनी इस कानी माँ को छोड़कर चला जाएगा। फिर उसे कोई ‘कानी का बच्चा’ कहकर कोई नहीं चिढ़ाएगा।
शेखर पढ़ाई में खूब मेहनत करने लगा। दसवीं कक्षा में वह अपने कस्बे में प्रथम आया। इसलिए उसको स्कॉलरशिप मिल गई। वह अपने कस्बे से दूर हॉस्टल में पढ़ने लगा। बारहवीं में भी वह प्रथम आया। इस बार भी इसे स्कॉलरशिप मिली और वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बड़े शहर में चला गया। शेखर पढ़ते-पढ़ते एक बिल्डर के यहां पार्ट टाईम नौकरी करने लगा। अब उसने शहर में एक मकान किराए पर ले लिया और इस तरह वह अपनी माँ से दिनों-दिन दूर होता चला गया।
आज दस साल बाद शेखर एक बड़ा सिविल इंजीनियर बन गया है। शहर में उसने कई बिल्डिंगें, सड़क और पुल बनाए।
एक दिन उसे शहर से दूर एक छोटे कस्बे में हाइवे और फ्लाई ओवर ब्रिज बनाने जाना पड़ा। शेखर जब वहां पहुंचा तो उसने देखा कि यह तो उसका अपना ही कस्बा है। इन दस सालों में उसके कस्बे का नाम ही बदल गया था।
शेखर सड़क और फ्लाई ओवर बनाने के काम में डूब चुका था। एक महीना बीत चुका था। सड़क आगे-आगे बनती जा रही थी। एक दिन शेखर को वह जगह जानी-पहचानी लगी। सड़क से कुछ दूरी पर खंडहर जैसा एक मकान था। शेखर वहां पहुंचा। उसे याद आया यह तो उसका ही घर था। अब उसे अपनी माँ का ख्याल आया। वह घर में दाखिल हुआ। मगर घर खाली था। माँ घर में नहीं थी। उसने सभी कमरे छान मारे। पूजा-घर में उसे एक बक्सा दिखाई दिया। उसने बक्से को खोला तो उसमें शेखर के फोटो और कुछ पेपर थे। शेखर उनको देखता रहा। तभी शेखर के हाथ में एक पेपर आया। वह उसका बर्थ सर्टिफिकेट था। शेखर पढ़ने लगा। बर्थ सर्टिफिकेट में लिखा था कि इस बच्चे की जन्म से एक आंख नहीं है। फिर शेखर को एक अस्पताल की फाइल मिली जिससे पता चला कि शेखर जब छह साल का था तो माँ ने अपनी एक आंख शेखर को डोनेट कर दी थी।
…तो शेखर को आज पता चला कि उसकी माँ की एक आंख कहां गई? उसकी माँ कानी क्यों थी ?
अगर माँ ने अपनी एक आंख शेखर को न दी होती तो आज सभी शेखर को ‘काना’ कह कर चिढ़ाते। माँ के कानी होने के कारण शेखर ने अपनी माँ को छोड़ दिया। आज शेखर इस शर्म से डूबा जा रहा था। शेखर ने इतनी सड़कें, पुल बनाए। पर कोई ऐसी सड़क नहीं बनाई जो उसकी माँ के दिल तक पहुंचे। कोई ऐसा पुल नहीं बनाया जो माँ के प्यार को पा सके। कोई ऐसी बिल्डिंग नहीं बनाई जो उसकी माँ के त्याग से बड़ी हो।
शेखर ग्लानि और दुख से फूट-फूट कर रोने लगा। काश! उसकी माँ ने उसे काना बना रहने दिया होता तो वह अपनी माँ को छोड़कर कभी नहीं जाता।
- सुमन सारस्वत
पत्रकार- साहित्यकार
प्रकाशित कृति : ’ मादा ‘ कहानी संग्रह
1. लोक भारती
2. लोकवाणी ( – सह लेखिका, दोनों महाराष्ट्र शैक्षणिक बोर्ड की कक्षा 10 वीं की हिंदी की गाईड )
संप्रति : कंटेंट राइटर ( टारगेट पुब्लिकेशन्स, मुम्बई )
सह संपादक : अम्स्टेल गंगा , नीदरलैंड
वाग्धारा , भारत
पुरस्कार : • महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार
• शिलांग हिंदी अकादमी पुरस्कार
• सृजनश्री अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, ताशकंद- उज़्बेकिस्तान
• विश्वमैत्री मंच अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, भूटान
• नारी शक्ति महाराष्ट्र पुरस्कार
• स्त्री शक्ति सेंट्रल मुम्बई पुरस्कार
• मदन कला अकादमी पुरस्कार